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________________ 2. 849 मिल जाता है। यहाँ निम्न तुलनात्मक तालिका द्रष्टव्य है :महाकाव्य का नाम कुल श्लोक सर्ग प्रयुक्त सबसे अधिक संख्या कुल छंद प्रायोजित छंद कुल श्लोक संख्या 1. नैषधीय चरित 2827 उपजाति (866) शिशुपाल वध 1642 अनुष्टुप् (232) रघुवंश 1569 उपजाति (578) 4. किरातार्जुनीय 1040 18 15 वंशस्थ (204) 5. कुमारसंभव 1096 उपजाति (434) 6. जैनकुमारसंभव 11 16 उपजाति (353) इस तालिका से देख सकते हैं कि कवि श्री जयशेखरसूरि का महाकाव्य आकार में छोटा होने पर भी अन्य महाकवियों के समान उनका विविध छंदों पर प्रभुत्व प्रशस्य है एवं अन्य कितने ही महाकवियों के जैसे उनको भी उपजाति छंद सर्वाधिक प्रिय एवं सानुकूल है। महाकाव्य आकार में छोटा क्यों? कवि जयशेखरसूरि ने जैनकुमारसंभव' महाकाव्य की रचना करने का निर्णय लिया उससे यह तो स्पष्ट है कि उनके समक्ष महाकवि कालिदास कृत 'कुमारसंभव' था। उसके अनुकरण पर इस महाकाव्य को लिखा हो एवं कवि के पास महाकाव्य लिखने की असाधारण कवि प्रतिभा हो तो उन्होंने अपने महाकाव्य को ग्यारह सर्ग में ही इतना छोटा क्यों लिखा? ऐसा प्रश्न होता है। ___ कवि कालिदास ने 'कुमारसंभव' के अंत में कार्तिकेय के जन्म प्रसंग का एवं उसके बाद का वर्णन कई सर्गों में किया है। श्री जयशेखरसूरि के 'जैनकुमारसंभव' में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के पुत्र भरत के जन्म (संभव) का विषय लिये जाने पर भी भरत के जन्म का वर्णन इस काव्य में नहीं है। क्या कवि ने जन्म-प्रसंग लिखने का पहले निर्धारण नहीं किया था? इससे यह प्रश्न खड़ा होता है कि अगर ऐसा है तो 'जैनकुमारसंभव' महाकाव्य का ऐसा शीर्षक देने का प्रयोजन क्या था? अथवा क्या वे इस महाकाव्य को सम्भव के अनुसार पूरा नहीं कर सके होंगे? कुछ भी हो यह महाकाव्य पढ़ने पर सम्पूर्ण महाकाव्य पढ़ने का संतोष, कथा-सामग्री की दृष्टि से होता नहीं है। इसलिये यह प्रश्न भविष्य के संशोधन का विषय बनता है। महाकाव्य में प्रयुक्त अलंकार उपमा यह महाकवि का सहज अलंकार है। अन्य महाकवियों की भांति जयशेखरसूरि ने भी इस महाकाव्य में कैसी सुन्दर एवं मौलिक उपमाओं का प्रयोग किया है वह निम्न कुछ उदाहरणों से स्पष्ट हो जाएगा : ओष्ठद्वयं वाक् समयेऽवदात-दंतद्युतिप्लावितमेतदीयम्। बभूव दुग्धोदधिवीचिधौत-प्रवालवल्लिप्रतिमल्लितश्रि॥ १-५१॥ [ जैन कुमारसम्भव : एक परिचय ] (५३) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002679
Book TitleJain Kumarsambhava Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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