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त्वदागमाम्भोनिधितः स्वशाक्त्या - ऽऽदायोपदेशाम्बुलवान् गभीरात् । घना विधास्यन्त्यवनीवनीस्थान्, विनेयवृक्षानभिवृष्य साधून् ॥ ७ ॥
(हे प्रभु! गंभीर ऐसे आपके आगम रूपी समुद्र से स्वशक्ति के अनुसार उपदेश रूपी जल बिंदुओं को लेकर लोकरूपी बादल पृथ्वी रूपी वन में रहने वाले शिष्य रूपी वृक्षों का सिंचन कर उनको उत्तम निर्ग्रन्थ बनायेगा | )
ये तयोरशुभतां करमूले, काममोहभटयोः कटके ते । अंगुलीषु सुषमामददुर्या उर्मिका ननु भवांबुनिधेस्ताः ॥ ३-७८॥
( उन दोनों कन्याओं के हाथ में काम एवं मोह नामक सुभट सैन्य रूपी दो कंगन शोभा देते थे एवं भवरूपी समुद्र की लहर के समान अंगुलियों में रही हुई अंगुठियाँ शोभा देती थीं ।)
स्वप्नानशेषानवधृत्य बुद्धि - बाह्वा मनोवेत्रधरः पुरोगः ।
महाधियामूहसभामभीष्टां, निनाय लोकत्रयनायकस्य॥ ८-६४॥
(तीन लोक के नायक श्री ऋषभदेव प्रभु को बुद्धिमानों में अग्रेसर ऐसा मनरूपी छड़ीदार सभी स्वप्नों को बुद्धि रूपी बाहु से खींच कर विचार रूपी मनोहर सभा में ले गया।
'जैनकुमारसंभव' में उत्प्रेक्षा, श्लेष, अर्थान्तरन्यास इत्यादि अलंकारों का जयशेखरसूरि ने कितने सुन्दर रूप से प्रयोग किया है वह निम्न उदाहरण से देखा जा सकता है :
भवे द्वितीये भुवनेश युग्मितां कुरुष्वऽवाप्ते त्वयि किंकरायितम् । मनीषितार्थक्रियया सुरद्रुमैः जितैरिवं प्राग् जननापवर्जनैः ॥ २-५६॥
( हे तीनों भुवन के स्वामी ! आपने दूसरे भव में उत्तर कुरु क्षेत्र में जब युगलिक रूप प्राप्त किया था तब मानो पूर्वकृत दान से विजित हों वैसे कल्पवृक्षों ने इच्छितार्थ की क्रिया से नौकरों के जैसा आचरण किया ।)
यहाँ कवि ने कैसी सुन्दर उत्प्रेक्षा की है।
निमील्य नेत्रे विनियम्य वाचं, निरुध्य नेताखिलकायचेष्टाः ।
निशि प्रसुप्ताब्जमनादिहंसं, सरोऽन्वहार्षीदलसत्तरंगम् ॥ ८-६३ ॥
(मानो श्री ऋषभदेव प्रभु ने आँखें बंद करके, वाणी एवं समस्त शरीर चेष्टाओं को रोक कर, रात्रि के संकुचित कमलों वाले शब्द नहीं करते हंसों वाले एवं स्थिर तरंगों वाले सरोवर का अनुकरण किया ।) रूपसिद्धिमपि वर्णयितुं ते, लक्षणाकर न वाक्पतिरीशः ।
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यच्चतुष्ककलनापि दुरापा, तद्धितप्रकरणं मनुते कः ।। ५-५६ ॥
( छत्र- चामरादिक एक हजार आठ लक्षणों के भंडार रूप (पक्ष में : व्याकरण शास्त्र के भंडार रूप) प्रभु! आपकी रूप सिद्धि का वर्णन करने में बृहस्पति भी समर्थ नहीं है, क्योंकि जिसकी सभा में जाना भी दुर्लभ है, उसका हित प्रकरण कौन जान सकता है ? (पक्ष में : जिसको प्रथम वृत्ति भी नहीं आती वह तद्धित प्रकरण कहाँ से जान सकता है।) )
इस श्लोक में व्याकरण की परिभाषा का उपयोग सरस श्लेषालंकार द्वारा कवि ने किया है। श्लेषालंकार का दूसरा उदाहरण देखें :
[ जैन कुमारसम्भव: एक परिचय ]
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