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________________ प्रयास को किया है। निश्चित रूप से हृदय की सन्देह रूपी शल्य अनाकृष्ट होती हुई मनुष्य के लिए मृत्यु पर्यन्त महादुःखदायी होती है । अर्थ हे डरे हुए मृग के समान नेत्र वाली ! यदि तुम्हें कोई वस्तु खोजनी हो तो निःशंक होकर कहो । प्रायः सुर और असुरों को झुका देने वाले मेरे लिए स्वर्ग तक, नाग गृह तक कोई वस्तु कठिनाई से प्राप्त करने योग्य नहीं है । -: चेद्वस्तु संत्रस्तमृगाक्षि मृग्यं, तवास्ति किञ्चिद्वद तद्विशङ्कम् । आनाकमानागगृहं दुरापं, प्रायो न मे नम्रसुरासुरस्य ॥ १७ ॥ विश्वप्रभोर्वाचममूं सखण्ड - पीयूषपांङ्क्तेयरसां निपीय । श्री प्राप्ता प्रमोदं वचनाध्वपारं, प्रारब्ध वक्तुं वनितेश्वरी सा ॥ १८ ॥ अर्थ :वाग्गोचरातीत (वाणी के विषय से अतीत) प्रमोद प्राप्त कर विश्व के प्रभु ऋषभदेव की खण्ड सहित पीयूष पंक्ति में उत्पन्न रस वाली उस वाणी को अत्यधिक तृष्णा से पीकर (सुनकर ) स्त्रियों में प्रधान उस सुमङ्गला ने कहना प्रारम्भ किया । पातुस्त्रिलोकं विदुषस्त्रिकालं, त्रिज्ञानतेजो दधतः सहोत्थम् । स्वामिन्न तेऽवैमि किमप्यलक्ष्यं, प्रश्नस्त्वयं स्नेहलतैकहेतुः ॥ १९ ॥ अर्थ :- हे स्वामिन्! तीनों लोगों की रक्षा करने वाले, तीनों कालों को जानने वाले, एक साथ उत्पन्न मति, श्रुत और अवधि नामक तीन ज्ञान को धारण करने वाले आपके लिए मैं कोई वस्तु अलक्ष्य नहीं मानती हूँ। यह प्रश्न तो स्नेहलता का एकमात्र हेतु है । निध्यायतस्ते जगदेकबुद्ध्या, मय्यस्ति कोऽपि प्रणयप्रकर्षः । भृशायते चूतलताविलासे, साधारणः सर्ववने वसन्तः ॥ २० ॥ अर्थ :हे स्वामिन्! यद्यपि आप जगत् को एक बुद्धि से देखते हैं, फिर भी मेरे प्रति कोई अपूर्व प्रेम का प्रकर्ष है । वसन्त सब वनों के लिए साधारण है, परन्तु आम्रलता के विलास में अधिक होता है । -: अर्थ • हे नाथ इन्द्र भी जिसकी स्तुति करते हुए इन्द्रत्व के गर्व को धारण नही करते हैं। ऐसे आपके सामने मैं बोलने में समर्थ हूँ । ओह ! स्त्रियों में मोह महाप्राण वाला है । (११६) न नाकनाथा अपि यं नुवन्तो, वहन्ति गर्वं विबुधेशतायाः । वक्तुं पुरस्तस्य तव क्षमेऽह - महो महासुर्महिलासु मोहः ॥ २१॥ Jain Education International [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग - ८ ] For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002679
Book TitleJain Kumarsambhava Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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