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अर्थ
स्वामी की स्त्री को इस प्रकार कहने पर शरीर पर जिनकी कान्ति अधिक है ( पक्ष में- युद्ध के प्रति जिसकी अभिलाषा बहुत है) तथा जो कामदेव की भङ्गियों को जानता है ऐसे सखी समुदाय ने धर्म के धाम स्वरूप जो विनयादिक गुण (अथवा प्रत्यञ्चा) हैं उनसे निसृत वाणी रूपी बाणों की वेगवान् वृष्टि आरम्भ की। प्रागपि प्रचुरकेलिकौतुकी, सोऽदसीयवचसाऽभृशायत ।
नीरनाडियुजि किं न वाक्पता-वेति वृष्टिघनतां घनाघनः ॥ ६० ॥ अर्थ :- पहले से ही प्रचुर क्रीडा रूप कौतुक से युक्त वह सखी समूह सुमङ्गला के वचनों से प्रगल्भ हुआ । जलनाडि से युक्त बृहस्पति के होने पर मेघ क्या वृष्टि की घनता को प्राप्त नहीं होता है ? अपितु होता ही है ।
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सुश्रुताक्षरपथानुसारिणी, ज्ञातसम्मतकृताङ्गिकक्रिया । आत्मकर्मकलनापटुर्जगौ, कापि नृत्यनिरता स्वमार्हतम् ॥ ६१ ॥
अर्थ :अच्छी तरह से सुने हुए अक्षरों के मार्ग का अनुगमन करने वाली पहले जानकर मानी गई अङ्ग सम्बन्धी क्रिया जिसने की है तथा जो अपने नृत्य रूप कर्म के करने में समर्थ है ऐसी किसी सखी ने नृत्य में निरत रहकर अपने आर्हत (जिनेन्द्र (देव) का गुणगान किया ।
विशेष :जैसा गीत और वाद्य होता है, वैसा नृत्य भी होता है। पहले गीत तथा वाद्य के स्वरूप को जाना, पश्चात् उसके अनुमान से अङ्ग सम्बन्धी क्रिया की, यह भाव है । जो अर्हन्त के मार्ग का अनुसरण करती है, वह उनके सिद्धान्त से अक्षर पक्ष-मोक्षमार्ग 'का अनुसरण करती है। सम्यग्ज्ञान से जानी गई, सम्यग्दर्शन से मानी गई तथा सम्यक्चारित्र से की गई जिसकी द्वादशाङ्ग सम्बन्धिनी क्रिया है ।
सद्गुणप्रकृतिराप चापलं, कापि कापिलमताश्रयादिव । रङ्गयोग्यकरणौघलीलया, साक्षितामुपगते तदात्मनि ॥ ६२ ॥
अर्थ :- अच्छा गुण जिसका स्वभाव है ऐसी किसी सखी ने उसकी आत्मा के साक्षीपने को प्राप्त होने पर मानों कपिल मत (सांख्य मत) का आश्रय कर लिया हो इस प्रकार रङ्गभूमि में हस्त संचालन आदि क्रियाओं के समूह की लीला से चञ्चलता प्राप्त की ।
विशेष :सांख्य मत में सत्व, रज और तमो लक्षण तीन गुण माने गए हैं। इन तीनों गुणों की साम्यावस्था प्रकृति या प्रधान कहलाती है । वही सब व्यापार विस्तारित करती है । आत्मा तो साक्षीमात्र है। उनके मत में आत्मा अकर्ता, अभोक्ता तथा निर्गुण है ।
[ जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग - १० ]
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