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हैं) । मैं दोनों प्रकार से बोलने में समर्थ नहीं हैं. अत: करुणा के योग्य मेरे प्रति स्वयं ही कृपा करो।
इति स्तुतिभिरान्तरं विनयमानयन् वैबुधे, प्रतीतिविषयं गणेऽनणुधियां धुरीणो हरिः। प्रसन्ननयने क्षणैर्भगवता सुधासोदरै -
रसिच्यत सुधाशनैरपि च साधुवादोर्मिभिः॥७३॥ अर्थ :- इस प्रकार की स्तुतियों से आन्तरिक विनय को देवसमूह में प्रतीति के विषय तक पहुँचाते हुए महान् बुद्धिशालियों में अग्रसर इन्द्र श्री ऋषभस्वामी तथा प्रसन्न नेत्रों के अवलोकन से अमृत के समान देवों के द्वारा भी प्रशंसा रूप तरङ्गों से सिक्त किया
गया।
सूरिः श्रीजयशेखरः कविघटाकोटीरहीरच्छविर्धम्मिलादिमहाकवित्वकलनाकल्लोलिनीसानुमान्॥ वाणीदत्तवरश्चिरं विजयते तेन स्वयं निर्मिते।
सर्गो जैनकुमारसम्भवमहाकाव्ये द्वितीयोऽभवत्॥ २॥ कवियों के समूह रूप मुकुट में हीरे की छवि वाले, धम्मिल्लाकुमारचरितादि महाकवित्व से युक्त नदी के प्रवाह के लिए पर्वत के तुल्य, वाणी से प्रदान किए गए वर वाले श्री जयशेखर सूरि चिरकाल तक विजयशील होते हैं। उनके द्वारा स्वयं निर्मित जैनकुमारसम्भव महाकाव्य में द्वितीय सर्ग समाप्त हुआ। इति श्रीमद् अञ्चलगच्छ में कविचक्रवर्ती श्री जयशेखरसूरि विरचित
श्री जैनकुमारसम्भव महाकाव्य में द्वितीय सर्ग समाप्त हुआ।
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[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-२]
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