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सूरि : श्री जयशेखरः कविघटाकोटीरहीरच्छविधम्मिलादिमहाकवित्वकलना कल्लोलिनीसानुमान् । वाणीदत्तवरश्चिरं विजयते तेन स्वयं निर्मिते । सर्गी जैनकुमारसंभवमहाकाव्येऽयमाद्योऽभवत् ॥ १॥
'धम्मिलकुमार चरित्र' की रचना श्री जयशेखरसूरि ने सं. 1462 में की है। अर्थात् सं. 1462 और सं. 1482 के मध्य में 'जैनकुमारसम्भव' की रचना किसी भी समय हुई होगी ऐसा अनुमान कर सकते हैं।
श्री जयशेखरसूरि को भगवती माता सरस्वती देवी ने खंभात में वरदान दिया था और महाकाव्य प्रारम्भ करने हेतु दो पद भी उस समय खंभात में ही दिये थे, ऐसा स्पष्ट निर्देश टीकाकार श्री धर्मशेखर गणि नें किया है। उन्होंने अपनी टीका के आरम्भ में स्वयं के गुरु श्री जयशेखरसूरि के विषय में इस महाकाव्य के संदर्भ में एक सरस घटना पर प्रकाश डाला है। वे लिखते है :
अत्राऽयं किल सम्प्रदाय : - लौकिककाव्यानुसारेण' अस्त्युत्तरस्यां दिशि' इति सप्ताक्षराणि वर्त्तन्ते इति न ज्ञातव्यं किन्तु श्रीस्तंभतीर्थे श्रीमदञ्चलगच्छगगन प्रभाकरेण यमनियमासनप्राणायामाद्यष्टाङ्गयोगविशिष्टेन समाधिध्यानोपविष्टेन निजमतिजितसुरसूरिणा परमगुरुश्रीजयशेखरसूरिणा चन्द्रमण्डलसमुज्ज्वल- राजहंसस्कन्धोषितया चर-चलकुण्डलाद्याभरणविभूषितया भगवत्या श्रीभारत्या प्रभो ! त्वं कविचक्रवर्तित्वं च प्राप्य निश्चिन्त इवासीनः किं करोषि ? इति प्रोच्य अस्त्युत्तरस्यां दिशि कोशलेति० ॥ १ ॥ सम्पन्नकामा नयनाभिरामा० ॥ २ ॥ एतदाद्यकाव्ययुग्मं दत्वा विहितसुरासुरसेव श्रीयुगादिदेवसत्कजन्मबालकेलि - यौवनमहेन्द्रस्तवन - सुमंगलासुनन्दापाणिग्रहण- चतुर्दशस्वप्नदर्शन- भरतसंभव - प्रातर्वर्णनपुरःसरं जैनं श्रीकुमारसम्भवमहाकाव्यं कारितं ।
इस प्रकार श्री धर्मशेखर गणि के लेखनानुसार श्री जयशेखरसूरि अष्टांग योगी एवं समर्थ साधक थे। वे खंभात में समाधि ध्यान में बैठे थे तब भगवती सरस्वती देवी ने उन्हें प्रसन्न होकर कहा-'हे प्रभो ! निश्चिन्त किसलिये बैठे हो ? ' ऐसा कहकर ' अस्त्युतरस्यां दिशि कोशलेति' एवं 'सम्पन्नकामा नयनाभिरामा' यह दो पद देकर इस काव्य की रचना कराई।
इस प्रकार इस महाकाव्य का प्रारम्भ खंभात में हुआ हो ऐसा प्रतीत होता है। श्री जयशेखरसूरि कहाँ-कहाँ से चातुर्मास किये थे इसकी आधारभूत जानकारी मिलती नहीं है। जब खंभात में उन्होंने चातुर्मास किया होगा, तब इस महाकाव्य की रचना शुरु की होगी ऐसा प्रतीत होता है। ऐसा गहन सर्जन कार्य करने हेतु शेषकाल के विचरण की अपेक्षा चातुर्मास का स्थिर वास ज्यादा अनुकूल हो वह तो दिखाई देता है । सामान्यत: एक चातुर्मास के भीतर ऐसा महाकाव्य पूरा हो या नहीं, इस प्रश्न का जवाब कवि की प्रतिभा पर निर्भर है। श्री जयशेखरसूरि के पास ऐसी समर्थ प्रतिभा थी कि एक दिन में कई श्लोकों की वे रचना कर सकते थे। इसलिये चातुर्मास के मध्य ग्यारह सर्ग की रचना करना उनके लिये अशक्य नहीं था। श्री धर्मशेखर गणि ने इस महाकाव्य पर सं. 1482 में टीका लिखी है। महाकाव्य की रचना एवं उस पर की टीका लेखन के बीच ज्यादा वर्षों का अन्तराल नहीं है ।
श्री धर्मशेखर गणि ने इस टीका-रचना में स्वयं के गुरुबंधु श्री माणिक्यसुंदरसूरि की सहायता ली है। इस बात का निर्देश उन्होंने प्रत्येक सर्ग के अंत में दी गई पुष्पिका में किया है :
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[ जैन कुमारसम्भव: एक परिचय ]
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