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________________ उदारमुक्तास्पदमुल्लसद्गुणा समुज्ज्वला ज्योतिरुपेयुषी परम् । तदा तदीये हृदि वासमासदद्धृतेऽक्षर श्रीरिव हारवल्लरी ।। ४-२६॥ (मनोहर मोतियों के स्थान रूप (पक्ष : उल्लासमान है क्षमादिक गुण जिसमें ) उज्ज्वल एवं उत्कृष्ट ज्योति को प्राप्त हुई ऐसी हारवल्लरी (दीक्षा होने पर भी मोक्ष लक्ष्मी) की तरह उस समय उनके हृदय में वास करती थी ।) अर्थान्तरन्यास अलंकार का उदाहरण देखें : अवशमनशद्भीतः शीतद्युतिः स निरंबरः । खरतरकरे ध्वस्यद्ध्वांते रवावुदयोन्मुखे । विरलविरलास्तज्जायन्ते नभोऽध्वनि तारकाः । परिवृढदृढीकाराभावे बले हि कियद्बलम् ॥ १०-८३॥ (हे स्वामिनी ! प्रचंड किरणों वाला एवं अंधकार का नाशक सूर्योदय होने पर भयभीत चंद्र आकाश को खाली करके भाग गया, जिससे आकाश मार्ग में तारे भी बिखर गये। नायक बिना सैन्य में कितना बल होता है ? ) कवि की शब्द- समृद्धि संस्कृत में महाकाव्य की रचना करने वाले कवि के पास शब्द भंडार छोटा हो तो चल नहीं सकता है । महाकाव्य में कवि को उपमादि अलंकारों के साथ विविध पात्र, प्रसंग, परिस्थिति इत्यादि का भी वर्णन करना होता है । कवि का शब्द भंडार अगर छोटा हो तो महाकाव्य में एकविधता आती है, वैविध्य नहीं, शब्द सौंदर्य के उच्च शिखर को जीत नहीं सकते । कवि श्री जयशेखरसूरि के पास महाकाव्योचित श्रेष्ठ कवि प्रतिभा होने से इस महाकाव्य में उनकी शब्द समृद्धि का दर्शन स्थान-स्थान पर होता है। उन्होंने कितने ही प्रचलित शब्दों के जिन विविध शब्द-पर्यायों का उपयोग किया है। : इन्द्र, आवास, रात्रि, आकाश, कमल, पवन, समुद्र, चंद्र, सूर्य, पृथ्वी, देव, कामदेव, दिवस, स्त्री, गुफा, अंधकार, श्री ऋषभदेव, आम्र वृक्ष, मेरुपर्वत, पर्वत, भ्रमर, हाथी, बादल, मोक्ष आदि कई शब्दों के विविध पर्यायों का यथास्थान पर योग्य विशेषार्थ सहित कवि ने सहज रूप से छंदरचना में बाधक न हो इस प्रकार प्रयोग किया है। इसलिये कई स्थानों पर काव्य में विशेष चमत्कार उत्पन्न हो गया है । यहाँ कवि द्वारा प्रमुख कुछ ऐसे शब्दों के पर्यायों के उदाहरण दिये जा रहे हैं : इन्द्र : महेन्द्र (सर्ग: 2/20, 3 / 37 ), दिव: पति (2/26), हरि (2/21, 2/73, 4/5), पुरदर (2/28. 4/14, 4/33), वासव (2/42, 4/28), शचीपति: (2/48), निर्जरेश्वर (2/47), पवि: (2/68), उग्रधन्वा (3/1), वज्री (3/34, 4/25, 5/1 ), शचीश ( 3 / 40, 4 / 10 ), सौधर्मेश (4/1 ), सुरेश्वर (2/12, 2/ 30), इन्द्र (3/36), मघवा (11,51 ), बिडौजस (4/14), पुरुहूत (4/61), पविपाणि (4/62), शतमख (4/75), घुसदीशिता (4, 44 ), मघोना (5/9), मघवान् (5/22), गिरिभिदा (5/21), ऋभुक्षा (5/24 ), दिवीश (5/27), ऋभु (5/52), शतक्रतु ( 5/ 55, 9 / 33 ), त्रिदशेश (8 / 10), विबुधेश (8/21), नाकनाथ (8/21), सहस्रलोचन (10/3), जंभवैरि (10/77), शतमन्यु (11, 12 ), देवराज (11,59), जंभारि ( 11/70 ) । ५६) Jain Education International [ जैन कुमारसम्भव: एक परिचय 1 www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.002679
Book TitleJain Kumarsambhava Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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