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(बोलते समय श्वेत दांत की कांति से शोभित ऐसे प्रभु के दोनों होठ क्षीर समुद्र की तरंगों से धोये हुए प्रवाल (मूंगों) की वेल के समान शोभा देते थे ।)
विमुक्तवैरा मृदुतिग्मताजुषः सुराऽसुराः स्वोचितचिह्नभासुराः । प्रभुं परीयुः शशिभास्वतोरिवांशवो दिवो गोत्रमुदारनंदनम् ॥ ४- ३९॥
(वैरवृत्ति विहीन, कोमलता एवं तीव्रता के गुणवाले एवं स्वोचित चिह्नों से शोभित ऐसे देव और दानव जैसे सूर्य-चंद्र की किरणें मेरु पर्वत को घेर कर रहती हैं वैसे ही मनोहर एवं समृद्धिदायक ऐसे प्रभु को घेर कर रहे ।)
प्रगृह्य कौसुंभसिचा गलेऽबला, बलात्कृषंत्येनमनैष्ट मंडपम् । अवाप्तवारा प्रकृतिर्यथेच्छया भवार्णवं चेतनमप्यधीश्वरम् ॥ ४-७४ ॥
(जैसे अवसर प्राप्त होने पर प्रकृति यथेच्छ रूप से आत्मा को भव समुद्र की तरफ ले जाती है वैसे कोई स्त्री समर्थ प्रभु को कसुंबी वस्त्र से कंठ बांधकर बड़ी कठिनाई से मंडप में ले गई।) निर्नष्टनेत्रनिद्रा सा, स्वप्नानंतरचिंतयत् ।
मुनिरप्राप्तपूर्वाणि, पूर्वाणीव चतुर्दश ।। ७-५५ ।
(पहले अप्राप्त ऐसे चौदह पूर्वो का जैसे मुनिराज चिंतन करते हैं वैसे ही सुमंगला निद्रारहित लोचनवाली होकर मन में उन चौदह स्वप्नों का चिंतन करने लगी ।)
उदच्यमाना अपि यांति निष्ठां, सूत्रेषु जैनेष्विव येषु नार्थाः ।
तेषां नवानां निपुणे निधीनां, स्वाधीनता वर्त्स्यति ते तनूजे ॥ ११-४४ ॥
(हे सुमंगला! जैसे जैन सूत्रों के अर्थों को पढ़ने पर भी उसका क्षय होता नहीं है वैसे ही नौ निधानों में से द्रव्य निकालने पर क्षय नहीं होता है। ऐसे नौ निधानों की स्वाधीनता आपके पुत्र को होगी ।)
महाकाव्य में उपमा के साथ-साथ साधर्म्यमूलक रूपक अलंकार भी आये बिना नहीं रहते । इस महाकाव्य में कवि जयशेखरसूरि ने जो विविध मनोहर रूपकालंकार का प्रयोग किया है। उसमें से कुछ उदाहरण अवलोकनीय हैं :
(५४)
पूढेऽस्य वक्षस्यवसत्सदा श्री-वत्सः किमुच्छद्मधिया प्रवेष्टम् ।
रुद्धः परं बोधिभटेन मध्य अध्यूषुषासीद्बहिरङ्ग एव ॥ १-४६ ॥
( क्या प्रभु के विशाल वक्षस्थल पर श्रीवत्स (कामदेव) कपट बुद्धि से अंदर प्रवेश करने हेतु सदा निवास करता है? किन्तु अंदर रहने वाले बोधि रूपी सैनिक द्वारा रोके जाने के कारण वह बाहर ही रहता है ।)
भहाबलक्ष्मापभवे यथार्थकीं चकर्थ बोधैकबलान्निजाभिधाम् ।
अखर्व चार्वाकवचांसि चूणर्यन्नऽयोधनानक्षरकोट्टकुट्टने॥ २-५८॥
(हे प्रभु! महाबल राजा के भव में बोध के एकमात्र बल से मोक्ष रूपी गढ़ को ध्वस्त करने में लोहे के घन समान प्रौढ़ ऐसे नास्तिकों के वचनों का नाश करते हुए आपने अपना नाम सार्थक किया है ।)
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[ जैन कुमारसम्भव : एक परिचय ]
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