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उंगलियों में धारण किये धागे वाली हारयष्टि को त्याग कर दौड़ने लगी । )
तूर्णिमूढदृगपास्य रुदंतं पोतमोतुमधिरोप्य
कटीरे । कापि धावितवती नहि जज्ञे, हस्यमानमपि जन्यजनैः स्वम् ॥ ५-४१॥ (शीघ्रता के कारण मूढ दृष्टि वाली कोई स्त्री रोते हुए अपने बालक का त्याग कर, कटि में बिल्ली को रख कर दौड़ने लगी। लोगों से हास्य प्राप्त करने वाली होने पर भी अपनी जाति को नहीं पहचान पाई ।) कज्जलं नखशिखासु निवेश्यालक्तमक्षणि च वीक्ष्णलोला । कंठिकां पदि पदांगदमुच्चैः कंठपीठलुठितं रचयंती ॥ ५-४२॥ (इसे देखने हेतु चपल हुई ऐसी कोई स्त्री नाखूनों के अग्र भाग में काजल को, आँखों में अलता को, पैरों में कंटी को एवं कंठ में पायल को धारण करके आई ।)
इस प्रकार नारियों का कुतूहलवश विपरीत क्रिया का वर्णन करना, वह केवल कालिदास या जयशेखरसूरि में ही देखने को मिलता है ऐसा नहीं है; महाकवियों की परंपरा में यह उनकी एक पारंपरिक लाक्षणिकता है।
महाकाव्य में प्रयुक्त छन्द
कवि श्री जयशेखरसूरि ने अपने इस महाकाव्य की रचना किस प्रकार की है, उसे बाह्याकार की दृष्टि से समझने हेतु कवि ने प्रत्येक सर्ग की कितने पद्यों में रचना की है और इस काव्य में कौन-कौन छंदों का प्रयोग किया है, उसका विवरण द्रष्टव्य है :
सर्ग - 1. श्लोक 77
छंद का नाम
उपजाति
वसंततिलका
शिखरिणी
शार्दूलविक्रीडित
छंद का नाम
वंशस्थ
मालिनी
पृथ्वी
छंद का नाम
उपजाति
श्लोक संख्या
1 से 73
74,75
76
77
श्लोक संख्या
1 से 7:
72
सर्ग
73
de
श्लोक संख्या
1 से 75
कुल श्लोक
[ जैन कुमारसम्भव : एक परिचय ]
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73
2
1
1
2. श्लोक 73
कुल श्लोक
71
1
सर्ग - 3. श्लोक 81
1
कुल श्लोक
75
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एक चरण के अक्षर
11
14.
17
19
एक चरण के अक्षर
12
15
17
एक चरण के अक्षर
11
(४९)
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