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३. तृतीयः सर्गः
अथ प्रसादाभिमुखं त्रिलोकाधिपस्य पश्यन् मुखमुग्रधन्वा।
अवाप्तवारोचितरोचितश्रि, वचः पुनः प्रास्तुत वक्तुमेवम्॥ १॥ अर्थ :- अनन्तर इन्द्र ने तीनों लोकों के अधिपति भगवान् ऋषभदेव के मुख को कृपा की ओर अभिमुख देखकर अवसर प्राप्त होने के कारण रुचि को प्राप्त शोभा वाले वचन पुनः इस प्रकार बोलना आरम्भ किया।
स्वयं समस्तान्न न वेत्सि भावां-स्तथाप्यसौ त्वां प्रति मे प्रजल्पः।
इयत मेघंकरमारुतत्व-मदेष्यतः कालबलाद घनस्य॥२॥ अर्थ :- हे नाथ! तुम स्वयं समस्त भावों को नहीं जानते हो, ऐसा नहीं है अर्थात् आप समस्त भावों को जानते ही हैं, फिर भी यह आपके प्रति मेरा कथन है। काल के बल से उदय हो प्राप्त होने वाले मेघ के प्रति मेघोत्पादक वायु जाए।
साधारणस्ते जगतां प्रसादः स्वहे तुम्हे तमहं तु हन्त।
हृद्यो न कस्येन्दुकलाकलापः, स्वात्मार्थमभ्यूहति तं चकोरः॥३॥ अर्थ :- हे नाथ! आपकी कृपा सबके प्रति साधारण है, किन्तु मैं उस कृपा को आत्मनिमित्त विचारता हूँ । चन्द्रमा की कलाओं का समूह किसके लिए हृदयहारी नहीं है तथापि चकोर उसे अपने लिए विचारता है।
भवन्तु मुग्धा अपि भक्तिदिग्धा, वाचो विदग्धाग्य भवन्मुदे मे।
अश्मापि विस्मापयते जनं किं, न स्वर्णसंवर्मित सर्वकायः॥४॥ अर्थ :- हे विद्वन्मुख्य ! मेरी भक्ति से लिप्त वाणी भोली-भाली होने पर भी आपके हर्ष के लिए हों । स्वर्ण से जिसका समस्त शरीर वेष्टित है, ऐसा पाषाण भी क्या लोगों को विस्मित नहीं करता है? अर्थात् करता ही है।
जडाशया गा इव गोचरेषु, प्रजानिजाचारपरम्परासु। प्रवर्तयनक्षतदण्डशाली, भविष्यसि त्वं स्वयमेव गोपः॥ ५॥
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-३]
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