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________________ सर्ग - १० सखियों को प्रिय ऐसी सुमंगला श्री ऋषभदेव प्रभु के मुख रूपी कमल से वाणी रूपी मकरंद (शहद) को पीकर गौरव से कोमल एवं मनोहर वाणी से इस प्रकार बोलने लगी, 'हे प्रभु! विद्वान मनुष्यों के कर्णाभरण समान एवं वांछितार्थ फल को सिद्ध करने वाली और मूर्ख के प्रति अग्नि की कांति समान ऐसी आपकी यह आश्चर्यकारी वाणी विजय को प्राप्त हो। आपके सम्पूर्ण रूप को इन्द्र ही देख सकते हैं और सूर्य ही उसका पूजन कर सकते हैं। सहस्र जिह्वाओं को धारण करने वाले शेषनाग भी आपके सहस्र गुणों का वर्णन करने में समर्थ नहीं है । हे प्रभु! मैं जो कुछ बोलती हूँ वह भक्ति से बोलती हूँ। पुनः हे नाथ! आपकी वाणी के गुणों का जैसे कि स्वादुता, कोमलता, उदारता, सर्व भावों की विचक्षणता एवं सत्यता आदि की स्तुति करने हेतु विधाता ने जैसे कि मुझे अनेक जिह्वाएँ दी हो ऐसा लगता है। ___ 'हे नाथ! आपकी वाणी सुधा बनकर वसुधा में आई है। अमृत तो स्वस्थान में रहे लोगों को ही सुखी करता है; जबकि आपकी वाणी तो दु:खियों और सुखियों को भी सुखी करती है। जो व्यक्ति आपके वचनों का पान करते हैं उसे मिश्री भी कंकर जैसी लगती है। आम्रफल भी आपकी वाणी की समानता को प्राप्त नहीं करता। अंगूर भी आपके पास से मधुरता ग्रहण करना चाहते हैं । (आपकी वाणी रूपी बादल मेरे कर्ण रूपी जलाशयों को भरने वाले हैं और वही बादल मेरे संशय रूपी अंधकार को शांत करते हैं।) जैसे सुभट के म्यान में से तलवार निकलती है तब कायर चोर भाग जाते हैं वैसे ही आपके मुख से जब वचन निकलता है तब सर्व संशय नष्ट हो जाते हैं।' अब सुमंगला प्रभु के ज्ञान की प्रशंसा करती है-'हे नाथ! आपका ज्ञान दो नेत्रों का अतिक्रमण करके जीतने का प्रयत्न कर रहा है और वह ज्ञान हमेशा सत्य का ही सत्संग करता है। शैलसागरवनीभिरस्खलत्पममात्रमिलनान्नियंत्रितम्। ज्ञानमेकमनलीकसंगतं, नेत्रयुग्ममतिशय्य वर्तते ॥ १०-१७॥ पर्वत, समुद्र एवं महावन कदाचित स्खलित हो जायें पर आपका ज्ञान कभी भी स्खलित नहीं होता है। दोनों नेत्रों की पलकें बंद हो जायें, किन्तु आपका ज्ञान तो कभी भी बंद नहीं होता है। यहाँ कवि केवलज्ञान की नेत्रों के साथ तुलना करता है। 'हे नाथ! काजल रूपी ध्वज है जिसका ऐसा दीपक, तेल एवं बाती से जलता है किन्तु बिना किसी की सहायता के ही अधिकता को प्राप्त हुए आपके ज्ञानमय तेज के शतांश को भी सचमुच में वह दीपक प्राप्त नहीं कर सकता है। चारों तरफ से ज्योत्स्ना को फैलाते हुए भी चंद्रमा की कालिमा शांत नहीं होती है। वह चंद्र आपके स्व-पर भासी ज्ञान को तो स्पर्श भी नहीं कर सकता। हे स्वामी ! सूर्य की जो प्रभा जडत्व के हेतुभूत ऐसे हेमंत ऋतु के संकट के समय अत्यन्त कृशता को पाती है, उस प्रभा की हमेशा आपकी तेजस्वी वाणी के साथ तुलना कर मानव लज्जा का अनुभव करता है। हे स्वामी! अतीन्द्रिय मति को धारण करने वाले आपने जिस वस्तुतत्त्व को समझाया वह सूक्ष्य बुद्धिमान नहीं कह सकता है। आपकी वाणी रूपी लता उत्तम फल का स्थान रूप हो।' सुमंगला इस प्रकार बोल रही थी तब प्रभु ने आदेश दिया कि 'आप वासभवन में पधारें'। उसके बाद जब वह सुमंगला रत्नों की कांति के समूह से प्रकाशित मार्ग पर मस्तक पर श्वेत छत्र को [ जैन कुमारसम्भव : एक परिचय ] (३९) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002679
Book TitleJain Kumarsambhava Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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