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अर्थ :- मूर्च्छना के समय जिनकी दृष्टि संकुचित हो गयी थी, विख्यात स्वरों के गुणों के सुनने से जिस स्त्री ने समस्त प्रपञ्च को असत्य कहा था, वह क्या सज्जनों के प्रकृष्ट उत्सव को प्राप्त नहीं हुई? अपितु प्राप्त हुई। अथवा मीमांसक के भेद पर महंसता को प्राप्त नहीं हुई? अपितु प्राप्त हुई। विशेष :- मीमांसकों के मत में वेद ही तत्त्व रूप हैं । उनके मत में देव भी मन्त्रमय माने गये हैं । गीत के श्रोता उसकी लय में लीन होने के कारण उन्होंने गीत ही सुना यह भावार्थ है । इस प्रकार वेद के अतिरिक्त भी तत्त्व की सिद्धि हुई। ___ आत्मनः परभवप्रसाधना - भासुरामिषनिषेधिनैपुणा।
गी:पतेर्मतमतीन्द्रियार्थवित्तत्र काचिदुचितं व्यधाद् वृथा॥६६॥ अर्थ :- अपने दूसरे से होने वाले प्रसाधन से जो देदीप्यमान है तथा दम्भ का निषेधकारक जिसका चातुर्य है एवं जो अतीन्द्रिय पदार्थ को जानती है ऐसी किसी स्त्री ने बृहस्पति के मत को सुमङ्गला के आगे ठीक ही व्यर्थ किया। विशेष :- चार्वाक मत में इन्द्रियार्थ माने गए हैं। उनके मत में खाओ, पियो और मौज उड़ाओ की शिक्षा दी गई है। वे शरीर को समुदयमात्र मानते हैं । जितना लोक इन्द्रियों से दिखाई देता हे, उतना ही है। परभव नहीं है।
तां प्रवीणहृदयोपवीणयं-त्येकतानमनसं पुरः परा।।
निर्ममे खरवं स्ववल्लकी-दण्डमेव मृदुभास्वरस्वरा॥ ६७॥ अर्थ :- आगे एकाग्रचित्त सुमङ्गला के विषय में वीणा से गाती हुई मृदु और देदीप्यमान स्वर वाली प्रवीण हृदया अन्य स्त्री ने अपनी वीणा के दण्ड से ही कठोर शब्द किया।
अन्यया ऋषभदेवसद्गुण-ग्रामगानपरया रयागता।
लभ्यतेस्म लघु तामुपासितुं, किं न किन्नरवधूः स्वशिष्यताम्॥६८॥ अर्थ :- श्री ऋषभ देव के सद्गुणों के समूह को गाने में तत्पर अन्य स्त्री ने शीघ्र ही उनकी सेवा के लिए वेगपूर्वक आई हुई किन्नर स्त्री को क्या अपनी शिष्यता प्राप्त नहीं कराई? अपितु प्राप्त कराई। विशेष :- श्री ऋषभदेव के सद्गुण ये थे 1. कुलीन 2. शीलवन्त 3. वयस्थ 4. शौचवत 5. संततव्यय 6. प्रीतिवंत 7. सुराग 8. सावयववंत 9. प्रियंवद 10. कीर्तिवंत 11. त्यागी 12. विवेकी 13. शृङ्गारवन्त 14. अभिमानी 15. श्लाध्यवन्त 16. समुज्ज्वलवेष 17. सकलकलाकुशल 18. सत्यवंत 19. प्रिय 20. अवदान 21. सुगंधप्रिय 22. सुवृत्तमंत्र 23. क्लेशसह 24. प्रदग्धपथ्य 25. पण्डित 26. उत्तमसत्त्व 27. धर्मित्व 28. महोत्साही जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-१०] .
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