Book Title: Dravyanuyogatarkana
Author(s): Bhojkavi
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमहामन्दानमाला - श्रीमदभाजकावविरचिता दव्यानुयोगतकेणा भी परणाममावत-महत भीमद राजद आजम Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्राजचंद्रजनशास्त्रमाला-१७ श्रीपरमात्मने नमः श्रीमद्भोजकविविरचिता द्रव्यानुयोगतर्कणा व्याकरणाचार्यपंडितठाकुरप्रसादशर्माप्रणीत हिन्दीभाषानुवादसहिता :प्रकाशक: श्रीपरमश्रुतप्रभावक-मंडल श्रीमद्रराजचंद्र आश्रम, अगास (गुजरात) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकरावजीभाई ७० देसाई, ऑनरेरी व्यवस्थापक श्री परमश्रुतप्रभावक-मंडल [श्रीमदाषचंद्रजनशास्त्रमाण] श्रीमद्राजचंद्र आश्रम अगास, पो०-बोरीमा वाया? आणंद (गुजरात) वीर नि० सं० २५०३ ] [ सन् १९७७ वि० सं० २०३३ द्वितीय संस्करण-१००० पं० परमेष्ठीदास जैन, न्यायतीर्थ जैनेन्द्र प्रेस, ललितपुर (उ०प्र०) - . Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र प्रकाशकीय निवेदन 20 जिज्ञासुओंमें परमसत्श्रुतके प्रति सत्रुचि जागृत करनेके हेतु परम निष्कारण करुणाभावन प० ० श्रीमद्जीने बम्बईमें परमश्रुत प्रभावक मण्डलकी स्थापना की थी। और श्रीमद्राजचंद्रजैनशास्त्रमालाके नामसे अनेक सत्को प्रकट करनेवाले अनेक ग्रन्थपुष्प निकाले गये । वैसे श्री भोजकवि-विरचित यह ग्रन्थपुष्प द्रव्यानुयोगतर्कणा वी• नि० सम्वत् २४३२ में प्रकाशित किया गया था। कालान्तरमें, इस मण्डलका प्रकाशन-कार्य श्रीमद्राजचंद्र आश्रमके हस्तांतर्गत प्राप्त हुआ। निरन्तर माँग रहने पर एवम् आवश्यकता समझकर इस द्वितीयावृत्तिको जिज्ञासुओंके कर-कमलोंमें प्रस्तुत करते हुए हृदय हर्षविभोर होरहा है। बौद्धिक क्षयोपशमकी न्यूनताके कारण अशुद्धियाँ रह जाना सम्भव है। अतः सुश पाठक शुद्ध करके पढ़ें और क्षमा करें । श्रीमदूराजचंद्र आश्रम । अगास १०-६-७७ निवेदकरावजीभाई छ० देसाई Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस युगके महान तस्ववेत्ता श्रीमद् राजचन्द्र इस युगके महान् पुरुषोंमें श्रीमद्राजचन्द्रजीका नाम बड़े गौरवके साथ लिया जाता है। वे विश्वकी महान विभूति थे। अद्भुत प्रभावशाली, अपनी नामवरीसे दूर रहनेवाले गुप्त महात्मा थे। भारतभूमि ऐसे ही नर-रत्नोंसे वसुन्धरा मानी जाती है। जिस समय मनुष्यसमाज आत्मधर्मको भूलकर अन्य वस्तुओंमें धर्मकी कल्पना या मान्यता करने लगता है, उस समय उसे किसी सत्य मार्गदर्शककी आवश्यकता पड़ती है । प्रकृति ऐसे पुरुषोंको उत्पन्न कर अपनेको धन्य मानती है। श्रीमद्जी उनमें से एक थे। श्रीमद्राजचन्द्रजीका नाम तो प्रायः बहुतोंने सुन रक्खा है, और उनका कारण भी यह है कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधीजीने अपने साहित्यमें इनका जहाँ तहाँ सम्मानपूर्वक उल्लेख किया है। वे स्वयं इनको धर्मके सम्बन्धमें अपनाम मार्गदर्शक मानते थे । महात्माजी लिखते हैं कि-"मेरे ऊपर तीन पुरुषोंने गहरी छाप डाली है-टाल्सटॉय, रस्किन और राजचन्द्रभाई । टाल्सटॉयने अपनी पुस्तकों द्वारा और उनके साथ थोड़े पत्रव्यवहारसे; रस्किनने अपनी पुस्तक 'अन्टु दिस लास्ट' से, जिसका गुजराती नाम मैंने 'सर्वोदय' रक्खा है, और राजचन्द्रभाईने अपने गाढ़ परिचयसे । जब मुझे हिन्दू धर्ममें शङ्का उत्पन्न हुई उस समय उसके निवारण करने में राजचन्द्रभाईने मुझे बड़ी सहायता पहुंचाई थी। ई० सन् १८९३ में दक्षिण अफ्रीका मैं कुछ क्रिश्चियन सज्जनों के विशेष परिचयमें आया था । अन्य धर्मियोंको क्रिश्चियन बनाना हो उनका प्रधान व्यवसाय था। उस समय मुझे हिन्दू धर्म में कुछ अश्रद्धा हो गई थी, फिर भी मैं मध्यस्थ रहा था । हिन्दुस्तानमें जिनके ऊपर मुझे श्रद्धा थी उनसे पत्रव्यवहार किया। उनमें राजचन्द्रभाई मुख्य थे। उनके साथ मेरा अच्छा सम्बन्ध हो चुका था। उनके प्रति मुझे मान था। इसलिए उनसे जो कुछ मुझे मिल सके उसको प्राप्त करने का विचार था। मेरी उनसे भेट हुई। उनसे मिलकर मुझे अत्यन्त शान्ति मिली । अपने धर्म में दृढ़ श्रद्धा हुई । मेरी इस स्थितिके जवाबदार राजचन्द्रभाई हैं। इससे मेरा उन प्रति कितना अधिक मान होना चाहिये, इसका पाठक स्वयं अनुमान कर सकते हैं।" महात्माजी आगे और भी लिखते हैं कि-राजचन्द्रभाईके साथ मेरी भेंट जौलाई सन् १८९१ में उस दिन हुई थी कब मैं विलायतसे बम्बई आया था। उस समय मैं रंगूनके प्रख्यात जौहरी प्राणजीवनदास मेहताके घर उतरा था । राजचन्द्रभाई उनके बड़े भाईके जमाई होते थे। प्राणजीवनदासने राजचन्द्रभाईका परिचय कराया। वे राजचन्द्रभाईको कविराज कहकर पुकारा करते थे। विशेष परिचय देते हुए उन्होंने कहा-ये एक अच्छे कवि हैं और हमारे साथ व्यापार में लगे हुए हैं। इनमें बड़ा ज्ञान है, शतावधानी हैं । Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्म : ववाणिया वि. स. १९२४ कार्तिक पूर्णिमा श्रीमद् राजचंद्र देहविलय : राजकोट वि. स. १९५७ चैत्र वदी ५ / Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्जीका जन्म वि० सं० १९२४ कार्तिक शुक्ला पूर्णिमाको सौराष्ट्र मोरवी राज्यान्तर्गत ववणिया गांवमें वणिक जातिके दशाश्रीमाली कुलमें हुआ था। इनके पिताका नाम रवजीभाई पंचाणभाई मेहता और माताका नाम देवाबाई था। इनके एक छोटा भाई और ४ बहिनें थीं । घरमें इनके जन्मसे बड़ा उत्सव मनाया गया । श्रीमद्जीने अपने सम्बन्धमें जो बातें लिखी हैं वे बड़ी रोचक और समझने योग्य हैं । वे लिखते हैं __ "छुटपनकी छोटी समझमें, कौन जाने कहाँसे ये बड़ी बड़ी कल्पनाएं आया करती थीं। मुखकी अभिलाषा भी कुछ कम न थी और सुखमें भी महल, बाग बगीचे, स्त्री आदिके मनोरथ किये थे, किन्तु मनमें आया करता था कि यह सब क्या है ? इस प्रकारके विचारोंका यह फल निकला कि न पुनर्जन्म है, और न पाप है, और न पुण्य है; सुखसे रहना और संसारका सेवन करना । बस, इसीमें कृतकृत्यता है । इससे दूसरी झंझटोंमें न पड़कर धर्मकी वासना भी निकाल डालो। किसी भी धर्मके लिये थोड़ा बहुत भी मान अथवा श्रद्धाभाव न रहा। किन्तु थोड़ा समय बीतनेके बाद इसमेंसे कुछ और ही होगया । आत्मामें बड़ा भारी परिवर्तन हुआ, कुछ दूसरा ही अनुभव हुआ; और यह अनुभव ऐसा था, जो प्रायः शब्दोंमें व्यक्त नहीं किया जा सकता और न जड़वादियोंकी कल्पनामें भी आसकता । वह अनुभव क्रमसे बढ़ा और बढ़कर एक 'तू ही तू ही' का जाप करता है।" एक दूसरे पत्रमें अपने जीवनको विस्तारपूर्वक लिखते हैं कि-"बाईस वर्षको अल्पवयमें मैंने आत्मा सम्बन्धी, मन सम्बन्धी, वचन सम्बन्धी, तन सम्बन्धी, और धन सम्बन्धी अनेक रंग देखे है। नाना प्रकारकी सृष्टिरचना, नाना प्रकारकी साँसारिक लहर और अनन्त दुःखके मूल कारणोंका अनेक प्रकारसे मुझे अनुभव है । तत्वज्ञानियोंने और समर्थ नास्तिकोंने जैसे जैसे विचार किए हैं उसी तरहके अनेक मैंने इसी अल्पवयमें किए हैं । महान् चक्रवर्ती द्वारा किए गए तृष्णापूर्ण विचार और एक निस्पृही आत्मा द्वारा किये गए निस्पृहापूर्ण विचार भी मैंने किए हैं। अमरत्वकी सिद्धि और क्षणिकत्वकी सिद्धि पर मैंने खूब मनन किया है । अल्पवयमें ही मैंने महान् विचार कर डाले हैं, और महान् विचित्रताको प्राप्ति हुई है । यहां तो अपनी समुच्चय वय-चयों लिखता हूँ:--- जन्मसे सात वर्षकी बालवय नितान्त खेल कूदमें ही व्यतीत हुई थी। उस समय मेरी आत्मामें अनेक प्रकारकी विचित्र कल्पनाएं उत्पन्न हुआ करती थीं । खेल कूद में भी विजयी होने और राजराजेश्वर जैसी ऊँची पदवी प्राप्त करनेकी मेरी परम अभिलाषा रहा करती थी। स्मृति इतनी अधिक प्रबल थी कि वैसी स्मृति इस कालमें, इस क्षेत्रमें बहुत ही थोड़े मनुष्यों की होगी। मैं पढ़ने में प्रमादी था, बात बनानेमें होशियार खिलाड़ी और बहुत आनन्दी जीव था। जिस समय शिक्षक पाठ पढ़ाता था उसी समय पढ़कर मैं उसका भावार्थ सुना दिया करता था । बस, इतनेसे मुझे छुट्टो मिल जाती थी। मुझमें प्रोति और वात्सलय बहुत था। मैं सबसे मित्रता चाहता था, सबमें भ्रातृभाव हो तो सुख है, यह विश्वास मेरे मन में स्वाभाविक Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूप से रहता था। मनुष्यों में किसी भी प्रकार जुदाईका अंकुर देखते ही मेरा अन्तःकरण रो पड़ता था । आठवें वर्ष में मैंने कविता लिखी थी, जो पीछेसे जाँच करने पर छन्दशासके नियमानुकूल थी। उस समय मैंने कई काव्यग्रन्थ लिखे थे, अनेक प्रकारके और भी बहुतसे ग्रन्थ देख डाले थे । मैं मनुष्य जातिका अधिक विश्वास था। मेरे पितामह कृष्णकी भक्ति किया करते थे। उस वयमें मैंने उनके कृष्ण-कीर्तन तथा भिन्न भिन्न अवतार सम्बन्धो चमत्कार सुने थे। जिससे मुझे उन अवतारोंमें भक्तिके साथ प्रीति भी उत्पन्न होगई थी, और रामदासजी नामके साधुसे मैंने बाल-लीलामें कंठी भी बंधवाई थी। मैं नित्यही कृष्णके दर्शन करने जाता था, अनेक कथाएं सुनता था, जिससे अवतारोंके चमत्कारों पर बार बार मुग्ध होजाया करता था, और उन्हें परमात्मा मानता था।xxx गुजराती भाषाको पाठशालाकी पुस्तकों में कितनी ही जगह जगत्कर्ताके सम्बन्धमें उपदेश हैं, वह मझे दृढ हो गया था। इस कारण जैन लोगोंसे घणा रहा थी । कोई पदार्थ बिना बनाए नहीं बन सकता, इसलिये जैन मूर्ख हैं, उन्हें कुछ भी खबर नहीं । उस समय प्रतिमा-पूजनके अश्रद्धालु लोगोंकी क्रिया मुझे वैसे ही दिखाई देती थी, इसलिये उन क्रियाओंकी मलिनताके कारण मैं उनसे बहुत डरता था, अर्थात् वे क्रियाये मुझे पसन्द नहीं थीं। मेरी जन्मभूमिमें जितने वणिक लोग रहते थे, उन सबकी कुल-श्रद्धा यद्यपि भिन्न भिन्न थी फिर भी वह थोड़ी बहुत प्रतिमा-पूजनके अश्रद्धालुलों के समान थी। लोग मुझे प्रथमसे ही शक्तिशाली और गाँवका नामांकित विद्यार्थी मानते थे, इससे मैं कभी कभी जनमंडलमें बैठकर अपनी चपल शक्ति बतानेका प्रयत्न किया करता था। वे लोग कंठी बाँधनेके कारण बार बार मेरी हास्यपूर्वक टीका करते, तो भी मैं उनसे वादविवाद करता और उन्हें समझानेका प्रयत्न करता था । धीरे-धीरे मुझे जैनोंके प्रतिक्रमण सूत्र इत्यादि ग्रन्थ पढ़नेको मिले । उनमें बहुत विनयपर्वक जगतके समस्त जीवोंसे मैत्रीभाव प्रकट किया है। इससे मेरी उस ओर मोति हुई और प्रथममें रही। परिचय बढ़ता गया । स्वच्छ रहनेका और दूसरे आचार विचार मझे वैष्णवोंके ही प्रिय थे, जगत्कर्ताको भी श्रद्धा थी । इतने में कंठी टूट गई, और उसे दुबारा मैंने नहीं बांधी । उस समय बाँधने न बाँधनेका कोई कारण मैंने नहीं ढूढा था । यह मेरी तेरह वर्ष की वयचर्या है । इसके बाद अपने पिताकी दुकानपर बैठने लगा था। अपने अक्षरोंकी छटाके कारण कच्छ दरबारके महलमें लिखने के लिए जब जब बुलाया जाता था तब वहां जाता था। दुकान पर रहते हुए मैंने अनेक प्रकारका आनन्द किया है, अनेक पुस्तकें पढी हैं, राम आदिके चारित्रों पर कविताएं रची हैं, सांसारिकतृष्णाएं की हैं, तो भी किसीको मैंने कम-अधिक भाव नहीं कहा, अथवा किसीको कम ज्यादा तौलकर नहीं दिया, यह मुझे बराबर याद है ।" Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७ ) इस पर से स्पष्ट ज्ञात होता है कि वे एक अति संस्कारी आत्मा थे। बड़े बड़े विद्वान् भी जिस मात्मा की ओर लक्ष्य नहीं देते उसी आत्माकी ओर श्रीमद्जीका बाल्याकालसे लक्ष्य तीव्र था। आत्माके अमरत्व तथा क्षणिकत्वके विचार भी कुछ कम नहीं किये थे । कुलश्रद्धासे जैन धर्मको अंगीकार नहीं किया था, लेकिन अपने अनुभव के बलपर उसे सत्य सिद्ध करके अपनाया था । जैन धर्मके सत्य सिद्धान्तोंको श्रीमद्जीने अपने जीवनमें उतारा था और मुमुक्षुओंको भी तदनुरूप बनानेका बोध देते थे। वर्तमान युगमें ऐसे महात्माका आविर्भाव समाजके लिये सौभाग्यकी बात है। ये मतमतान्तर में मध्यस्थ थे। आपको जातिस्मरण ज्ञान था अर्थात् पूर्वभव जानते थे ! इस सम्बन्धमें मुमुक्षुभाई पदमशीभाईने एक बार उनसे पूछा था और उसका स्पष्टीकरण स्वयं उन्होंने अपने मुखसे किया था। पाठकोंकी जानकारीके लिये उसे यहाँ दे देना योग्य समझता हूं। पदमशीभाईने पूछा- आपको जातिस्मरण-ज्ञान कब और कैसे हुआ ?" श्रीमद्जीने उत्तर दिया-"जब मेरी उम्र सात वर्षकी थी, उस समय ववाणियामें अमीचन्द नामके एक सद्गृहस्थ रहते थे। वे परे लम्बे-चौड़े, सन्दर और गणवान थे। उनका मेरे ऊपर खूब प्रेम था । एक दिन सर्पके काट खानेसे उनका तुरन्त देहान्त हो गया। आसपासके मनुष्योंके मुखसे इस बातको सुनकर मैं अपने दादाके पास दौड़ा आया। मरण क्या चीज है ? इस बातको मैं नहीं जानता था, इसलिये मैंने दादा से कहा-दादा! अमीचन्द मर गए क्या ? मेरे दादाने उस समय विचारा कि यह बालक है, मरणकी बात करनेसे डर जायगा, इसलिए उन्होंने-जा भोजन करले, यों कहकर मेरी बातको टालनेका प्रयत्न किया। 'मरण' शब्द उस छोटे जीवनमें मैंने प्रथम बार ही सुना था । मरण क्या वस्तु है, यह जाननेकी मुझे तीव्र आकांक्षा थी। वारम्बार मैं पूर्वोक्त प्रश्न करता रहा । अन्तमें वे बोले-तेरा कहना सत्य है अर्थात् अमीचन्द मर गए हैं। मैंने आश्चर्यपूर्वक पूछा-मरण क्या चीज है ? दादाने कहा-शरीरमेंसे जीव निकल गया है और अब वह हलन-चलन आदि कुछ भी क्रिया नहीं कर सकता, खाना-पीना भी नहीं कर सकता। इसलिए अब इसको तालाबके समीपके श्मशानमें जला जायेंगे। मैं थोड़ी देर इधर-उधर छिपा रहा । बादमें तालाब पर जा पहुंचा। तट पर दो शाखावाला एक बबूलका पेड़ था, उसपर चढ़कर मैं सामनेका सब दृश्य देने लगा। चिता जोरोंसे जल रही थी, बहुतसे आदमी उसको घेरकर बैठे हुए थे। यह सब देखकर मुझे विचार आयामनुष्यको जलानेमें कितनी क्रूरता ! यह सब क्या ? इत्यादि विचारोंसे आत्म-पट दूर हो गया।" ___ एक विद्वानने श्रीमद्जीको, पूर्व जन्मके सम्बन्ध में अपने विचार प्रकट करनेके लिए लिखा था। उसके उत्तर में उन्होंने जो कुछ लिखा था, वह निम्न प्रकार है “कितने ही निर्णयोंसे मैं यह मानता हूं कि, इस कालमें भी कोई कोई महात्मा पहले भवको जातिस्मरण ज्ञानसे जान सकते हैं, और यह जानना कल्पित नहीं परन्तु सम्यक् (यथार्थ) Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८ ) होता है । उत्कृष्ट संवेग, ज्ञान-योग और सत्संगसे यह ज्ञान प्राप्त होता है, अर्थात् पूर्वभव प्रत्यक्ष अनुभव में आ जाता है । जबतक पूर्वभव गम्य न हो तब तक आत्मा भविष्यकालके लिए शंकितभावसे धर्म-प्रयत्न किया करती है, और ऐसा सशंकित प्रयत्न योग्य सिद्धि नहीं देता ।" पुनर्जन्म की सिद्धिके लिए श्रीमद्जीने एक विस्तृत पत्र लिखा है जो 'श्रीमद् राजचन्द्र' प्रन्थ में प्रकाशित है । पुनर्जन्म सम्बन्धी इनके विचार बड़े गम्भीर और विशेष प्रकार से मनन करने योग्य हैं । १९ वर्षकी अवस्था में श्रीमद्जीने एक बड़ी सभामें सौ अवधान किए थे, जिस देखकर उपस्थित जनता दांतों तले उंगली दबाने लगी थी । अंग्रेजी प्रसिद्ध पत्र 'टाइम्स ऑफ इण्डिया' ने अपने ता० २४ जनवरी १८८७ के अंकमें श्रीमद्जी के सम्बन्धमें एक लेख लिखा था जिसका शीर्षक था 'स्मरण शक्ति तथा मानसिक शक्तिके अद्भुत प्रयोग ।' “रामचन्द्र रवजीभाई नामके एक १९ वर्षके युवा हिन्दूको स्मरणशक्ति तथा मानसिक शक्तिके प्रयोग देखनेके लिये गत शनिवारको संध्या समय फरामजी कावसजी इन्स्टीट्यूट में देशी सज्जनोंका एक भव्य सम्मेलन हुआ था । इस सम्मेलन के सभापति डाक्टर पिटर्सन नियुक्त हुए थे । भिन्न भिन्न जातियोंके दर्शकों में से दस सज्जनोंकी एक समिति संगठित की गई। इन सज्जनोंने दस भाषाओंके छ छ शब्दोंके दस वाक्य बनाकर लिख लिए और अक्रमसे बारो बारीसे सुना दिए । थोड़े ही समय बाद इस हिन्दू युवकने दर्शकोंके देखते देखते स्मृतिके बलसे उन सब वाक्योंको क्रमपूर्वक सुना दिया । युवकको इस शक्तिको देखकर उपस्थित मंडली बहुत ही प्रसन्न हुई । इस युवाकी स्पर्शन इन्द्रिय और मन इन्द्रिय अलौकिक थी । इस परीक्षा के लिये अन्य अन्य प्रकारकी कोई बारह जिल्दें बतलाई गई और उन सबके नाम सुना दिए गए। इसके आंखों पर पट्टी बांधकर इसके हाथों पर जो जो पुस्तकें रखो गई, उन्हें हाथोंसे टटोलकर इस युवक ने सब पुस्तकों के नाम बता दिए। डा० पिटर्सनने इस युवकको इस प्रकार आश्चयपूर्ण स्मरणशक्ति और मानसिक शक्तिका विकास देखकर बहुत बहुत धन्यवाद दिया और समाजकी ओर से सुवर्ण पदक और साक्षात् सरस्वतीकी पदवी प्रदान की गई । उस समय चाल्स सारजंट बम्बई हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस थे । वे श्रीमद्जीकी इस शक्ति बहुत ही प्रभावित हुए। सुना जाता है कि सारजंट महोदयने श्रीमद्जीसे इंग्लैंड चलनेका आग्रह किया था, परन्तु वे कार्तिसे दूर रहने के कारण चाल्स महाशय की इच्छा के अनुकूल न हुए अर्थात् इंग्लैंड न गए ।” इसके अतिरिक्त बम्बई समाचार आदि अखबारों में भी इनके शतावधान के समाचार प्रकाशित हुए थे। बाद में शतावधानक प्रयोगोंको आत्मचिन्तनमें अन्तरायरूप मानकर उनका करना बन्द कर दिया था ! इससे सहज ही अनुमान किया जा सकता है कि वे कीर्ति आदिसे Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९ ) कितने निरपेक्ष थे । उनके जीवनमें पद पद पर सच्ची धार्मिकता प्रत्यक्ष दिखाई देती थी। वे २१ वर्षकी उम्र में व्यापारार्थ ववाणियासे बम्बई आए । वहाँ सेठ रेवाशंकर जगजीवनदासकी दुकान में भागीदार रहकर जवाहरातका धन्धा करते रहे। वे व्यापार में अत्यन्त कुशल थे । ज्ञानयोग तथा कर्मयोगका इनमें यथार्थ समन्वय देखा जाता था । व्यापार करते हुये भी श्रीमद्जीका लक्ष्य आत्माकी ओर अधिक था । इनके ही कारण उस समय मोतियों के बाजारमें श्रीयुत रेवाशंकर जगजीवनदासकी पेढ़ी नामी पीढ़ियों में एक गिनी जाती थी । स्वयं श्रीमद्जाके भागीदार श्रीयुत माणिकलाल वेलाभाईको इनकी व्यवहारकुशलता के लिये अपूर्व बहुमान था । उन्होंने अपने एक वक्तव्यमें कहा था कि “श्रीमद् राजचन्द्रके साथ लगभग १५ वर्ष तक परिचय रहा, और उसमें सात-आठ वर्ष तो मेरा उनके साथ अत्यन्त परिचय रहा था । लोगों में अति परिचय से परस्परका महत्त्व कम हो जाता है, परन्तु कहता हूं कि उनकी दशा ऐसी आत्ममय थी कि उनके प्रति मेरा श्रद्धाभाव दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही गया । व्यापार में अनेक प्रकारकी कठिनाइयाँ आती थीं, उनके सामने श्रीमद्जी एक अडोल पर्वतके समान टिके रहते थे। मैंने उन्हें जड़ वस्तुओंकी चिन्तासे चिन्तातर नहीं देखा । वे हमेशा शान्त और गम्भीर रहते थे। किसी विषय में मतभेद होने पर भी हृदय में वैमनस्य नहीं था । सदैव पूर्वसा व्यवहार करते थे ।" मैं श्रीमद्जी व्यापारमें जैसे निष्णात थे उससे अत्यन्त अधिक आत्मतत्त्वमें निष्णात थे । उनकी अन्तरात्मामें भौतिक पदार्थोंकी महत्ता नहीं थी । वे जानते थे-धन पार्थिव शरीर का साधन है, परलोक अनुयायी तथा आत्माको शाश्वत शान्ति प्रदान करनेवाला नहीं है । व्यापार करते हुए भी उनकी अन्तरात्मामें वैराग्य-गंगाका अखण्ड प्रवाह निरन्तर बहता रहता था । मनुष्य-भव के एक एक समयको वे अमूल्य समझते थे । व्यापारसे अवकाश मिलते काई अपूर्व आत्मविचारणामें लीन हो जाते थे । निवृत्तिकी पूर्ण भावना होने पर भी पूर्वोदय कुछ ऐसा विचित्र था जिससे उनको बाह्य उपाधिमें रहना पड़ा । श्रीमद्जी जवाहरात के साथ साथ मोतियों का भी व्यापार करते थे । व्यापारी समाज में वे अत्यन्त विश्वासपात्र समझे जाते थे । उस समय एक आरब अपने भाईके साथ रहकर बम्बई में मोतियोंकी आढ़तका धन्धा करता था। छोटे भाईके मनमें आया कि आज मैं भी बड़े भाई के समान कुछ व्यापार करूं । परदेशसे आया हुआ माल साथमें लेकर आरब बेचने निकल पड़ा । दलालने श्रीमद्जीका परिचय कराया । श्रीमद्जीने आरबसे कहा- भाई, सोच समझकर भाव कहना । आरब बोला -जो मैं कह रहा हूं, वही बाजार भाव है, आप माल खरीद करं । श्रीमद्जीने माल ले लिया, तथा उसको एक तरफ रख दिया वे जानते थे कि इसको नुकसान हैं और हमें फायदा | परन्तु वे किसीकी भूलका लाभ नहीं लेना चाहते थे। आरबबर पहुंचा, बड़े भाई से सौदा की बात की। वह घबराकर बोला तूने यह क्या किया ! उसला बहुत नुकसान है। अब क्या था, आरब श्रीमद्जीके पास आया और सादा रद्द करनेको कहा | व्यापारिक नियमानुसार सौदा तय हो चुका था, आरब वापस लेनेका अधिकारी नहीं था, Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) फिर भी श्रीमद्जीने सौदा रद्द करके मोती उसे वापिस दे दिए। श्रीमद्जीको इस सौदे से हजारोंका फायदा था, तो भी उन्होंने उसकी अन्तरात्माको दुःखित करना अनुचित समझा और मोती लौटा दिए । कितनी निस्पृहता-लोभ वृत्तिका अभाव ! आजके व्यापारियोंमें यदि सत्यता आजाय तो सरकारको नित्य नये नये नियम बनानेकी जरूरत ही न रहे और मनुष्य-समाज सुखपूर्वक जीवन यापन कर सके। श्रीमद्जीकी दृष्टि बड़ी विशाल थी। आज भी भिन्न भिन्न सम्प्रदायवाले उनके वचनोंका रुचि सहित आदरपूर्वक अभ्यास करते हुए देखे जाते हैं । उन्हें वाडाबन्दी पसन्द नहीं थी। वे कहा करते थे कि कुगुरुओंने लोगोंकी मनुष्यता लूट ली है, विपरीत मार्गमें रुचि उत्पन्न करादी है, सत्य समझानेकी अपेक्षा कुगुरु अपनी मान्यताको ही समझानेका विशेष प्रयत्न करते हैं। श्रीमद्जीने धर्मको स्वभावकी सिद्धि करनेवाला कहा है। धर्मों में जो भिन्नता देखी जाती है, उसका कारण दृष्टिकी भिन्नता बतलाया है। इसी बातको वे स्वयं दोहे में प्रगट करते हैं: भिन्न भिन्न मत देखिए, भेद दृष्टिनो एह । एक तत्त्वना मूलमां, व्याप्या मानो तेह ॥ तेह तत्त्वरूप वृक्षनु, आत्मधर्म छे मूल । स्वभावनी सिद्धि करे, धर्म ते ज अनुकूल ॥ अर्थात्-भिन्न भिन्न जो मत देखे जाते हैं, वह सब दृष्टिका भेद है । सब ही मत एक तत्त्वके मूलमें व्याप्त हो रहे हैं । उस तत्त्वरूप वृक्षका मूल है आत्मधर्म, जो कि स्वभावकी सिद्धि करता है; और वही धर्म प्राणियोंके अनुकूल है । श्रीमद्जीने इस युगको एक अलौकिक दृष्टि प्रदान की है। वे रूढ़ि या अन्धश्रद्धाके कट्टर विरोधी थे। उन्होंने आडम्बरोंमें धर्म नहीं माना था। वे मत-मतान्तर तथा कदाग्रहादिसे बहुत ही दूर रहते थे। वीतरागता की और ही उनका लक्ष्य था । पेढ़ीसे अवकाश लेकर वे अमुक समयतक खंभात, काविठा, उत्तरसंडा, नडियाद, वसो और ईडरके पर्वतमें एकान्तवास किया करते थे। मुमुक्षुओंको आत्मकल्याणका सञ्चा मार्ग बताते थे। इनके एक एक पत्रमें कोई अपूर्व रस भरा हुआ है। उन पत्रोंका मर्म समझनेके लिए सन्त-समागमकी विशेष आवश्यकता अपेक्षित है । ज्यों ज्यों इनके लेखोंका शान्त और एकाग्र चित्तसे मनन किया जाता है, त्यों त्यों आत्मा क्षणभरके लिए एक अपूर्व आनन्दका अनुभव करता है । 'श्रीमद् राजचन्द्र' ग्रन्थके पत्रोंमें उनका पारमार्थिक जीवन जहाँ तहाँ दृष्टिगोचर होता है। ___श्रीमद्जीकी भारतमें अच्छी प्रसिद्धि हुई। मुमुक्षुओंने उन्हें अपना मार्ग-दर्शक माना। बम्बई रहकर भी वे पत्रों द्वारा मुमुक्षुओंको शंकाओंका समाधान करते रहते थे । प्रातःस्मरणीय श्री रघुराज स्वामी इनके शिष्योंमें मुख्य थे । श्रीमद्जी द्वारा उपदिष्ट तत्वज्ञानका संसार में प्रचार हो तथा अनादिसे परिभ्रमण करनेवाले जीवोंको मोक्षमार्ग मिले, इस उद्देश्यसे स्वामीजीके उपदेशसे Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११) श्रीमद्जीके उपासकोंने गुजरातमें अमास स्टेशनके पास 'श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम' की स्थापना की थी, जो आज भी उन्हीं की भावनानुसार चलता है । इसके सिवाय खंभात, वडवा, नरोडा, धामण, आहोर, ववाणिया, करविठा, भादरण, ईडर, उत्तरसंडा, नार आदि स्थलोंमें भी इनके नामसे आश्रम तथा मन्दिर स्थापित हुए हैं। श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम अगासके अनुसार ही उनमें प्रवृत्ति है-अर्थात् श्रीमद्जीके तत्वज्ञानकी प्रधानता है । ___ श्रीमद् एक उच्चकोटिके असाधारण लेखक और वक्ता थे। उन्होंने १६ वर्ष और ५ मासकी उम्रमें ३ दिनमें १०८ पाठवाली 'मोक्षमाला' बनाई थी । आज तो इतनो आयुमें शुद्ध लिखना भी नहीं आता, जब कि श्रीमद्जीने एक अपूर्व पुस्तक लिख डाली । पूर्व भवका अभ्यास ही इसमें कारण था। इससे पहले पुष्पमाला, भावना बोध आदि पुस्तकें लिखी थीं। श्रीमद्जी मोक्षमालाके सम्बन्धमें लिखते हैं कि-"इस (मोक्षमाला) में मैंने जैन धर्मके समझानेका प्रयत्न किया है; जिनोक्त मार्गसे कुछ भी न्यूनाधिक नहीं लिखा है। वीतराग मार्गमें आबाल-वृद्धकी रुचि हो, उसके स्वरूपको समझे तथा उसका बोज हृदयमें स्थिर हो, इस कारण इसकी बालावबोधरूप रचना की है।" इनकी दूसरी कृति आत्म-सिद्धि हैं, जिसको श्रीमद्जोने १।। घंटे में नडियादमें बनाया था। १४२ दोहोंमें सम्यग्दर्शनके कारणभूत छह पदोंका बहुत ही सुंदर पक्षपात रहित वर्णन किया है। यह कृति नित्य स्वाध्यायकी वस्तु है। श्रीकुंदकुंदाचार्य के पंचास्तिकायकी मूल गाथाओंका भी इन्होंने अक्षरशः गुजरातीमें अनुवाद किया है, जो 'श्रीमद्राजचन्द्र' ग्रन्थमें छप चुका है। श्रीमद्जीने आनन्दधन चौबीसीका अर्थ लिखना प्रारम्भ किया था। और उसमें, प्रथमादि दो स्तवनोंका अर्थ भी किया था; पर न जाने क्यों अपूर्ण रह गया है। संस्कृत तथा प्राकृत भाषापर आपका पूरा अधिकार था। सूत्रोंका यथार्थ अर्थ समझाने में आप बड़े निपुण थे। आत्मानुभव-प्रिय होनेसे श्रीमद्जीने शरीरकी कोई चाह नहीं रखी। इससे पोद्गलिक शरीर अस्वस्थ हुआ। दिन-प्रतिदिन उसमें कृशता आने लगी। ऐसे अवसर पर आपसे किसीने पछा-'आपका शरीर कृश क्यों होता जाता है ?" श्रीमद्जीने उत्तर दिया 'हमारे दो बगीचे हैं, शरीर और आत्मा। हमारा पानी आत्मा रूपी बगीचेमें जाता हैं, इससे शरीर रूपी बगीचा सूख रहा है।' देहके अनेक प्रकारके उपचार किए गए । वे वढ़वाण, धर्मपुर आदि स्थानोंमें रहे, किन्तु सब उपचार निष्फल गए । कालने महापुरुषके जीवनको रखना उचित न समझा। अनित्य वस्तुका सम्बन्ध भी कहाँ तक रह सकता है ! जहाँ सम्बन्ध वहाँ वियोग भी अवश्य है। देहत्यागके पहले दिन शामको श्रीमद्जीने श्री रेवाशंकर आदि मुमुक्षुओंसे कहा-'तुम लोग निश्चिन्त रहना। यह आत्मा शाश्वत है। अवश्य विशेष उत्तम गतिको प्राप्त होगी। तुम शान्त और समाधिपूर्ण रहना। मैं कुछ कहना चाहता था, परन्तु अब समय नहीं है। तम पुरुषार्थ करते रहना' प्रभातमें श्रीमद्जीने अपने लघु भ्राता मनसुखभाईसे कहा-'भाईका समाधिमरण है । मैं अपने आत्मस्वरूपमें लीन होता हूं।' फिर वेन बोले । इस प्रकार श्रीमदुजाने Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) वि० सं० १९५७ मिती चैत्र वदी ५ (गुजराती) मंगलवारको दोपहरके २ बजे राजकोट में इस नश्वर शरीरका त्याग किया । इनके देहान्तके समाचारसे मुमुक्षुओंमें अत्यन्त शोकके बादल छा गये । अनेक समाचार पत्रोंने भी इनके लिये शोक प्रदर्शित किया था । श्रीमद्जीका पार्थिव शरीर आज हमारी आँखोंके सामने नहीं है, किन्तु उनका सद्उपदेश, जबतक लोकमें सूर्यचन्द्र हैं तबतक स्थिर रहेगा तथा मुमुक्षुओंको आत्मज्ञानमें एक महान सहायक रूप होगा । श्रीमद्जीने परम सत् श्रुतके प्रचारार्थ एक सुन्दर योजना तैयार की थी । जिससे मनुष्य समाज में परमार्थ मार्ग प्रकाशित हो । इनकी विद्यमानतामें वह योजना सफल हुई और तदनुसार परमश्रुत प्रभावक मंडलकी स्थापना हुई । इस मंडलकी ओरसे दोनों सम्प्रदायों के अनेक सद्ग्रन्थोंका प्रकाशन हुआ है । इन ग्रन्थोंके मनन अध्ययन से समाज में अच्छी जागृति आई | गुजरात, सौराष्ट्र और कच्छमें आज घर घर सद्-ग्रन्थोंका जो अभ्यास चालू है वह इसी संस्थाका ही प्रताप है । 'रायचन्द्र अने प्रन्थमाला मंडल की अधीनतामें काम करता थी । राष्ट्रपिता महात्मा गांधीजी इस संस्थाके ट्रस्टी और भाई रेवाशंकर जगजीवनदासजी मुख्य कार्यकर्ता थे । भाई रेवाशंकरजीके देहोत्सर्ग के बाद संस्थामें कुछ शिथिलता आगई; परन्तु अब उस संस्थाका काम श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम अगासके ट्रस्टियोंने संभाल लिया है और सुचारु रूपसे पूर्वानुसार सभी कार्य चल रहे हैं। B इस आश्रम की ओरसे श्रीमद्जीका सभी साहित्य सुपाठ्य रूपसे प्रकाशित हुआ है । 'श्रीमद् राजचन्द्र' एक विशाल ग्रन्थ है, जिसमें उनके आध्यात्मिक पत्र तथा लेखोंका अच्छा संग्रह है । श्रीमद्जी के विषय में विशेष जाननेकी इच्छावालोंको, इस आश्रम से प्रकाशित 'श्रीमद् राजचन्द्र जीवनकला' अवलोकनीय है । - गुणभद्र जैन. Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री परमात्मने नमः। प्रस्तावना विदित हो कि अनादिकालीन सर्वोत्तम जैन धर्ममें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूप रत्नत्रयके समुदायको मोक्षकी प्राप्तिके प्रति कारणता है । इसमें भी सम्यग्दर्शन प्रधान है । क्योंकि, उसके विना ज्ञानको और सम्यग्ज्ञानके विना चारित्रको सम्यक् पदकी प्राप्ति नहीं होती है। वह सम्यग्दर्शन जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश तथा काल इन षट् द्रव्योंके यथार्थ स्वरूपको जानकर उसमें श्रद्धान (विश्वास) करनेसे होता है । अतः सिद्ध हुआ कि मोक्षाभिलाषी जनों को सर्वतः प्रथम षट् द्रव्योंका ज्ञान करना अत्यन्त आवश्यक है । वह ज्ञान अन्तिम द्रव्यानुयोगसे होता है। इसी कारण पूज्य पुरुषोंने द्रव्यानुयोगके ज्ञान की प्रशंसा मुक्तकंठ होकर की है और इसके अभ्यास करनेवालोंको उत्तम कहा है। प्राचीन आचार्यों और बुद्धिमान् गृहस्थरत्नोंने अपरिमित आपत्तियों और परिश्रमोंको सहन करके परोपकारबुद्धिसे इस विषयके सहस्रोंकी रचना की थी। परन्तु विकराल कलिकालके प्रभावसे जीवोंके आयु, बल, बुद्धि तथा सद्धर्मकी श्रद्धा आदिमें प्रति समय होती हुई मंदता, प्रमाद और विषयाभिलाषिताकी वृद्धि एवं दुष्टोंकी दुष्टता आदिसे अनेक ग्रन्थ तो निरादरपूर्वक नष्ट होगये और बहुतसे तल्लाकोंदार कुफल और मूल्के अधिकारमें रहनेसे जीर्ण हो रहे हैं। जिनका कि सूचीके विना पता भी नहीं लगता। यह अत्यन्त खेदका विषय है। ___ तथापि दिगम्बर संप्रदायमें समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, परमात्मप्रकाश, राजवार्तिक, श्लोकवात्तिक, प्रमेयकमलमार्तण्ड, न्यायकुमुदचन्द्रोदय, अष्टसहस्री, आप्तपरीक्षा, पंचाध्यायी सटीक, द्रव्यसंग्रह, नयचक्र, सप्तभंगतरंगिणी आदि और श्वेताम्बर' संप्रदायमें संमितितर्क, षोडशक, स्याद्वादरत्नाकरावतारिका, स्याद्वादमंजरी, तत्त्वार्थाधिगमभाष्य आदि अनेक प्रन्थ जो प्रचारमें आरहे हैं, उनसे संतोष है। श्वेताम्बर संप्रदायके उक्त ग्रन्थोंमें यथार्थ नामका धारक यह "द्रव्यानुयोगतर्कणा" नामक शाला भी एक है। इसके कर्त्ता तपोगच्छगगनमण्डलमार्तण्ड श्रीविनंतसागरजाके मुख्य शिष्य द्रव्यविज्ञाननागर सकलगुणसागर श्रीभोजसागरजी हैं । उक्त महात्माने अपने अवतारसे किस वसुधामंडलको मंडित किया यह शीघ्रतामें निश्चित न हो सका। समयके विषय वाचकमुख्य श्रीयशोविजयोपाध्यायजीविरचित्त द्रव्य गुणपर्याय भाषाविवरणके अनुसार इस प्रकृत शास्त्रका संकलन करनेसे अनुमान किया जाता है कि विक्रम सं० १५०० के पीछे किसी समय इन्होंने यह ग्रन्थ रचा है । (१) श्वेताम्बर संप्रदायके प्रचलित ग्रन्थोंके विशेष नाम उपस्थित नहीं थे, इसलिये थोडेसे ही नाय दिखलाये गये हैं। (२) तपोगच्छकी एक दो पत्रों की पट्टावली देखी, उसमें भी इनका तथा इनके गुरुजनोंका वर्णन नहीं मिला। (३) इनके नामके स्मरणार्थ काशी में एक विशाल श्वेताम्बरपाठशाला है। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) उक्त ग्रन्थमें शास्त्रकार महोदयने सुगमतासे मन्दबुद्धि जीवोंको द्रव्यज्ञान होनेके अर्थ "गुणपर्ययवद्व्य म्" इस महाशास्त्र तत्त्वार्थसूत्रके अनुकूल द्रव्य, गुण और पर्यायोंका ही विशेष वर्णन किया है और प्रसंगवश 'स्यादस्ति' 'स्यान्नास्ति' आदि सप्त भंगोंका और दिगम्बराचार्यवर्य श्रीदेवसेनस्वामीविरचित नयचक्रके आधारसे नय, उपनय तथा मूलनयोंका भी विस्तारसे वर्णन किया है; जो कि विषयसूचीसे विदित होगा। वर्तमान संस्कृतानभिज्ञ बुद्धिमान् जीवोंको अतिशय ज्ञानप्रद इस ग्रंथद्वारा तेरह लाख जैनियोंमेंसे प्रायः तेरह जैनियोंको भी परिपूर्ण लाभ नहीं मिलता हुआ देखकर यथार्थ नामधारक "श्रीपरमश्रुतप्रभावकमंडल बंबई" के प्रबन्धक चतुर महाशयोंने इस शासको व्याकरणाचार्य श्री ठाकुरप्रसादजीशर्मा द्विवेदीके हस्तमें अनुवाद करनेके अर्थ प्रदान किया और उक्त पंडितजीने भी इसका अनुवाद करके उनके मनोरथ को सफल कर दिया । परन्तु अनुवादक महाशयके स्थानान्तर होजानेसे इसके संशोधनका भार मंडलके व्यवस्थापक महाशयने मुझको दिया, जो कि मैंने यथाशक्ति किया है। इसमें यदि कोई भूल हुई हो तो पाठकगण क्षमा करें। इस शास्त्रके संशोधनमें जयपुरस्थ संवेगी साधुवर श्रीशिवरामजी महाराजने अनेक प्रकारको सहायता दी है, अतः मैं उनका कृतज्ञ हूँ। अन्तमें परमश्रुतप्रभावकमंडलके सभासदों और व्यवस्थापक शा० रेवाशंकरजी जगजीवनजी जोहरीको धन्यवाद देता हूं कि जो इस सच्चे धर्मकार्यमें परिश्रम कर जगत्का उपकार कर रहे हैं । इत्यलम् । स्थान जयपुर शुभमिति कार्तिक वदी १२ रविवार सं. १९६३ विक्रम. संशोधक और निवेदक विनयावनत पं. जवाहरलाल साहित्यशास्त्री दि० जैन. | Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओं नमः सिद्ध भ्यः । उपोद्घातः। विदितमस्तु समस्तवस्तुवेदकवीतरागचरणशरणमासेदुषामाप्तोदितविश्वासजुषां हेयोपादेयविदुषां विदुषां प्रति संप्रति यद्धि समीचीनतायाः प्राचीनतायाश्च निदर्शने जैनदर्शने सम्यरदर्शनज्ञानचारित्रमयरत्नत्रयसमुदयमेव निखिलकर्मनिर्मोक्षणलक्षणस्य मोक्षस्य कारणं विश्रुतमिति । तत्रापि च तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनमिति महाशास्त्रतत्त्वार्थाधिगमसूत्रानुकूलं जीवाजीवास्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षाख्यां सप्ततत्त्वानां स्वरूपानुरूपश्रद्धानलक्षणं सम्यग्दर्शनं प्रकृष्टतरं, तेन विना ज्ञानस्य सज्ज्ञानमन्तरा चारित्रस्यासमीचीनत्वाच । उक्तेषु सप्ततत्त्वेषु जीवाजीवौ मुख्यतमौअपराणि त्वनयोः संयोगजनितानीति च । एतयोर्जीवस्त्वेक एव, अजीवः पुनर्धर्माधर्माकाशकालपुद्गलभेदात्पश्चधा । एवमेकेन जीवेन सार्द्धमजीवस्य पश्चप्रकाराणां मेलने कृते निष्पन्ना या षट्संख्या सैव षड्द्रव्यत्वेन प्रपन्नाः सर्वज्ञैः। द्रव्यलक्षणं चाखिलमतविलक्षणं गुणपर्ययवत्त्वमतः कृत्वा गुणपर्यायसमन्वितानां षण्णां द्रव्याणां परिज्ञानमेव मोक्षं प्रत्यत्यन्तोपयोगीति पर्यवसन्नम्।। अत एव च विहितातरौद्रदुर्ध्यानद्वयवियोगानां श्रेयोविनियोगानां प्रथमफरणचरणद्रव्याभिख्यचतुरनुयोगानां मध्ये स्याद्वादभानुप्रखरकरप्रकरदूरीकृतैकान्तध्वान्तं शुद्धबुद्धकस्वभावपरमात्मस्वरूपनिरूपणसुधासंधूतमिथ्यात्वमलमलिनभव्यजनस्वान्तं नितान्तनिचितपरमशुद्धोपयोग चरमद्रव्यानुयोग विशेषेण समनुमनन्ति परिशीलयन्ति चात्मज्ञानप्रसेदिवांसो विद्वांसः । दुःषमारजनिजनितप्रतिसमयविवर्द्धमाननिबिडान्धकारप्रचारसंजातैर्जनतामतिमान्यप्रमादानिष्टजनदौष्टयादिकारणजातैनष्टे नष्टप्राये जीणितेऽनवधारितसत्त्वे च कलाकलापालयनिखिलनिलिम्पपत्यालापसंस्तुतसर्वज्ञकल्पानल्पयतिपतिपरिकल्पितैतद्विषयकसिद्धान्तसंघाते संतिष्ठन्ते किलाधुनापि सुकृतिनां सुकृतैर्दिगम्बरश्वेताम्बराख्ययोरुभयोरेव संप्रदाययोर्मध्ये शतशो ग्रन्था इति संतोषास्पदमिदम् । तेषु चैषा यथार्थनामा द्रव्यानुयोगतर्कणाप्यन्यतमा। अस्या विधाता तपोगच्छगगनभास्करश्रीविनीतसागरप्रियाप्रशिष्यो द्रव्यविज्ञाननागरः सद्गुणसागरः श्रीभोजसागरः स्वजनुषा कतमं वसुधामण्डलं मण्डयामासेति निर्णतुं नो शक्नुमः । समयश्चास्य दुर्वारमारमदमर्दक. श्रीहेमचन्द्रसूरीश्वरविनिर्मितायाः स्याद्वादपरिच्छेदिकाया अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिशिकाया निरवद्यपद्यानां स्वप्रबन्धे विनियोजनात्-श्रीमद्यशोविजयोपाध्यायमतल्लिकाविहितद्रव्यगुणपर्यायभाषाविवरणो दितार्थमनुसृत्यैतद्ग्रन्थसंकलनाञ्च विक्रमार्कपश्चदशशताब्द्युत्तरमेव भवेदित्युनुमीयते। विज्ञजनसंस्तुतेऽस्मिन् प्रस्तुते ग्रन्थे गुणपर्ययवद्रव्य मितिसूत्रोदितलक्षणानुकूलं जीवाजीवादि षड्व्याणां तद्वर्तिनां गुणपर्यायाणां च स्वरूपं मन्दमतिमनुजावबोधनार्थमनतिविस्तरेण सरलसंस्कृतेन सशास्त्राप्रमाणे सयौक्तिकं च प्रदर्शितं ग्रन्थका । प्रसंगाच्चानेकान्तमत जोवनप्रायाणां Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्यादस्तिस्यानास्तीत्यादिरूपाणां सप्तभङ्गानां दिगम्बराचार्यवर्यबोदेवसेनजी पाद विनिर्मितनयचक्राधारतया नयोपनयमूलनयानामन्येषामपि बहूनां विषयाणां निरूपणं कृतमस्तीत्येतत्सर्वमने विषयसूचीतो ज्ञातं भविष्यति । सर्वहितविहितप्रयत्नस्य चास्य शास्त्ररत्नस्य दुष्प्राप्यत्वात्सर्वजनसौकर्यायश्रीपरमतप्रभावक मण्डलसत्त्वाधिकारिभी रायचन्द्रजनशास्त्रमालाद्वारा मुद्रापणे मनोरथं व्यधायि । उक्तमण्डलव्यवस्थापकेन श्रोरेवाशंकर जगजोवनाभिधेन श्रेष्ठिवरेण व्याकरणाचार्यपण्डितठाकुरप्रसादशमद्विवेदिभिरनुवादं कारयित्वा सत्स्वपि बहुरत्नायां वसुन्धरायां मत्तोऽप्यधिकविद्वत्सु मय्येवाध्यारोपितोऽस्य संशोधनमारः । प्रेषिते चोभे पुस्तके । एकं च प्रायः शुद्धं पुस्तकं जयपुरस्थसंवेगिसाधुपवरश्रीशिवरामजिदनुग्रहेण लब्धं मया । एवं समुपगते पुस्तकत्रये तदनुसारं यथामति सावधानतया नातिशीघ्रतया च संशोधनमकारि । यत्र तत्र शङ्कास्थलेषु च साधुश्रीशिवरामजीप्रभृतिभिरपि साहाय्यमवापि । तथापि संप्रति 'सर्वः सर्व न जानाति सर्वज्ञो नास्ति कश्चन' इति न्यायेन केवलिश्रुतकेवलिनमन्तरा सर्वेषामेवागाधागमवाधौं प्रस्खलनसंभवान्मदीयप्रमादाज्ञानाद्यैर्मुद्रणकालोनैरपरैश्च कारणकलापैर्मूले यास्त्रुटयो भवेयुस्तासां शोधनं कृत्वा तद्विषयकसूचनया मामनुगृह्वायुस्तत्रभवन्तः सजनविद्वद्वराः येन द्विरावृत्तौ ता न स्युः क्षन्तव्यश्चाज्ञानादिजनितो ममापराध इति मुहुर्मुहुः प्रार्थयेऽहमिति दिक् । संशोधको निवेदकश्च विज्ञानुचरो जयपुरस्थः साहित्यशास्त्रीत्युपाधिधारी जवाहरलालो दिगम्बरोयजनः । