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प्रकाशकीय
महाकवि कालिदस का कुमारसंभव संस्कृत साहित्य की विश्रुत रचना है। जैनकुमारसंभव यद्यपि इसी रचना से प्रेरित है, किंतु जहाँ कालिदास की रचना में श्रृंगार रस की प्रधानता है, वहीं जयशेखरसूरि की रचना में वैराग्य रस का पुट उसे एक अनूठी दिशा देता है । शृंगार को कामुकता की दिशा में ले जाने के स्थान पर चौदहवीं शती का यह जैन रचनाकार वैराग्य की दिशा में ले जाता है।
कालिदास का कुमारसंभव पूर्णतः रसवादी जान पड़ता है। उसमें रघुवंश की भाँति किसी नैतिक व्यवस्था के दिग्दर्शन नहीं होते। जैनकुमारसंभव रसवादी तो है किन्तु साथ ही पूर्णत: नैतिक भी। इसमें यौवन की सरस क्रीडा के वर्णन के साथ ही ऋषभदेव के लोकोत्तर चरित्र को भी अभिव्यक्ति दी गई है । जहाँ कालिदास का कामदेव शिव के मन को जीतना चाहता है, वहीं जयशेखरसूरि का कामदेव ऐसी कामना नहीं करता।
जैसा नाम से विदित होता है यह एक कुमार के जन्म की संभावना का संकेतक महाकाव्य है। कुमारसंभव में जैसे कार्तिकेय के जन्म के आधार स्वरूप शिव का दाम्पत्य जीवन वर्णित है, वैसे ही जैनकुमारसंभव में भरत के जन्म के आधार स्वरूप ऋषभदेव का दाम्पत्य जीवन वर्णित है। घटना क्रम में अंतर यही है कि कुमारसंभव में कार्तिकेय के जन्म का भी वर्णन किया गया है, किन्तु जैनकुमारसंभव में संभावना तक ही वर्णन समाप्त हो जाता है।
रचनाकार श्री जयशेखरसूरि काव्य, साहित्य और दर्शन के मर्मज्ञ विद्वान थे। भाषा के लावण्य और अलंकारिकता में वे कालिदास के कितने निकट पहुंच पाए यह आलोचक विद्वानों की चर्चा का विषय है, किन्तु शृंगार से वैराग्य की ओर दृष्टिपात करने का यह साहित्यिक प्रयोग जैन परंपरा के साहित्य भण्डार की विशिष्ट शोभा अवश्य ही है। इस रचना पर श्री जयशेखरसूरि के शिष्य श्री धर्मशेखरगणि ने टीका लिखी थी। टीका के अध्ययन से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि ये व्याकरण, कोष, रस, अलङ्कार छंदशास्त्र आदि के उद्भट विद्वान थे ।
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