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अर्थ :- सखियों के समूह ने पवित्र भूमि पर श्रेष्ठ आसन पर, श्री ऋषभदेव स्वामी की वाणी के अनन्तर इन्द्र की वाणी से रस के आधिक्य से अनुपम तृप्ति को प्राप्त होने पर भी इसे बलात् बैठाकर स्वर्ग से आए हुए भोज्य पदार्थों से चाटुकारी पूर्ण वचनों की रचना के साथ खिलाया।
सूरिः श्रीजयशेखरः कविघटाकोटीरहीरच्छवि, र्धम्मिल्लादिमहाकवित्वकलनाकल्लेलिनीसानुभाक्। वाणीदत्तवरश्चिरं विजयते तेन स्वयं निर्मिते,
सर्गों जैनकुमारसम्भवमहाकाव्येयमेकादशः॥ १॥ अर्थ :- कवियों के समूह रूप मुकुट में हीरे की छवि वाले, धम्मिलकुमारचरितादि महाकवित्व से युक्त नदी के प्रवाह के लिए पर्वत के तुल्य, वाणी से प्रदान किए गए वर वाले श्री जयशेखर सूरि चिरकाल तक विजयशील रहें । उनके द्वारा स्वयंनिर्मित जैनकुमारसम्भव महाकाव्य में यह एकादश सर्ग समाप्त हुआ। इती श्रीमदञ्चलगच्छ में कविचक्रवर्त्ति श्री जयशेखरसूरि विरचित
जैनकुमार सम्भव महाकाव्य का एकादश सर्ग समाप्त हुआ।
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[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-११]
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