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उसी टीका के आधार पर डॉ० रमेशचन्द जैन, जैन दर्शनाचार्य, रीडर तथा अध्यक्ष, संस्कृत विभाग, वर्द्धमान कॉलेज, बिजनोर ने जैनकुमारसंभव का यह हिन्दी अनुवाद किया है। समराइच्चकहा इत्यादि कई ग्रन्थों का आप हिन्दी अनुवाद कर चुके हैं। अनुवाद करने में सिद्धहस्त हैं। प्राचीन जैन वाङ्मय की ऐसी सुन्दर रचना को हिन्दी के पाठकों के लिए सुलभ करने का उनका यह प्रयास प्रशंसनीय है। इस अनुवाद का संशोधन डॉ० अशोकुमार जैन, प्रवक्ता, जैन विद्या एवं तुलनात्मक अध्ययन विभाग, जैन विश्व भारती लाडनूँ ने किया है । अतः हम दोनों के प्रति आभार व्यक्त करते हैं।
अचलगच्छ जैन श्वेताम्बर परम्परा के प्राचीन गच्छों में से है। यह गच्छ लुप्त प्राय हो चला था, किन्तु शासक प्रभावक आचार्य श्री गुणसागरसूरिजी महाराज एवं उनके पट्टधर शिष्य आचार्य श्री कलाप्रभसागरसूरिजी महाराज के अथक प्रयासों से यह गच्छ पुनः अभ्युदय की ओर अग्रसर है। अपनी साहित्यिक अभिरुचि व गतिविधियों से आचार्य श्री कलाप्रभसागरसूरिजी महाराज धर्म- प्रसार में विशेष योगदान कर रहे हैं। आपके ही सदुपदेश से आर्य जय कल्याण केन्द्र, मुम्बई ने इस प्रकाशन में सह-प्रकाशक के रूप में सहयोग प्रदान किया है । हम इसके लिए हार्दिक आभार प्रकट करते हैं ।
अचलगच्छ की साध्वी डा० श्री मोक्षगुणाश्रीजी ने आचार्य जयशेखरसूरि तथा उनके कर्तृत्व पर एक विस्तृत शोध प्रबन्ध लिखा है जिसमें जैनकुमारसंभव के संबंध में विस्तृत चर्चा की गई है। पाठकों की सुविधा हेतु हमने वह चर्चा इस पुस्तक में संयोजित कर ली है। इसके लिए साध्वी श्री मोक्षगुणाश्रीजी के प्रति आभार प्रकट करते हैं।
आशा है सुधी पाठक इस पुस्तक को अत्यन्त रोचक तथा प्रेरणास्पद पाएंगे।
ट्रस्टी मण्डल
श्री आर्य -जय-कल्याण केन्द्र ट्रस्ट, मुंबई
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देवेन्द्र राज मेहता
संस्थापक एवं मुख्य संरक्षक, जयपुर प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर
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