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लक्ष्मी को अपने उपासकों के आधीन करने की इच्छा करते हुए दायें हाथ में वज्र, चक्र, शंख और तलवार ये धारण किए ?
विशेष :- भगवान् के शरीर में प्रासाद, पर्वत, शुक, अंकुश, पद्माभिषेक, यव, दर्पण, चामर इत्यादि एक हजार आठ लक्षण होते हैं, अत: उन्हें लक्षण कोश कहा । कवि ने कल्पना की है कि भगवान् के दायें हाथ में वज्र, चक्र, शंख और असि ये चिह्न इन्द्रादि पदवी अपने उपासकों को प्रदान करने के लिए थे ।
सदम्भलो भादिभटव्रजस्त्वया, स्वसंविदामोहमहीपतौ हते । स्वयं विलाता घनवारिवारिते, दवे न हि स्थेमभृतः स्फुलिङ्गकाः ॥
अर्थ :हे नाथ! आपके द्वारा आत्मज्ञान से मोह रूपी राजा के मारे जाने पर माया सहित लोभादि भटों का समूह स्वयं विलय को प्राप्त हो जाएगा; क्योंकि दावानल के मेघ के जल से रोके जाने पर चिनगारियाँ स्थायी नहीं रह जाती है ।
इषुः सुखव्यासनिरासदा सदा, सदानवान् यस्य दुनोति नाकिनः । स्मरो भवद्ध्यानमये विभावसा - वसावसारेध्मदशां गमिष्यति ॥ ७० ॥
अर्थ
जिस कामदेव का सुख के विस्तार के निराकरण को प्रदान करने वाला बाण सदा दानवों सहित स्वर्ग के देवों को पीड़ित करता है । हे नाथ! वह कामदेव आपकी ध्यान रूप अग्नि में असार काष्ठ की दशा को प्राप्त करेगा ।
अर्थ
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परं न हि त्वत् किमपीह दैवतं, तवाभिधातो न परं जपाक्षरम् ।
न
पुण्यराशिस्त्वदुपासनात्पर-स्तवोपलम्भान्न परास्ति निर्वृतिः ॥ ७१ ॥
हे नाथ! तुमसे श्रेष्ठ अन्य इस संसार में देव नहीं है ( क्योंकि आप तीनों लोकों द्वारा पूज्य हैं, इस संसार में तुम्हारे नाम से श्रेष्ठ जप के अक्षर नहीं हैं ( क्योंकि आप सर्वोत्कृष्ट हैं), इस संसार में तुम्हारा सेवन करने से उत्कृष्ट कोई पुण्य की राशि नहीं है और तुम्हारी प्राप्ति से उत्कृष्ट कोई शान्ति नहीं है ।
-:
तव हृदि निवसामीत्युक्तिरीशे न योग्या, मम हृदि निवस त्वं नेति नेता नियम्यः । न विभुरुभयथाहं भाषितुं तद्यथार्हं, मयि कुरु करुणार्हे स्वात्मनैव प्रसादम् ॥ ७२ ॥
अर्थ :- हे नाथ! मैं तुम्हारे हृदय में निवास करता हूँ, यह कथन स्वामी में योग्य नहीं हैं, तुम मेरे हृदय में निवास करो, इस प्रकार नियन्त्रण करना योग्य नहीं है (जो नेता होता है, वह सेवकादि को नियंत्रित करता है, सेवक नेताओं को नियंत्रित नहीं करते
[ जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग - २ ]
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