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________________ की आत्मा साक्षीभूत होने से रंगमंडप के योग्य ऐसी नृत्यक्रिया की लीला करती हुई चपलता को प्राप्त करने लगी । कोई सखी पवित्र राग उत्पन्न होने वाली मूर्छनाओं से सुमंगला को मूर्छायुक्त कर, सुगत एवं ध्वनिगत और उससे उत्पन्न हुए असत्यदूषण को नष्ट करने लगी। बौद्धों का भी यही सिद्धांत है। कोई सखी तत्त्व से अधिक ऐसे खुद के गीत को यहाँ प्रकट करती हुई ब्रह्मा एवं श्री कृष्ण द्वारा दिया गया है मोक्ष जिसमें ऐसे नैयायिकमत को अन्यथा करने लगी। सखी प्रख्यात स्वरगुण की श्रुति के समक्ष अन्य ऐसे सभी प्रपंच को निरर्थक मानती थी; वह मूर्छना के समय संकुचित वाली आँखों वाले सज्जनों के उत्कृष्ट तेज को प्राप्त हुई। परमहंस के मत का भी यही स्वरूप है । स्वयं तथा दूसरों से निष्पादित शृंगार आदि की शोभा को धारण करने वाली, मदिरा-मांस का निषेध करने में निपुण और इन्द्रियों से भी अगोचर ऐसे अर्थों को जानने वाली कोई सखी बृहस्पति मत को भी उचित रूप से निष्फल करने लगी। प्रवीण हृदय वाली कोमल एवं तेजस्वी नादवाली ऐसी दूसरी सखी ने एकाग्र मन वाली ऐसी सुमंगला का वाणी रूप गुणग्राम करके अपनी वीणा के दंड को भी कठोर शब्द वाला बना दिया। श्री ऋषभदेव प्रभु के उत्तम गुणगान में तत्पर किसी सखी ने तो सुमंगला की सेवा करने आई किन्नरी को भी निस्तेज कर दिया । अंग संबंधी नाट्य-विधि में चतुर, मनोहर और त्रिपताकादि चौसठ कलाओं में पारंगत दूसरी सखी ने सुमंगला के अंग का अनुकरण किया। किसी दूसरी सखी ने गाये हुए धवल मंगल से मनोहर ऐसे श्री ऋषभदेव के गुणग्राम को सुनती हुई सुमंगला से कहा - 'नवकुंड से भी अधिक ऐसा अमृत का स्थान तो इन सखियों का ही मुख है। पुनः इस जगत में कौन बलवान है ? शोक का स्थान कौन है ? लोभिष्ठ के पास याचना करने से वह क्या कहता है ? सिपाही का मन कैसे होता है ? देवों में भयानक कौन है? तेरा स्वामी कैसा है?' इस प्रकार के प्रश्नों को पूछने वाली सखी को सुमंगला ने 'नाभिभूत' एक ही शब्द से उत्तर दिया । इस प्रकार ज्ञानामृत का पान करते-करते सुमंगला ने रात्रि व्यतीत की। उस समय किसी सखी आकर कहा कि 'सूर्योदय हो गया है। मंगल सूचक शंख बज रहा है। पक्षी कलरव कर रहे हैं । प्रभात में विकस्वर कमलदल की उत्कृष्ट सुगंध रूपी लक्ष्मी को चुराने वाला एवं नदी की शीतलता के गुण का हरण करने वाला वायु वेलडिओं को कंपायमान कर आने वाले ऐसे सूर्य के भय से व्यवस्थारहित पृथ्वी पर घूम रहा है।' कवि प्रभात का वर्णन करते हुए लिखता है : योगाभ्यास वाले एवं कामविलास रहित पुरुष को जैसे स्त्री छोड़ देती है, वैसे ही आकाश एव स्व-परिवार को छोड़ते हुए ऐसे अल्प कांतिवाले अपने स्वामी चंद्र को रात्रि छोड़ देती है । शीतल स्वभाव वाला चंद्र सूर्य के भय से आकाश को खाली कर भाग गया और इसी कारण आकाश मार्ग में तारे भी बिखर गये क्योंकि निर्नायक सैन्य में बल नहीं होता है। गहरे पानी में रहे हुए रात्रि को मुख बंध कर भीतर गुंजारव करते हुए भंवरों के बहाने से इस दृष्टिमंत्र का जाप जपने वाले कमल ने प्रात:काल में उस मंत्र के सिद्ध होने से तुरंत लक्ष्मी को चंद्र बिंब में से खींच कर अपनी गोद में बिठा लिया । [ जैन कुमारसम्भव: एक परिचय ] Jain Education International For Private & Personal Use Only (४१) www.jainelibrary.org
SR No.002679
Book TitleJain Kumarsambhava Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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