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अर्थ :- अनन्तर दिशा रूप स्त्रियों के अङ्गों पर श्वेत विलेपन की रचना को सेवित करते हुए दाँतों की किरण समूह से पूर्णिमा की यशः कीर्ति को जय के लिए प्रयुक्त करते हुए जिनेन्द्र ने स्त्री (सुमङ्गला ) से कहा ।
दिगङ्गनाङ्गेषु सिताङ्गराग-भङ्गीं भजद्भिर्दशनांशुजालैः । ज्यौत्स्त्रीयशोजापयता जिनेन, तया रजन्या जगदेऽथ जाया ॥ ११ ॥
अर्थ
हे देवि ! बिना यान के गमन करने में जिसके पैर योग्य नहीं है, ऐसा तुम्हारा आना क्या ठीक है? हे कुशाङ्गि ! अग्नि से निकले हुए सुवर्ण पर जिसका प्रकाश हँसता है, ऐसा तुम्हारा शरीर बाधारहित तो है ?
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अयानचर्यानुचितक्रमायाः, कच्चित्तव स्वागतमस्ति देवि ।
तनूरबाधा तव तन्वि तापो - त्तीर्णस्य हेम्नो हसितप्रकाशा ॥ १२ ॥
अर्थ
हे देवि! तुम्हारी वह छाया के समान पास से अपृथक् न होने वाली सखीजन सदा सुखी हैं? अथवा शरीर पर सुवर्ण में पुण्योत्कर्ष को प्राप्त माणिक्यभूषा क्या दोषरहित है ?
छायेव पार्श्वादपृथग्बभूवान्, सुखी सदास्ते स सखीजनस्ते । प्राप्ता सुवर्णे परभागमङ्गे, माणिक्यभूषा किमुतापदोषा ॥ १३ ॥
अर्थ :
अर्थ महानिशा में भी हे मुक्तनिद्रे ! तुम मुझे देखने के लिए क्यों उपस्थित हुई हो, जिससे आधा क्षण बीत जाने पर भी मानों चिरकाल बाद दिखाई दी हो, इस प्रकार चित्त दौड़ रहा है।
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महानिशायामपि मुक्तनिद्रे, दिदृक्षया मां किमुपस्थितासि ।'
क्षणार्धमुक्तेऽपि चिराय दृष्ट-इव प्रिये धावति येन चेतः ॥ १४ ॥
अर्थ :- अथवा हे देवि ! मेरे स्वप्न में उपलब्ध होने पर तुम काम से दुखी हुई रमण करने के लिए आयी हो । प्रायः विपरीत आचरण वाला वीर कामदेव ही अबलाओं पर प्रबलता को प्राप्त होता है ।
स्वप्नोपलब्धे मयि मारदूना, रिरंसया वा किमुपागतासि ।
प्रायोऽबलासु प्रबलत्वमेति, कन्दर्पवीरो विपरीतवृत्तिः ॥ १५ ॥
प्रिये प्रयासं विचिकित्सितं वा, मीमांसितुं किञ्चिदमुं व्यधास्त्वम् ।
संदेहशल्यं हि हृदोऽनपोढ-मामृत्यु मर्त्यस्य महार्तिदायि ॥ १६ ॥ अथवा हे प्रिये ! तुमने किसी सन्दिग्ध विचार की मीमांसा करने के लिए इस
[ जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग - ८ ]
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