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________________ अस्त्युत्तरस्यां दिशि कोशलेति, पुरी परीता परमर्द्धिलोकैः। निवेशयामास पुरः प्रियायाः, स्वस्यावयस्यामिव यां धनेशः॥ १-१॥ (उत्तर दिशा में कोशला नाम की नगरी है जो अत्यंत ऋद्धि वाले लोगों से भरी हुई है, इस नगरी की कुबेर ने अपनी स्त्री की सखी के समान स्थापना की है।) इस प्रकार इन दोनों महाकाव्यों के प्रारम्भ के प्रथम श्लोक में कुछ मिलता-जुलता रूप है और काव्य विषय की दृष्टि से भी मिलता-जुलता है। इन दोनों महाकाव्यों की सविस्तार तुलना करने पर पता चलता है कि कवि जयशेखरसूरि ने कालिदास का अनुकरण नहीं किया है। उनके पास उनकी अपनी मौलिक कवित्वशक्ति है और इसी दृष्टि से वे सर्जन करते जाते हैं। फिर भी कुछ स्थूल समानता ही करनी हो तो निम्न दृष्टि से कर सकते हैं। कालिदास ने 'कुमारसंभव' का सर्जन सतरह सर्ग* में किया है। जबकि श्री जयशेखरसूरि ने 'जैनकुमारसंभव' की रचना ग्यारह सर्ग में की है। कालिदास ने 'कुमारसंभव' में मुख्य रूप से उपजाति छंद का प्रयोग किया है। इसी प्रकार जयशेखरसूरि ने भी उपजाति छंद का उपयोग किया है । कालिदास ने कुल 1096 श्लोकों (सतरह सर्ग के हिसाब से) में से 434 श्लोक उपजाति छंद में लिखे हैं। श्री जयशेखरसूरि ने जैनकुमारसंभव' की रचना कुल 849 श्लोक में की है, उसमें से 353 श्लोक उपजाति छंद में लिखे हैं । कालिदास ने उपजाति के अतिरिक्त अनुष्टप्, वंशस्थ, वसंततिलका, रथोद्धता, वियोगिनी, इन्द्रवंशा छंद में भी सर्गों की रचना की है, जबकि श्री जयशेखरसूरि ने उपजाति के अतिरिक्त अनुष्टप्, वंशस्थ एवं स्वागता छंद में सर्गों की रचना की है। कालिदास कृत 'कुमारसंभव' एवं श्री जयशेखरसूरिकृत 'जैनकुमारसंभव' के मध्य विषय निरूपण में भी कुछ समानता है। जैसे कि 'कुमारसंभव' में शंकर-पार्वती के विवाह एवं कार्तिकेय के जन्म का प्रसंग है, जबकि 'जैनकुमारसंभव' में ऋषभदेव-सुमंगला के विवाह एवं भरत के जन्म का प्रसंग है। 'कुमारंसभव' में हिमालय के कैलास पर्वत का वर्णन है; तो 'जैनकुमारसंभव' में अष्टापद पर्वत का वर्णन है। 'कुमारसंभव' में पार्वती के सौंदर्य का वर्णन है, तो 'जैनकुमारसंभव' में सुमंगला के सौंदर्य का वर्णन है। 'कुमारसंभव' में औषधिप्रस्थ नाम की नगरी का वर्णन है; तो कुमारसंभव में कोशलानगरी का वर्णन है । 'कुमारसंभव' में शंकर को देखने हेतु नगर-नारियों के कुतूहल का वर्णन है, तो 'जैनकुमारसंभव' में ऋषभदेव को देखने हेतु निकली नगर-नारियों का वर्णन है। इस प्रकार बाह्य दृष्टि से इन दोनों महाकाव्यों के बीच किंचित साम्य अवश्य है. लेकिन विस्तार से देखने पर जान पड़ता है कि श्री जयशेखरसूरि ने कल्पना-वैभव, अलंकार आदि में कालिदास का सर्वत्र अनुकरण किया हो वैसे नहीं दिखाई देता है। श्री जयशेखरसूरि ने स्वयं की मौलिक स्वतंत्र सर्जन प्रतिभा से इस महाकाव्य का सर्जन किया है। इसमें उन्होंने उधार कुछ भी नहीं लिया है। अर्थात् 'जैनकुमारसंभव' में कालिदास के 'कुमारसंभव' की शब्द-अलंकार या कल्पना की स्थूल छाया विशेष रूप से कहीं भी दिखाई नहीं देती। फिर भी कितने ही निम्न श्लोकों की उदाहरण के तौर पर तुलना की जा सकती है। * 'कुमारसंभव' के कुल अधिकृत सर्ग कितने हैं? इस विषय पर विद्वानों में मतभेद हैं। एक मुख्यमत के अनुसार कालिदास ने आठ सर्ग का महाकाव्य लिखा था एवं पीछे के सर्ग बाद में मिलाये गये हैं। (४७) [ जैन कुमारसम्भव : एक परिचय ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002679
Book TitleJain Kumarsambhava Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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