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि०संख्या विषय. १ टीकामङ्गलाचरण. २ सूत्रमङ्गलाचरण. ३ इम्यानुयोगकी प्रशंसा ४ उपसंहार और प्रथमाध्यायकी समाप्ति १० ५ द्रव्यका लक्षण. ११ ६ गुण तथा पर्यायका संक्षिप्त लक्षण. १२ ७ द्रव्यके साथ गुण और पर्यायका भेद. १४ ८ सामान्यका निरूपण ९ शक्तिरूप गुणका निषेध २० २१ १० गुण और पर्यायकी एकता ११ पर्याय मिम्न गुण मानने वालोंके प्रति प्रा० पृष्ठाङ्क प्रा०लो० १ 300 Bw3E ... .... २२ दूषण १२ पर्यायका कारण गुणको माननेवालों के प्रति दूषण १३ एकानेकस्वरूप तथा आधाराधेयभाव से भेद कल्पना श्रीः । अथ विषयसूची । .... १८ नैयायिकका मत और उसका खंडन १६ ज्ञान में सर्वथा अविद्यमान अर्थका मान माननेवालोके पनि दूषण २० उपसंहार और तृतीयाध्याय की समाप्ति १४ आधाराधेयभावका दृष्टान्त १५ उपसंहार और द्वितीयाध्यायकी समाप्ति १६ द्रव्यादिकमें सर्वथा भेद माननेवालोंक प्रति दूषण १७ यदि कार्योत्पत्तिके पहले कारणमें कार्य है तो कार्य क्यों नहीं दीख पड़ता ? इस शंकाका समाधान १ 1007 २ 男 २२ २५ २६ २७ २८ ३५ ३६ ४१ २१ "एक दृश्य में परस्पर विरोधी भेद और अभेद ये दोनों धर्म नहीं रह सकते"? इस शंकाका निराकरण २२ जहां भेद है, वहां अभेद नहीं रहता; इस शंकाका निराकरण ३८ ४३ ४७ २ € २ ३ ४ १० ११ १२ १२ rr १५ १६ १ ८ ६ ११ १५ ६ वि० संख्या विषय २३ जिस द्रव्यके भेद है उसीके रूपान्तरको प्राप्त होनेपर अभेद हो जाता है। और इसरीति से सैकड़ों नयोंका उदय होता है, इस प्रकार निरूपण ४२ २४ क्षेत्र आदिसे सप्तभंगीकी उत्पत्ति और उनका वर्णन २५ उपसंहार और चतुर्थ अध्यायकी समासि .... प्रा०पृष्ठास्क प्रा०श्लो० ૪ २६ प्रमाण और नयके विषयका निरूपण ५७ २७ द्रव्याधिकनके विषयका वर्णन २८ पर्यायार्थिक नयके विषयका निरूपण २१ दोनों नव मुख्यता तथा गौगतासे भेद और अभेदका निरूपण करते हैं, यह वर्णन ६१ ३० एक नय एकही विषयको कहता है, ऐसा माननेवालों के प्रति दूषण ६२ ३१ दिगम्बरमत जाननेके लिये उनके ६४ .... मतके अनुसार नयों और उपनयोंके कथनकी प्रतिज्ञा ३२ नय, उपनय और मूलनयों की संख्या ६५ ३३ द्रव्याविनयके दश १० भेदों का वर्णन ६६ ३४ ज्ञानकी प्रशंसा और पचमाध्यायकी समाप्ति ३५ दिगम्बरमतसे मी सत्यका ग्रहण करना चाहिये, यह वर्णन .... ५० ३६ पर्यायार्थिक नय के भेदोंका निरूपण ३७ नैगमनयके ३ भेदों का कथन .... ५९ ६० ७६ ७८ ६३ ३८ संग्रह नयके दो का वर्णन ३६ व्यवहारनयके दो भेदोंका कथन ४० ऋऋजुसूत्रतयके दो भेदका निरूपण ४१ शब्दनय और समभिरूढनयका वर्णन ९४ ४२ एवंभूत नयका वर्णन और नव नयोंके भेदोंकी संख्या ४३ उपसंहार और षष्टाध्यायको समाप्ति ९७ * ૮૪ ८६ < & * १ २ ३ ५४ ८ ९ २० we as me ९ १२ १३ १४ १५ १६ १७ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " 90.2 M .. . ( १८ ) वि०संख्या विषय प्रा०पृष्ठाङ्क प्रा०श्लो० वि०संख्या विषय प्रा० पृष्ठाङ्क प्रा.श्लोक ४४ सद्भूत व्यवहार उपनयका निरूपण ९८ १ ६८ षद्रव्योंके नाम .... ४५ असद्भूत व्यवहार उपनयका कथन १०० ४ ६९ धर्म द्रव्यका वर्णन .... १६६ ४ ४६ उपचरित असद्भुत उपनयका वर्णन १०८ ७० अधर्म द्रव्यका कथन ४७ उपसंहार और सप्तमाध्यायकी ७१ धर्म द्रव्यमें प्रमाण समाप्ति ७२ अधर्म द्रव्य में प्रमाण ... १६९ ४८ दो मूलनयोंमें प्रथम निश्चयनयका ७३ आकाश द्रव्यका निरूपण कथन .... १११ ७४ काल द्रव्यका वर्णन ४९ द्वितीय व्यवहारनयका निरूपण ११२ ७५ पुद्गल और जीव द्रव्यका वर्णन १८२ २० ५० इन नय, उपनय और मूलनयोंका ७६ उपसंहार और दशमाध्यायकी वर्णन दिगम्बरीय नय-चक्रमें देवसेनजी इसीप्रकार किया है। ___समाप्ति ७७ गुणनिरूपणकी प्रतिज्ञा यह कथन .... ७८ दश सामान्य गुणोंका निरूपण १८५ ५१ इस नयविचारमें दिगम्बर और श्वेता ७९ विशेष गुणोंका वर्णन .... १८९ ७ म्बरोंके अर्थभेद नहीं, यह वर्णन ८० एकादश सामान्य स्वभावोंका कथन १९३ १३ ५२ दिगम्बर नव नय मानते हैं, इसका । ८१ उपसंहार और ११ वें अध्यायकी खंडन ५३ द्रव्याथिकके दश भेद उपलक्षण समाप्ति ... .... २०२ मात्र हैं, यह वर्णन .... .... १२७ २० ८२ दश विशेष स्वमावोंका वर्णन ५४ उपनय भी व्यवहारमें ही अन्तर्गत हो । ८३ किस २ द्रव्यमें कितने २ स्वभाव हैं, जाते हैं यह कथन २११ १२ ८४ उपसंहार और १२ वे अध्यायको ५५ निश्चय और व्यवहारमें जब एककी मुख्यता रहती है, तब दूसरेकी समाप्ति .. २१२ १५ गौणता रहती है, यह निरूपण ८५ कौन २ से स्वभाव किस २ नय के , २२ मतसे हैं, यह वर्णन .... २१३ ५६ निश्चय तत्वार्थको और व्यवहार कोको ८६ गुण और पर्यायका लक्षण क्तिको कहता है ... .... १३० २३ | ८७ उपसंहार और १३ वें अध्यायकी ५७ निश्चयका विषय ... ... १३१ २४ समाप्ति ... .... २२२ १८ ५८ व्यवहारका विषय .... १३२ २५ ५९ उक्त कथनका सक्षेप . १३३ २६ ८८ पर्यायका निरूपण .... . २२३ ६० अष्टमाध्यायकी समाप्ति १३४ २७ | ८९ गुणके विकार ही पर्याय हैं, इस मतका ६१ एकही पदार्थ उत्पाद, व्यय और खंडन २३२ १७ ध्रौव्य इन तीन लक्षणों सहित है, ९. उपसंहार और १४ वें अध्यायकी यह निरूपण .... समाप्ति २३३ ६२ उत्पादका वर्णन .... १५४ १९ ६द्रव्यविचार करने का फल २३३ ६३ नाशका वर्णन ९२ द्रव्यानुयोगका प्रकाश मैंने किया ६४ ध्रौव्यका निरूपण ९३ द्रव्यानुयोगके अभ्यासी उत्तम हैं ६५ उपसंहार और नवमाध्यायकी समाप्ति, २६ । ९४ ज्ञानकी प्रशंसा ६६ द्रव्यका निरूपण करनेकी प्रतिज्ञा १६४ १ ९५ प्रशस्ति ... ... ६७ द्रव्यपरिझानसे सम्यक्त्वकी शुद्धि , २ / ९६ ग्रंथ की समाप्ति २४. २३ . ... २२११० 1.00 २३४ २३७ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमाला.. श्रीभोजकविविरचिता द्रव्यानुयोगतर्कणा भाषानुवादसहिता च श्रीगुरुभ्यो नमः । श्रीवीतरागाय नमः । मङ्गलाचरणम् श्रियां निवासं निखिलार्थवेदकं सुरेन्द्रसंसेवितमन्तरारिघम् । प्रमाणयुङ्न्यायनयप्रदर्शकं नमामि जैनं जगदीश्वर महः ॥१॥ यदीयगोभि वनोदरस्थितं कुवादभूच्छायभर निवार्यते । द्रव्यादियाथात्म्यमपि प्रकाश्यते जयत्यधीशः स जिनस्त्रयोतनुः ॥२॥ वन्दे वीरपरम्परावियदहथं सनाथं श्रिया, गाम्भीर्यादिगुणावलीप्रविलसद्रत्नौघरत्नाकरम् । विद्यादेवपुरोहितप्रतिनिधि श्रीमत्तपागच्छपं, प्रख्यातं विजयाद्दयागणधर द्रव्यानुयोगेश्वरम् ॥ ३ ॥ श्रीभावसागर नत्वा श्रीविनीतादिसागरम् । प्रबन्धे तत्प्रसादेन किश्चिद्व्याख्या प्रतायते ॥ ४ ॥ तद्भावयुक्तं श्रीमन्तं सुविनीतं गुरु मुदा । प्रणम्य रम्यभावेन सूत्रवृत्तिः प्रतायते ॥५॥ अनेक प्रकारकी लक्ष्मियोंका निवासस्थान, संपूर्ण पदार्थोंका संप्रवर्तक, देवेन्द्रोंसे सेवित, अन्यन्तरके शत्रुओंका नाशक, और प्रमाणसहित न्यायमार्गका प्रदर्शक, ऐसे श्रीजिन भगवानसम्बधी जगदीश्वर-तेजको मैं नमस्कार करता हूँ ॥१॥ जिनकी किरणोंसे संसार Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २] .. श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् के उदरमें वर्तमान कुवादसे उत्पन्न छायाका समूह दूर होता है, और द्रव्यादि पदार्थोंका यथार्थ स्वरूप भी प्रकाशित होता है, ऐसे सबके स्वामी, रत्नत्रयरूप शरीरके धारक (सम्यग्ज्ञान, दर्शन तथा चारित्रमय ) श्रीजिनेन्द्र जयवन्त हैं ।। २ ॥ श्रीमहावीरस्वामीसे आदि लेकर संपूर्ण तीर्थंकरोंकी पंक्तिरूप आकाशके सूर्य, श्री (लक्ष्मी )से सेवित तथा गाम्भीर्य, "दया दाक्षिण्य" आदि गुणोंकी पंक्तियोंसे अति शोभायमान रत्नोंके समूहके रत्नाकर तथा शास्त्र, देव और पुरोहितके प्रतिनिधि ( स्थानापन्न) श्रीमत्तपागच्छके नायक श्रीदयाविजय नामक गणधरजीको मैं नमस्कार करता हूं ॥३॥ और श्रीविनीतसागरजी तथा श्रीभावसागरजी नामक विद्यागुरुको नमस्कार करके उन्हीं महाऽनुभावकी कृपासे इस द्रव्याऽनुयोगतर्कणा नामक प्रबन्धकी मैं कुछ व्याख्या करता हूं ॥ ४ ॥ समीचीन (उत्तम ) भावोंसे संयुक्त, श्रीमान सुविनीत गुरुजीको परमरमणीय भक्तिभावसे प्रणाम करके सूत्रोंकी वृत्तिका में विस्तार करता हूं ॥ ५ ॥ चिकोषितग्रन्थस्य निर्विघ्नपरिसमाप्त्यर्थमिष्टदेवतानमस्कारादिरूपं मङ्गलं ग्रन्थादो आचरन् अनुबन्धचतुष्टयं दर्शयन्नेव चिकीर्षितं प्रतिजानीते । रचनेको अभीष्ट ग्रन्थकी निर्विघ्न समाप्तिकी इच्छासे अपने इष्ट देवका नमस्काररूप मङ्गलाचरण करते हुए तथा ग्रन्थके अनुबन्धचतुष्टयको दर्शाते हुए ग्रन्थकार निज चिकीर्षित (करनेको इष्ट) विषयकी प्रतिज्ञा करते हैं। श्रीयुगादिजिनं नत्वा कृत्वा श्रीगुरुवन्दनम् । आत्मोपकृतये कुर्वे द्रव्यानुयोगतर्कणाम् ॥१॥ भावार्थः-युगके आदिमें आविर्भूत श्रीआदिजिन भगवान् (श्रीआदिनाथ ऋषभदेवजी) को नमस्कार करके, तथा श्रीगुरुदेवको वन्दना करके, आत्माके उपकारके अर्थ, अर्थात् जीव अजीव आदि द्रव्योंको जानकर संसारसागरसे जीवके उद्धारके लिये मैं इस द्रव्यानुयोगतर्कणा नामक ग्रन्थको रचता हूं ॥१॥ व्याख्या । तत्र प्रवममिष्टदेवतानमस्करणेन सप्रयोजनाभिधेयो दर्शितः । आद्यपदद्वयेन मङ्गलाचरणं नमस्कारकरणं च ।। आत्माथिन इहाधिकारिणः । २ । तेषामर्थबोधो भविष्यतीति उपकाररूपं प्रयोजनम् । ३। द्रव्याणामनुयोगोऽत्राधिकारः । ४ । अथ द्रव्यानुयोग इति कः शब्दार्थः । अनुयोगो हि सूत्रार्थयोख्यिानं तस्य चत्वारो भेदास्तत्र प्रथमवरणानुयोग आचारवचनमाचाराङ्गादिसूत्राणि । द्वितीयो गणितानुयोगः संख्याशास्त्रं चन्द्रप्रज्ञप्त्यादिसूत्राणि । तृतीयो धर्मकथानुयोग आख्यायिकावरनं ज्ञाताधर्मकथांगादिसूत्राणि । ३ । चतुर्थो द्रव्यानुयोगः षड्द्रव्यविचारः सूत्रकृताङ्गादिसूत्राणि सम्मतितत्त्वार्थप्रमुखप्रकरणानि च महाशास्त्राणि । ततोऽन्त्यभेदविचारणामहं कुर्वे । व्याख्यार्थः-प्रथम सूत्र में अभीष्ट परमदेव जिन भगवानको नमस्कार करने से प्रयोजनसहित निजग्रन्थमें अभिवेय अर्थात् कयन करने के योग्य पदार्थ दर्शाया है। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [३ तात्पर्य यह है कि द्रव्यादि पदार्थोके ज्ञानसे आत्मज्ञानपूर्वक श्रीजिन भगवानका ज्ञान तथा उनकी नमस्कार आदिरूप भक्ति ही इस ग्रन्थका अभिधेय और प्रयोजन है। सूत्रके प्रथम दो पादोंसे श्रीजिन देवको तथा श्रीगुरु देवको नमस्कार करके आस्तिक मतके अनुसार मङ्गलाचरण तथा नमस्कार प्रदर्शित किया गया है ॥ १॥ और "आत्मोपकृतये कुर्वे" इस तृतीय पादसे यह अभिप्राय दर्शाया है कि आत्माके अभिलाषी जन इस ग्रन्थके अधिकारी हैं ॥ २ ॥ उन अधिकारी जीवोंको पदार्थोंका ज्ञान होगा, इस उपकाररूप ग्रन्थका प्रयोजन है ।। ३॥ और द्रव्यानुयोग इस ग्रन्थका अधिकृत विषय है ॥ ४ ॥ ये ही चार अभिधेय, प्रयोजन, संबन्ध तथा अधिकारी ग्रन्थकी आदिमें अनुबन्धचतुष्टय कहे जाते हैं । अब "द्रव्यानुयोग" इस शब्दका क्या अर्थ है ? इस विषयमें विचार करते हैं । सूत्र और अर्थके व्याख्यानको अनुयोग कहते हैं। उस अनुयोगके चार भेद हैं । उनमें प्रथम चरणानुयोग है, जिसमें आचारके वचन हैं, जैसे आचारांगादि सूत्र ॥ १॥ द्वितीय गणितानुयोग अर्थात् संख्याशास्त्र है, जैसे चन्द्रप्रज्ञप्ति आदिके सूत्र ॥ २ ॥ तृतीय धर्मकथानुयोग अर्थात् कथाशास्त्र है, इसमें ज्ञाताधर्मकथा आदि सूत्र हैं ॥ ३ ॥ और चतुर्थ द्रव्यानुयोग अर्थात् जीव आदि षट् द्रव्योंका विचार है। इसमें सूत्रकृतांगादि सूत्र, संमतिप्रकरण, तत्त्वार्थप्रकरण आदि अनेक महाशास्त्र हैं ॥४॥ अत एव अति उपयोगी होनेसे अन्तिम भेद जो द्रव्यानुयोग है उसीका विचार मैं करता हूँ ॥ १ ॥ विना द्रव्यानुयोगोहं चरणकरणाख्ययोः । सार नेति कृतिप्रेष्ठं निर्दिष्टं सम्मतौ स्फुटम् ॥२॥ भावार्थः-द्रव्यानुयोगके विचारके बिना द्रव्य तथा गुण-पर्यायोंका ज्ञान नहीं होता अत एव चरणानुयोग तथा करणानुयोगमें द्रव्यानुयोगके ज्ञानके विना कुछ तत्त्व नहीं है, और द्रव्यानुयोगके ज्ञानको ही चरणानुयोग तथा करणानुयोगका सार और पण्डित जनोंको अतिप्रिय संमति ग्रन्थमें स्पष्ट रीतिसे दर्शाया है ॥२॥ व्याख्या । द्रव्यानुयोगोहं द्रव्यगुणपर्यायविचारं विना चरणकरणयोः सारं न । चरणसप्तत्याः करणसप्तत्याश्च सारं केवलं द्रव्यानुयोग एव । इत्ययं निष्कर्षः । सम्मतिग्रन्थे स्फुटं प्रकटं कृतिप्रेष्ठ बुधजनवल्लभं निर्दिष्टं कथितं बुधा एव जानते न तु बाह्यदृष्टयः । यत: "चरणकरणप्पहाणा ससमयपरसमयमुक्कवावारा । चरणकरणस्स सारं णिच्चयसुद्ध न जाणंति ॥१॥” इतीयं गाथा सम्मजी कथिता । अतश्चरणकरणानुयोगमूल इहोपायो द्रव्यानुयोग एव उक्तः ॥ २ ॥ ___व्याख्यार्थः-द्रव्यानुयोग जिसमें जीव आदि संपूर्ण द्रव्य, गुण तथा संपूर्ण पर्यायोंका पूर्णरूपसे वर्णन है उसके ( द्रव्यानुयोगके ) ज्ञानके विना चरण तथा करणानुयोगमें Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धान्त श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् कुछ सार नहीं है, अर्थात् चरणसप्तति और करणसप्ततिका सार केवल द्रव्यानुयोग ही है, और वहीं पण्डितजनों ( सम्यग्दर्शन आदि सहित जनों )को प्रिय है, क्योंकि आत्मज्ञानद्वारा मोक्षका कारण द्रव्यानुयोग ही है, उसीसे स्वमतका स्थापन तथा परमतका खण्डन होता है, यह वार्ता संमति ग्रन्थमें स्पष्ट रीतिसे दर्शाई गई है। "चरणानुयोग तथा करणानुयोगके ज्ञानसे संपन्न भी जन अपने तथा अन्यके शास्त्रीय सिद्धान्त-ज्ञानके व्यापारसे सर्वथा वर्जित रहते हैं, क्योंकि वे चरणानुयोग तथा करणानुयोगके सारभूत निश्चय शुद्ध द्रव्यानुयोगको नहीं जानते" ॥ १ ॥ यह गाथा सम्मति ग्रन्थमें कही गई है । इसी हेतुसे चरणानुयोग और करणानुयोगका मूल ( मुख्य सिद्धान्त ) जाननेका उपाय द्रव्यानुयोग ही यहांपर कहा गया है ॥२॥ शुद्धान्नादिस्तनुर्योगो महान् द्रव्यानुयोगजः । इत्थं षोडशकाज्ज्ञात्वा विदधीत शुभादरम् ॥३॥ भावार्थः-शुद्ध आहार आदिका ग्रहण करना, अर्थात् चरण-करणानुयोगरूप योग लघु है और द्रव्यानुयोग नामक योग महान है, इस प्रकार षोडशक नामके उपदेशग्रन्थसे जानकर शुभ मार्गमें आदर करना उचित है ।।३।। व्याख्या । शुद्धान्नादिः शुद्धाहारग्रहणमर्थात् चरणकरणानुयोगाख्यो योगो द्विचत्वारिंशद्दषणरहितपिण्डग्रहणो योगस्तनुर्लघु: कथितः । तथा द्रव्यानुयोगः । स्वसमयपरसमयपरिज्ञानं तदाख्यो योगो द्रव्यानुयोगजो योगो महान् महत्तरः कथितः । अत्र साक्षित्वमुपदेशपदादिषु ग्रन्थेषु वर्तते । ततो ज्ञात्वा शुभे पथि प्रवर्ततां बाह्यव्यवहारप्राधान्यं ज्ञानस्य गौणता यत्र भवति सोऽघुममार्गः । १ । ज्ञानस्य प्राधान्यं व्यवहारस्य गौणता यत्र स उत्तममार्गः। २ । अत एव ज्ञानादिगुणहेतुगुरुकुलवासरहितस्य शुद्धाहारादियत्नवतोऽपि महान् दोषश्चारित्रहानिश्च जायते । यदुक्तम् षोडशके गुरुदोषारम्भितया लब्धकरणम् । यत्नतो निपुणधीभिः सन्निन्दादेश्च तथा ज्ञायते यन्नियोगेन । ३ । . व्याख्यार्थः-शुद्ध शोधित आहारसेवन, अर्थात् शास्त्रप्रोक्त ४२ दोषोंसे वर्जित भोजनग्रहण आदिरूप जो चरण तथा करणानुयोगरूप योग है वह लघु है और स्व तथा परसमयके ज्ञानरूप जो द्रव्यानुयोगरूप योग है वह अतिमहान् कहा गया है। इसी विषयकी साक्षिता उपदेशपद आदि ग्रन्थोंमें विद्यमान है । उन ग्रन्थोंसे द्रव्यानुयोगको श्रेष्ठतर जानकर शुभ मार्गमें ही आदरसे प्रवृत्त होना चाहिये । जहाँ लौकिक व्यवहारोंकी प्रधानता हो और ज्ञानको गौणता हो वह अशुभ मार्ग है ।। १ ।। और जहाँ ज्ञानकी प्रधानता तथा लौकिक व्यवहारकी गौणता है वह उत्तम वा शुभ मार्ग है ॥ २ ॥ इसी कारणसे ज्ञान आदि गुणोंका हेतुभूत जो गुरुकुलमें निवास है उससे रहित पुरुष चाहे शुद्ध Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [५ आहारादि करनेमें प्रयत्न भी करे, परन्तु वह ज्ञानसे रहित होनेसे महान दोषभागी होता है तथा उसके चारित्रकी भी हानि होती है । इस विषयमें ऐसा कहा भी है,-उपदेशके ग्रन्थोंमें यह निरूपित है कि द्रव्यानुयोगके ज्ञानविना शुद्ध आहारादिके ग्रहणमें महान दोषोंके आरम्भ होनेकी संभावना है, इस हेतुसे तथा ज्ञानरहित होनेसे सज्जनोंकी निन्दादिसे चरणकरणानुयोग द्रव्यानुयोगकी अपेक्षासे लघु है, उस लघु चरणकरणानुयोगके दोषोंको कुशलबुद्धि जन यत्नपूर्वक द्रव्यानुयोगद्वारा जानते हैं ॥३॥ सति द्रव्यानुयोगेऽस्मिन्नाध्यकर्मादिदूषणम् ।। इत्युक्तं पञ्चकल्पाख्ये भाष्ये यत्तद्गुरोः श्रुतम् ॥४॥ भावार्थ:-इस द्रव्यानुयोगके ज्ञान होनेहीसे आधाकर्मादि (पाकादि कर्म अध्यव- . पूरकान्त) दूषण जाने जाते हैं, यह पञ्चकल्प नामक ग्रन्थमें तथा भाष्यमें कहा है और गुरुमुखसे भी ऐसा सुना है ॥४॥ - व्याख्या । अस्मिन् द्रव्यानुयोगविचाररूपे ज्ञानयोगे सति आध्यकर्मादिदूषणम । आधाकर्मादयोऽध्यवपूरकान्ताः षोडशपिण्डोद्गमविषया दोषास्तत्र आधानम् । आधा साधुनिमित्तं चेतसः प्रणिधानं यथा अमुकस्य साधोः हेतोर्मया भक्तादि पचनीयमिति आधया कर्मपाकादिक्रियया आधाकर्म तद्योगाद्भक्ताद्यप्याभाकर्म तदादिर्येषां दूषणं गुरुसमुदायान्तनिवसतो ज्ञानाम्यासवसतो मुनेन भवति ॥ एवं पञ्चकल्पभाष्ये यदुक्तम् तन्मया गुरोः सकाशात् श्रुतं कल्पाकल्पविचारस्तु अनेकान्तशास्त्रेणोक्तो यतो गाथाः-" आहा गुडाई भुजंति, अणमणो सकम्मुणा । उवलित्ते वियाणिज्जा, अणुवलित्ते विवा पुणो ॥१॥ एदे हिंदोहिं ठाणेहिं ववहारो ण विज्जई । एदे हिंदोहिं ठाणेहिं अणायारंतु जाणए ॥२॥" द्वितीयाङ्गस्य प्रथमाध्ययने । किञ्चिच्छुद्ध कल्पमकल्पं स्यात् स्यादकल्पमपि कल्पं पिण्डः । शय्या वस्त्रं भेषजाद्य वा देशं कालं पुरुषमवस्थामुपयोगशुद्धपरिणामान् प्रसमीक्ष्य भवति कल्पं नैकान्तात्कल्पने कल्पम् ।२। इति प्रशमरतो ॥४॥ व्याख्यार्थः-सब पदार्थोंके ज्ञान करानेवाले इस द्रव्यानुयोग विचाररूप ज्ञानयोगके होनेपर ही आधाकर्म आदि दूषण, अर्थात् आधाकर्मसे आदि लेकर अध्यवपूरकान्त षोडश- ( १६ ) दोष आहार ग्रहण करनेसे उत्पन्न होते हैं । उन सोलह दोषोंमेंसे साधुके पाकादिनिमित्त ( चित्तकी तत्परता ) को आधाकर्म कहते हैं । जैसे-अमुक साधुके लिये मुझे भात पकाना है । यहाँ "आधया पाकादिक्रियया कर्म इति आधाकर्म" पाक आदि क्रियासे जो कर्म किया जाता है उसको आधाकर्म कहते हैं। उस आधा क्रियाके योगसे भक्त (भात ) आदि अन्न सिद्ध किया जाता है, उसको भी आधाकर्म कहते हैं । उस आधाकर्म आदिके दोष गुरुओंके समुदायमें निवास करते हुए मुनिको ज्ञानके अभ्यासके वशसे नहीं Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६.] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् होते । इस प्रकार पञ्चकल्पभाष्य में जो कहा है वह मैंने गुरुमुखसे सुना है और कल्पाकल्पका विचार तो अनेकांतशास्त्र से कहागया है । इस विषय में ये गाथा हैं । उपलिप्त हो अथवा अनुलिप्त हो, अन्योऽन्यकर्मसे अनभिज्ञ (अज्ञानी जन ) आधाकर्मगत पाप अवश्य भोगते हैं ॥१॥ क्योंकि ये दोष हैं, ये दोषोंके स्थान हैं, इन व्यवहारोंको द्रव्यानुयोगज्ञानसे रहित जन नहीं जानते और गुरुकुलनिवासी द्रव्यानुयोगज्ञाता मुनि दोष तथा दोषस्थानोंको जानता है ॥२॥ द्वितीयाङ्गके प्रथम अध्ययन में ऐसा वर्णित है कि कोई वस्तु शुद्धकल्प भी अकल्प हो सकती है; और अकल्प भी कल्प हो सकती हैं। जैसे आहार, शय्या, वस्त्र, पात्र, औषध, भोज्य पदार्थ, देश, काल, पुरुष, अवस्था, ये सब उपयोगसे शुद्ध परिणामोंको देखकर कल्प ( योग्य वा शुद्ध ) होते हैं, किन्तु सर्वथा कोई पदार्थ अपने स्वरूपसे ही शुद्ध वा योग्य कल्पित नहीं हो सकता ||२|| ऐसा प्रशमरति नामक ग्रन्थमें कहा है ||४|| बाह्यक्रिया बहिर्योगचान्तरङ्गक्रियापरः । बाह्यहनोऽपि ज्ञानाढ्यो धर्मदासैः प्रशंसितः ॥ ५ ॥ भावार्थ:: - बाह्य क्रियाको बहिर्योग कहते हैं, और जो अन्तरङ्ग क्रिया है उसको अन्तरङ्गयोग कहते हैं, किन्तु बाह्यक्रियासे हीन (शून्य) होनेपर भी यदि ज्ञानसे पूर्ण हो तो वह धर्मदासोंसे प्रशंसित है ||५|| व्याख्या । बाह्यक्रिया आवश्यकादिरूपा बहिर्योगोऽस्ति |१| च पुनः । अन्तरङ्गक्रिया च स्वसमयप रसमयपरिज्ञानरूपा ज्ञानक्रिया, अपरो द्रव्यानुयोगोऽस्ति । अन्तरङ्गयोगो ज्ञानक्रिया । एवं द्विविधो योगस्तत्र बाह्यक्रियाहीनोऽपि ज्ञानाढ्यो ज्ञानाधिकः साधुः । उपदेशमालायां व्याख्यातो यतः - " नाणाहि. बोवरचरणहीणो विपयवेणपभासंतो । णयंदुक्खरं करतो सुट्ठवि अप्पागमो पुरिसो | १| तहा हीणस्स विसुपरूवगस्स नाणाहि जस्स कायव्व" तस्मात् क्रियाहीनस्यापि ज्ञानिनोऽवज्ञा न कर्तव्या । ज्ञानयोगाच्छासनप्रभावको ज्ञातव्यः कश्चिदेवं कथयिष्यति यत् क्रियाहीनः । ज्ञानाधिको भव्य उक्तस्तद्दीपकसम्यक्त्वापेक्षया परं क्रियाविनैकेन ज्ञानेन स्वस्योपकारो न जायते दीपवत् । इति शङ्काकारं प्रत्युत्तरयति । द्रव्यादिज्ञानमेव शुक्लध्यानमतो मोक्षकारणं तत उपादेयमेव ॥ ५ ॥ व्याख्यार्थः– आवश्यक आदिरूप जो बाह्य क्रिया है वह बहिर्योग हैं, और स्वसमय तथा परसमयके ज्ञानरूप जो ज्ञानक्रिया है वह अभ्यन्तर अर्थात् द्रव्यानुयोग है, वह अन्तरङ्ग योग अथवा ज्ञानक्रिया हैं । इस रीतिसे अन्तरङ्गयोग तथा बहिर्योग भेदसे दो प्रकारका योग कहा गया है । उनमें से बाह्य क्रिया अर्थात् बहिर्योगसे हीन भी पुरुष हो, परन्तु ज्ञानपूर्ण अर्थात् अधिक ज्ञानसंयुक्त हो तो वह साधु है । क्योंकि वह साधुरूपसे उपदेशमालामें प्रख्यात है । यथा गाथा, -चरणकरणानुयोग अर्थात् बाह्यक्रियासे हीन भी शुद्ध उपदेश Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [७ ज्ञानमय वचनको कहते हुए, और दुष्कल्मषको करते हुए ज्ञानसे पूर्ण आत्मज्ञानी पुरुष निज ज्ञानसे ही साधु है, तथा विशुद्धज्ञानसे हीन होनेसे भी बाह्य क्रियासे संपन्न होनेपर भी वह साधु है, क्योंकि शरीर ज्ञान ही है, इस कारण क्रियाहीन भी ज्ञानी पुरुषका अनादर नहीं करना चाहिये, क्योंकि ज्ञानके योगसे वह सबके ऊपर आज्ञा करनेका प्रभाव धारण करता है, ऐसा समझना चाहिये। अब कोई यहांपर ऐसा कहता है कि क्रियाहीन और अधिक ज्ञानसम्पन्नको जो भव्य कहा है वह 'दीपकसम्यक्त्वकी अपेक्षासे है; क्योंकि, क्रियाके विना केवल ज्ञानमात्रसं अपने आत्माका कुछ भी उपकार नहीं होता, जैसे-दीपक यदि अपना ही प्रकाश न करे तो अन्य घटपट आदिका प्रकाश कैसे कर सकता है ? इसप्रकार शंका का उत्तर ग्रन्थकार देते हैं कि द्रव्य आदि पदार्थोंका ज्ञान ही शुद्ध ध्यान कहा गया है, और वही मोक्षका कारण होनेसे उपादेय है ॥५॥ द्रव्यादिचिन्तया सार शुक्लध्यानमवाप्यते । आद्रियध्वममु तस्माद् गुरुशुश्रूषया बुधाः ॥६॥ भावार्थ-द्रव्य आदि पदार्थोंकी चिन्ता से सबका सारभूत शुक्लध्यान प्राप्त होता है, इस हेतुसे हे बुधजनो ! गुरुजनोंकी सेवा आदिसे आदरपूर्वक द्रव्य आदि पदार्थोके ज्ञानके उपार्जनमें आदर करो ॥६॥ व्याख्या । द्रव्यादिचिन्तया षड्द्रव्यचिन्तनेन सारं प्रधानं शुक्लध्यानमवाप्यते, किं च आत्मद्रव्यस्य गुणपर्यायभेदचिन्तया शुक्लध्यानस्य प्रथमः पादो भवति । तथा तस्यैव द्रव्यस्य गुणपर्याययोरभेदचिन्तया द्वितीयपादो भवति । एवं शुद्धद्रव्यगुणपर्यायमावनया सिद्धिसमाप्तिर्जायते । ततो द्रष्यचिन्ताशुक्लध्यानं फलं । तेन संसारापगमः । यतः प्रवचनसारेऽप्युक्तम् । “जो जाणदि बरहन्ते दबत्त गुणत्त पजयत्ते हिं । सो जाणदि अप्पाणं मोहो खलु जादि तस्स लयं ।१" तस्मात कारणात मो बुधाः । गुरुशुश्र षया गुरुसामीप्येन अमु द्रव्यानुयोगमाद्रियध्वमादरं कुरुध्यमिति, गुरु' त्यक्त्वा स्वेच्छया मा भ्रमत ॥६॥ अथ ज्ञानं विना चारित्रमात्रेण ये सन्तुष्टाः सन्ति तान् हितशिक्षया सम्बोध्यति । व्याख्यार्थः-द्रव्य आदि षट् पदार्थोकी चिन्ता अर्थात् पूर्ण विचारसे प्रधानभूत शुक्लध्यान प्राप्त होता है। और आत्मद्रव्यके गुण तथा पर्यायोंके भेदके विचारसे शुक्लध्यानका प्रथम पाद सिद्ध होता है, तथा उसी आत्मद्रव्यके गुण तथा पय्योयोंके अभेदविचारसे शुक्लध्यानका द्वितीय पाद सिद्ध होता है। और इसी रीतिसे शुद्ध द्रव्य, गुण तथा पर्यायोंकी भावनासे सिद्धिकी समाप्ति होती है । इसलिये द्रव्यको चिन्ताका शुक्लध्यान फल है, और इस शुक्लध्यानकी प्राप्तिसे संसारका नाश होता है; क्योंकि, ऐसा ही प्रव दीपक में जैसे दूसरेके प्रकाश करनेका सामर्थ्य रहता है ऐसे ही अपनेको भी, न कि केवल अन्य पदार्थोके प्रकाश करने मात्रका । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्रराजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् चनसारमें भी कहा है:-जो कोई अर्हन् भगवान्को द्रव्य, गुण तथा पर्यायरूपसे जानता है वही आत्माको भी जानता है, क्योंकि द्रव्य, गुण तथा पर्यायरूपसे आत्मज्ञानी पुरुषका मोह लयको प्राप्त होता है ॥१॥ इस कारण हे बुधजनो ! गुरुके समीप जाकर भक्ति शुश्रूषादि द्वारा इस द्रव्यानुयोगके ज्ञानसंपादनमें आदरसे लगो। तात्पर्य यह है कि गुरुसे आदरपूर्वक इसके ज्ञानको ग्रहण करो, और गुरुको त्याग कर अपनी इच्छासे भ्रमण न करो ॥६॥ ___अब जो ज्ञानके बिना चारित्र मात्रसे संतुष्ट हैं उनको हितदायक शिक्षासे संबोधन करते हैं - अस्य येनेक्षितः स्तायोऽत्रौघेन प्रेम यस्य वा । द्वौ निम्रन्थाविमौ ख्यातौ नान्य इत्याह सम्मतिः ॥७॥ भावार्थ:-जिस पुरुषने इस द्रव्यानुयोगरूपी समुद्रका अधोभाग देखा है, अथवा जिसका इसमें सामान्यरूपसे अनुराग है, ये दो प्रकारके पुरुष निर्ग्रन्थ अर्थात् साधु कहे गये हैं न कि अन्य, ऐसा सम्मति ग्रन्थ कहता है ॥ ७॥ व्याख्या। अस्य द्रव्यानुयोगसमुद्रस्य स्तायस्तलस्पर्शनं येन ईक्षितो विलोकितः सम्मत्यादितग्रन्था - ध्ययनेन गीतार्थो जातः स एव एकः प्रशस्यः । तथा अत्र द्रव्यानुयोगे ओधेन सामान्य प्रकारेण यस्य प्रेम रागोऽस्ति गीतार्थनिश्चयः सोऽपि प्रशस्यः । इमो द्वौ निम्रन्थौ साधू ख्याती कथितौ । आभ्यामपरस्तृतीयः कश्चित्साधुरपि नास्ति, इत्युक्ति सन्मतिग्रन्थ आह । यतः-"गीयत्थोयविहारो वीओगीयत्थ निस्सओ मणिओ । इतोतइयविहारो णाणुमाओ जिणवरेहिं ॥१॥" एतावन्मात्रो विशेषोऽस्ति । या चरण करणानुयोगदृष्टिनिशीथकल्पव्यवहाराध्ययनेन जायते सा जघन्या दृष्टिः, या च दृष्टिर्वादाध्ययनेन जायते सा मध्यमा दृष्टिः । २ । या पुनः समस्तश्र तनिष्कर्षज्ञानरूपेण जायते सा उत्कृष्टा दृष्टि: १३। एवं जघन्यमध्यमोत्कृष्टा दृष्टयस्तिस्रस्तद्विशेषेण गीतार्था अपि त्रयः । अत्र द्रव्यानुयोगदृष्टिः सम्मत्यादितर्कशास्त्रपारीणताख्या उत्कृष्टा । तथा तन्निश्चया द्वितीया दृष्टिः । एतद्दृष्टिद्वयपरौ द्वावेव निर्ग्रन्थौ स्तोऽपरः कोऽपि साधुर्नेति भावः ॥७॥ व्याख्यार्थ:-जिस महा उद्योगी पुरुषने इस द्रव्यानुयोगरूप महासमुद्रके तलस्पर्शको गोता मारकर देखा है, अर्थात् सम्मति आदि तर्कग्रन्थोंको पूर्णरूपसे पढ़कर सिद्धान्तरहस्यका ज्ञाता हुआ है वही एक पुरुष प्रशंसनीय है। अथवा इस द्रव्यानुयोगमें जिसका सामान्य प्रकारसे प्रेम है, अर्थात् तर्कके अध्ययनपूर्वक अनुरागसे सिद्धान्तरहस्यको जिसने निश्चय किया है, ये ही दो प्रकारके पुरुष निर्ग्रन्थ साधु प्रख्यात हैं अर्थात् शास्त्रोंमें कहे गये हैं । इन दोनोंसे अन्य कोई तृतीय साधु नहीं है, ऐसा कथन सम्मति ग्रन्थका है । उसकी गाथा यह है-गीतार्थ तथा गीतार्थ निश्चय इन दोनों के सिवाय किसी तीसरे को श्री जिनेन्द्रने साधु नहीं कहा है ॥ १॥ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ ९ इसमें इतनी विशेषता है कि जो निशीथकल्प ( अर्द्धरात्रिके तुल्य अन्धकारमय ) व्यवहारके अध्ययनसे चरणकरणानुयोगदृष्टि उत्पन्न होती है वह जघन्य अर्थात् निकृष्ट दृष्टि है, जो दृष्टिवाद शास्त्र के अध्ययनसे उत्पन्न होती है वह मध्यमा दृष्टि है, और समस्त शास्त्रोंके तत्वज्ञानसे उत्पन्न जो दृष्टि है वह उत्कृष्ट अर्थात् उत्तम दृष्टि है ||३|| इस प्रकार जघन्य मध्यम तथा उत्तम भेदसे तीन प्रकारकी दृष्टियें हैं, और उन उन दृष्टियोंके विशेषसे गीतार्थ भी तीन ही प्रकारके हैं । इनमें संमति आदि तर्क शास्त्रों में पारीणता ( तर्कशास्त्र में पारगामिता ) नामवाली जो द्रव्यानुयोगरूप दृष्टि है वह उत्तम है, और उस तर्कशास्त्रको निश्चय करनेवाली द्वितीया दृष्टि है । इन दोनों दृष्टियों में परायण दोनों प्रकारके ही पुरुष निर्ग्रन्थ साधु हैं, इनसे भिन्न कोई साधु नहीं है, यही पूर्वोक्त वाक्यका अभिप्राय है ||७|| अथ द्रव्यानुयोगप्रत्याप्त्या निजस्यात्मनः कृतकृत्यतां दर्शयन्नाह । अब द्रव्यानुयोगकी प्राप्तिसे अपने आत्माको कृतार्थ दिखाते हुये कहते हैं । तस्माद्गुरुपदाधीनो लीनश्चास्मिन्प्रतिक्षणम् । साधयामि क्रियां यां मे महत्याधारता हि सा ॥ ८ ॥ भावार्थ:-क्रयानुयोग के भी बलवत्त्वके हेतु गुरु हैं, इस हेतुसे गुरु के चरणोंके आश्रित होकर तथा प्रतिक्षण इस द्रव्यानुयोगरूप योग में लीन होकर जिस क्रियाको मैं सिद्ध करता हूं उसमें वही मेरी बड़ी आधारता है ॥८॥ व्याख्या । तस्मादिति । ततः कारणात् द्रव्यानुयोगबलवत्ताहेतुगु रुस्तस्य पदयोश्चरणयोराधीनः । शुश्रूषापरो विनयादिप्रमन्नो गुरुर्ज्ञानमेव दत्त इति । पुनः अस्मिन् द्रधानुयोगे प्रतिगमनुपमयं लीनी यां चरणकरणानुयोगरूपां क्रियां साधयामि सा एव मे महती महीयसी आवारता । एतावता तादृक् क्रियारहितः परं गुरुसेवी ज्ञानप्रिय इच्छायोगाधिकारी भवति । यतः - "कर्तुमिच्छो: श्रुतार्थस्य ज्ञानिनोपि प्रमादिनः । विकलो धर्मयोगो य इच्छायोग उदाहृतः” |१| ललितविस्तरादौ ||८|| व्याख्यार्थः- द्रव्यानुयोगजनित ज्ञानके सर्वोत्कृष्ट तत्त्व सिद्ध करने में दयालु गुरु ही मुख्य कारण हैं, इस कारणसे श्रीगुरुमहाराजके चरणकमलोंके आधीन अर्थात् उनकी शुश्रूषा विनय आदिमें ही सदा तत्पर होकर ( क्योंकि विनय आदिसे प्रसन्न गुरु ज्ञान देते हैं) फिर इस द्रव्यानुयोगमें प्रतिक्षण लीन होकर जिस चरणकरणानुयोगरूप क्रियाको मैं सिद्ध करता हूँ वह क्रियाही मेरेलिये महान् आश्रय है । इतने कथनसे यह सिद्ध हुआ कि उस क्रियासे रहित, केवल गुरुसेवी, तथा ज्ञानप्रिय जन इच्छायोगका अधिकारी होता है । क्योंकि - शास्त्रीय अर्थके सिद्ध करनेकी इच्छावाले ज्ञानी ऐसे भी २ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०] श्रीमद्रराजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् प्रमादी पुरुषका जो विकल धर्मयोग है वही इच्छायोग कहा गया है ॥१॥ ऐसा वचन ललितविस्तर आदि ग्रन्थमें है ॥८॥ __ एवं इच्छायोगे स्थितानां परोपकारार्थ द्रव्यानुयोगविचारं कथयामः । पुनरेतावतैव संतुष्टिर्न कर्तव्या । विशेषार्थिना गुरुसेवा न मोक्तव्या । एवं हितशिक्षा कथयन्नाह । इस प्रकार जो इच्छायोगमें स्थित हैं उनके परोपकारार्थ द्रव्यानुयोगका विचार कहते हैं, क्योंकि इच्छायोगमें स्थितिमात्रसे प्राणीको सन्तोष नहीं करना चाहिये, और विशेष अर्थके अभिलाषी जनको गुरुसेवा कदापि नहीं त्यागनी चाहिये । इस प्रकारकी हितकारिणी शिक्षाको कहते हुये ग्रन्थकार कहते हैं:तत्त्वार्थसंमतिमुखेषु महाश्रु तेषु द्रव्यानुयोगमहिमा कथिता विशेषात् । तल्लेशमात्रमिह पश्यत सत्प्रबंधे सर्वादरेण किल तिष्ठत तीर्थवाक्ये ॥९॥ इति श्रीद्रव्यानुयोगतर्कणायां प्रथमोऽध्यायः ॥॥ भावार्थ-तत्त्वार्थसंमति आदि महा शास्त्रों में द्रव्यानुयोगकी महिमा विशेष रूपसे वर्णन की गई है, अतः हे बुधजन ! इस लघु प्रबन्धमें अर्थात् इस द्रव्यानुयोगतर्कणा नामक ग्रन्थमें उनका यत्किचित् लेशमात्र तुम लोग देखो, और सर्वथा आदर तथा विश्वासपूर्वक तीर्थ (शास्त्रवक्ता गुरु) के वाक्यमें स्थित रहो ॥९॥ द्रव्यानुयोग तर्कणामें प्रथम अध्याय पूर्ण हुआ। व्याख्या । तत्त्वार्थ संमतिप्रधानेषु 'महाब तेषु' महाशास्त्रोषु द्रव्यानुयोगमहिमा 'कथितः' । विशेषाद्विस्तरेण तेष ग्रंथेषु प्रकाशितः । तेषाँ ग्रंथोक्तानां वाक्यानां लेशमात्रमल्पमात्रम । इहैतस्मिन्वक्ष्यमाणे सत्प्रबंधे द्रव्यानुयोगतर्कणायां 'पश्यत' विलोकयत । "किल' निश्चयेन तीर्थ-वाक्ये, तीर्थों गुरुस्तस्य वाक्य द्रव्यादिपदसमूहस्तस्मिन् तीर्थवाक्ये 'सर्वादरेण' सर्वप्रयत्नेन 'तिष्ठत' आदरं कुरुत । परन्तु परमार्थतो गुरुवाक्ये स्थातव्यम, अल्पमति ज्ञात्वा अहंकारो न कर्तव्यः । यथा अधनेन धनं प्राप्तं तृणवन्मन्यते जगत् इति दृष्टांतात् । अत एव उपरितनाश्चत्वारो नया अतिगंभीरार्था यस्य कस्यापि स्मृतिविषयं न यान्ति । तेन सिद्धांते प्रथमं न दर्शितास्तथा रहस्यं च गुरुभक्तायव देयमित्युक्तत्वात् ।। इति श्रीद्रव्यानुयोगतर्कणायां कृतिभोजविनिर्मितायां प्रथमोऽध्यायः सूचनार्थमुपदर्शितः । व्याख्यार्थ-हे बुधजन ! तत्त्वार्थसंमति आदि प्रधान महाशास्त्रों में विस्तारसे द्रव्यानुयोगकी महिमा प्रकाशित है, किन्तु उन ग्रन्थोंमें कथित वाक्योंका अति अल्प लेशमात्र इस वक्ष्यमाण लघु सत्प्रबन्ध अर्थात् द्रव्यानुयोगतकणा नामक ग्रन्थमें, आप लोग देखो, और निश्चयसे तीर्थरूप जो गुरु हैं, उनके वाक्यरूप जो द्रव्य आदि पदोंका समूह Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ ११ है उसमें सर्व आदर अर्थात् संपूर्ण प्रयत्नसे आएर करो, परन्तु परमार्थसे गुरुके वाक्यमें स्थित रहना चाहिये, तथा अपनी अल्पबुद्धिको जानकर अहंकार नहीं करना चाहिये । और "निर्धन पुरुष धनको पाकर संसारको तृणके समान समझता है" यह जो दृष्टान्त है वह तुमारे ऊपर न घटे ॥ इसीसे ऊपरके चारों नय अति गंभीर अर्थसहित हैं। और जिस किसी साधारण मनुष्य के स्मरण-विषयमें नहीं आते इसी कारणसे सिद्धान्त में वे प्रथम नहीं दिखाये गये, क्योंकि उनका रहस्य परम गुरुभक्त को ही देना उचित है, ऐसा शास्त्रकारोंने कहा है ॥ : इति द्रव्यानुयोगतर्कणायां कृतिमोजविनिर्मितायामाचार्योपाधिधारिद्विवेद्य पनामकपण्डित ठाकुरप्रसादशास्त्रीप्रणीतभाषाटीकासमलङ्क तायां प्रथमोऽध्यायः ॥२॥ अथ द्रव्यस्वरूपमाह। अब द्रव्यके स्वरूपका निरूपण करते हैं । गुणपर्याययोः स्थानमेकरूपं सदापि यत् । स्वजात्या द्रव्यमाख्यातं मध्ये भेदो न तस्य वै ॥१॥ भावार्थ-जो गुण और पर्यायोंका स्थान है; जो निजस्वरूपसे सदा एकरूप रहता है, और जिसके निजस्वरूपका भध्यमें कुछ भेद नहीं है, वह द्रव्य कहा गया है ॥११॥ व्याख्या । गुणपर्याययोर्माजनं कालत्रये एकरूपं द्रव्यम स्वजात्या निजस्वेत एकस्वरूप भवति । परं पर्यायवत् न परावृत्ति लमते तद्रव्यमुच्यते । यथा ज्ञानादिगुणपर्यायभाजनं जीवद्रव्यम् । रूपादिगुणपर्यायमाजनं पुद्गलद्रव्यम । सर्वरक्तवादिघटत्वादिगुणपर्यायमाजनं मृद्रव्यम् । यथा वा तंतवः पटापेक्षया द्रव्यम । पुनस्तंतवोऽवयवापेक्षया पर्यायाः । कथं ? यतः पटविचाले पटावस्थाविचाले च तंतूनां भेदो नास्ति । तन्त्ववयवावस्थायामन्वयत्वरूपो भेदोस्ति । तस्मात् पुद्गलस्कंधमध्ये द्रव्यपर्यायत्वमापेक्षिकं बोध्यम । अथ कश्चिदेवं कथयिष्यति । द्रव्यत्वं तु स्वाभाविकं न जातम् । आपेक्षिकं जातं । तदा तं समाधते । मो तार्किक ! शुण । यत्सकलवस्तूनां व्यवहारोऽपेक्षयैव जायते । न तु स्वमावेन । तस्मादत्र न कश्चिद्दोषः । ये च समवायिकारणप्रमुखैद्रव्यलक्षणं मन्वते तेषामपि अपेक्षामनुमर्तव्यैवेति । गूगपर्यायवद्रव्यमिति तत्त्वार्थे । विस्तरस्तु द्रव्याणामुद्दे शलक्षणपरीक्षाभिस्तत्र वास्ति । अतस्ततोऽवसेयः ॥१॥ व्याख्यार्थ -जो गुण और पर्यायका आश्रय हो, निजस्वरूपसे कालत्रयमें भी एकरूप हो, न कि-पर्सायके सदृश परिवर्तनको प्राप्त हो उसको द्रव्य कहते हैं । जैसे ज्ञान आदि गुणपर्यायका भागी जीवद्रव्य है, और रूप आदि गुणपर्यायका भागी पुद्गल द्रव्य है । इसीप्रकार सर्व रक्तत्व आदि गुण तथा घटत्व आदि पर्यायका भागी मृत्तिकारूप Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम द्रव्य है । अथवा जैसे तन्तु (सूत्र) पटरूप कार्यकी अपेक्षासे द्रव्य हैं, और वेही तन्तु अपने अवयवोंकी अपेक्षासे पर्याय कहे गये हैं। किस प्रकारसे ? ऐसा पूछो तो कहते हैं क्योंकि पटके तथा पटकी पर्यायोंके संचालनमें तन्तुओंमें भेद नहीं है, और तन्तुओंके अवयवोंकी अवस्थाओंके संचालनमें अन्वयत्वरूप भेद है; इसलिये पुद्गलस्कन्धोंके मध्यमें द्रव्य तथा पर्याय सापेक्षिक समझना चाहिये । यहाँपर कोई ऐसा कहता है कि इसप्रकार माननेसे द्रव्यस्वरूप स्वाभाविक नहीं रहा किन्तु सापेक्षिक हो गया, तो इस शंकाका समाधान करते हैं:-हे तार्किक सुनो, संपूर्ण वस्तुओंका व्यवहार इस लोकमें अपेक्षासेही होता है, इसलिये अपेक्षासे किसी वस्तुको द्रव्य अथवा पर्याय मानने में कोई दोष नहीं है । और जो नैयायिक समवायी 'कारण आदि द्रव्यका सक्षण मानते हैं उनको भी अपेक्षाका अनुसरण अवश्य करना होगा । और 'गुणपर्यायवद्रव्यम्" गुण तथा पर्यायसहित होना, यह द्रव्यका लक्षण महातत्वार्थसूत्र में कहा है। तथा उद्देश, लक्षण और परीक्षाद्वारा द्रव्योंका विस्तारसे निरूपण भी उस महाशास्त्र तत्वार्थसूत्र में ही है; इसलिये द्रव्योंका विशेष विस्तार उसी शास्त्रसे जानना चाहिये ।।१२।। अय इत्यं संक्षेपत उक्तम् । अस्यैव गुणपर्याययोभंदादिकांक्षया तदेव दर्शयन्नाह । अब द्रव्यका तो संक्षेपसे निरूपण करचुके, आगे इसहीके गुणपर्य्यायोंका भेदादिवर्णन करना है, अतः वही दर्शाते हुये अग्रिमसूत्र कहते हैं। सहभावी गुणो धर्मः पर्यायः कमभाव्यथ । भिन्ना अभिन्नास्त्रिविधास्त्रिलक्षणयुता इमे ॥२॥ भावार्थः-द्रव्यके साथ सदा रहनेवाला जो धर्म है उसको गुण कहते हैं, और द्रव्यमें जो क्रमसे होनेवाला है उसको पर्याय कहते हैं । द्रव्य, गुण तथा पर्याय परस्पर *भिन्न भी हैं, अभिन्न भी हैं, तीन प्रकार के हैं और विलक्षण सहित हैं। व्याख्या । द्रव्यस्य सहभावी यावद्व्य भावी यो धर्मः स गुण उच्यते । यथा जीवद्रव्यस्योपयोगाख्यो गुणः । पुद्गलस्य ग्रहणं गुणः । धर्मास्तिकायस्य गतिहेतुत्वं गुणः । अधर्मास्तिकायस्य स्थितिहेतुत्वं गुणः । कालस्य वर्तनाहेतुत्वं गुणः । यदैव द्रव्यं उत्पद्यते तदैव ते द्रव्येण गुणा उत्पद्यन्ते । पौर्वापर्यभाव एव नास्ति । गुणगुणिनोः समानसामग्रीकत्वात् मव्येतरविषाणवदिति । अनादिनिधनानां द्रव्यगुणानामुत्पत्तिदर्शनं व्यवहारतः कृष्णादिघटवत् । अथ क्रममावी अयावद्दव्यभावी पर्यायः । यथा जीवस्य नरकादिपर्यायाः । (१) न्यायमें द्रव्यको समवायी कारण माना है, जैसे घटआदि कार्य में मृत्तिका समवायी कारण है । (२) जीव और उसके ज्ञान आदि उपयोग व्यवहारदृष्टिले भिन्न हैं । (३) परन्तु एकही देश में जीव तथा ज्ञानादिकी उपलब्धि होने से जीवपर्याय अभिन्नभी है । चतुर्विध दर्शन तथा अष्टषिष शानको उपयोग कहते हैं। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ १३ पुद्गलस्य रूपरसस्पर्शादिपर्यायाः । धर्मस्य व्यंजनार्थपर्यायो। अधर्मस्य व्यंजनार्थपर्यायौ । कालस्य व्यंजनार्थपर्यायौ । आकाशस्य व्यंजनार्थपर्यायौ । एवं द्रव्याणां संख्याकृतो भेदः । लक्षणादिकृतो भेदः । तस्विविधाः । उपचारेण नवविधाः । एकैकस्य विध्यात । तथापि लक्षणादत्पादव्ययध्रौव्ययुक्ताः । इत्थं षडपि जैनप्रमाणप्राप्तानि द्रव्याणि इमे । इति द्रव्यगुणपर्यायाः प्रत्येक परस्परं मिन्ना अभिन्नास्त्रिविधास्त्रिलक्षणयुताः संतीति व्याख्येयम ॥२॥ व्याख्यार्थ-द्रव्यके सहभावी अर्थात् द्रव्यके साथही साथ होनेवाला, तथा यावद्रव्यभावी अर्थात् उस द्रव्यमात्रमें रहनेवाला जो धर्म है उसीको गुण कहते हैं। जैसे जीव द्रव्यका 'उपयोग नाम गुण है, पुद्गल द्रव्यका ग्रहण गुण है, धर्मास्तिकाय (धर्मद्रव्य ) का गतिहेतता गण है. अधर्मास्तिकाय ( अधर्मद्रव्य ) का स्थितिकी कारणतारूप गुण है, और ऐसे ही कालद्रव्यका वर्तनात् लक्षण गुण है। जिस समय जो दव्य उत्पन्न होता है उसी समानकालमें उस द्रव्यके गुणभी उत्पन्न होते हैं, इस हेतुसे द्रव्य तथा उसके गुणोंका पौर्वापर्यभाव, अर्थात् पूर्व कालमें द्रव्य है पश्चात् उस द्रव्यके गुण हैं यह वार्ता नहीं है । दक्षिण तथा वाम भागके पशुके श्रृगोंके सदृश द्रव्य तथा गुण ये दोनों समान सामग्रीसे जन्य होनेसे एकही कालमें हैं । अनादि अनन्त द्रव्य गुणोंकी उत्पत्ति संसारके व्यवहारसे एकही कालमें देखी गई है, जैसे कृष्णघट । अब क्रमभावी, अथवा अयावद्रव्यभावी अर्थात् उस संपूर्ण द्रव्यमात्रमें जो न रहै किन्तु किसी दशामें रहे उसको पर्याय कहते हैं । जैसे जीव द्रव्यके नरकआदि पर्याय; पुद्गलद्रव्यके रूप रस स्पर्शादि पर्याय, धर्मद्रव्यके व्यंजन तथा अर्थपर्याय, अधर्मद्रव्यके भी व्यंजन तथा अर्थपर्याय, कालद्रव्यके व्यंजन तथा अर्थपर्याय, और आकाशद्रव्यके भी व्यंजन तथा अर्थपर्याय हैं । इसी प्रकार द्रव्योंके संख्याकृत भेद, लक्षणादिकृत भेद, प्रदेश विभागकृत भेद हैं, इसरीतिसे तीन प्रकारके हैं, और उपचारसे नवविध हैं, क्योंकि एक एक के तीन तीन भेद हैं, तथापि लक्षणसे संपूर्ण द्रव्य उत्पाद, व्यय और ध्रौव्ययुक्त हैं । इस प्रकार जीव १, पुद्गल २, धर्म ३, अधर्म ४, आकाश ५ तथा काल ६, ये छहों द्रव्य जैनप्रमाणसे प्राप्त (सिद्ध) हैं, और ये द्रव्य, गुण, पर्याय परस्पर भिन्न भी हैं और अभिन्न भी, तथा त्रिविध हैं और त्रिलक्षण, अर्थात् उत्पत्ति, व्यय और ध्रौव्ययुक्त हैं । ऐसा सूत्रका व्याख्यान करना चाहिये ॥२॥ अथ द्रव्येण सह गुणपर्याययोर्भेदं दर्शयन्नाह । अब इसके अनन्तर द्रव्यके साथ गुण और पर्यायका भेद दर्शातेहुये अग्रिम सूत्र कहते हैं। (१) परन्तु एकही देशमें जीव तया ज्ञानादिको उपलब्धि होनेसे जीवाव्य अभिन्न भी है। चतुर्विध दर्शन तथा अष्टविध ज्ञानको उपयोग कहते हैं । (२) प्रत्येक पदार्थकी गतिमें सहकारिकारणता धर्म द्रव्यको है। (३) अमुक पदार्थ इसने समय में है, इस प्रकार सब पदार्यों के वर्ताने के लक्षणरूप काल है। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् मुक्ताभ्यः श्वेततादिभ्यो मुक्तादाम यथा पृथक् । गुणपर्याययोर्व्यक्त व्यशक्तिस्तथाश्रिता ॥३॥ भावार्थ-जैसे मोतियोंसे तथा श्वेतता आदि गुणोंसे मोतीकी माला भिन्न है, ऐसेही गुणपर्यायकी व्यक्तिसे द्रव्यशक्ति पृथक् होकर भी एक प्रदेशमें आश्रित होनेसे अभिन्नरूप हे ॥३॥ व्याख्या । यया मुक्ताभ्यो, मौक्तिकानां श्वेततादिभ्यश्च मौक्तिकमाला मिना वर्तते, तथैव द्रव्य - शक्तिगुणपर्यायव्यक्तिम्याम । तयात्र समाधिः । गुगपर्याययोक्तः सकाशात् पयगपि द्रमशक्तिरेकप्रदेश. संबंधेनाश्रिता अमिन्ना अपृथगित्यर्थः । श्वेततादयो मौक्तिकानां गुणस्थानिनः, मौक्तिका: पर्यायस्यानिनः । एतद्वयं भिन्नमपि द्रव्यस्थाने मुक्तादाम्नि रंगतमभिन्नं सत् मुक्तादामेति व्यवहारो जायते । इति दृष्टांतयोजना । अथ च घटादिद्रव्यं प्रत्यक्षप्रमाणेन सामान्यविशेषरूपमनुमवत् सामान्योपयोगेन मृत्तिकादिमामात्यं मासते विशेषोपयोगेन घटादिविशेषं च भासते । तत्र यत्सामान्यमानं तद्रव्यरूपम् । यश्च विशेषः स गुणपर्यायरूपो ज्ञेयः । ३। व्याख्यार्थ-मौक्तिक ( मोतीकी ) माला, मोतीसे तथा मोतीमें रहनेवाले श्वेतता आदि गुणोंसे जैसे भिन्न भासती है, ऐसे ही गुणव्यक्ति तथा पर्यायव्यक्तिसे द्रव्यशक्ति भिन्न भासनेपर भी एकप्रदेशसंबन्धमें आश्रित होनेसे अभिन्न है, यह अभिप्राय सूत्रका है । श्वेत आदि गुण जो हैं वे मोतियोंके गुणस्थानी हैं, और मोती पर्यायस्थानी हैं । ये दोनों (गुणपर्याय) भिन्न होकर भी, मोतीकी मालारूप द्रव्यस्थानमें मिले हुए अभिन्न हैं, इस ही से मोतीकी माला यह व्यवहार होता है, ऐसे सूत्रके दृष्टान्तकी योजना है। और जो घट आदिरूप द्रव्य प्रत्यक्ष प्रमाणसे सामान्य और विशेषरूपको अनुभव करता हुआ सामान्य उपयोगरूपसे मृत्तिका आदि सामान्यरूप भासता है, और विशेष उपयोगसे घट आदि विशेषरूप भासता है; इसमें जो सामान्यका भान है वह तो द्रव्यरूप और जो विशेषका भान है उसको गुणपऱ्यांवरूप जानना चाहिये ॥३॥ अथ सामान्य द्विप्रकार दर्शयन्नाह ।। अब दो प्रकारके सामान्यको दिखाते हुए सूत्र कहते हैं ।। ऊर्ध्वतादिमसामान्यं पूर्वापरगुणोदयम् । पिंडस्थादिकसंस्थानानुगता मृद्यथा स्थिता ॥४॥ भावार्थ-पूर्वोक्त गुणपर्यायोंके उदयका कारण, तथा पूर्वोत्तर पर्यायोंकी त्रिकाल दशामें पिंड कुसूल आदि अनेक आकारों में जो एक अनुगतरूपसे स्थित है उसको प्रथम अवता सामान्य कहते हैं ॥४॥ व्याख्या । पूर्वः प्रथमोऽपरोऽग्रेतनो यो गुणो विशेषस्तयोरुदयं कारणं पूर्वापरगुणोदयं पूर्वापरपर्याययोरनुगतमेक द्रव्यं त्रिकालानुयायी यो वस्त्वंशस्त दूध्वंतासामान्यमित्यभिधीयते । निदर्शनमुत्तानमेव । यथापिंडो मत्पिडः अस्थिः कुसल इत्यादयोऽनेके सस्थाना आकृतयस्तासु अनुगता पूर्वापरसाधारणपरिणामद्रव्यरूपा Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा मृत्तिका तथाकारा स्थिता । एतदूर्ध्वतासामान्यं कथ्यते । यदि च पिंडकुसूलादिपर्यायेषु अनुगतमेकं मृद्रव्यं न कथ्यते तदा घटादिपर्यायेषु अनुगतं घटादिद्रव्यमपि न कथ्यते । तथा च सर्वं विशेषरूपं भवति । क्षणिकवादिबौद्धमतमायाति । अथवा सर्वद्रव्येषु एकमेव द्रव्यमागच्छतीति । ततः घटादिद्रव्ये अथ च तदंतर्वतिसामान्यमृदादिद्रव्ये चानुभवानुमारेण परापरोवंतासामान्यमवश्यमंगीकर्तव्यम् । घटादिद्रव्याणि स्तोकपर्यायव्यापीनि पुनर्मुदादि द्रव्याणि बहुपर्यायव्यापीनि संति । इत्थं नरनारकादिद्रव्याणां विशेषो ज्ञातव्यः । एतत्सर्वमपि नैगमनयमतम् । तथा शुद्धसंग्रहनयमते तु सदद्व तवादेन एकमेव द्रव्यमापद्यत इति ज्ञेयम् ।।४।। व्याख्यार्थ-पहिले और अगले विशेषोंके उदयका जो कारण सो पूर्वापर गुणोदय अर्थात् पूर्व और उत्तर पर्यायोंमें त्रिकाल अनुयायी पदार्थका अंश है उसको ऊर्ध्वता नामक प्रथम सामान्य कहते हैं । दृष्टान्त यह है कि जैसे-मृत्तिकाका पिंड, कुसूल इत्यादि आकृतियों में अनुगत अर्थात् पूर्वोत्तर साधारण परिणामरूप द्रव्यरूप जो मृत्तिका है वह उसही आकारमें स्थित है । इसहीको ऊर्ध्वता सामान्य कहते हैं। और यदि पिंड कुसूल आदि यावत् पायोंमें अनुगत एक मृत्तिकारूप द्रव्य न कहैं तो घट आदि पायोंमें अनुगत घट आदि द्रव्य भी नहीं कह सकते; और इस प्रकारसे सब विशेषरूप होनेसे क्षणिकवादी बौद्धका मत आकर प्राप्त होता है । अथवा संपूर्ण द्रव्यों में एकही द्रव्य आता है, इस लिये घट आदि द्रव्यमें और उसके अन्तर्गत सामान्य मृत्तिका आदि द्रव्यमें भी अनुभवके अनुसार पूर्वापरदशासाधारण ऊवता सामान्य अवश्य अङ्गीकर्तव्य है। इनमें घटआदि द्रव्य तो अल्पपर्याय व्यापी हैं और मृत्तिका आदि द्रव्य बहुत पर्याय व्यापी हैं । इसी प्रकार नर तथा नारक आदि द्रव्योंका भी विशेष समझना चाहिये । यह सब द्रव्य गुण तथा पर्यायका भेद और अभेद तथा ऊर्ध्वता सामान्यकी व्यवस्थादि नैगमनयमतके अनुसार वर्णन किया गया है, और शुद्धसंग्रहनयमतके अनुसार तो सद् अद्वैतवादसे एक ही द्रव्य प्राप्त होता है, ऐसा जानना चाहिये ॥४॥ पूर्वापरसाधारणं परिणाम द्रव्यमूर्खता कटककंकणाद्यनुगामिनां न वदतीति तत्स्वरूपमुक्त्वाण तिर्यक्मामान्यलक्षणमाह । पूर्वापरपर्सायोंमें साधारण परिणामरूप द्रव्य ऊर्ध्वता सामान्य है, वह कुंडल, कटक (कड़े) कंकण आदि पर्यायोंमें अनुगामीपनेको नहीं कहता है, अतः ऊर्ध्वतासामान्यका स्वरूप कहकर अब तिर्यक्सामान्यका लक्षण कहते हैं ॥ तुल्या परिणतिभिन्नव्यक्तिषु यत्तदुच्यते । तिर्यक्सामान्यमित्येव घटत्वं तु घटेष्विव ॥५॥ भावार्थ-भिन्न भिन्न प्रदेशों में स्थित जो अनेक व्यक्ति हैं उन सबमें सदृश परिणामरूप जो द्रव्यशक्ति है उसको तिर्यक् सामान्य कहते हैं, जैसे कि घटोंमें घटत्व ॥५॥ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्रराजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् व्याख्या । यत् भिन्नव्यक्तिषु भिन्न प्रदेश विशेषेषु तुल्या समाना एकरूपा । एकाकारा द्रव्यशक्तिस्तत्तिर्यक्सामान्यमुच्यते तु । यथा । घटेषु घटत्वं, गोषु शाबलेयादिषु गोत्वम, अश्वषु अश्वत्वं, तिष्ठति सामान्यभूतम् । तथा । अनेकाकारघटसहस्र ष्वपि घटत्वमेवेति तिर्यक्सामान्यमिति । अत्र कश्चिदाह । यद्घटादिभिन्नव्यक्तिषु यथा घटत्वादिकं सामान्यमेकमेवास्ति तथा पिडकुसूलादिभिन्नव्यक्तिषु मृदादिसामान्यमेकमेवास्ति । तहि तिर्यक्सामान्योर्ध्व तासामान्ययोः को विशेषस्तत्राह । यत्र देशभेदेन या एकाकारा प्रतीतिरुत्पद्यते तत्र तिर्यक्सामान्यमभिधीयते । यत्र पुनः कालभेदेन अनुगताकारप्रतीतिरुत्पद्यते तत्र ऊर्ध्वता सामान्यमभिधीयते इति । एवं सति दिगंबरानुसारी कचिद्वक्ति | षण्णां द्रव्याणां कालपर्यायरूप ऊर्ध्वताप्रचयः । कालं विना पंचद्रव्याणामवयवसंवातरूपतिर्यक्प्रचयश्चास्ति I एवं वदतां तेषां मते तिर्यक्प्रचयस्याधारी घटादिस्तिर्यक्सामान्यं भवति । तथा परमाणुरूप प्रचयपर्यायाणामाधारो भिन्न एव युज्यते । तस्मात् पंचद्रव्याणाम् । स्कंध १ देश २ प्रदेश- मावेन एकानेकव्यवहार उत्पादनीयः । परन्तु तिर्यक्त्रचय इति नामांतरमप्रयोजकं वालुकापेषवत् । इति नियमः १४ । ५ । १६ ] व्याख्यार्थ — जो भिन्न भिन्न प्रदेशोंवाले विशेषोंमें समान अर्थात् एक आकारवाली द्रव्यशक्ति है उसको तिर्य्यक् सामान्य कहते हैं । जैसे संपूर्ण वट व्यक्तियां में घटत्व, शाबलेय आदि समस्त गो व्यक्तियोंमें गोत्व, एवमेव अश्व (घोड़े ) में अश्वपना सामान्यभूत रहता है वैसेही अनेक आकारवाले हजारों घटोंमें भी घटत्वही रहता है ऐसा तिर्यक् सामान्य है || अब यहाँपर कोई शंका करता है कि जैसे घट आदि भिन्न भिन्न व्यक्तियों में घटत्व आदि सामान्य एक ही है ऐसे ही पिंड, कुसूल आदि भिन्न व्यक्तियोंमें मृत्तिका आदि सामान्य भी एक ही रूप है । तो तिर्य्यक सामान्य तथा ऊर्ध्वता सामान्य इन दोनोंमें क्या विशेष है ? इस शंकाका उत्तर देते हैं- जहाँपर एक जातिके पदार्थों में केवल देशभेदसे जो सब उस प्रकारकी व्यक्तियों में एकाकार प्रतीति होती है वहाँपर उस ( एकाकार प्रतीति वा भान) को निक सामान्य' कहते हैं; और जहाँ पुनः कालभेदसे सब पर्यायोंमें अनुएकाकार प्रतीति होती है उसको ऊर्ध्वता सामान्य कहते हैं; ये ही दोनोंमें भेद है । इस प्रकार मानने पर कोई दिगम्बर जैनमतानुयायी कहते हैं कि 'जीव, पुद्गल, धर्म; "अधर्म, आकाश' तथा 'काल इन छहों द्रव्योंका काल पर्यारूपमें तो ऊर्व्वता प्रचय है; और Croat छोडकर शेष पंच द्रव्योंका अवयव संघातरूप तिर्य्यकू प्रचय है । इस प्रकार कहनेवाले दिगम्बरियोंके मतमें तिय्यक प्रचयका आधार घटआदि तिर्यक सामान्य होता है; और उसी रीति परमाणुरूप प्रचय पर्य्याओंका आधार उनसे कोई भिन्न होना योग्य है !! इस हेतुसे पचद्रव्योंका स्कंध १ देश २ तथा प्रदेश भावसे एक तथा अनेक व्यवहार प्रतिपादन करना चाहिये; परन्तु तिर्य्यक् प्रचय ऐसा अन्य नाम तो व्यर्थही है, जैसे बालू (रेती) का चूर्ण । वस यही नियम है ||५|| Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा अथोर्ध्व तासामान्यशक्त भेदद्वयं दर्शयन्नाह । इसके पश्चात् ऊर्व्वता सामान्य शक्तिके दो भेद दर्शाते हैं; गुणपर्याययोः शक्तिमात्रमोघोद्भवादिमा । आसन्नकार्ययोग्यत्वाच्छक्तिः समुचिता परा ॥६॥ भावार्थ:-- द्रव्योंके गुण तथा पर्य्याय में शक्तिमात्र है, उसके दो भेद हैं । उनमें से जो प्रथम शक्ति है उसको ओघोद्रवा कहते हैं, और समीपवर्ती कार्यके योग्य होनेसे तथा व्यवहारके उपयुक्त होनेसे द्वितीय शक्तिको समुचिता शक्ति कहते हैं || ६ || व्याख्या | सर्वेषां द्रव्याणा निजनिजगुणपर्याययोः शक्तिमात्रम् । ओपोद्भवा ओघशक्ति: आदिमा प्रथमभेदरूपा कथ्यते । पुन: आसन्न निकटं शीघ्रमावि वा यत्कार्यं तस्य योग्यत्वात् व्यवहारयोग्यत्वात् समुचिता शक्तिरपरा द्वितीया समुचितशक्तिरुच्यत इति । ६ । व्याख्यार्थः – सम्पूर्ण द्रव्योंके गुण तथा पर्याय में जो शक्तिमात्र है उसके दो भेद हैं, प्रथम अथवा आदि शक्ति जो ओघसे अर्थात् समूहसे उत्पन्न होती है उसको ओवशक्ति कहते हैं; और पुनः समीपवर्ती शीघ्रभावी जो कार्य है उसके योग्य होनेसे तथा व्यवहार के उपयोगी होनेसे द्वितीय शक्तिको समुचित शक्ति कहते हैं ॥ ६ ॥ [ १७ अथैतद्भ ेदद्वयं दृष्टान्तेन द्रढयन्नाह । अब इन दोनों भेदोंको दृष्टान्त से दृढ़ करते हुए अग्रिम सूत्र कहते हैं । ज्ञायमाना तृणत्वेनाज्यशक्तिरनुमानतः । किं च दुग्धादिभावेन प्रोक्ता लोकसुखप्रदा ॥ ७ ॥ भावार्थ:- यद्यपि घृतकी शक्ति तृणपनेकर अनुमानसे जानी जाती है, तथापि दुग्धभावसे कही हुई लोकमें सुख देनेवाली होती है ॥ ७ ॥ व्याख्या यथा आज्यशक्तिर्वृतशक्तिः तृणत्वेन तृणभावेन अनुमानप्रमाणतो ज्ञायमानापि लोकानामग्रतः कथयितुं न शक्यते । यदि तृगपुगनेषु घृतशक्तिर्नास्ति तदा तृपाहारेग घेनुदुग्धं कयं दत्ते । तद्दृग्वान्तर्भूता घृतशक्तिः कुत आगता । इत्यनुमानातृगमवेत लोकानां पुरतः प्रकाशयितुमशक्या । तस्मात् तृणभावेन या शक्तिः सा ओशक्तिरित्येकान्तः । किं वातिराद्या पुनर्व्यवहारादेशं लभते । तथाहि । तृणजन्यदुग्वादिभावेन दुग्वदष्यादिभावेन परिणता घृतशक्ति: प्रकाश्यमाना लोकसुखप्रदा लोकचित्तगम्या भवेत् । ततः सा शक्तिद्वितीया समुचितशक्तिः कथ्यते । अत्राय विवेकः । अनन्तर कारणमध्ये समुचितशक्तिः, परम्परकारणमध्ये ओधशक्तिरिति । बोधशक्तौ तु तृणानि धेनुरश्नाति पुष्टा सती दुग्धं दत्ते, दुग्धेन दधि जायते दध्नः कारणकलापेन घृतमेवमोघेन घृतशक्तिः स्फुटी मवति । तथान्यत्र दुग्धदध्यादेघृतमेवेति व्यवहारयोग्यत्वं लोकप्रसिद्धमेवेति । अथ च ओवशक्तिमुचित शक्त्योरन्यकारणता, प्रयोजनतेतिनामान्तरद्वयमपि ग्रन्थान्तरात्कथितमिति ज्ञेयम् । ७। १ ख पुस्तके नास्ति. ३ - Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् व्याख्यार्थः-जैसे घृतशक्ति तृणस्वरूपसे अनुमानप्रमाण द्वारा जानी जाती है तो भी मनुष्योंके आगे कही नहीं जा सकती । यदि तृणरूप पुद्गलोंमें घृतशक्ति नहीं होती तो तृणका भोजन करनेसे गौ दुग्ध कैसे देती ? और उस दुग्धके भीतर भी जो घृतशक्ति हैं वह कहांसे आती ? इसप्रकार अनुमान की हुई घृतशक्ति तृणभावसे जान ली गई है तो भी मनुष्योंके आगे वह प्रकट नहीं की जा सकती । इसी हेतु तृणभावसे ज्ञात जो घृतशक्ति है वह पहली ओघशक्ति है । यह एक दृष्टान्त हुआ । किञ्च, अनुमान प्रमाण सिद्ध जो वह आदिम ओघशक्ति है सो फिर व्यवहारके आदेश को प्राप्त होती है । सो ही कहते हैं कि तृणके भोजनसे उत्पन्न हुए दुग्ध आदि भावसे परिणामको प्राप्त हुई घृतशक्ति जो लोकमें प्रकाशित की जाती है वह लोगोंको सुख देनेवाली अर्थात् रमणीय होती है । तात्पर्य यह कि यदि लोकमें कहो कि घृत तृणसे उत्पन्न होता है तो लोगोंको अच्छा नहीं लगेगा और दुग्धसे घृत उत्पन्न होता है ऐसा कहना सबको अच्छा लगेगा, क्योंकि घृत साक्षात् दुग्ध व दधि (दही) से उत्पन्न होता है इसकारण वह दूसरी शक्ति समुचिता शक्ति कहलाती है। यहांपर ऐसा विवेक करना चाहिये कि व्यवधानरहित कारणके मध्यमें जो शक्ति है वह समुचित शक्ति है अर्थात् दुग्ध तथा दधिरूप कारण और घृतकार्यके मध्यमें कोई व्यवधान नहीं है, इसलिये घृतकार्यके अव्यवहित पूर्व दुग्ध वा दधिरूप कारणमें जो शक्ति है वह समुचित शक्ति है । परंपरा कारणके मध्यमें जो शक्ति है वह ओघशक्ति है । इस ओघशक्तिमें परंपरा इसप्रकार है कि गौ पहले तृणोंको खाती है, फिर उससे रस आदिका जो परिणमन होता है उससे जब पुष्ट होती है तब दुग्ध देती है, पुनः दुग्धसे दधि होता है, इसरीतिसे तृणसे दधिपर्यन्त जो कारणोंका समूह है उससे घृत होता है, ऐसे ओघसे घृतशक्ति प्रकट होती है । और अन्यत्र दूध दही आदि घृतरूप हैं यह व्यवहार लोकमें प्रसिद्ध ही है। तथा ओघशक्ति और समुचित शक्तिके अन्य ग्रंथोंमें कहे हुये समुचित कारणता तथा प्रयोजनता ये दो दूसरे नाम भी जानने चाहिये। अथ आत्मद्रव्यमध्ये एतच्छक्तिद्वयं विवक्ति । अजीव द्रव्यमें दोनों शक्तियोंका निरूपण करके अब आत्मद्रव्यमें ओघशक्ति तथा समुचितशक्तिकी विवेचना करते हैं प्राक् पुद्गलपरावर्ते धर्मशक्तिर्यथौघजा ।। अन्त्यावर्ते तथा ख्याता शक्तिः समुचिताङ्गिनाम् ॥८॥ भावार्थ:-जैसे भव्य जीवोंके प्रथम पुद्गलोंके परावर्तनोंमें ओघ ( समूह )से उत्पन्न हुई धमशक्ति थी वैसे ही अन्तके पुद्गल परावर्तन में समुचिता नामसे प्रसिद्ध धर्मशक्ति है ॥८॥ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [१२.. व्याख्या । यथा अङ्गिनां प्राणिनां भव्याना प्राक् पुद्गलपरावर्ते प्रथमपुद्गलपरावर्ते जात्येकवचनम् । अर्थात् अनन्तेषु पुद्गलपरावर्तेषु प्रथम व्यतीतेषु सत्सु ओवजा सामान्यरूपा धर्मशक्तिस्तदनुगता आसीत् । यद्य व न मवेत्तहि अन्त्यपुद्गलपरावर्ते सा कुतः प्राप्स्यते । यत: 'नामतो विद्यते भाव' इत्यादिवचनात् । तथा पुनरन्त्यावर्ते चरमपुद्गलपरावर्ते धर्मशक्तिः समुचिता ख्याता । अत एवाचरमपुद्गल. परावर्तकालो भवबाल्यकालः पुनरन्त्यपुद्गलपरावर्तकालो धर्मयौवनकालश्च कथ्यते । उक्त च । अचरमपरिवटै सु कालो भवबालकालगो मणिओ । चरमोउ धम्मजुव्वणकालो तह वन्नभेउत्ति । १॥ एतद्विशत्यां पठितमिति व्याख्यार्थः-जैसे भव्य जोवोंके प्रथम पुद्गलोंके परावर्तनोंमें, "प्राक्षुद्गल परावर्ते" यहां जातिकी अपेक्षा से एक वचनका प्रयोग किया गया है-भावार्थ-अनन्त परावर्त्तमान अर्थात् एकके पीछे निरन्तर गमनागमनशील जो पुद्गल प्रथम व्यतीत होते चले आये हैं उनमें ओघसे उत्पन्न तथा उनके सब पर्यायोंमें अनुगत सामान्य रूपको धारण करनेवाली धर्मशक्ति विद्यमान थी। क्योंकि यदि ऐसा न माना जाय तो अन्तिम पुद्गल परावर्तनमें उन पुद्गलोंको पर्यायोंमें चलानेवाली धर्मशक्ति कहांसे प्राप्त हो सकती है ? क्योंकि असत् पदार्थका भाव अर्थात् विद्यमानपना नहीं हो सकता इत्यादि वचन है । इससे यह सिद्ध हुआ कि प्रथम पुद्गलोंके परावर्त्तनोंमें सामान्यरूप ओघसे उत्पन्न धर्मशक्ति अवश्य थी । तथा अन्तिम पुद्गलोंके परावर्तनों में जो विद्यमान धर्मशक्ति है उसका समुचिता नाम है। इसी कारणसे प्रथम पदगलों का जो परावर्तन काल वह भवका बाल्य काल है, और जो अन्तके पुद्गलोंका परावर्तन काल है वह धर्मका योवनकाल कहा जाता है । इस विषयमें यह वचन भी कहा गया है किप्रथम पुद्गलोंके परावर्त्तनोंका काल भवका बाल्यकाल कहलाता है, तथा अन्तके पुद्गलोंका परावर्तन काल धर्मयौवनकाल कहलाता है ।। यह गाथा विशति नामक ग्रंथमें पठित है ॥८॥ अथ द्रव्शयक्ति व्यवहारनिश्चयनयाभ्यां दर्शयन्नाह । अब द्रव्यकी शक्तिको व्यवहार तथा निश्वयनयसे दर्शाते हुए अग्रिम सूत्र कहते हैं । कार्यभेदाच्छक्तिभेदो व्यवहारेण दृश्यते । युक्निश्चयनयादेकमनेकैः कार्यकारणः ॥९॥ भावार्थ-व्यवहारनयकी अपेक्षासे कार्योंके भेदसे शक्तिभेद भी दीख पड़ता है, तथा निश्चयनयकी अपेक्षासे तो अनेक कार्य तथा कारणोंसे युक्त होने पर भी निजशक्ति स्वभाव एकही द्रव्य है ॥९॥ ___ व्याख्या । एवं पूर्वोक्तप्रकारेण एककस्य कार्यस्य ओघशक्तिसमुचितशक्तिरूपाः शक्तयोऽनेकश एकद्रव्यस्य प्राप्यन्ते । ताः पुनव्यवहारनयेन व्यवहृताः सत्यः कार्यकारणभेदं सचयन्ति । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् कथं व्यवहारनथो हि कार्यकारणभेदमेव मनुते । निश्रयनयो हि अनेककार्यकारणैर्युगपि द्रव्यमेकमेव स्वशक्तिस्वभावमस्तीत्यवधारयति । कदापि इत्थं नावधार्यते । तदा स्वभावभेदाद्रव्यभेदोऽपि संपद्य ेत । तस्मात्तत्तदेशकालादिकापेक्षया एकस्यानेककार्यकारणस्वभावमङ्गीकुर्वतां न कोपि दोषपोषः । कारणान्तरापेक्षापि स्वभावान्तर्भूता एवास्ति । तेन तस्यापि वैफल्यं न जायते । तथा शुद्धनिश्रयमताङ्गीकारे तु कार्यकारणकल्पनैव मिथ्या । यतः - प्रादावन्ते च यन्नास्ति वर्तमानेऽपि तत्तथेति वचनात् । कार्यकारणकल्पनाविरहितं शुद्धमविकलमचलितस्वरूपं द्रव्यमस्तीति ज्ञेयम् ॥ ९ ॥ व्याख्यार्थ - पूर्व प्रसंग में कही हुई रीतिसे एक एक कार्यकी ओघशक्ति तथा समुचित शक्तिरूप जो शक्तियें हैं वे एक द्रव्यके अनेक प्राप्त होती हैं, और व्यवहारनयसे व्यवहृत ( व्यवहार वा उपयोगमें प्राप्त होनेसे वे ही शक्तियें कार्य तथा कारणका भेद सूचित करती हैं, क्योंकि व्यवहार नय कार्यकारणका भेद हो मानता है; और निश्चय (शुद्ध) नय तो अनेक कार्य तथा कारणों से युक्त होनेपर भी द्रव्य एक निजशक्ति स्वभाववाला है ऐसा निश्चय कराता है, और ऐसा निश्चय कभी भी नहीं कराता कि काकारणों भेदसे अनेक स्वभावयुक्त द्रव्य होता है। क्योंकि जब ऐसा माना जायगा तब स्वभाव-भेदसे द्रव्य-भेद भी प्राप्त हो जायगा । इसलिये उस उस देश उस उस काल आदिकी अपेक्षासे एक द्रव्यका अनेक कार्य कारण स्वभाव अंगीकार करनेकोई भी दोषका लेश नहीं है, और कारणान्तरकी अपेक्षा जो है वह भी द्रव्यके स्वभाव के अन्तर्गत ही है, इसलिये उसको भी निष्फलता नहीं होती और शुद्ध निश्चय नयके मतको स्वीकार करने पर तो कार्यकारणकी कल्पना ही मिथ्या है। क्योंकि “जो धर्म अथवा स्वभाव अर्थात् द्रव्यका अनेक स्वरूप आदि अन्त में नहीं है वह वर्त्त - मानमें भी वैसा ही है अर्थात् नहीं है ऐसा वचन है; इससे कार्यकारणकी कल्पना शून्य, अखंडित, तथा अविचलित स्वरूप एक ही द्रव्य है ऐसा जानना चाहिये ||९|| पूर्व शक्तिस्वरूपं द्रव्यं व्याख्यातम् । अथ च व्यक्तिरूपी गुणपर्यायौ वर्णयन्नाह । पूर्व प्रकरण में शक्तिस्वरूप द्रव्यका वर्णन किया गया, अब व्यक्तिरूप गुण तथा पर्याका वर्णन करते हुए अग्रिम सूत्र कहते हैं । स्वस्वजात्यादिभूयस्यो गुणपर्यायव्यक्तयः । शक्तिरूपो गुणः केषांचिन्मते तन्मृषागमे ॥१०॥ भावार्थ- सहभावी अथवा क्रमभावी कल्पनासे किये हुए निजस्वभावसे वर्त्तमान गुण तथा पर्यायोंके व्यक्ति अनेक प्रकारके हैं; और किन्हींके अर्थात् दिगम्बरमतानुसारियोंके मतसे गुण जो हैं वह शक्तिरूप ही है, परन्तु यह शास्त्रीय सिद्धान्तों से मिथ्या है ||१०|| व्याख्या । स्वस्वजात्या सहमाविक्रम भाविविकल्पनाकृति जस्वभावेन वर्तमाना गुणपर्याय Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [२१ . व्यक्तयो भूयस्यो बहुप्रकाराः सन्तीति । अत्र कश्चिद्दिगम्बरानुसारी शक्तिरूपो गुण इति कथयन्नाह । यतो द्रव्यपर्यायकारण द्रव्यम् । गुणपर्यायकारणं गुण: । द्रव्यपर्याययो व्यस्यान्यथामावः । यथा नरनारकादयो यथा वा द्वयणुकत्रयणुकादयः । पुनगुणपर्याययोगुणस्यान्यथाभावः । यथा मतिश्र तादिविशेषः । अथवा मवस्थसिद्धादिविशेषः । एतौ द्रव्यगुणौ स्वस्वजात्या शाश्वती पर्यायेणचाशाश्वती इत्थं संगिरन्ते । परमार्थतस्तु आगमयुक्तया एतत्सर्वं मृषा असत्कल्पनमित्यवधार्य प्रमाणामावात् । १० । व्याख्यार्थः-द्रव्योंके अपने २ स्वभावसे सहभावी अर्थात् द्रव्यके साथ ही होनेवाले गुणोंके व्यक्ति तथा द्रव्योंके निज २ स्वभावसे क्रमभावी पर्यायोंके व्यक्ति अनेक प्रकारके हैं। यहां कोई दिगम्बरमतके अनुयायी शक्तिरूप ही गुण है. ऐसा कहते हुए कहते हैं कि द्रव्यपर्यायका कारण तो द्रव्य है, और गुणपर्यायका कारण गुण है, तथा द्रव्य और पर्यायमें भी द्रव्यका अन्यथा भाव है, जैसे जीवद्रव्यके नर तथा नारकादि विशेष, पुद्गल द्रव्यके द्वयणुक, व्यणुक आदि विशेष, और गुणपर्यायों में गुणका अन्यथाभाव अर्थात् गुणकी रूपान्तरसे स्थितिरूप ही है। जैसे ज्ञानगुणके मतिश्रुत आदि विशेष, अथवा भवस्थ सिद्ध आदिक विशेष । फिर यह दव्य गण निज निज स्वभावसे तो नित्य हैं, और पर्यायरूपसे अनित्य हैं, ऐसा दिगम्बर जैनी कहते हैं । परन्तु यथार्थमें शास्त्रीय युक्तिसे यह सब मिथ्या है अर्थात् यह कल्पना उनकी असप है । क्योंकि इस कल्पनामें कोई प्रमाण नहीं है ॥१०॥ अथ गुणपर्याययोरक्यं प्रदर्शयन्नाह ।। अब गुण तथा पर्यायकी एकता दर्शाते हुए यह सूत्र कहते हैं। पर्यायान्न गुणो भिन्नः सम्मतिग्रन्थसम्मतः । यस्य भेदो विवक्षातः स कथं कथ्यते पृथक् ॥११॥ भावार्थः-संमतिग्रन्थको यह सम्मत है कि पर्यायसे गुण भिन्न नहीं है, क्योंकि जिसका भेद वक्ताकी इच्छा अथवा किसी अपेक्षाके आधीन है वह पदार्थ भिन्न कैसे कहा जा सकता है ? ॥ ११ ॥ व्याख्या-पर्यायाद्गुणो भिन्न: पृथक् न किंतु पर्याय एव गुण इत्यर्थः । कीदृशो गुणः ? सम्मतिग्रन्थसम्मतः । सम्मति ग्रन्थे श्रीमसिद्धसेनैराचार्यैयक्तवाचा समुचारितस्तथा च तद्ग्रन्थः । परिगमणं पज्जाओ अगेगकरणे गुणत्ति तुल्लठ्ठा । तहवि न गुणत्ति भण्णइ पजवणयदेसणं जम्मा । १। इति यथा क्रममावित्वं पर्यायलक्षणम् , तथैवानेककरणमपि पर्यायस्य लक्षणान्तरमेवास्ति । द्रव्य तु एकमेवास्ते ज्ञानदर्शनादिभेदकार्यपि पर्याय एव परं गुणो न कथ्यते । यस्मात् द्रव्यपर्याययोर्भगवतो देशना वर्तते । परन्तु गुणपाययोर्देशना न विद्यते । अयं गाथार्थः । एवं सति गुण: पर्यायाद्भिन्नो त तहि द्रव्यम् १ गुणः २ पर्याय ३ श्चति नामवयं पृथक कथं सङ्कलितम् ? इत्थं के वन व्याचक्षते तानाह । यस्थ गुगन्य विवक्षाकृतो भेदो, विवक्षा हि Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ ] श्रीमद्रराजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् नयस्य कल्पना । यथा तैलस्य धारा । अत्र तैलात् धारा भिन्ना प्रदर्शिता । तथापि भिन्ना नास्ति । तथैव सहभावी गुणः क्रमभावी पर्याय इति मिन्नत्वं विवक्षितं, परं परमार्थदृशा मिन्नत्वं नास्ति । तस्माद्यस्य भेद उपचरितो मवेत् स कथ भिन्नत्वेन व्यपदिश्यते । यथा उपचरितगुणे दृष्टान्तवचनं “गौर्दोग्धि" इत्यत्र गौर्न दोग्धि तद्वत् उपचरितगुणोऽपि शक्तित्वं न धत्त इति । ११ । व्याख्यार्थः-पर्यायसे गुण भिन्नरूप नहीं है किन्तु पर्याय ही गुण है। कैसा गुण ? इस आकांक्षापर विशेषण कहते हैं कि सम्मतिग्रंथके सम्मत अर्थात् सम्मतिग्रन्थमें श्रीसिद्धसेन आचार्यद्वारा स्पष्ट वाणीसे कहा गया ऐसा । उनके ग्रन्थकी गाथा यह है कि द्रव्यमें जो क्रमसे गमन करे अर्थात् क्रमसे हो वह पर्याय है तथा एकको अनेक करना यह गुण है और दोनों समान हैं तथापि गुण नहीं कहा जाता है, क्योंकि शास्त्रोंमें पर्यायनयका ही कथन है । १। तात्पर्य-गाथाका यह है कि जैसे क्रमभावीपना पर्यायका लक्षण है, उस ही प्रकार एकको अनेक करना भी पर्यायका दूसरा लक्षण ही है। द्रव्य तो सदा एक रूप ही रहता है, तथा ज्ञान दर्शन आदिकके भेदका करनेवाला भी पर्याय ही कहा जाता है न कि गुण । क्योंकि गुण, भेद करनेवाला नहीं है, इसीसे श्रीभगवानका उपदेश भी द्रव्य तथा पर्यायमें ही है । परंतु गुण और पर्यायमें उपदेश नहीं है। यदि पूर्वोक्त प्रकार गुण पर्यायसे भिन्न नहीं है तो द्रव्य, गुण तथा पर्याय यह तीन नाम जुदे कैसे गिने गये ? इस प्रकार जो कितने ही कहते हैं उनका समाधान करनेके लिये उत्तरार्द्धसे कहते हैं कि जिस गुणका विवक्षासे किया हुआ भेद है वह भिन्नपनेसे कैसे कहा जाय ? भावार्थ-नयोंकी जो कल्पना है वह विवक्षा कहलाती है, जैसे “तैलकी धारा", इस वाक्यमें तैलसे धारा जुदी दिखाई गई है; तो भी यथार्थमें धारा तैलसे भिन्न वस्तु नहीं है, वैसे ही सहभावी साथ होनेवाला गुण, तथा क्रमभावी (क्रमसे होनेवाली) पर्याय, ऐसे गुण पर्यायका भेद केवल विवक्षासे है, परंतु परमार्थदृष्टिसे भेद नहीं है । इसकारण जिसका भेद उपचारसे माना गया हो, वह यथार्थमें भिन्नरूपसे कैसे कहा जा सकता है ? और गुण उपचारसे है, इसमें दृष्टान्त यह है कि जैसे 'गौ दुहती है' यहां गौ नहीं दुहती है। यहांपर दोहनकापना उपचारसे गायमें है न कि यथार्थमें । ऐसे ही उपचारको प्राप्त हुआ गुण भी शक्तिको नहीं धारण करता है ।। ११ ।। अथ ये च गुणः पर्यायाद्भिन्न इति प्रमाणयन्ति तान् दूषयन्नाह । अब गुण पर्यायसे भिन्न पदार्थ है, ऐसा जो प्रमाण करते हैं उनको दूषण देते हुये आगेका सूत्र कहते हैं। गुणो द्रव्यं तृतीयं चेत्तृ तीयोऽपि नयस्तदा । सिद्धान्ते द्रव्यपर्यायाथिकभेदान्नयद्वयम् ॥ १२॥ . Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ २३ भावार्थ-द्रव्य तथा पर्यायको माननर सिद्धान्तमें द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक भेदसे दो ही नय कहे गये हैं । यदि गुण भी तृतीय द्रव्य होता तो तीसरा नय भी कहते ।।१२।। व्याख्या । यदि गुणस्तृतीयः पदार्थों द्रव्यपर्यायाद्भिन्नोन्यः पदार्थो भावो भवेत्, तहि तृतीयो नयोऽपि लभ्यते । सूत्र तु दव्याथिकपर्यायाथिक इति नयद्वयमेव कथितम् । नयान्तरं यद्यमविष्यत्तदाद्रक्ष्यत् । अतो नयद्वयादपरो नय एव न । उक्त च सम्मती दोऊ णया भगवया दव्वट्ठियपज्जवट्ठियाणियया। जइ पुण गुणोवि हुतो गुणट्ठियणयोवि जुजंतो ॥१॥ जं च पुण भगवया ते सुत्तेसु मुत्तेसु गोयमाईणं । पज्जवसण्णा णियया बागरिया तेण पज्जाया ॥२॥ रूपादीनां गुणसंज्ञा सूत्र न भाषिता, परन्तु "वण्णपज्जवा गंधपज्जवा इत्यादिपाठः पर्यायशब्देन पठितस्तथापि गुणो न कथ्यते । अन्यच्च । एगगुणकालएइत्यादिस्थानेष्वपि गुणशब्दो यश्च दृश्यते सोपि गणितशास्त्रसिद्धपर्यायविशेषः संख्यावाचको ज्ञेयः । परन्तु गुणास्तिकनयविषयवाचको न । उक्त च । सम्मतिग्रन्थमध्ये जपति अस्थिसमए एगं गुणो दशगुणो अणंतगुणो। रूवाईपरिणामा भन्नइ तम्हा गुणविसेसा ॥ १ ॥ गुणसहमंतरेणावि तणुपज्जवविसेससंखाण ।। सिज्झइ ण वरं संखा णसत्थधम्मो एव गुणोत्ति ॥२॥ जह दससु दंसगुणमि य एगंमि दसतणं समत्ते च । अहियं वि गुणसद्दे तहेव एयंमि दवढें ॥३॥ एवं गुणः पर्यायात् परमार्थदृशा मिन्नो नास्ति । तस्माद् द्रव्यमिव शक्तिरूपता कथं स्यादित्यभिप्रायः ।१२। व्याख्यार्थः-यदि गुण तीसरा पदार्थ अर्थात् द्रव्य और पर्यायसे भिन्न पदार्थ होता तो तीसरा नय भी प्राप्त होता, अर्थात् सूत्रमें तो द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक ऐसे दो नय ही कहे गये हैं, यदि तीसरा होता तो दीख पड़ता। इससे यह सिद्ध हुआ कि इन कथित दो नयोंसे अन्य कोई नय ही नहीं है । संमतिग्रन्थमें ऊपर कहा भी है । गाथार्थ--श्री भगवान्ने द्रव्यार्थिक तथा पर्यायार्थिक ये दो ही नय कहे हैं, फिर यदि द्रव्यपर्यायसे भिन्न गुण भी होता तो गुणार्थिक नय भी कहना योग्य था ॥ १ ॥ और भगवान्ने जो गोतमादिकको सूत्र कहे हैं उनमें पज्जव संज्ञा कही है इसलिये गुण पर्याय ही कहलाते हैं ॥२॥ रूपादिककी सूत्रमें गुणसंज्ञा नहीं कही गई है परन्तु 'वग्णपज्जवा, गन्ध पज्जवा' इत्यादि पाठ पर्यायशब्दसे ही कहा है अर्थात् वर्णपर्याय, गुणपर्याय ऐसा ही कहा गया है। और गुण शब्द वहांपर नहीं कहा ॥ और भी 'एग गुणकाल ए' एक गुणकालमें इत्यादि स्था Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम नोंमें जो गुण शब्द दीख पड़ता है, वह गुण शब्द भी गणितशास्त्रमें सिद्ध पर्यायविशेषका ही नाम है, इसलिये उसको संख्याका वाचक ही समझना चाहिये और गुणास्तिक नयके विषय का वाचक नहीं । संमतिग्रंथमें कहा भी है : गाथार्थ-आर्थिक समय में ऐसा कहते हैं कि एक गुण, दश गुण, तथा अनन्तगुण रूपादि परिणाम कहे गये हैं, इस कारण गुणशब्द संख्याविशेषवाचक है ॥ १ ॥ और गुणशब्दके विना भी संख्याओंके विषयमें तनुपय्यायविशेष ऐसा प्रयोग किया है, इस हेतुसे एक गुण यह समूहका धर्म संख्यापरक है न कि शक्तिपरक ।। २ ॥ जैसे दशसंख्याओंमें दशगुण है; ऐसे ही एकमें एक गुण; शतमें शतगुण है । इसी प्रकार समस्त संख्याओंमें गुण शब्दका प्रयोग है, ऐसे एक गुण द्रव्यस्थ गुण नहीं है ॥३॥ ___ इस रीतिसे परमार्थ दृष्टिसे पायसे भिन्न कोई पदार्थ नहीं है, इस कारण से द्रव्य के सदृश शक्तिरूपता गुण की कैसे होसकती है ? ।।१२।। अथ केचन पर्यायस्य दलं गुण इति वदन्ति । गुणं शक्तिरूपमेव मन्वानश्च विवदन्ते, तान् दूषयन्नाह । अब वादीगण गुणको पर्यायका कारण मानते हैं, और गुणको स्वतत्त्वशक्तिरूप मानते हुए परस्पर विरुद्ध विवाद करते हैं, उनको दूषण देते हुए यह सूत्र कहते है । पर्यायस्य दलं यहि गुणो द्रव्येण किन्तदा । गुणपर्याय एवेयं गुणपरिणामकल्पना ॥१३॥ भावार्थ-और यदि पर्याय का कारण (उदादान कारण) गुण हो तो पुनः द्रव्यका क्या प्रयोजन है ? । और गुणपाय यह जो कथन है सो तो गुणकी ही परिणामरूप कल्पना है, न कि अन्य कुछ ।। १३ ।। व्याख्या । यहि गुणः पर्यायस्य दलं उपादान कारणं मवति । तदा द्रव्येण किमिति कि प्रयोजनं द्रव्यप्रयोजनं गुणेनैव सिद्धमित्यर्थात् गुणपर्यायावेव पायौं उपदिशतां तृतीयासम्भवान् इति नियमः । पुनरत्र कश्चित्कथयिष्यति । द्रव्यपर्याय १ गुणपर्याय २ रूपे कार्ये भिन्ते स्तस्ततश्च द्रव्य १ गुणरूप २ कारणे अपि मिन्ने स्तः । इति कल्पनया वादी अरत्यः । कयं-कार्ये कारगोपचारात् कार्यमध्ये कारणशब्दप्रवेशो जायते । तथा कारणभेदे कार्यभेदः सिद्धयति । अथ च कार्यभेदसिद्धौ कारणभेदसिद्धि • रित्यन्योन्याश्रयोनाम दूषणमुत्पद्यते । तस्मात् गुणपर्यायस्तु गुणपरिणामस्यैव पटान्तरभेदकल्पनारूप: । तत एव केवलं सम्भावना, परन्तु परमार्थतो न हि । अथ च द्रव्यादि नामवयमपि भेदोपचारेणैव ज्ञेयन ।१३॥ व्याख्यार्थ–यदि गुण पर्यायका उपादान कारण हो तो द्रव्यसे क्या प्रयोजन ? अर्थात् द्रव्यका प्रयोजन गुणसे ही चल जायगा तब अन्य पदार्थ मानने की क्या आवश्यकता है ? और द्रव्यका कार्य गुणसे हो गया तो गुण, तथा पर्याय, इन्हीं दोनों पदार्थोंका उपदेश करना चाहिये, क्योंकि तृतीयका असंभव है, ऐसा नियम होना चाहिये Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ २५ अब इस विषय में यदि कोई ऐसा कहै कि द्रव्यपय तथा गुणपर्याय ये दोनों कार्य भिन्न भिन्न रूपके हैं, इसलिये द्रव्य तथा गुण ये कारण भी भिन्न भिन्न रूपके होना चाहिये । इस प्रकार कल्पनावादी भी मिथ्या हैं। क्योंकि काय्र्यमें ही उपचारसे कारण की कल्पना होती है इसलिये कार्य में कारण शब्दका प्रवेश होता है । ओर भी प्रथम कारणका भेद सिद्ध होने पर कार्यका भेद सिद्ध होता है, और ऐसे ही कार्यका भेद सिद्ध हो जावे तब कारणका भेद सिद्ध हो सकता है; इस प्रकार कारणके भेद सिद्ध होने में कार्य्यभेद सिद्ध करण होगा तथा कार्यके भेद सिद्ध होनेमें कारणका भेद सिद्ध होना कारण होगा, इस रीति से तुम्हारे मत में अन्योन्याश्रय नामका दूषण भी आता है । इसलिये गुणपर्य्याय यह जो कथन है सो तो गुणकी ही परिणामरूपसे कल्पना है, क्योंकि कल्पनामात्र से ही पर्यायसे गुणके भेदका संभव है, और परमार्थदृष्टि से तो गुणका भेद है ही नहीं, किन्तु परमार्थमें द्रव्य गुण तथा पर्याय ये तीनों नाम भी भेदके उपचार से ही कल्पित किये हैं; ऐसा जानना चाहिये || १३ || एकानेकस्वरूपेण भेदा एवं परस्परम् । आधाराधेयभावेन कल्पनां च विभावय ।। १४ ।। भावार्थ:- इस पूर्वोक्त प्रकारसे द्रव्य एक ही है, गुण पर्याय अनेक हैं, इस रीति से परस्पर अर्थात् एक दूसरेकी अपेक्षासे भेदको कल्पना मात्र जानो, और इसी पूर्वोक्त रीतिसे आधाराधेयभावकी कल्पना भी निश्चय करो ॥ १४ ॥ व्याख्या । एवममुना प्रकारेण द्रव्यमेकं गुणपर्याया अनेके, इत्थं भावना कार्या । परस्परमन्योन्यं भेदभावकल्पना कर्तव्येत्यर्थः । च पुनः अनयैव दिशा आधाराधेयमावेन कल्पनां विभावय । आधा राधेयत्रमुखभावानामपि स्थभावेन भेदान् विचार्य मनसि ज्ञेयम् । यतः परस्परावृत्तिधर्माण: परस्परभेदान् ज्ञापयन्तीति भावः ।। १४ ।। व्याख्यार्थः - इस पूर्वोक्त रीति से कल्पना मात्रसे गुण, पय्र्यायकी सिद्धि होनेसे यह सिद्ध हुआ कि द्रव्य एक है कल्पना अथवा विवक्षासे गुण पर्याय अनेक हैं । इस प्रकार द्रव्य, गुण तथा पर्याय के परस्पर कल्पित स्वरूपसे भेदकी भावना करनी चाहिये । और इसी रीतिसे आधार, आधेय आदि भावसे भी कल्पना को जानो अर्थात् कल्पित स्वभाव के ही भेदसे आधार, आधेय इत्यादि भावोंके भी स्थायीभावसे भेदोंको विचार कर मनमें निश्चय करो, क्योंकि परस्पर आवृत्तिशील धर्म, अर्थात् एक पदार्थ से दूसरे में आनेवाले धर्म ही परस्परके भेद को ज्ञापित करते हैं, यह तात्पर्य है ॥ १४ ॥ अथ आधारावेयभावयोर्हष्टान्तेन उपदिशन्नाह । अब आधार आधेय भावके विषय में दृष्टान्तद्वारा उपदेश देतेहुए यह सूत्र कहते हैं Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्रराजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् घटादिद्रव्यमाधार-आधेयौ तु गुणादिकौ । एकाक्षलक्ष्या रूपाद्या द्वयक्षगम्यं घटादिकम् ॥१५॥ भावार्थः-घट आदि द्रव्य तो आधार हैं और गुण आदि आधेय हैं। इनमें आधेय रूप आदि तो एक इंद्रियके विषय हैं, और घट आदि द्रव्य दो इन्द्रियोंके विषय हैं ॥१५|| व्याख्या । घटादिद्रव्यमाधारः द्रव्यं घटादिकमाधरो रूपादीनां । तथा हि-घटे रूपाद्या आधृतास्तिष्ठन्तीति । अथ गुणपर्यायरूपरसादयो नीलपीतादयश्चाधेयाः द्रव्ये स्थिताः । एवमाधाराधेयमावेन द्रव्यात् गुणपर्यायो भेदेन स्थिती । तथा रूपादयो गुणपर्याया एकेन्द्रियगोचरा एकेन्द्रियविषया इत्यर्थः । यथा रूपं चक्षुरिन्द्रियगोचरं चक्षुर्मात्र ग्राह्यगुणत्वात् । रसो हि रसनाविषयो रसनामात्रग्राह्यगुणत्वादित्यादि । अथ घटादिद्रव्यं तु द्वीन्द्रियविषयं, चक्षुःस्पर्शाभ्यां घटो गृह्यते द्रव्यत्वात् । एतन्नैयायिकाभिमतं । स्वमते तू गन्धादिपर्यायद्वारा घ्राणेन्द्रियादिकेनापि द्रव्यप्रत्यक्षमस्ति । न हि चेत् कुसुमं ब्रापयामीत्यादिज्ञाने भ्रान्तित्वं जायते । एवमनेकेन्द्रियग्राह्यद्रव्यात् गुणपर्याययो दो ज्ञातव्यः । गुणपर्याययोरन्योन्यं भेदस्तु सहमावी क्रमभावी च कल्पनीयः । सहभावी गुणः, क्रममावी पर्याय इति । अन्यच्च पर्यायो द्विविधः । सहभावी क्रममावी च । सहभावी गुण इत्यभिधीयते । पर्यायशब्देन तु पर्यायसामान्यस्य स्वव्यक्तिव्यापिनोsभिधानान्न दोष इति । तत्र सहमाविनः पर्यायाः गुणाः । यथात्मनो विज्ञानव्यक्तिशक्त्यादयः । क्रमभाविनः पर्यायास्त्वात्मनो यथा सुखदुःखशोकहर्षादयः । इति भेदकल्पनम् ।। १५ ।। व्याख्यार्थः-घट आदि द्रव्यरूप पदार्थ आधार हैं, क्योंकि घट आदिमें रूप आदि रहते हैं। इसलिये रूपादिक रहनेका स्थान घट आदि द्रव्य आधार' अर्थात् रूपादिका धारण करनेवाला है; और रूप, रस आदि गुण तथा नील पीतादि पर्याय ये सब आधेय' हैं, अर्थात् घट आदि द्रव्यमें रूपादि गुण रहते हैं, इसलिये आधेय हैं, अर्थात् द्रव्यमें ये गुणपर्याय स्थित हैं । इसप्रकार आधार आधेयभावसे द्रव्यसे गुण पर्याय भिन्नरूपसे स्थित हैं; और रूपादि गुणपर्याय एक इन्द्रियसे ग्राह्य हैं, अर्थात् ये एक एक इन्द्रियसे जाने जाते हैं। जैसे रूप नेत्र इन्द्रियका विषय है, क्योंकि केवल नेत्र इन्द्रियमात्रसे जो ग्राह्य गुण हो उसको रूप कहते हैं; तथा रस जिह्वा इन्द्रियका विषय है, क्योंकि जिह्वा इन्द्रियमात्रसे ग्रहण करने योग्य गुण है । और घट आदि द्रव्य तो दो इन्द्रियके विषय हैं, क्योंकि घट नेत्र तथा स्पर्शन (त्वक् ) इन दोनों इन्द्रियोंसे जाना जाता है, क्योंकि वह द्रव्य है । यह कथन नैयायिकमतके अनुसार है, और निज अर्थात् जैनमतमें तो १ चटाई पर देवदत्त है, स्थालीमें पकाता है, तिलमें तैल है, घटमें रूप है, यहाँ चटाई, स्थाली, तिल तथा घट आधार हैं । २ जो वस्तु उनमें वा उनपर है वह आधेय है। चटाईरूप आधारका आधेय देवदत्त, स्थालीका चांवल, तिलका तैल और घटका रूप आधेय है। