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अर्थ :- मुख में रखे कमल पर भ्रमण करते हुए भौरे के शब्द के बहाने मानों प्रीति से के द्वारा इस प्रकार कलह करते हुए सुमङ्गला ने कुम्भ को देखा कि मैं स्त्री के समूह ( तुम्हें ) मस्तक पर धारण करती हूँ । संसार के लोग इसके साक्षी हैं । तुम पुनः मेरी महती समृद्धि के दो लुटेरों को हृदय में धारण करते हो ।
अम्लानकमलामोद-मनेककविशब्दितम् । क्षमविष्टरडम्बरम् ॥ ४२ ॥
सद्वृत्तपालिनिर्वेश
स्वर्णस्फातिस्फुरद्भङ्गि - वर्ण्यं विश्वोपकारकृत् ।
इभ्यागारमिवातेने, कासारं तद्दृगुत्सवम् ॥ ४३ ॥ युग्मम्॥
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अर्थ :- जिसमें कमलों की सुगन्धि म्लान नहीं हुई है। (जिसमें लक्ष्मी से हर्ष म्लान नहीं हुआ है), जो अनेक पक्षियों से शब्दित है ( जो कवियों के शब्द से युक्त है), जिसमें प्रशस्य वृत्ताकार पंक्ति ऐसे उपभोग के योग्य वृक्षों का समूह जहाँ पर है (जिसमें अच्छे चरित्र वाले साधुओं की श्रेणी के उपभोग के योग्य आसनों का समूह है), जो अच्छे पानी की स्फुरायमान होती हुई तरङ्गों से वर्णन योग्य है (सुवर्ण के स्फुरायमान होती हुई प्राकारों से वर्णन के योग्य) ऐसे जगत् का उपकार करने वाले तालाब ने मानों धनी के भवन के समान उस सुमङ्गला के नेत्रों के उत्सव का विस्तार किया ।
क्वचिद्वायुवशोद्धूत-वीचीनीचीकृताचलम् ।
उद्वृत्तपृष्ठैः पाठीनैः, कृतद्वीपभ्रमं क्वचित् ॥ ४४॥ पीयमानोदकं क्वापि, सतृषैरिव वारिदैः ।
रत्नाकरं कुरङ्गाक्षी, वीक्षमाणा विसिष्मिये ॥ ४५ ॥ युग्मम् ॥
अर्थ :कहीं पर वायु के वश उछलती हुई तरङ्गों से जिसने पर्वतों को नीचा कर दिया है, कहीं पर जिन्होंने पृष्ठ विभागों को उखाड़ दिया है ऐसी मछलियों के द्वारा द्वीप का भ्रम कर दिया है, कहीं पर मानों प्यासे मेघों से जिसका जल पिया जा रहा है, समुद्र को देखती हुईं मृगनयनी आश्चर्यान्वित हुई ।
ऐसे
सूर्यबिम्बादिवोद्भूतं, जन्मस्थानमिवार्चिषाम् ।
चरिष्णुमिव रत्नाद्रि, भारादिव दिवश्चयुतम् ॥ ४६॥ दीव्यद्देवानं रत्न- भित्तिरुग्भिः क्षिपत्तमः ।
अभूदभ्रङ्कषं तस्या, विमानं नयनातिथिः ॥ ४७ ॥ युग्मम् ॥
अर्थ :मानों सूर्य बिम्ब से ही निकला हो, मानों तेजों का जन्म स्थान हो, मानों जाने का इच्छुक रत्नाचल हो, भार से मानों स्वर्ग से च्युत हुआ हो, जिसमें देवाङ्गनायें
(१०६)
[ जैन कुमारसम्भव महाकाव्य,
सर्ग-७]
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