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दृष्ट्वा जगत्प्राणहृतोऽपि सर्वं - सहे स्वहेतीस्त्वयि नाथ मोघाः।
अनगतां कामभटोऽस्य मुख्यः, सखा विषादानुगुणां दधाति ॥११॥ अर्थ :- हे नाथ! यौवन का मुख्य मित्र संसार के प्राणियों का जीवन लेने वाला काम रूप योद्धा भी सब कुछ सहन करने वाले अपने अस्त्रों को तुम्हारे विषय में निष्फल देखकर विषाद के योग्य अङ्गरहितता को धारण करता है।
मधुर्वयस्यो मदनस्य मूच्र्छा, मत्वा ममत्वाद्विषमां विषण्णः।
तनोत्यपाचीपवनानखण्ड-श्रीखण्डखण्डप्लवनाप्तशैत्यान्॥१२॥ अर्थ :- मित्र वसन्त, कामदेव की विषम मूर्छा को जानकर खिन्न होते हुए मोह से । दक्षिण दिशा के अखण्ड चन्दन के वनों में गमन करने से शीतलता को प्राप्त हुई वायुओं का विस्तार करता है।
मत्वा मधोर्मित्रशुचा प्रियस्या-मनस्यमाक्रन्दत यद्वनश्रीः।
तदत्र किं कजलविजुलाश्रु-कणाः स्फुरन्त्युल्ललितालिदम्भात्॥१३॥ अर्थ :- प्रिय वसन्त के मित्रशोक से उत्पन्न दुःख को जानकर जिस वन की लक्ष्मी ने ऊँचे स्वर से विलाप किया। अत: इस नेत्र रूप लक्ष्मी में उछलते हुए भौंरो के बहाने से क्या अंजन से कलुषित आँसुओं के कण विस्तार को प्राप्त हो रहे हैं?
ये सेवकाश्चास्य पिकाः स्वभर्तु-दुःखाग्निना तेऽप्यलभन्त दाहम्। किमन्यथा पल्लवितेऽपि कक्षे, तदङ्गमङ्गारसमत्वमेति ॥ १४॥ अर्थ :- और इस वसन्त के सेवक जो कोयल हैं, उन्होंने भी अपने स्वामी वसन्त की दुःख रूप अग्नि से दाह प्राप्त किया, अन्यथा पल्लवित भी वन में उन कोयलों का शरीर अङ्गार के सादृश्य को कैसे प्राप्त होता?
तनोषि तत्तेषु न किं प्रसाद, न सांयुगीनायदमी त्वयीश।
स्याद्यत्र शक्तेरवकाशनाशः, श्रीयेत शूरैरपि तत्र साम॥ १५॥ अर्थ :- हे ईश! उस कारण तुम उन यौवनादि पर कृपा नहीं करते हो। क्योंकि ये यौवनादिक तुम्हारे प्रति रण में ठीक नहीं हैं । जहाँ पर शक्ति के अवकाश का नाश होता है वहाँ पर शूरवीर भी साम्यगुण का आश्रय लेते हैं।
शठौ समेतौ दृढसख्यमेतौ, तारुण्यमारौ कृतलोकमारौ। भेत्तुं यतेतां मम जातु चित्त-दुर्गं महात्मन्निति मास्म मंस्थाः ॥१६॥
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-३]
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