SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 86
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रसालसालं प्रति दृत्तदृष्टौ, श्रोतुं च सूक्तानि सतृष्णकर्णे। अनन्यकृत्या अभजनमा, यत्र स्वभक्त्याशुकवित्वमुच्चैः॥ ३३॥ अर्थ :- जिन्हें दूसरा कार्य नहीं है ऐसे देवों ने आम के वृक्ष के प्रति दृष्टि लगाए हुए तथा सुभाषितों को सुनने के लिए सतृष्ण कानों वाले जिन भगवान् के प्रति अपनी अत्यधिक भक्ति के कारण शुकपक्षीपने (अथवा आशुकवित्व) का सेवन किया। परार्थदृष्टिं कलहंसकेकि - कोकादिकेलीकरणैरकाले। नीत्वाभिमुख्यं सुखतो यमीशं, मुधाभिधानं विबुधैर्न दधे ॥ ३४॥ अर्थ :- परार्थदृष्टि वाले, जिस स्वामी को अथवा संयमियों के स्वामी को सुखपूर्वक अपने सम्मुख पाकर देवों ने असमय में सुन्दर हंस, मयूर तथा चक्रवाकों की क्रीड़ा करने से 'विबुध' (देव अथवा विद्वान्) इस नाम को व्यर्थ नहीं किया। क्रोडीकृतः काञ्चनरुग्जनन्या, प्रियङ्गकान्त्या घननीलचूलः। यः सप्तवर्षांपगतः सुमेरोः, श्रियं ललौ नन्दनवेष्टितस्य ॥ ३५॥ अर्थ :- स्वर्ण के समान जिनकी कान्ति है, बादलों के समान नीली जिनकी शिखा है तथा जो सात वर्ष के हैं ऐसे जिन भगवान् ऋषभदेव ने प्रियंगुलता के समान नीली कान्ति वाली माता मरुदेवी के द्वारा गोद में लिये जाने पर नन्दनवन से वेष्टित सुमेरु की शोभा को प्राप्त किया। (मेरु भी स्वर्ण का है, उसके शिखर भी बादलों के कारण नीले दिखाई पड़ते हैं तथा वह भरत, हैमवत्, हरि, विदेह , रम्यक्, हैरण्यवत् तथा ऐरावत इन सात क्षेत्रों (वर्षों) से युक्त है।) पुरा परारोहपरा भवस्या - वश्याः कशाकष्टमदृष्टवन्तः। बबन्धिरेऽनेन बलात्कुरङ्गा, इवोल्ललन्तः शिशुना तुरङ्गाः॥ ३६॥ अर्थ :- बालक इन भगवान् ने पहले दूसरों के द्वारा आरोहण करने रूप पराभव के कारण जो वश में नहीं रहे हैं तथा हरिणों के समान जिन्होंने कोड़े के कष्ट को देखा नहीं है, एवं जो हरिणों के समान उछल रहे हैं, ऐसे घोड़ों को बतपूर्वक बाँध लिया। करे करेणुः स्वकरेण मत्तो, वने चरन् येन धृतो बलेन। रोषारुणं चक्षुरिहादधानो, गात्रं धुनानोऽपि न मोक्षमाप॥ ३७॥ अर्थ :- यहाँ जिसने रोष से लाल नेत्र कर, वन में विचरण करती हुई मतवाली हथिनी के शुण्डादण्ड को अपने हाथ से बलपूर्वक पकड़ लिया। शरीर हिलाने पर भी उस हथिनी ने छुटकारा प्राप्त नहीं किया। [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-१] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002679
Book TitleJain Kumarsambhava Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy