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अर्थ :- सुमङ्गला आगे उन-उन स्वप्नों के अर्थ को न जानती हुई क्षण भर के लिए खिन्न हुई। पुनः शीघ्र ही ये स्वप्नों के अर्थ मेरी कुक्षि को ही प्राप्त हुए हैं, इस कारण प्रसन्न हुई।
निर्नष्टनेत्रनिद्रा सा, स्वप्नानन्तरचिन्तयत्।
मुनिरप्राप्तपूर्वाणि, पूर्वाणीव चतुर्दश॥ ५५॥ अर्थ :- उस सुमङ्गला ने जिसकी नेत्र की निद्रा नष्ट हो गयी थी, जैसे मुनि जो पहले कभी प्राप्त नहीं हुए थे, ऐसे चौदह पूर्वो का जैसे विचार करते हैं, उसी प्रकार स्वप्नों के विषय में विचार किया।
स्मृतिप्रत्ययमानीते, मत्या स्वप्नकदम्बके।
कदम्बकोरकाकार-पुलका साऽभवन्मुदा॥५६॥ अर्थ :- बुद्धि से स्वप्न समूह के स्मृतिगोचर आने पर वह सुमङ्गला कदम्ब के पुष्प क मुकुल के आकार के जिसके पुलक हैं ऐसी हो गयी।
नैयग्रोधोंऽकुर इव, प्रवर्धिष्णुः पुटं भुवः।
आनन्दो हृदयं तस्याः, सोल्लासं निरवीवृतत्॥ ५७॥ अर्थ :- वृद्धि को प्राप्त आनन्द वाली उस सुमङ्गला के हृदय ने उस प्रकार उल्लास उत्पन्न किया, जिस प्रकार वट का अङ्कर वृद्धि को प्राप्त होता हुआ भूमि के समूह के उल्लास को निर्वृत्त करता है।
यन्निभालनभूः प्रीति-मैंने मम तनुं तनुम्।
तत्फलावाप्तिजन्मा तु, मातु क्वेत्याममर्श सा॥५८॥ अर्थ :- वह सुमङ्गला, जिन स्वप्नों के दर्शन से उत्पन्न प्रीति ने मेरे शरीर को दुर्बल माना, उन स्वप्नों के फल की प्राप्ति से उत्पन्न वह प्रीति कहाँ समाये, इस प्रकार सोचा करती थी।
तया स्वपक्षणोन्नीत-प्रीतिसन्तर्पितात्मया।
उन्निद्रा नित्यमस्वप्न-वध्वोऽप्यबहुमेनिरे ॥ ५९॥ अर्थ :- स्वप्न के उत्सव से प्राप्त प्रीति से जिसकी आत्मा संतृप्त है ऐसी सुमङ्गला ने तथा जिनके स्वप्न नहीं है ऐसे देवों की वधुओं (देवाङ्गनाओं) ने भी निरन्तर जागते रहने को आदर नहीं दिया।
चेतस्तुरङ्गं तच्चारु-विचाराध्वनि धावितम्।
सा निष्प्रत्यूहमित्यूह-वल्गया विदधे स्थिरम्॥६०॥ (१०८)
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-७]
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