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को शान्त करने वाला काक जो प्रिय बोल रहा है, उस सुचरित से यह ब्राह्मणों के आगे भोजनिकता को प्राप्त होगा ।
सुदति नदति सोऽयं पक्षिणां चण्डदीधित्युदयसमयनश्यन्नेत्रमोहः समूहः । रजनिरजनि दूरेऽस्मादृशां स्वैरचारप्रमथनमथ नृत्यत्पक्षतीनामितीव ॥ ८० ॥
अर्थ :हे सुन्दर दाँतों वाली ! सूर्य के उदय समय जिसके नेत्रों का मोह नष्ट हो गया है तथा जिनके पंख समूह नृत्य कर रहे हैं, 'हम जैसों के स्वेच्छाचार का अन्त रात्रि के दूर होने पर हो गया', मानों इसलिए यह पक्षियों का समूह शब्द कर रहा है ।
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दिनवदनविनिद्रीभूतराजीवराजी,
परमपरिमल श्रीतस्करोऽयं
समीरः । किञ्चिदाधूयवल्ली
सरिदपहृतशैत्यः
भ्रमति भुवि किमेष्यच्छूरभीत्याऽव्यवस्थम् ॥ ८१ ॥
अर्थ
लताओं को किञ्चित् कँपाकर प्रभातकाल में खिली हुए कमल पंक्ति के उत्कृष्ट पराग की लक्ष्मी का चौर, नदी से शीतलता का अपहरण करने वाला यह वायु पृथिवी पर क्या आने वाले सूर्य के भय से मर्यादा रहित होकर भ्रमण कर रहा है?
लक्ष्मीं तथाम्बरमथात्मपरिच्छदं च, मुञ्चन्तमागमितयो गमिवास्तकामम् । दृष्ट्वे शमल्परुचिमुज्झति कामिनीव, तं यामिनी प्रसरमम्बुरुहाक्षि पश्य ॥ ८२ ॥
अर्थ :- हे कमललोचने! देखो ! स्वामी उस चन्द्रमा को अल्पकान्ति अथवा अल्पेच्छ देखकर लक्ष्मी, आकाश एवं अपने परिवार को छोड़ते हुए अस्ताभिलाष (अथवा निरस्तकाम) अभ्यस्ताध्यात्म के समान रात्रि कामिनी के समान विस्तार को छोड़ रही है । अवशमनशद्धीतः शीतद्युतिः स निरम्बरः, खरतरकरे ध्वस्यद्ध्वान्ते रवावुदयोन्मुखे । विरलविरलास्तञ्जायन्ते नभोऽध्वनि तारकाः, परिवृढदृढीकाराभावे बले हि कियद्बलम् ॥ ८३ ॥
अर्थ
तीक्ष्ण किरण, नष्टान्धकार सूर्य के उदयोन्मुख हो जाने पर वह चन्द्रमा भयभीत होकर निर्वस्त्र होकर मानों अवश हो गया हो, इस प्रकार अदृश्य हो गया ।
(१५७)
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग - १० ]
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