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________________ सुशोभित हो रही हैं, रत्नों की दीवारों की किरणों से जो अन्धकार को नष्ट कर रहा था ऐसा आकाश को छूने वाला विमान उसके नेत्रों का अतिथि हुआ। रक्ताश्मरिष्टवैडूर्य-स्फटिकानां गभस्तिभिः। लम्भयन्तं नभश्चित्र-फलकस्य सनाभिताम्॥४८॥ ..र्धिना दुहितुर्दत्त - मिव कन्दुककेलये। रत्नराशिं दवीयांस-मपुण्यानां ददर्श सा॥ ४९॥ युग्मम्॥ अर्थ :- उस सुमङ्गला ने पद्मरागमणि, कृष्णरत्न, नीलमणि ओर श्वेतमणियों की किरणों से आकाश को चित्रफलक की सादृश्यता को प्राप्त कराते हुए, समुद्र के द्वारा पुत्री लक्ष्मी की कन्दुक क्रीडा के लिए मानों दी गई जिनका पुण्य नहीं रह गया है ऐसी रत्नराणि को अत्यन्त दूर देखा। आधारधाररोचिष्णु, जिष्णुंचामीकरत्विषाम्। अजिह्यविलसज्वाला-जिह्वमाहुतिलोलुपम् ॥ ५० ॥ श्मश्रुणेव नु धूमेन, श्यामं मखभुजां मुखम्। ददर्श श्वसनोद्भूत-रोचिषं सा विरोचनम् ॥५१॥ युग्मम्॥ अर्थ :- सुमङ्गला ने आधार के छिड़काव से देदीप्यमान सुवर्ण की कान्ति को जीतने वाली, सरल फैलती हुई ज्वाला जिसकी जीभ है तथा जो हवन के योग्य द्रव्य के ग्रहण करने की लंपट है, दाढ़ी मूछ के समान धुयें से श्यामवर्ण, देवों की मुख स्वरूप, पवन से उत्पन्न जिसकी कान्ति है, ऐसी अग्नि को देखा। प्रविश्य वदनद्वारा, तस्याः स्वप्ना अमी समे। कूटस्थकौटुम्बिकता, भेजिरे कुक्षिमन्दिरे॥५२॥ अर्थ :- गज से लेकर अग्नि पर्यन्त समस्त स्वप्न उस सुमङ्गला की कुक्षि रूप मन्दिर में मुख के द्वारा प्रविष्ट होकर स्थिर गृहपति का सेवन कर रहे थे। ततो गुणवजागारं, जजागार सुमङ्गला। साक्षात्तद्वीक्षणात्कर्तु-कामेव नयनोत्सवम्॥५३॥ अर्थ :- अनन्तर गुणों के समूह की घर, साक्षात् उन स्वप्नों के देखने से नयनोत्सव करने की इच्छुक सी सुमङ्गला जाग गर्द । स्वप्नार्थास्तानपश्यन्ती, पुरः सा चिखिदे क्षणम्। प्राप्ता मत्कुक्षिमेवामी, इति द्राग् मुमुदे पुनः॥ ५४॥ [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग७] (१०७) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002679
Book TitleJain Kumarsambhava Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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