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________________ जीव भी होता है । जीव दो प्रकार के होते हैं - संसारी और मुक्त । संसारी जीव त्रस और स्थावर के भेद से दो प्रकार के होते हैं। इस प्रकार व्यवहार नय वहाँ तक भेद प्रभेद करता जाता है, जहाँ तक सम्भव है। कवि का कहना है कि जैसे सारी लतायें एक जैसी नहीं होती है, उसी प्रकार सारी स्त्रियाँ एक जैसी नहीं होती हैं। किं शंकशे दारपरिग्रहेण, विरागतां निर्वृतिनायिकायाः। प्रभुः प्रभूतेऽप्यवरोधने स्या-नागः पदं लुम्पति न क्रमं चेत् ॥ २१॥ अर्थ :- हे नाथ! आप स्त्रियों को स्वीकार करने से मोक्ष रूपी नायिका आपसे विरागता को प्राप्त हो जाएगी, ऐसी आशङ्का क्यों करते हैं? स्वामी प्रचुर अन्तःपुर होने पर भी अपराध के स्थान नहीं होंगे, यदि क्रम का उलंघन न हो। तात्पर्य यह कि इस समय आप पाणिग्रहण करें, बाद में मोक्ष रूपी नायिका का भी सेवन करें। अद्यापि नाथः किमसौ कुमारो, निष्कन्यकं किं वरिवर्त्यवन्याम्। भृत्योंऽतरङ्गोऽस्य हरिर्विचेता, यायावरं वेंत्ति न यौवनं यः॥ २२॥ इत्थं मिथः पार्षदनिर्जराणां, कथाप्रथाः कर्णकटूर्निपीय। तेषां प्रदाने प्रबलोत्तरस्य, दरिद्रितोऽहं त्वयि नायकेऽपि॥ २३॥ युग्मम्॥ अर्थ :- क्या वह नाथ अब भी कुमार हैं, क्या पृथ्वी पर कन्याओं का अभाव है, इनका अन्तरङ्ग सेवक इन्द्र बेखबर है, जो जाते हुए यौवन को नहीं जान पा रहा है, इस प्रकार सभ्य देवों की कथा परम्परा का पान करते हुए हे नाथ! आप जैसे अधिपति के होने पर भी मैं उन्हें प्रबल उत्तर देने में दरिद्र हो गया हूँ। वयस्यनङ्गस्य वयस्य भूते, भूतेश रूपेऽनुपमस्वरूपे। पदीन्दिरायां कृतमन्दिरायां, को नाम कामे विमनास्त्वदन्यः॥२४॥ अर्थ :- यौवन में काम के मित्रसदृश होने पर, रूप में अनुपम स्वरूप होने पर, लक्ष्मी के चरणों में स्थान बना लेने पर हे प्राणियों के स्वामी! तुमसे भिन्न कौन काम के प्रति विमुख होगा? जाने न किं योगसमाधिलीन, विषायते वैषयिकं सुखं ते। तथापि संप्रत्यनुषक्तलोक, लोकस्थितिं पालय लोकनाथ॥ २५॥ अर्थ :- हे योग समाधि लीन! क्या मैं यह बात नहीं जानता हूँ अर्थात् जानता ही हूँ कि आपको विषय सम्बन्धी सुख विष के समान लगता है, तथापि इस समय लोक के आश्रय हे लोकनाथ! लोक की स्थिति का पालन कीजिए। [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-३] (३९) Jain Education International For Private-& Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002679
Book TitleJain Kumarsambhava Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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