________________
उसी संस्कृत टीका के साथ संशोधित संपादित कर श्री विजयक्षमाभद्रसूरि एवं विजयलब्धिसूरि के शिष्य विक्रमविजय मुनि (बाद में विजयविक्रमसूरि) ने तैयार किया था, जिसका प्रकाशन वि.सं. 2002 में सेठ देवचंद लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फंड की तरफ से हुआ था।
श्री जयशेखरसूरि के शिष्य श्री धर्मशेखरगणि ने सं. 1482 में संस्कृत में टीका लिखी है जिससे काव्य के अर्थ पर विशेष प्रकाश पड़ा है एवं ग्रंथ के अंत में दी गई प्रशस्ति के श्लोकों से कितनी ही विशेष जानकारी भी मिलती है। धर्मशेखरगणि इस टीका के आरम्भ में लिखते हैं :
ध्यात्वा श्री शारदां देवीं नत्वा श्रीसद्गरून्नपि। कुमारसम्भवस्येयं, विवृतिर्लिख्यते मया॥१॥
x.
अत्र ग्रन्थे च वापि समासं कृत्वा व्याख्या करिष्यते,
क्वापि शब्दस्य पर्यायमात्रमेव प्रोच्य व्याख्या करिष्यते। इस प्रकार धर्मशेखर गणि ने प्रारम्भ में बताया है, उसी प्रकार काव्य पढ़ने वाले कवि का आशय स्पष्ट समझ सकें तदर्थ शब्दार्थ सहित सरल टीका इस महाकाव्य के ऊपर लिखी है।
श्री धर्मशेखर गणि ने इस संस्कृत टीका की रचना विक्रम सं. 1482 में सपादलक्ष देश में, षट्पुर नाम के नगर में रह कर की है। महाकाव्य की टीका के अंत में रचना प्रशस्ति के श्लोकों में इस विषय में उन्होंने निर्देश किया है :
तेषां गुरूणां गुणबन्धुराणां शिष्येण धर्मोत्तरशेखरेण। श्री जैनकुमारसंभवीयं सुखावबोधाय कृतेति टीका ॥ ४॥ देशे सपादलक्षे सुखलक्ष्ये षट्पुरे पुरप्रवरे।
नयनवसुवार्धिचन्द्रे (१४८२) वर्षे हर्षेण निर्मिता सेयं॥५॥ इस प्रकार इस महाकाव्य की प्रशस्ति में टीकाकार श्री धर्मशेखर गणि ने टीका लिखने का स्पष्ट उल्लेख किया है। फिर भी जामनगर के संस्करण में उसके प्रकाशक गृहस्थ बालुभाई हीरालाल ने प्रकाशकीय निवेदन में भ्रम से ऐसा उल्लेख किया है कि इस महाकाव्य पर कवीश्वर ने स्वयं ही टीका लिखी है।
श्री धर्मशेखर गणि ने इस महाकाव्य की टीका सं. 1482 में लिखी है। 'जैन साहित्य का वृहद् इतिहास' पृ. 518 पर वि.सं. 1482 इस महाकाव्य का रचना वर्ष है। ऐसा प्रशस्ति के आधार पर जो निर्देश किया है वह गलत है, कारण कि सं. 1482 का उल्लेख इस महाकाव्य की टीका लिखने का निर्देश है।
इस प्रकार धर्मशेखर गणि ने सपादलक्ष देश के षट्पुर नगर में इस टीका की रचना सं. 1482 में की है, ऐसा स्पष्ट निर्देश मिलता है। परन्तु इस महाकाव्य के रचना-स्थल एवं रचना काल का निर्देश हमको मिलता नहीं है। लेकिन इतना तो निश्चित है कि 'धम्मिलकुमार चरित्र' की रचना के बाद इस महाकाव्य की रचना हुई है। कारण कि जैनकुमारसम्भव के प्रत्येक सर्ग के अंत में दिये गये निम्न श्लोक में 'धम्मिलकुमारचरित्र' का उल्लेख प्राप्त है । देखें :
(१५)
[ जैन कुमारसम्भव : एक परिचय ] Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org