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________________ इति श्रीअंचलगच्छे कविचक्रवर्ती - श्रीजयशेखरसूरिविरचितस्य जैनकुमारसम्भवस्य तच्छिष्य-श्रीधर्मशेखरगणिविरचितटीकायां श्री माणिक्यसुन्दरसूरिशोधितायां प्रथमसर्गव्याख्या समाप्ता॥१॥ ___ इसके अतिरिक्त टीका के अंत में प्रशस्ति के श्लोकों में भी उन्होंने माणिक्यसुंदरसूरि का निर्देश किया है। देखें : विद्वत्पद्मविकाशयन् दिनकराः सूरीश्वरा भास्वराः, माणिक्योत्तरसुन्दराः कविवरा कृत्वा प्रसादं परं। भक्त्या श्री जयशेखरे निजगुरौ शुद्धामकार्षुर्मुदा, श्रीमज्जैनकुमारसंभवमहाकाव्यस्य टीकामिमां ॥ ६॥ इस प्रकार श्री जयशेखरसूरि स्वयं तो एक महान कवि थे ही लेकिन स्वयं के एवं गुरु भ्राता के शिष्यों में धर्मशेखर गणि, माणिक्यसुंदरसूरि आदि तेजस्वी कविरत्रों ने इनके पास से उत्तम विद्या प्राप्त की थी। श्री माणिक्यसुंदरसूरि 'पृथ्वीचंद्र चरित्र','मलयासुंदरी चरित्र', 'गुणवर्मा चरित्र', 'श्रीघट चरित्र महाकाव्य' आदि अन्य कृतियों के रचयिता के रूप में प्रसिद्ध हैं। लेकिन धर्मशेखर गणि ने इस टीका के अतिरिक्त दूसरी कोई रचना की हो, हमको जानकारी नहीं मिलती है। इनके जीवन एवं कर्तृत्व के विषय में वर्तमान में अन्य कोई जानकारी हमको मिलती नहीं है। 'जैनकुमारसम्भव' की रचना श्री जयशेखरसूरि ने भगवती सरस्वती देवी की कृपा से की है। इस हेतु उनके पास योग्य कवि प्रतिभा एवं जैन-जेनेतर महाकाव्यों का अभ्यास भी है। इस महाकाव्य की उन्होंने ग्यारह सर्ग के 849 श्लोक में रचना की है। उन्होंने स्वयं के महाकाव्य हेतु महाकवि कालिदास का अनुसरण कर ऋषभदेव भगवान के पुत्र भरत के जन्म का विषय चुना है। इस महाकाव्य की ओर जैनेतर पंडितों का भी ध्यान केन्द्रित हो अत: उन्होंने इस काव्य का नाम 'जैनकुमारसम्भव' रखा है। टीकाकार श्री धर्मशेखर गणि टीका के आरम्भ में लिखते हैं : तथा लौकिककुमारसंभवे कुमारः कार्तिकेयः तस्य संभवश्चात्र कुमारो भरतस्तस्य संभवो ज्ञेयः पुत्राश्च सर्वे कुमारा उच्यन्ते अतः कुमारसंभव इति नाम्ना महाकाव्यमत्रापि ज्ञायते तेनादौ ध्यात्वा श्री शारदा। कथासार श्री जयशेखरसूरि ने कथा वस्तु की दृष्टि से इस महाकाव्य में 11 सर्ग की योजना निम्न प्रकार से की है :सर्ग:1- कवि ने इस सर्ग की रचना 77 श्लोकों में की है। इसमें कोशलापुरी का वर्णन, ऋषभकुमार के जन्म का वर्णन, इन्द्र द्वारा जन्मभिषेक, उनका बचपन एवं देहलावण्य का वर्णन एवं अंत में यौवन का वर्णन किया है। सर्ग : 2 - कवि ने इस सर्ग की रचना 73 श्लोकों में की है। इसमें श्री ऋषभकुमार के यश का वर्णन, सौधर्मेन्द्र के आगमन का वर्णन, अष्टापद पर्वत का वर्णन एवं इन्द्रकृत प्रभुस्तुति का वर्णन किया है। सर्ग : 3 - कवि ने यह रचना 81 श्लोकों में की है। इसमें इन्द्र ऋषभकुमार की प्रशंसा करते हैं, [ जैन कुमारसम्भव : एक परिचय ] (१७) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002679
Book TitleJain Kumarsambhava Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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