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________________ त्वयैव याऽभूत्सहभूरभूमि-स्तमोविलासस्य सुमङ्गलेति। राकेव सा केवलभास्वरस्य, कलाभृतस्ते भजतां प्रियात्वम्॥२६॥ अर्थ :- हे नाथ! पाप के विस्तार की अभूमि जो सुमङ्गला तुम्हारे साथ ही उत्पन्न हुई थीं, वह चन्द्रमा की प्रिया पूर्णिमा के समान केवलज्ञान रूपी सूर्य आपकी प्रिया हो जाय। अवीवृधद्यां दधदंकमध्ये, नाभिः सनाभिर्जलधेर्महिना। प्रिया सुनन्दापि तवास्तु सा श्री-हरेरिवारिष्टनिषूदनस्य ॥ २७॥ अर्थ :- हे नाथ! विस्तार में समुद्र के समान नाभि ने जिसे गोद में बढ़ाया था वह सुनन्दा विघ्नों का नाश करने वाले आपकी अरिष्ट नाम दैत्य को मारने वाले नारायण की लक्ष्मी के समान प्रिया हो। कन्ये इमे त्वय्युपयच्छमाने, जाने विमानैस्त्रिदिवेषु भाव्यम्। भृपीठसंक्रान्तसकान्तदेवरेकै कदौवारिकरक्षणीयैः॥ २८॥ अर्थ :- हे नाथ! मैं यह जानता हूँ कि आपके इन सुमङ्गला और सुनन्दा के परिणय करने पर स्वर्गों से पृथ्वीतल पर गए हुए सपत्नीक देवों के विमान, एक एक द्वारपाल से रक्षित हो जाएगें। अधौतपूतद्युतिवारिधौ ते, देहे सुरस्त्रीजनदृक्शफर्यः। भ्रमन्तु लावण्यतरङ्गभङ्गि-प्रेखोलनोद्वेलितकेलिरङ्गाः॥ २९॥ अर्थ :- हे नाथ! उस अवसर पर लावण्य की कल्लोलों के मोह में झूलने रूप लक्षण से जिनके आमोद-प्रमोद वृद्धि को प्राप्त हैं, ऐसी देवाङ्गनाओं की दृष्टि रूपी मछलियाँ आपके बिना धोए हुए पवित्र द्युति समुद्र रूप देह में भ्रमण करें। श्रीसार्व जन्यास्तव सार्वजन्या, देवा भवन्तः शुभलोभवन्तः। पुराकृतप्रौढतपः फलानां, विपक्तिमत्वं हृदि भावयन्तु ॥ ३०॥ अर्थ :- हे श्री सर्वज्ञ! सब लोगों में साधु, शुभकार्य में लोभसंयुक्त देव जान्ययात्रिक होते हुए पूर्वजन्म में किए हुए प्रौढ़ तप रूप फलों के परिपाक का हृदय में विचार करें। शचीमुखा अप्सरसो रसोर्मि-प्रक्षालनापास्तमलाननु त्वाम्। तदा ददाना धवलान् सुवाचा-माचार्यकं बिभ्रतु मानवीषु ॥ ३१॥ अर्थ :- हे नाथ! उस अवसर पर आपके पीछे श्रृंगारादि रसों की कल्लोलों के प्रक्षालन से जिसके मल दूर हो गए हैं ऐसे इन्द्राणी प्रमुख देवाङ्गनायें धवलमङ्गलों को प्रदान करती हुई मानुषी, स्त्रियों में शोभन वाणी के आचार्य कर्म को धारण करें। (४०) [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-३] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002679
Book TitleJain Kumarsambhava Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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