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धारण करती हुई चली तब नूपुरों की मधुर ध्वनि सुनाई देती थी। मन्थर गति से सुमंगला अपने वासभवन में गई। उसी समय सोई हुई सखियाँ जाग गईं और जैसे पद्मिनी के चारों तरफ भंवरों की श्रेणी इकट्ठी हो जाती है वैसे ही विकसित कमल के समान मुख वाली सुमंगला को सखियों ने घेर लिया।
सेवा में निपुण ऐसी तीन-चार सखियाँ आगे आकर सुमंगला को प्रणाम करके बोली, 'हे स्वामिनी! हम तो आपकी अंतरंग थीं, फिर भी आप हमको सोते हुए छोड़ कर क्यों चली गई? आप गईं वह हम नहीं जाने सके। उस समय हम चेतना रहित थीं। हमारा यह अपराध हमारे हृदय को शल्य की भांति जला रहा है। पुन: देवांगनाओं का जमघट निरंतर आपके पास सेवा में हाजिर रहता है । अचानक कौन सा कार्य आ गया! पहले तो आप स्वामी के घर कई बार मनाने पर जाती थी और आज स्वयं चली गईं? आपके विनय की रक्षा न करने के कारण दुःख से तप्त हुई सब सखियों को कार्यरूपी वाणी के जलकण से आप शीतल/शान्त करें। पहले आप हमेशा सखियों को अलग नहीं मानती थीं, तो अब भी अनादर न करें।'
__इस प्रकार सखियों के कहने पर वह सुमंगला छोटे कमलों से घिरे हुए बड़े कमलों पर जैसे लक्ष्मी सोए वैसे ही चारों ओर से स्थापित किये उत्तम सिंहासनों की श्रेणी वाली शय्या पर सो गई। फिर सखियों के उत्सुक हाथ सुमंगला के चरणों की सेवा करने लगे। वात्सल्य भाव वाली सुमंगला ने भी सखियों को रोका नहीं एवं स्वप्न दर्शनादिक की कथा सखियों को बताई। हर्ष एवं आश्चर्य से सखियों के कोलाहल से घोंसलों में सोये पक्षी जग गये।
श्री ऋषभदेव प्रभु के मुख रूपी चंद्र से निर्गत वाणी रूपी किरणों से परिपूर्ण ऐसा आपका हर्ष रूपी समुद्र हमेशा वृद्धि को प्राप्त हो, ऐसे कर्णों को आनन्द देने वाले, सखियों के वचन को सुनकर सुमंगला ने उस समय सखियों को कहा :
अर्जिते न खलु नाशशंकया, क्लिश्यमानमनसस्तथा सुखम्। जायते हृदि यथा व्यथाभरो, नाशितेलसतया सुवस्तुनि॥ १०-५०।।
'हे सखियों ! उत्तम वस्तु को आलस से खोने पर दुःखी मन वाले पुरुष के हृदय में जैसा दु:ख का वेग होता है वैसा सुख उस वस्तु का उपार्जन करने से नहीं होता है। मिला हुआ एवं बाद में नष्ट हुआ है धन जिसका ऐसा पुरुष हमेशा निर्धन पुरुषों को भाग्यवान मानता है। इसलिये हे सखियों! मेरे स्वप्नफल को निद्रा नहीं ले जाए इसलिये आप सब आलस का त्याग कर मेरे स्वप्नफल का रक्षण करें। मेरे साथ धर्मकथा करके ऐसा करें कि जिससे अभी मुझे निद्रा वापस न आये!'
सखियाँ भी सुमंगला को निद्रा नहीं आये इसलिये धर्मकथा करने लगीं, कारण कि अगर सुमंगला को निद्रा आ जाये एवं उसके बाद कोई अशुभ स्वप्न आ जाये तो पूर्व दृष्ट अच्छे स्वप्नों का फल मिलता नहीं है।
अच्छी तरह से ज्ञात एवं स्खलानारहित ऐसे मोक्ष मार्ग का अनुसरण करने वाली, शरीर संबंधी समग्र क्रियाओं की जानकार एवं भोक्ता और स्वयं के कार्य-कलापों की कलाओं में चतुर ऐसी कोई सखी नृत्य करती हुई अपनी आत्मा को ही अर्हत् धर्म कहने लगी। पुनः उस समय कोई सखी मानो कपिलमद (सांख्यमत के) का आधार लेकर विनयादि उत्तम गुणों के स्वभाव वाली हो कर, सुमंगला
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[ जैन कुमारसम्भव : एक परिचय ]
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