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अर्थ :- हे नाथ! गायों को जिस प्रकार ग्वाला अपने मार्ग पर ले जाता है, उसी प्रकार मूर्ख अभिप्राय वाली प्रजाओं को अपनी आचार परम्पराओं में प्रवृत्त करते हुए तुम अक्षत सेना से सुशोभित हुए (पक्ष में अक्षत दण्ड से) सुशोभित हुए ग्वाले (अथवा राजा) स्वयं ही होंगे ।
कलाः समं शिल्पकुलेन देव, त्वदेव लब्धप्रभवा जगत्याम् । क्व नो भविष्यन्त्युपकारशीलाः, शैलात्सरत्ना इव निर्झरिण्यः ॥ ६ ॥
अर्थ :हे देव ! शिल्पसमूह के साथ पृथ्वी पर तुमसे ही उत्पन्न कलायें पर्वत से निकली हुई सरला नदियों के समान हमारे लिए कहाँ उपकार करने रूप स्वभाव वाली नहीं होंगी अर्थात् सब जगह होंगी ।
त्वदागमाम्भोनिधितः स्वशाक्तयाऽऽदायोपदेशाम्बुलवान् गभीरात् । घना विधास्यन्त्यवनीवनीस्थान्, विनेयवृक्षानभिवृष्य साधून् ॥ ७॥
अर्थ :लोग (अथवा मेघ) गम्भीर होने से आपके आगम रूप समुद्र से उपदेश रूप जलकणों को अपनी शक्ति के अनुसार लेकर शिष्य रूप वृक्षों को सींचकर साधुओं को पृथ्वी रूपी महावन में स्थित करेंगे। (मेघ समुद्र से जल ग्रहण करते हैं, यह लोकरूढ़ि है ) । भवद्वयेऽप्यक्षयसौख्यदाने, यो धर्मचिन्तामणिरस्त्यजिह्मः ।
प्रमादपाटच्चारलुंट्यमानं त्वमेव तं रक्षितुमीशितासे ॥ ८ ॥
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अर्थ
दोनों जन्मों में भी अक्षय सुख प्रदान करने में जो सरल धर्म रूप चिन्तामणि है, प्रमाद रूपी चोर से लूटे जाते हुए उस धर्मचिन्तामणि की रक्षा करने में आप ही
समर्थ हैं
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( ३६ )
तद्गेहिधर्मद्रुमदोहदस्य, पाणिग्रहस्यापि भवत्वमादिः ।
न युग्मिभावे तमसीव मग्नां, महीमुपेक्षस्व जगत्प्रदीप ॥ ९ ॥
अर्थ
हे नाथ! अत: तुम गृहस्थ धर्म रूपी वृक्ष के लिए दोहद स्वरूप पाणिग्रहण के भी प्रथम होओ। हे जगत्प्रदीप ! अन्धकार के समान युगलभाव में डूबी हुई पृथ्वी की उपेक्षा मत करो ।
वितन्वता केलिकुतूहलानि, त्वया कृतार्थीकृतमेव बाल्यम् ।
विना विवाहेन कृपामपश्य-त्तवाद्य न ग्लायति यौवनं किम् ॥ १० ॥ अर्थ :जलक्रीडा और गीत, नृत्य, नाटक आदि करते हुए तुमने बाल्यावस्था को कृतार्थ किया ही है । विवाह के बिना तुम्हारी कृपा को न देखते हुए यौवन क्या दुःखी नहीं होता है? अर्थात् दुःखी होता ही है ।
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[ जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-३ ]
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