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________________ अर्थ : हे महात्मन्! तुम इस प्रकार मत मानों क्या ये दोनों धूर्त जो कि गाढ़मैत्री से युक्त हैं तथा जिन्होंने लोगों को संसार भ्रमण रूप किया है ऐसे तारुण्य और कामदेव कभी भी मेरे चित्त रूपी दुर्ग को भेदन करने का यत्न कर सकते हैं? अर्थ हे नाथ! विवेक रूपी नेत्र के ज्ञान को हरकर अन्धे हुए जगत् को असमाधि रूप गड्ढे में गिराता हुआ यौवन रूप अन्धकार तुम्हारे ज्ञान रूपी सूर्य के मोह का विस्तार न करे । ܚ܀ हृत्वा विवेकाम्बकबोधमन्धी - भूतं जगत्पातयदाधिगर्ते । तावत्तव ज्ञानविभाकरस्य, तन्वीत तारुण्यतमो न मोहम् ॥ १७ ॥ ब्रह्मास्त्रभाजः कुसुमास्त्रयोधी, मारोऽपि किं ते घटते विरोधी । विरोत्स्यते वा खलु तद्बहूक्त्वा, भोक्ता बलिस्पर्धफलं स्वयं सः ॥ १८ ॥ अर्थ :पुष्प रूप अस्त्रों से युद्ध करने वाला कामदेव भी ब्रह्मज्ञान रूप अस्त्र को ग्रहण करने वाले आपका विरोधी कैसे घटित होता है ? अर्थात् विरोधी घटित नहीं होता है । यदि विरोध करेगा तो अधिक कहने से बस, वह स्वयं ही बलवान् के साथ स्पर्द्धा का फल भोगेगा । यया दृशा पश्यसि देव समा, इमा मनोभूतरवारिधाराः । तां पृच्छ पृथ्वीधरवंशवृद्धौ, नैताः किमम्भोधरवारिधाराः॥१९॥ अर्थ :हे देव! जिस दृष्टि से ये स्त्रियाँ कामदेव की खड्गधारा को देख रही हैं, उस दृष्टि (अभिप्राय) के विषय में पूछिए। ये स्त्रियाँ राजाओं के वंश की वृद्धि के लिए ( पक्ष में- पर्वतों के वंश की वृद्धि के लिए) क्या मेघ की जलधारा नहीं है ? अपितु हैं ही । नयस्य वश्यः किमु संग्रहस्य, स्त्रैणं चलं ध्यायसि सर्वमीश । कोशातकी कल्पलते लतासु, दृष्ट्वा च विश्वं व्यवहारसारम् ॥ २० ॥ -: अर्थ हे ईश ! तुम संग्रह नय के वशीभूत होकर क्या समस्त स्त्रीसमूह को चञ्चल मानते हो? लताओं में तोरई और कल्पलता को देखकर विश्व को व्यवहार नय रूप सार वाला जानिए । विशेष :नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरुढ़ तथा एवंभूत के भेद से नय सात प्रकार के होते हैं। संग्रह नय का उदाहरण इस प्रकार है - जैसे यह जगत् सत् रूप है। सत् के अन्तर्गत सारे पदार्थों का संग्रह हो जाता है । व्यवहार नय का कार्य के भेद प्रभेद करना है । जैसे - द्रव्य के छह भेद होते हैं । इन भेदों में एक भेद वस्तु (३८) [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-३ ] www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only -
SR No.002679
Book TitleJain Kumarsambhava Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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