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द्विपद्विषो वीक्षणतोऽवनीगता-ङ्गिनो मृगीकृत्य महाबलानपि।
न नेतृतामाप्स्यति न त्वदङ्गजः, प्रघोषतोन्तर्ध्वनयन्महीभृतः॥ ३८॥ अर्थ :- हे प्रिये ! राजा के प्रघोष से चमत्कार करते हुए (प्रकृष्ट घोष से पर्वतों में अन्तर्ध्वनि करते हुए) पृथ्वी पर गए हुए (वन में स्थित) महाबलशाली भी प्राणियों को मृग बनाए हुए सिंह के देखने से तुम्हारा पुत्र प्रभुता को प्राप्त नहीं करेगा? अपितु करेगा
ही।
नयाप्तसप्ताङ्गकराज्यरङ्गभूः, क नायकस्त्वं प्रखरायुधो नृणाम्। प्रभुः पशूनां नयनैपुणं विना, वसन् वनेऽहं नखरायुधः क्व च॥ ३९॥ तथापि मा कोपमुपागमः कृतोपमः कृतीशैयुधि विक्रमान्मया। सुतं तवेत्यर्थयितुं समागतः, किमर्थिकल्पदुममेष केसरी॥ ४०॥
युग्मम् अर्थ :- हे प्रिये! यह सिंह याचकों के लिए कल्पवृक्ष स्वरूप तुम्हारे पुत्र से, नीति से जिसने सात अङ्गों वाले राज्य की रङ्ग भूमि प्राप्त की है और जिसके प्रखर आयुध हैं ऐसे मनुष्यों के नायक तुम कहाँ तथा तीक्ष्ण नाखून जिसका आयुध है तथा जो नीति की निपुणता के बिना वन में रह रहा है, ऐसा पशुओं का प्रभु मैं कहाँ? तुम कृतज्ञ लोगों के द्वारा युद्ध में पराक्रम के कारण मेरे साथ जिसकी उपमा की गई है, ऐसे होगे, फिर भी कोप को मत प्राप्त हो, मानों यह प्रार्थना करने के लिए आया है।
यदिन्दिरा सुन्दरि वीक्षिता ततः, स्त्रियो नदीनप्रभवा अवाप्स्यति।
कलाभृदिष्टाः कमलंगताः परः-शतास्तथैवोपमिताः सुतस्तव॥४१॥ E - अर्थ :- हे सुन्दरि ! जो तुमने लक्ष्मी को देखा है, उससे तुम्हारा पुत्र हजार से अधिक
लक्ष्मी से उपमान को प्राप्त, जिनकी उत्पत्ति हीन नहीं है (समुद्र से जिसकी उत्पत्ति हुई है), कलावन्तों की इष्ट (चन्द्रमा की इष्ट), सुख को अत्यधिक रूप से प्राप्त (कमल में स्थित) स्त्रियों को प्राप्त करेगा।
बलाधिकत्वाच्चलिते हरेर्हृदि, प्रसह्य भग्ने युधि राजमण्डले। अनेन पद्भयां कृशिते कुशेशये, चमूरजोभिः स्थगिते पयोनिधौ॥४२॥ सुतस्तवैवास्ति गतिर्ममाधुना, तवेति वा जल्पितुमाययावसौ। स्वजातिधौरेयमनुप्रविश्य य - त्प्रभुप्रसादाय यतेत धीरधीः॥४३॥
युग्मम् अर्थ :- हे प्रिये ! अथवा तुम्हारे पुत्र की बल में अधिकता होने से वासुदेव के हृदय में
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-९]
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