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खुद की कांति से चारों तरफ आकाश में बिजली के चमकारे के समान अदृश्य हो गये। हृदय एवं नेत्र रूपी कमलों को विकसित करने वाले, उत्तम सूर्य समान इन्द्र के दृष्टि मार्ग से दूर जाने पर सुमंगला क्षण भर शोक से श्याम मुखवाली हो गई और घुटने के पास इकट्ठी होकर बैठी हुई सखियों को गद्गद् वाणी से सुमंगला कहने लगी-'हे सखियों! हम लोगों की रस-तृप्ति तो अभी तक हुई नहीं, वहीं इन्द्र बोलते हुए क्यों रुक गये? हे सखियों! इस प्रकार की कथाओं के विस्तार में क्या इन्द्र को भी दरिद्रता आ गई? अथवा वह कथाओं के विस्तार को मेरे में स्थापित करने में क्या मैं ही योग्य नहीं हूँ? क्योंकि वाणीरस में अपूर्ण इच्छा वाली ऐसी मुझे त्याग कर वह आकाश में चले गये। कवि कहता है कि इन्द्र का भोजन अमृत से है। उनका वचन अमृत वृष्टि के समान आचरण करता है, परन्तु वह वचनामृत पीने वाले की तृष्णा कम होती नहीं है, वह आश्चर्य है।'
सज्जनों की वाणी स्वादिष्ट भोजन की तरह जैसे खाई नहीं जाती, जैसे दूध अंजलि से पिया नहीं जाता, फिर भी वह वाणी जगत को भोजन एवं क्षीरपान से भी अधिक तृप्ति देती है। सज्जनों के वचन जितने हर्षदायक हैं उतना चंदन या चंद्र की किरणे अथवा दक्षिण की वायु अथवा उद्यान, या मिश्री का पानी या अमृत भी हर्षदायक नहीं है। विद्वानों की वाणी, गाय का दूध एवं गन्ने का रस इन दोनों को तिरस्कृत करती है, अर्थात् कम करती है। गाय के आंचल एवं गन्ना इन दोनों को अंगूठे से दबाने से रस प्राप्त होता है, जबकि विद्वानों के स्वभाव से ही अमृत बहता है। हे सखी! जब इन्द्र बात करते थे तब दिन कैसे बीतता था उसका भी पता नहीं चलता था। अब सखियाँ उस सुमंगला को विनती करने लगी कि 'हे मुग्धमन वाली सखी! जो बात चली गई उसकी चिंता करना अच्छा नहीं। देखो, आकाश के मध्य में सूर्य आ गया है इसलिये स्नान एवं भोजन के लिये प्रस्थान करें।'
यह सूर्य धीरे-धीरे मध्याह्न में आ गया है और अभी ऊँचा आने के लिये प्रयत्न कर रहा है। अपनी किरणों को ज्यादा उष्ण कर खुद की गति से आगे बढ़ रहा है। जैसे किरणों से सूर्य उच्च गति को प्राप्त करता है वैसे ही शूरवीर एवं विद्वान भी निज के हाथ में शक्ति हो तब ही ऊपर आ सकते हैं।
सूर्य मस्तक को तपाने वाले किरण रूपी दंड से, जब मनुष्य रहित निर्जन सरोवरों में कमलिनियों के उत्संग में किरणों को फेंकता है, सूर्य के किरणों से कमल लक्ष्मी का घर होता है, तब वही सूर्य की किरणों से सूर्यकांतमणि धूमकेतु के समान आचरण करती है। स्वामी की समान कृपा होने पर भी भाग्यवश ही फल की प्राप्ति होती है । श्रम से थके हुए पथिक सूर्य को कहते हैं-रात्रि के समय जो राजा शब्द को धारण करता है वह चंद्रमा भी दूर देश चला गया है; तो फिर किस पर तीव्र प्रचंड ताप वाली किरणों को धारण करते हो?
पानी की आशा से दौड़ते एवं मृगजल से छले हुए पथिकगण पानी नहीं मिलने से झरते आँसुओं से बंजर जमीन पर भी सचमुच पानी को प्रकट करते हैं। पुनः हे कमल के समान लोचन वाली सुमंगला! बंद आँखों वाले एवं छोड़ दिया है संसार में घूमना जिसने ऐसे मौनधारी के समान ये पक्षी मानों योगाभ्यासी हों वैसे सघन वृक्षों की पर्णशाला का आश्रय ले रहे हैं।
उगते हुए सूर्य ने अपना 'लोक कर्म साक्षी' ऐसा नाम सत्य किया था और इस वक्त तो अपने तेज से सभी प्राणियों को दुःख देकर खुद का 'कृतांत तात' ऐसा नाम सत्य किया है। ऐसा कहती हुई वे सखियाँ सुमंगला को स्नानगृह में ले गई। अब स्नान हेतु बाजोठ पर बैठी सुमंगला को ये सखियाँ जल से शोभित सुवर्ण-कलशों से तुरन्त ही स्नान कराने लगी। [ जैन कुमारसम्भव : एक परिचय ]
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