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [२७ गन्ध आदि द्रव्यके पर्यायद्वारा प्राण आदि इन्द्रियोंसे भी द्रव्यका प्रत्यक्ष होता है । यदि ऐसा न मानो, तो “पुष्पं ब्रापयामि” मैं तुमको फूल सुंघाता हूं, इत्यादि ज्ञानमें भ्रम होगा। इसप्रकार अनेक इन्द्रियग्राह्य (जानने योग्य ) द्रव्यसे एक इन्द्रियग्राह्य गुणपर्यायका भेद जानना चाहिये । और गुण तथा पर्यायका परस्पर भेद तो सहभावी तथा क्रमभावी कल्पनासे समझ लेना चाहिये । सह अर्थात् द्रव्यके साथ साथ भावी होनेवाला जो हो सो सहभावी गुण है, जैसे पुद्गलमें रूपादि और जीवमें ज्ञान आदि उपयोग । और क्रम अर्थात् बारी बारी से भावी होनेवाला जो हो सो क्रमभावी-पर्याय है। जैसे अजीव मृत्तिका द्रव्यमें पिंड कुसूल आदि, सुवर्णमें कटक कुंडल आदि, और जीव द्रव्यमें नर नारक तथा सिद्धादि पर्याय समझना । और भी पर्यायके दो भेद हैं; एक तो सहभावी (साथ होनेवाला) पर्याय और दूसरा क्रमभावी अर्थात् क्रमसे होनेवाला पर्याय । इनमेंसे साथ होनेवाले पर्यायको ही गुण कहते हैं । यहाँपर पर्यायशब्दसे पर्याय सामान्यका ग्रहण है, अर्थात् निज आधारभूत व्यक्तिमात्रमें व्यापक होकर रहनेवाला पर्याय गुणशब्दसे कहा जाता है, इसलिये ऐसा कहनेसे कोई दोष नहीं है । उनमें सहभावी पर्याय गुण हैं, जैसे आत्माके विज्ञान व्यक्तिकी शक्ति आदि, और क्रमभावी पर्याय हैं, जैसे आत्माके सुख दुःख हर्ष तथा शोक आदि; इस रीतिसे गुणपर्यायके परस्पर भेदकल्पना करनी चाहिये ।। १५ ॥ सज्ञासङ्घयालक्षणेभ्यो विभाग, द्रव्यादीनां यो विदित्वा मिथोऽत्र । राद्धान्ते श्रीतीर्थनाथप्रणीते, श्रद्धां कुर्यान्निश्चलस्तस्य बोधः ॥१६॥ व्याख्यार्थः-संज्ञा (वस्तुके नाम) संख्या (पदार्थ गणना) तथा असाधारण धर्म वचन आदि लक्षणद्वारा जो द्रव्य आदिके विभागको परस्पर जानकर श्रीभगवान् तीर्थनाथरचित सिद्धान्तमें श्रद्धा करेगा, उस भव्य जीवके अचल बोध होगा ।। १६ ।। ___ इति श्रीभोजविनिर्मितायां द्रव्यानुयोगतर्कणायां द्वितीयोऽध्यायः ___ व्याख्या। संज्ञा नाम तत्कृतो विभागो, यथा-द्रव्यनाम १ गुणनाम २ पर्यायनाम ३ चेति । सतया गणना तत्कृतो विभागे यथा द्रव्याणि षट्, गुणा अनेके, पर्याया अनेके । लक्षणं वसाधारणधर्मबनने तकतो विभागो यथा द्रवति तांस्तान्पर्यायानागच्छतीति द्रव्यम् । गुमनमेकस्मादन्यस्य मिनकरणं कण परिगमनं सर्वतो व्याप्तिः पर्यायः । एवमेतेषां द्रव्यगुणपर्यायाणां परस्परं भेदोऽस्ति। एवं माजासहचालक्षणेभ्यो विभागं भेदं विदित्वा द्रव्यादीनां यो मिथः परस्परम् अत्र राद्धान्ते सिद्धान्ते भीतीनाथप्रणीते श्रीभगवद्धाषिते श्रद्धामास्थां कुर्यात् तस्य भव्यस्य निश्चलो नि:प्रकम्पो बोधः सम्यक्त्वं लमत इति ज्ञेयम् ॥ १६ ॥ इति श्रीद्रव्यानुयोगतर्कणायां भेदप्रदर्शनी द्वितीयोऽध्यायः ॥२॥ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् व्याख्यार्थः--संज्ञा अर्थात् वस्तुओंका नाम उस नामकृत विभाग जैसे द्रव्य नाम १ गुण नाम २ तथा पर्याय नाम इत्यादिसे । संख्या अर्थात् गणना उस गणनाजनित विभागसे, जैसे जीव, पुद्गल, धर्म आदि छह द्रव्य हैं, गुण अनेक हैं, तथा पर्याय भी अनेक हैं, इस विभागसे और आसाधारण धर्म वचन लक्षण है अर्थात् लक्ष्य पदार्थका ऐसा धर्म वर्णन करै, कि वह धर्म अन्य पदार्थों में न मिले; वह ही असाधारणधर्मको कहनेवाला लक्षण है । उसका किया हुआ विभाग जैसे “उन उन पदार्थोंको जो प्राप्त हो वह द्रव्य है” यह द्रव्यका लक्षण है । " एक समूह वा एक जातिके पदार्थों में से जो एक किसीको पृथक् करै वह गुण है" यह गुणका लक्षण है, ऐसे ही "जो सर्वत्र व्याप्त हो, जो सर्वत्र गमन करै वह पर्याय है" यह पर्यायका लक्षण है । इसप्रकार संज्ञा, संख्या, तथा लक्षणके द्वारा द्रव्य, गुण तथा पर्य्यायका परस्पर भेद है । इस रीति से संज्ञा संख्या और लक्षणोंसे द्रव्य आदिके परस्पर भेदको जानकर श्रीभगवान् तीर्थनाथ द्वारा भाषित इस स्याद्वादरूपी सिद्धान्तमें जो श्रद्धा करै उस मनुष्यके निश्चल ( अकंपायमान् ) बोध (सम्यक्त्व) की प्राप्ति होती है, ऐसा जानना चाहिये ॥ १६ ॥ इति श्रीद्रव्यानुयोगतर्कणाव्याख्यायामाचार्योपाधिधारिपण्डितठाकुरप्रसाद २८ ] शर्मप्रणीतभाषाटीकासमलङ्कृतायां द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥ 5 अथ तृतीयाध्याये ये तीर्थिका द्रव्यादीनां भेदमङ्गीकुर्वन्ति । अभेदपक्षमाश्रित्य तान् दूषयन्नाह । अब जो शाखकार द्रव्यादिका सर्वथा भेद ही अंगीकार करते हैं उनके मतको अभेद पक्षका आश्रय करके इस तृतीय अध्यायमें दूषित करते हैं । एकान्तेनोच्यते भेदो द्रव्यादीनां मिथो यदा । स्याद्गुणगुणिनोरेव भावोच्छेदोऽन्यद्रव्यवत् ॥ १ ॥ भावार्थ:- यदि एकान्ततः अर्थात् सर्वथा द्रव्य, गुण तथा पर्यायोंका परस्पर भेद ही कहते हो, तो अन्य द्रव्यके तुल्य गुणगुणी भावका उच्छेद (अभाव) हो जावेगा । व्याख्या । यदा द्रव्यादीनां द्रव्यगुणपर्यायाणामेकान्तेन एकान्तपक्षेण मिथः परस्परं भेद उच्यते, तदा अन्यद्रव्यवत् परद्रव्येणैव स्वद्रव्यविषयेऽपि गुणगुणिनोरेव भावोच्छेदो गुणगुणिभावस्य व्युच्छित्तिर्भवेत् । यथा जीवद्रव्यस्य गुणा ज्ञानादयस्तेषां गुणी जीवद्रव्यम्, पुद्गलद्रव्यस्य गुणा रूपादयस्तेषां गुणी पुद्गलद्रव्यमिति । एवं व्यवस्था शास्त्रप्रसिद्धा भेदाङ्गीकारेण विलुप्यते । जीवद्रव्यस्य यथा पुद्गलद्रव्यस्य गुणेभ्यो भेदोऽस्ति तथा निजगुणेभ्यो ज्ञानादिभ्योऽपि भेदोऽस्ति । तद्वत् अयमस्य गुणी । एतस्य एते गुणा, इत्ययं व्यवहारोऽपि विलुप्यते । तस्मात् कारणात् द्रव्यपर्यायाणामभेद एवं सम्भवति । एतादृशो भेदनयविचारो गुरोरुपदेशात् भव्याङ्गिनो धारयन्ति ॥ १ ॥ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ २९. व्याख्यार्थः – जब द्रव्यादिका अर्थात् द्रव्य, गुण तथा पर्यायोंका एकान्तपक्षसे परस्पर भेद कहते हो, तो परद्रव्यकी तरह स्वद्रव्यके विषय में भी गुण और गुणीके भावका उच्छेद ( सर्वथा अभाव ) हो जायगा । जैसे जीवद्रव्यके ज्ञानादिक गुण हैं, और उनका गुणी जीवद्रव्य है, ऐसे ही पुद्गल द्रव्यके गुण रूप आदि हैं और पुद्गल द्रव्य उनका गुणी है । इसप्रकार जो व्यवस्था शास्त्रमें प्रसिद्ध है वह गुण और गुणीके सर्वथा भेद अंगीकार करनेसे लुप्त होती है । क्योंकि जैसे जीवद्रव्यका पुद्गलद्रव्यके गुणोंसे भेद है । वैसे ही निजगुणोंसे भी भेद है । उस ही प्रकार इसके यह गुणी हैं तथा इस द्रव्यके यह गुण हैं यह जो व्यवहार हैं वह भी लुप्त होता है । इसलिये द्रव्य, गुण तथा प्रर्यायोंके अभेद ही संभवता है । ऐसा भेदनयका विचार गुरुके उपदेशसे भव्य जीव धारण करें ||१|| अथ पुनरप्यभेदमाश्रित्य युक्ति कथयन्नाह । अब पुनः अभेदका आश्रय करके युक्तिको दर्शाते हुए अग्रिम सूत्र कहते हैं । गुणपर्याययोर्द्रव्ये भेदसम्बन्ध ईरितः । अनवस्था प्रबन्धः स्याद्भ ेदकल्पनया भृशम् ॥२॥ भावार्थ:- गुण और पर्यायका द्रव्यके विषयमें अभेद संबंध ही सिद्धान्तमें कहा गया है, क्योंकि भेदकल्पनासे अत्यंत अनवस्थाका प्रबन्ध हो जाता है ||२|| व्याख्या | गुणपर्याययोरन्योन्यं द्रव्ये द्रव्यविषये अभेदसम्बन्ध एवास्ति । यदि च द्रव्यविषये गुणपर्याययोः समवायनाम्ना भिन्नः सम्बन्धः प्रकल्पते, तदाऽनवस्यादोषनिबन्धनं निष्पद्यते । गुणगुणिनोरिव पृथक्समवायो लक्ष्यते । पुनस्तस्य समवायसम्बन्धस्यापि अन्यः सम्बन्धो युज्यते । पुनस्तस्यापि अन्यतरः | एवं प्रकल्पयतोऽवस्थिति: कुत्रापि न भवति । एवं च भेदकल्पनया मृशमत्यर्थमनवस्थाप्रबन्धः अस्थितियुक्तिप्रसङ्गश्च जायते । तस्मात् कारणात् समवायस्य स्वरूपसम्बन्धमेवाभिन्नतया यदङ्गीचकर्थ । तहि गुणगुणिनोः स्वरूपसम्बन्धमङ्गीकुर्वतां को दोषः । किं च भवतां विघटते । यच्च नवीन सम्बन्धकल्पनगौरवं विधत्य । उक्त च "प्रक्रियागौरवं यत्र तं पक्षं न सहामहे । प्रक्रियालाघवं यत्र तं पक्षं रोचयामहे” ॥१॥ ऋजुमार्गेण सिद्धयतोऽर्थस्य वक्रेण साधनायोगात् । समवायस्य स्वरूप सम्बन्धमिन्नकरणे गुणगुणिनोव स्वरूपसम्बन्धाङ्गीकरणे च को विशेषो निरर्थं कनवीन सम्बन्ध विष्करणेन च गौरवापत्तिरिति दिक् ॥२॥ व्याख्यार्थः–स्याद्वादसिद्धान्त में द्रव्यके विषय में अर्थात् द्रव्यके साथ गुण और पर्यायका परस्पर अभेद संबंध ही है । और यदि द्रव्यके विषय में गुण और पर्यायका समवाय नाम एक भिन्न संबंध कल्पित करते हो, अर्थात् गुण और पर्याय यह दोनों ही द्रव्य में समवाय संबंध से रहते हैं ऐसा मानोगे तो वह अनवस्थारूप दोपका Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् कारण होता है। क्योंकि तुम्हारे मतमें गुण तथा गुणी जैसे भिन्न २ लक्षित होते हैं उनके तुल्य समवाय भी तो सबसे पृथक् भासता है । और जैसे गुण, गुणी द्रव्यमें समवाय संबंधसे रहते हैं ऐसे ही समवाय संबंध भी उनमें किस संबंधसे रहेगा इससे उस समवायका भी अन्य संबंध मानना योग्य है। और फिर उस समवाय संबंधका भी अन्य संबंध कल्पना करना चाहिये । इसप्रकार कल्पना करते हुए तुम्हारी स्थिति कहीं भी न होगी। इसप्रकार भेदकी कल्पनासे अत्यंत अनवस्थाका प्रबंध और अस्थिति युक्तिका प्रसंग होता है । इसकारण यदि समवायका अन्यसंबंध न मानकर अभेदसे स्वरूपसंबंध ही अङ्गीकार किया हो तो गुण तथा गुणीके स्वरूपसंबंध स्वीकार करनेवालोंको क्या दोष है ? और तुम्हारा इसमें क्या विगाड़ होता है जो नवीन समवाय संबंध स्वीकाररूप कल्पनाका गौरव करते हो ? अन्यत्र कहा भी है "जिस पक्षमें प्रक्रिया का गौरव है उस पक्षको हम नहीं सहते हैं, और जिस पक्षमें प्रक्रियाका लाघव है उस पक्षको प्रसन्नतासे स्वीकार करते हैं। क्योंकि जो अर्थ सरल मार्गसे सिद्ध होता है उस अर्थको वक्रमार्गसे साधना योग्य नहीं है । और समवायके जुदा स्वरूप संबंध करने में तथा गुणगुणीके स्वरूप संबंध स्वीकार करनेमें क्या विशेष ( फर्क ) है ? और व्यर्थ नवीन संबंधके प्रकट करनेमें गौरव होता है ( अर्थात् गुण और गुणीका भेद मानना और उनका समवायसंबंध मानना पुनः अनवस्थादोषसे भयभीत होकर समवायका संबन्धांतर न मानकर उसका स्वरूपसंबंध ही स्वीकार करना इसकी अपेक्षा गुणगुणीके केवल स्वरूपसंबंधके माननेमें ही लाघव है, क्योंकि स्वरूपसंबंध तो तुमको भी मानना पड़ता ही है) इस प्रकार संक्षेपसे सर्वथा गुणगुणीके भेद' माननेवालेके मतमें दूषण दर्शाया है ॥२॥ पुनर्भेदपक्षिणो दूषयन्नाह ।। अब भेदवादीके पक्षको दोष देते हुए अग्रिम सूत्र कहते हैं । स्वर्णं कुण्डलतां प्राप्तं घटो रक्तत्वमोयिवान् । इति व्यवहृतिर्न स्याद्यद्यभेदो भवेन्न हि ॥३॥ सूत्रार्थः-यदि द्रव्य, गुण तथा पर्यायका अभेद न होता तो “सुवर्णद्रव्य कुण्डलदशाको प्राप्त हुआ और घट रक्तत्व ( गुणदशा ) को प्राप्त हुआ" यह व्यवहार लोकमें नहीं हो सकता ॥३॥ व्याख्या । स्वणं कुण्डलतां कुण्डलभावं प्राप्तं । कनके कुण्डलाकारतां गतेपि नामान्तरण १ जाति व्यक्तिका, गुण गुणीका, अवयव अवयवीका, क्रिया क्रियावान्का तथा नित्यद्रव्य विशेषका, भेद नैयायिक मानते हैं और इनका समवायसंबंध भी नैयायिक मानते हैं, उनके मतमें यह दोष है । . Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [३१ न भेदापत्तिः । तथा च घटो रक्तत्वमीयिवान् । पूर्वावस्थया घटः श्यामवर्णः पुनरग्निपाकाद्रक्तत्वं प्राप्तस्तथापि श्यामे घटे रक्ततां प्राप्तेऽपि घटान्तरता न जाता। वर्णाख्यगुणभेदाद् द्रव्यभेदो न जात इति व्यवहारो लोकप्रसिद्धिरूप आचारो न घटते । यद्यभेदस्वभावव्यवहारो द्रव्यादीनां न भवेत् । अतो द्रव्यादयस्त्रयोऽभिन्ना एव प्रकल्पते नामान्तरेण न शनीयमिति भावः ।। व्याख्यार्थः-सुवर्ण कुण्डल अर्थात् कर्णके आभूषणपनेको प्राप्त हुआ, यहां सुवर्ण कुंडलके आकारको प्राप्त होगया है तो भी कुंडल इस नाममात्रसे सुवर्ण और कुंडलका भेद नहीं होता; तथा घट रक्तत्वदशाको प्राप्त हुआ; यहां पूर्व अपक्वदशा में घट श्याम वर्णका था और अग्निके द्वारा पकनेसे रक्तपनेको प्राप्त हुआ, तो भी अर्थात् श्यामघटके रक्तता प्राप्त होनेपर भी वह घट अन्य घट वा अन्य पदार्थताको नहीं प्राप्त हुआ अर्थात् वर्णनामा गुणके भेदसे द्रव्यका भेद नहीं हुआ और यदि अभेदस्वभावसे द्रव्यगुणपर्यायोंका व्यवहार न हो तो पूर्वकथित सुवर्ण घट आदिमें यह व्यवहार अर्थात् लोकप्रसिद्ध आचार दहीं घट सकता है । इस लिये द्रव्य आदि तीनों पदार्थ अर्थात् द्रव्य, गुण और पर्याय ये अभिन्नरूप ही कल्पित किये जाते हैं, इनके जुदे जुदे तीन नाम होनेसे यह शंका नहीं करनी चाहिये कि यह भिन्न हैं यह भाव है ॥३॥ पुनर्वा कं कथयति । फिर अभेदवादीके मतमें बाधकका कथन करते हैं । स्यात् स्कन्धदेशयोर्भेदात्स्कन्धेऽपि द्विगुणात्मता । प्रदेशगुरुताभावात्स्कन्धाभेदप्रबन्धता ॥४॥ भावार्थः-स्कंध तथा देशके भेदसे स्कंधमें द्विगुणता होनी चाहिये परन्तु देशसे स्कंधमें अधिक गुरुता नहीं है, इस हेतुसे देशसे स्कंधका अभेदरूप ही प्रबन्ध है ॥४॥ ___ व्याख्या । स्कन्धदेशयोर्भेदात् स्कन्धविषयेऽपि द्विगुणात्मता द्विगुणभारारोपो भवेत् । स्कन्धोऽवयवी, देशोऽवयवः अनयोर्मेदकल्पनया द्विगुणो भारः स्कन्धमध्ये भवन् द्विघ्नः स्कन्धो भवेत् । यतः-शततन्तुपटे शततन्तुषु यावान् भारोऽस्ति तावानेव हि पटे' भारो युज्यते, तन्तुपटयोरभेदात् । भेदविचारे पटोऽन्यः तन्तवोऽन्ये एवमनयोर्भेदस्त स्मिन्सति द्विगुणगुरुतापि युक्ता । अथ च कश्चिन्नैयायिको नवीन एवं यदि कथयति । यतः- अवयवमारात् अवयविमारोऽत्यन्तं लघीयानस्ति । तस्मात् तन्मते द्विप्रदेशादिस्कन्धमध्ये कुत्रापि उत्कृष्टगुरुत्वं नो भवितुमर्हति द्विप्रदेशादिस्कन्ध एकप्रदेशाद्यपेक्षया अवयविधर्मत्वात् । अन्यच्च परमाणुमध्ये मान्योत्कृष्टगुरुत्वमननात् रूपादिकविशेषोऽपि परमाणुमध्ये मान्यः स्यात् । द्विप्रदेशादिकमध्ये न मान्यः स्यात् । अभेदेन यस्य बन्धो यदा मन्यते तदा प्रदेशस्य यो भारः स एव स्कन्धस्य भारत्वेन परिणमत्येव । यथा तन्तुरूपं पटरूपतया परिणमति । तदा गुरुताया वृद्धश्च दोषः कथ्यमानोपि न लगेदिति भावः । ४ । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम व्याख्यार्थ-स्कंध (अवयवी) तथा देश ( अवयव ) का यथार्थमें भेद होनेसे स्कंधके विषयमें द्विगुणरूपता होगी अर्थात् स्कंधमें दूना' बोझ प्राप्त होगा, यहांपर सूत्रमें स्कंधशब्दसे अवयवीरूप अर्थका ग्रहण है। और देशशब्दसे अवयवका इन दोनों अवयवी तथा अवयवोंकी भेदकल्पनासे अवयवीमें दूना बोझ होनेसे वह अवयवी अवयवोंकी अपेक्षा दूना बोझल होजावेगा, क्योंकि सौ तंतु ( सूत ) से बुने हुए वस्त्रमें उतना ही भार युक्त है, जितना कि उन सो तन्तुओंमें है। क्योंकि तंतु और पटके अभेद है, और यदि तंतु और पटके भेद विचारे, तो पट अन्य है तंतु अन्य हैं। इसप्रकार इन दोनोंका भेद होते हुए अवयवी पट में दूना भारीपन भी होना उचित है। अब यहाँ पर यदि कोई नवीन नैयायिक ऐसा कहता है, कि अवयवके भारसे अवयवीका भार बहुत हलका है, तो इस हेतुसे उसके मतमें दो प्रदेशयुक्त अवयवीमें कहीं भी अवयवकी अपेक्षासे अधिक भारीपन न होना चाहिये, क्योंकि दो प्रदेश आदियुक्त स्कंधमें एक प्रदेश आदिकी अपेक्षासे अवयवी धर्मपना है, और एक प्रदेशवाले परमाणुमें दृष्टगुरुत्वकी अपेक्षा अधिक गुरुत्व माननेसे परमाणुमें रूपादिकी अधिकता भी मानी जायगी। और द्विप्रदेशादि स्कंधमें न मानी जायगी। और जब जिसका संबंध अभेदसे मानते हैं तो प्रदेश (अवयव) का जो भार है वह स्कंध (अवयवी) के भी भारपनेसे परिणत होता ही है। जैसे-तंतुका रूप पटरूपतासे परिणमनको प्राप्त होता है, अर्थात् जो तंतुका रूप है वह ही पटका रूप होता है; तब इसप्रकारसे गुरुता अथवा प्रदेश-वृद्धिका जो दोष कहा हुआ है सो भी नहीं लग सकता है । यह सूत्रका तात्पर्य है ॥४॥ अब जो द्रव्यादिकोंके अभेद मानते हैं उनको उपालंभ देते हुए कहते हैं चेद्भिन्नद्रव्यपर्यायमेकरूपं गृहादिकम् । भाषसे न कथं द्रव्यं गुणपर्यायवत्तदा ॥५॥ भावार्थ:-यदि भिन्न द्रव्यों के पर्याय गृहादिकको एक रूप कहते हो तो द्रव्य गुणपर्यायोंवाला है ऐसा क्यों नहीं कहते ? ।।५।। व्याख्यार्थः-यदि भिन्न २ द्रव्योंके पर्याय रूप अर्थात् पाषाण, काष्ट, जल आदि जो भिन्न २ बहुतसे द्रव्य हैं, उनके पर्यायभूत गृह ( घर ) आदिको “यह घर एक रूप है" इसप्रकारकी बुद्धिसे एक ही कहता है, तो द्रव्यको गुणपर्यायवाला क्यों नहीं कहता है ? अर्थात् एक द्रव्यमें गुण तथा पर्यायका अभेद होय; ऐसा विवेक क्यों नहीं कहता है ? क्योंकि जो आत्मा द्रव्य है वह ही आत्माका ज्ञान आदि गुण है, और १ तात्पर्य यह है कि अवयव मिलके अवयवी बनता है तो वह अवयवोंसे भिन्न है, इससे अपनी तथा अवयवोंकी गुरुता (भारीपन) मिलाकर दूना होगया । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतकणा [३३ देव नर आदि पर्याय हैं यह अनादिसिद्ध व्यवहार है जो द्रव्यादिकोंका अभेदभाव अंगीकार तुम नहीं करते तो वह ठीक नहीं, क्योंकि द्रव्योंमें अभेदता अवश्य ही है । यद्यपि द्रव्य, गुण और पर्याय ऐसे नाम पृथक् २ होनेके कारण द्रव्य भिन्न है गुण भिन्न है, और पर्याय भी भिन्न ही है, इस युक्तिसे भिन्नताका भान लक्षित (प्रतीत) होता है, तथापि द्रव्य घट है और गुणसे शुक्ल घट, नील घट, रक्त घट या श्याम घट है तथा पर्यायसे विशाल आकारमें परिणत शंखके तुल्य ग्रीवासहित और महान उदरवाला यह घट है, इत्यादि गुण तथा पर्यायोंसे घट भिन्न नहीं है ॥५॥ अथ द्रव्यादीनामभेद येऽङ्गीकुर्वन्ति तान् उपालम्भं ददन्नाह । व्याख्या । यद्यपि मिन्नद्रव्यपर्यायं पाषाणकाष्ठजलादिकानि द्रव्याणि बहूनि तेषां पर्यायं गृहादिकं भवनादिकमेकरूपमेतद्गृहमित्याकारिकया बुद्धचा एकमेव भाषसे तहि द्रव्यं कथं गुणपर्यायवन्न भाषते । एकस्मिन् द्रव्ये गुणपर्याययोरभेदो भवेत् । एतादृशं विवेक कथन कथयसि । यत आत्मद्रव्यं यदस्ति स एवात्मगुणः स एवात्मपर्यायश्च तीदृशव्यवहारोऽनादिसिद्धो वर्तते । यस्माद्रव्यादीनामभेदमावं नाङ्गी रुषे तदसत् । एतेषामभेदता एव वर्तते । यद्याप द्रव्यं भिन्नं गुणो भिन्नः पर्यायोपि भिन्न एव द्रव्यगुणपर्यायनामत्वात् इति युक्त्या भिन्नतामानं लक्ष्यते तयापि द्रव्यं घट: गुणेन शुक्लो घटो नीलो घटा रक्तो घटः, श्यामो वा पर्यायेण पृथबुन्धाद्याकारपरिणतः कम्बुग्रीवः पेटोदरः द्रव्यादिगुणपर्यायाभ्यां घटो मिन्नो नास्ति ॥५॥ नियतव्यवहारं यद्रव्यं तदनयोः सतोः। परिणत्येकरूपत्वाद्यत्र वैकप्रकारकाः ॥६॥ ___ भावार्थः-जो द्रव्य यह नियतव्यवहार होता है वह इन दोनोंके विद्यमान होनेपर होता है, तथा परिणाममें तीनोंको एकरूपता होनेसे द्रव्य, गुण और पर्याय तीनों एक ही प्रकारके अर्थात् एक ही हैं ।। ६ ।। ___ व्याख्या । यज्जीवद्रव्यमजीवद्रव्यमित्यादिनियतव्यवहारं द्रव्यं व्यवस्थामहितव्यवहारो भवति । तद्गुणपर्याययोरभेदात् सतोविद्यमानयोरनयो भवेत् । यथा ज्ञानादिगुणपर्यायेभ्योऽभिन्नो जीवः । रूपादिगुणपर्यायेम्याऽमिन्नोऽजीवने ति यदित्थं न स्यात्तदा द्रव्यात्सामान्यात् विशेषसंज्ञा न भवेत् । अतः कारणात् द्रव्य ? गुण २ पर्यायाः ३ इति नामत्रयम् । परन्तु स्वजात्यायकत्वव्यवहार एव विषु तिष्ठति परिणत्येकरूपत्वात् परिगमनं ययात्मद्रव्यं तस्य च ज्ञानादिगुणाः परिणामिवस्तुषु तेषां पर्याया एतत्सर्वमपि एकमेति यतो रत्नं १ तस्य कान्तिः २ ज्वरापहारलक्षणा तच्छक्तिः ३ एतत्त्रयमपि परिण-येकरूपत्वम । तव द्रव्य १ गण २ पर्याय ३ इत्येकरूपत्वमेव तस्मात्परिणत्येकरूपत्वात द्रव्यादय एकप्रकारका का व्याख्यार्थः-जो जीव द्रव्य, अजीव द्रव्य, इत्यादि नियत व्यवहार अर्थात् द्रव्य, १ यह पाठ भाषार्थ के पीछे किसी भूलसे दिया गया है । पाठक ध्यानसे पढ़ें। . । पाठक ध्यान से पढ़ें Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् इस प्रकार व्यवस्थासहित व्यवहार होता है, वह गुण और पर्यायोंके अभेदसे है इस कारण इन गुण पर्यायोंके विद्यमान होनेपर ही होता है। जैसे ज्ञानादि गुण पर्यायोंसे अभिन्न जीव है और रूपादि गुण पर्यायोंसे अभिन्न अजीव द्रव्य है। यदि ऐसा न हो तो गुण पर्यायोंसे रहित सामन्य द्रव्यसे मनुष्यजीव, देवजीव, मुक्तजीव, तथा रक्त घट, पीत घट इत्यादि विशेषसंज्ञा न हों। इस कारणसे द्रव्य, गुण, पर्याय यह तीन नाम हैं, परन्तु स्वस्वभाव आदि एकपनेका व्यवहार ही तीनोंमें रहता है, क्योंकि परिणतिमें एकरूप है। परिणमन जैसे आत्मा द्रव्य है, उसके ज्ञानादि गुण परिणाम हैं। यहाँ ज्ञानादि गुणसहित द्रव्यमें ही आत्मा यह व्यवहार होता है और ऐसे ही परिणामी वस्तुओंमें उनके जो पर्याय हैं उन पर्यायोंसे युक्तमें द्रव्य व्यवहार होता है, यह सब एक ही है । क्योंकि रत्न, उसकी कान्ति तथा ज्वरको नाश करनेवाली उसकी शक्ति, यह तीनों भी परिणतिमें एक रूप हैं । उस ही प्रकार द्रव्य गुण तथा पर्याय ये एकरूप ही हैं, इससे परिणतिमें एकरूप होनेसे द्रव्यादिक तीनों एक प्रकारवाले हैं ॥ ६॥ पुनरभेदं नाङ्गीकुर्वन्ति । तेषु एव दोषसम्भवमाह । फिर भी जो अभेदको नहीं मानते हैं उनमें ही दोषकी उत्पत्तिको कहते हैं । न ह्य तेषां यदाभेदस्तदा कार्य कुतो भवेत् । नोत्पद्यते ह्यसद्वस्तु शशशृंगवदुच्चकैः । भावार्थः-यदि इन द्रव्यादिकोंका अभेद नहीं है तो इनसे कार्य कैसे होता है ? क्योंकि जैसे खरगोशके (खरगोशके) सींग उत्पन्न नहीं होते हैं वैसे असत् पदार्थ उत्पन्न नहीं होना चाहिये ॥७॥ व्याख्या । यदि एतेषां द्रव्यादिनामभेदो न तदा कार्य कुतो भवेत् । अपि तु द्रव्यगुणपर्यायाणामभेदो नास्ति तदा कारणकार्ययोरपि अभेदो न भवेत् । तदा च मृत्तिकाविकारणेभ्यो घटादिकार्य कथं निष्पत्स्यते, कारणे कार्यशक्ती सत्यामेव कार्योत्पत्तिनियामकत्वमसदविद्यमानं वस्तु न निष्पद्यते निश्चयेन शशशङ्गवत् । यथा शविषाणमित्यसद्वस्तु असत्परिणतितत्त्वात् कार्य निष्पत्यमाव एव दृश्यते अयमत्र भावः । यदि कारणमध्ये कार्यसत्ताङ्गीक्रियते तदा अभेदः महजमेव आगतः ॥ ७ ॥ व्याख्यार्थः-यदि इन द्रव्य, गुण तथा पर्यायोंका अभेद नहीं है तो कार्य कैसे उत्पन्न होता है ? अर्थात् अभेदके विना कारणसे कार्य नहीं हो सकता, और यदि द्रव्य गुण तथा पर्यायोंका अभेद नहीं है, तो कारण कार्यका भी अभेद नहीं होना चाहिये । और जब कारण कार्यका अभेद न हुआ तो मृत्तिकादिरूप कारणोंसे घट आदि कार्य कैसे उत्पन्न होंगे ? क्योंकि कारणमें कार्य शक्तिको सत्ता ही कार्यकी उत्पत्तिमें नियामिका है, क्योंकि जो पदार्थ जहाँ अविद्यमान है वहाँसे वह पदार्थ कदापि उत्पन्न नहीं हो सकता है, यह , Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ ३५ निश्चय है । शशशृंगके समान । जैसे शश ( खरगोश ) का सींग यह असत् ( अविद्यमान ) वस्तु है, क्योंकि असत् परिणतिपना है, अर्थात् शशरूप कारणमें सींगरूप कार्यकी शक्ति नहीं है । इससे शश-सींगरूप कार्यकी उत्पत्तिका अभाव ही देखा जाता हैं । यहाँपर आशय यह है कि यदि कारणमें कार्यकी विद्यमानता स्वीकार करते हो तब तो कार्यकारणका अभेद सहजमें ही प्राप्त हुआ अर्थात् कार्य अपने प्रकट होनेके पूर्व कारणरूप ही था और उत्पन्न होनेपर भी केवल उस द्रव्यका पर्यायमात्र होगया, यथार्थ में वह कारणसे अभिन्नरूप ही है । जैसे घट आदि कार्य मृत्तिकासे उत्पन्न होते हैं तो भी मृत्तिकासे भिन्न नहीं हैं ॥ ७ ॥ कारणे कार्योत्पत्तिक्षणात्पूर्वमेव यदि कार्यसत्तास्ति तदा कार्यदर्शनं कथं न जायते । इत्थं शङ्का समुत्पन्ना, तदुपरि कथयति । अब यदि कारणमें कार्यके उत्पत्तिक्षणके पूर्व भी कार्य विद्यमान है, तो मृत्तिका आदि कारणमें घट आदि कार्य क्यों नहीं दीख पड़ते ? ऐसी शंका वादीके उत्पन्न हुई, उसपर यह आगेका सूत्र कहते हैं शङ्कापनोदं करोति । अब अग्रिम श्लोकसे शङ्काको दूर करते हैं । द्रव्यरूपा तिरोभावाच्छक्तिः कार्ययस्य या सती । गुणपर्याययोराविर्भावात्सा व्यक्तितां व्रजेत् ॥ ६ ॥ भावार्थ:- कार्य कारणमें तिरोभावसे जो द्रव्यरूप शक्ति विद्यमान रहती है वह गुण और पर्यायके आविर्भावसे प्रकटताको प्राप्त होती है' ॥ ८ ॥ व्याख्या । कार्यं यावन्नोत्पन्नं तावत्कारणे कार्यस्य द्रव्यरूपा तिरोभावादन्तर्गतत्वाद्या च कार्यत्वेन लक्ष्य शक्ति: सती विद्यमाना तिष्ठति । सा च शक्ति: सकलसामग्रीसान्निध्योपगता गुणपर्याययोराविर्भावात्प्रकटनाद्वयक्तितामाविर्भावतां व्रजेत् । तस्मादत्र कार्यं दृश्यते । तिरोभावाविभावावपि नियामक कार्यपर्यायी विशेषत्वेन ज्ञेयाः । तेनाविर्भावस्य सदसद्विकल्पदूषण न लगति । परन्त्वनुभवानुसारित्वेन पर्यायकल्पना । अथ च कार्यस्य घटस्य तिरोभावाददर्शनाद्रव्यरूपा मृत्पिण्डरूपा या शक्तिः सती विद्यमाना तिष्ठति सा सामान्यशक्तिराविर्भावत्कारणकलापाद्गुणपर्याययोः रक्तत्वपृथुबुध्नत्वकम्बुग्रीवत्वादिकयोः । रक्तोऽयं घटो योऽयं मृत्पिण्डात्समुत्पन्न इति कार्यादेशेन रक्तो घट इति जात: । कारणे कार्योपचारादित्यर्थः ॥ ८ ॥ व्याख्यार्थः—कार्य जबतक उत्पन्न नहीं हुआ तबतक कारणमें कार्यके छिपे रहनेसे १ यद्यपि कारणमें कार्य है तथापि जिन पदार्थों से वह प्रकट होता है उनके बिना उसकी प्रकटता नहीं होती, इस कारण मृत्तिका के पिण्डमें घटकी द्रव्यरूपता की विद्यमानता होनेपर भी कुम्भकार, चाक आदि सामग्री के विना प्रकटता नहीं होती, २ अत्र ' ज्ञेयो" इति पाठ: सम्यगाभाति । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ : श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम जो कार्यपने करके नहीं देखने में आती हुई द्रव्यरूप शक्ति विद्यमान रहती है वह ही शक्ति जब सम्पूर्ण सामग्रीकी समीपताको प्राप्त होती है तब गुण और पर्यायके प्रकट होनेसे स्वयं भी प्रकाशित होती है उससे यहाँ कार्य देखा जाता है। यहांपर तिरोभाव तथा आविर्भावोंको भी कार्य के पर्यायकी समानतासे नियामक समझने चाहिये, क्योंकि इस प्रकार आविर्भावके सत् तथा असत्पक्षके विकल्पोंसे जो दूषण लगता है वह नहीं लगता, परन्तु आविर्भाव तथा तिरोभावमें अनुभवके अनुसार पर्यायकी कल्पना की गई है । भावार्थघट रूप कार्यके न देख पड़नेसे द्रव्यरूप अर्थात् मृत्तिकाके पिण्डरूप जो शक्ति विद्यमान रहती है वह ही सामान्यशक्ति कुंभकार चाक दण्ड चीवर (चाकपरसे घटके उतारनेका धागा ) आदि कारणोंके समूहसे रक्तत्व आदि गुण और पृथुबुध्नत्व, कम्बुग्रीवत्वादि पर्यायों में प्रकट होती है तब यह घट रक्त ( लाल ) है जो कि मृत्तिकाके पिण्डसे उत्पन्न हुआ है. इस प्रकार कार्यके आदेशसे रक्त घट है ऐसा व्यवहार हुआ, क्योंकि 'कारणमें कार्यका उपचार है ॥८॥ अथ श्लोकद्वयेन नैयायिकमतं प्रकट यित्वा समाधत्ते । अब दो श्लोकोंके द्वारा नैयायिकका मत प्रकट करके उसका समाधान करते हैं। नैयायिकोऽसतो ज्ञानमतीतविषयं भवेत् । यथा तथा सतः कार्यमपि निष्पद्यते ध्रुवम् ॥ ६ ॥ : इत्थमाह मृषा तच्चासद्भूतविषयं न हि । पर्यायार्थतयानित्यं नित्यं द्रव्याथिकेन यत् ॥ १०॥ युग्मम् - भावार्थः-जैसे असत् ( अविद्यमान ) घट आदिका ज्ञान अतीत अर्थात् भूतपदार्थके विषयवाला होता है उस ही प्रकार अविद्यमान घटआदि कार्य भी निश्चय करके उत्पन्न होता है ॥९॥ ऐसा जो नैयायिक कहता है वह मिथ्या है क्योंकि भूतविषय घटादि असत् नहीं है, क्योंकि जो पर्यायाथिक नयसे अनित्य है वह द्रव्यार्थिक नयसे नित्य है ॥ १०॥ युग्मम् । व्याख्या । यथा असतो घटादेनिमतीतविषयं भवेत्तथा रटादिकार्यमसदपि मृत्तिकादिदलसामनपा निष्पद्यते । असतो ज्ञप्तिरस्ति तो सत उत्पत्तिः कथं न भवति । पुन: घटस्य कारणं दण्डादि कथ्यतेऽस्मामिस्तत्र लाघवमस्ति । भवतां मते घटाभिव्यक्तर्दण्डादिकं कारणमस्ति तत्र गौरवं जायते । अन्यच्चामिव्यक्तः कारणं चक्षुरादीन्द्रियमस्ति परन्तु दण्डादिकं नास्ति । ततः कारणाझेदपक्ष एव । द्रव्यघटाभिव्यक्तः कारणं दण्डाभावः । घटामिव्यक्ती कारणं पर्या १ यद्यपि मृत्पिण्ड मी मृत्तिकारूप द्रव्यका कार्य अथवा पर्यायरूप ही है तथापि घटका कारण है इसलिये उसको कारण माना है और यथार्थ में सभी कार्य वा पर्याय कारण हा हो हैं, सामग्रीसमूहले विशेष पर्यायरूप होनेसे कारणमें कार्यका उपचार किया गया है। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा.. [ ३७ चक्षुरादि तत्र गौरव न घटते ॥९॥ नैयायिकोऽसतो द्रव्यात् उत्पत्तिरित्थमाह । तदसत् । किं तर्हि । अतीतविषयो घटादि: सर्वथासन्न विद्यते । तच्च पर्यायार्थतो घटो नास्ति तत्र द्रव्यार्थतो नित्योऽस्ति । नष्टो घटोऽपि मृत्तिकारूपोऽस्ति । यदि सर्वथा न भवेत्तहि शशशृङ्गसाधर्म्यं लभेत् । तथा च-सर्वथासन्नर्थो ज्ञाने भासते यः स कथं सद्र पता यातीति विरोधापत्तेः । तस्माद्यत्किञ्चिद्भूतविषयमस्ति तदसन्नास्ति । किन्तु सन्नेव प्रवक्ते । तत्र यं योजना यद्वस्तु नित्यं द्रव्याथिकेन वर्त्तते तत् पर्यायार्थतया कृत्यभावेनानित्यं भासते । परमार्थतत्तु द्रव्यसमवायि भूतविषयं वस्तु कारणोदयेन कार्यतामापन्नं लक्ष्यं जायते । अत: सत एवोत्पत्तिनमितो मावस्येति नियम इति .१०॥ व्याख्यार्थ:-जैसे असत् अर्थात् अविद्यमान घटआदि पदार्थोंका ज्ञान अतीत विषय अर्थात भूत पदार्थके विषयवाला होता है वैसे ही असत् अर्थात् कारणमें अविद्यमान ही घट आदि कार्य मृत्तिका तथा कुम्भकार आदिक सामग्रीके समूहसे उत्पन्न होता है, क्योंकि जब असत् पदार्थका ज्ञान होता है तो ' अविद्यमान पदार्थकी उत्पत्ति कैसे नहीं होती है अर्थात् होती ही है । और जो हम दण्ड : आदिकको घटका कारण कहते हैं इसमें लाघव है, और आप जैनियोंके मतमें दण्ड आदिक ही घटकी प्रकटताका कारण है उसमें गौरव होता है। और घटको प्रकटताका कारण तो नेत्र आदिक इन्द्रिय है परन्तु दण्ड आदिक नहीं। इसलिये कारणसे कार्यका भेद जो हम मानते हैं सो ही सत्य है । तथा द्रव्यरूप घट की अभिव्यक्तिका कारण दण्डकाः अभाव' है न कि दण्ड, और घटके प्रकट होनेमें नेत्र आदिकको जो कारण माना है सो गौरवको नहीं घटित करता है ।।९।। नैयायिक असत् घट आदि कार्यकी द्रव्यसे उत्पत्ति कहता है वह असत्य है । तो सत्य क्या है, इस जिज्ञासामें कहते हैं कि अतीत विषयवाला. घट आदि सर्वथा असत् नहीं क्योंकि वह अतीत विषयवाला घट पर्यायार्थनयसे नहीं है परन्तु द्रव्यार्थिक नयसे उसमें नित्य है। भावार्थ घट नष्ट होगया है तोभी मृत्तिकारूपसे विद्यमान है। यदि वह घट सर्वथा न होवे तो खरगोशके सींगकी समताको प्राप्त होजाय । औरः जो सर्वथा अविद्यमान पदार्थ ज्ञानमें भासता है वह पदार्थ विद्यमानताको कैसे प्राप्त होता है ? क्योंकि इस प्रकार मानने में विरोध आता है, इसलिये जो कुछ भूत विषय है वह सर्वथा असत् नहीं है किन्तु सद्रप होकर ही प्रवर्तता है। यहां पर यह योजना करनी चाहिये कि जो वस्तु द्रव्यार्थिक नयसे नित्य वर्त्तती है उस वस्तुमें आकारका अभाव होनेसे पर्यायार्थनयसे अनित्यपना भासता है, और परमार्थसे तो द्रव्यमें समवायी भूतविषय पदार्थ है सो कारणके उदय होनेसे कार्यपनेको प्राप्त होकर देखने में आता है, इस कारण सत् पदार्थकी ही उत्पत्ति ५ दंड आदिके न होनेपर मी घट आदि पदार्थों की अभिव्यक्ति होती है, इसलिये दण्डके अभावको अमिव्यक्तिमें कारण कहा है । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ ] श्रीमद्राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम होती है और अविद्यमान पदार्थकी नहीं होती, ऐसा नियम है ||१०|| इस प्रकारका युग्म श्लोकोंका अर्थ हैं । अथ सर्वथा अविद्यमानोऽर्थो ज्ञानविषये भासत इतीत्थं ये कथयन्ति तेषा बाधकं दर्शयति । अब जो ऐसा कहते हैं कि सर्वथा अविद्यमान पदार्थ ही ज्ञानमें भासता है, उनके मतमें बाधा दिखाते हैं । अर्थोऽसन् भासते ज्ञातुस्तदा ज्ञानमयं जगत् । स्वभावेन भवेत्सर्वं योगाचारमतं भवेत् ॥११॥ भावार्थ::- जब असत् पदार्थ ज्ञाताके ज्ञानमें भासता है तो सम्पूर्ण जगत् स्वभावसे ज्ञानरूप ही हो जाय और तब तृतीय बौद्ध योगाचारका मत सिद्ध होजावे || ११|| व्याख्या । यदि ज्ञानविषयेऽसन्नर्थोऽतीतप्रमुखो मासत इतीदृशमङ्गीकुरुषे तदा सर्व जगज्ज्ञानाकारमेवास्ति । बाह्याकारा अनाद्यविद्यावासनया अन्त एवावभासते । यथा स्वप्नेऽसत्पदार्थमासनवत् । बाह्याकाररहितं शुद्ध ज्ञानन्तु बुद्धस्त्र भवति । एवं यदि कथयसि तहि योगाचारनामा तृतीयो बुद्ध उत्तिष्ठते । तस्मादेवं वितर्कय । असतो ज्ञानं न भवेत्सत एव वस्तुनिस्तरोभावशक्त्यन्तरितस्य कारणकलापाविर्भावव्यक्त हुं याकारत्वं जायते । इति सर्ववस्तु द्रव्यात्मना नोत्पद्यते विपद्यते वा परिस्फुटमन्वयदर्शनात् । लून पुनर्जातनखादिष्वन्वयदर्शनेन व्यभिचार इति न वाच्यम् । प्रमाणेन बाध्यमानस्यान्वयस्यापरिस्फुटत्वात् । न च वस्तुतोऽन्वयः प्रमाणविरुद्धः सत्यप्रत्यभिज्ञानसिद्धत्वात् । ततो द्रव्यात्मना स्थितिरेव सर्वस्य वस्तुनः । पर्यायात्मना तु सर्वं वस्तुत्पद्यते विपद्यते चास्खलितपर्यायानुभवसद्भावात् । न चैवं शुक्ले शङ्ख पीतादिपर्यायानुभवेन व्यभिचारस्तस्य स्खलनरूपत्वात् न खलु सोऽस्खलनरूपा येन पूर्वाकारविनाशाजहदवृत्तीत्तराकारोत्पादाविष्कर्तुं मशक्यत्वात् । नश्वरस्य नाशे तद्धेतूनां वैयर्थ्यं न हि स्वहेतुः स एवाप्तवान् । स्वभावे भावे भावान्तरव्यापारः फलवांस्तदनुपरेतिप्रसक्तः ? ॥११॥ व्याख्यार्थः– यदि भूतकालविषयक पदार्थ ज्ञानमें असत् भासता है इस प्रकार तू मानता है तो सब जगत् ज्ञानाकार ही होगा, क्योंकि अनादिकालसे चली आती हुई अविद्याकी वासनासे बाह्य आकार तो जैसे स्वप्न में असत् पदार्थका भासन होता है वैसे ही जागृत दशामें भी अविद्यमान ही भासते हैं, परन्तु बाह्य आकारसे शून्य शुद्धज्ञान तो बुद्धके मत में ही है, इसलिये ऐसा जो तुम कहते हो तो बौद्धमत ४ भेदोंमें तीसरा जो योगाचार नामक भेद है उसका मत खड़ा होता है, इस कारण ऐसा विचारो कि असत् पदार्थका भान नहीं होता, किन्तु तिरोभाव शक्तिसे छिपे हुए सत् पदार्थकी कारणोंके समूह से प्रकटता होनेके कारण देखने में आनेयोग्य आकारपना उत्पन्न होता है । इस कारण द्रव्यरूपसे १ त्रिष्वपि पुस्तकं वेवमेव पाठः । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३९ द्रव्यानुयोगतर्कणा न तो सब पदार्थ उत्पन्न होते और न नाशको प्राप्त होते हैं, क्योंकि प्रत्येक पर्यायमें द्रव्यका अन्वय ( संबंध ) स्पष्टरीतिसे देखा जाता है और काटेहुए तथा फिर उत्पन्न हुए नख आदिमें जो असत् पदार्थका अन्वय देखते हैं उससे आपके मतमें व्यभिचार होगा ऐसा कहना चाहिये, क्योंकि जो अन्वय प्रमाणसे बाधित है वह अस्पष्ट है, और वास्तवमें अन्वय प्रमाणके विरुद्ध नहीं है, क्योंकि सत्य प्रत्यभिज्ञानसे सिद्ध है इस कारण द्रव्यरूपसे सब वस्तुकी विद्यमानता ही है, न कि उत्पत्ति अथवा नाश, तथा पर्यायरूपसे तो सब पदार्थ उत्पन्न होता है और नाशको प्राप्त होता है, क्योंकि जो पर्याय जिस द्रव्यमें सत्रूपसे विद्यमान है उस पर्यायका ही अस्खलित (निश्चल) रूपसे अनुभव होता है। और ऐसे शुक्ल शंखमें जो पीत आदि पर्यायोंका कामल आदि नेत्रके रोगोंके वशसे अनुभव हो जाता है उससे व्यभिचार नहीं होता, क्योंकि वह अनुभव स्खलनरूप ( चलायमान ) है। भावार्थ नेत्रके रोगसे शुक्लशंखमें पीत (पीले ) वर्णका जो अनुभव होता है वह नेत्ररोगके दूर होनेपर आप ही चलायमान ( नष्ट ) होजाता है । और शंखमें जो पीतादि पर्यायका अनुभव है वह तो अस्खलन ( अविचल ) रूप नहीं है अर्थात् विचलरूप है, क्योंकि शंखमें निर्दोष दशामें जो शुक्लाकार भासता है उसका विनाश तथा नेत्रके दोष-दशामें जो पीताकार भासता है उसकी उत्पत्ति आदि नहीं कर सकता, किन्तु दोष निवृत्त होनेसे वह स्वयं नष्ट हो जाता है । और उसके नाशमें उसके हेतुओंकी व्यर्थता नहीं है, क्योंकि जो कृत्रिम स्वभाव वस्तुमें प्राप्त है उसमें दूसरे पदार्थका व्यापार फलवान नहीं होता, किन्तु जिस कारण (दोषादि) से वह उत्पन्न हुआ है उसकी निवृत्तिसे वह पर्याय नष्ट होता है अन्यथा अनुपपत्ति है ॥११॥ अथ दृष्टान्तेन दृढयन्नाह । अब दृष्टान्तसे उक्त कथनको दृढ करते हुए कहते हैं। ज्ञातोऽधुना मया कुम्भ इत्यतीतार्थता हि या। वर्तमानस्य पर्यायात्सा भवेद्वर्त्तमानता ॥१२॥ भावार्थः-इस समय मैंने भूत घटको जाना, इस प्रकार जो अतोतार्थता हुई है वह वर्तमानकी पर्यायसे वर्तमानता होती है ॥१२॥ व्याख्या । यदि असतो जानं भवेतहि अधुना मया अतीतो घटो ज्ञात इत्याकारिका प्रतीतिः कवं जायते । तत्र हि-अतीतो घटो मयः सांप्रत ज्ञान एवं यो बोषो जायते । तत्र द्रव्यात्सतोऽतीतघटस्थ विषये वर्तमानज्ञेयाकाररूपपर्यायादधुनातीतपटो जात इति जानमानतास्ति । अथवा नंगमनयादती वर्तमानार्थारोपः क्रियते । तस्मात्मबंधासतो वस्तुनो जान न भवति । अधुना मया कुम्मो ज्ञात इत्यतीतार्थता हि यामीत मातीतार्थता व मनस्य पर्याय मानता भवेत ॥१२॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४.] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम व्याख्यार्थ-यदि सर्वथा असत् पदार्थका ज्ञान हो तो इस समय मैंने अतीत घटको जाना इस आकारकी प्रतीति कैसे होती है ? क्योंकि उस समयमें अतीत घट को मैंने इस समय जाना इस प्रकार जो बोध होता है उसमें द्रव्यसे विद्यमान अतीत घटके विषयमें वर्तमान ज्ञेयके आकाररूप पर्यायसे इस समयभूत घटको जाना ऐसा ज्ञानका भान है । अथवा नैगमनयकी अपेक्षासे भूतपदार्थ के विषय में वतमान पदार्थका आरोप किया जाता है । इस कारण यह सिद्ध हुआ कि असत् पदार्थका ज्ञान सर्वथा नहीं होता है, क्योंकि इस काल में घटको मैंने जाना ऐसे जो घटको भूत पदार्थरूपता थी वह अतीतार्थता वर्त्तमान द्रव्यका पर्याय होनेसे वर्तमानता होती है ।। १२ ।। फिर भदभावना कहत है । चेद्धर्मेणासता धर्मो कालेऽप्यसति रोचते । तदा सदा शशशृङ्ग किन्न ज्ञापयसि द्रुतम् ॥१३॥ भावार्थ:- यदि अतीत कालमें भूत घटरूप धर्मी अविद्यमान आकारसे भासता है ऐसा तुमको रुचता है तो तुम सदा निःशङ्क ( शङ्कारहित ) होकर खरगोशके सींगको भी क्यों नहीं जानते ॥१३।।। व्याख्या । धर्मी अतीतो घटोऽसता धर्मेणाविद्यमानाकारेण अमति काले अतीते काले घटामावकालेऽपि सदिति भासते । अथवा धर्मी अतीतो घटः असता धर्मग शेकारेण असति काले भासते । इत्थं यदि तव चेतसि रोचते तत्सर्वमतीतानागतवर्तमानकाले निर्भयमदृष्टशङ्कारहितं यथा भवति तथा शशशृङ्गमपि कथं न ज्ञापयसि । एतदेव ज्ञापयतुमिष्टमेवेति ॥ १३ ॥ ___ व्याख्यार्थः-धर्मी अर्थात् भूतकालका घट असत् धर्म अर्थात् अविद्यमान आकार रूपसे असत् काल अर्थात् घटाभावकालमें ( विद्यमानरूपसे ) भासता है । अथवा धर्मी भूतघट असत् धर्म अर्थात् अविद्यमान ज्ञेय आकारसे अविद्यमान कालमें भासता है ऐसा पक्ष यदि तुम्हारे चित्तमें रुचता है तो तुम निर्भय अर्थात् नहीं देखनेमें आते हुए पदार्थको हम कैसे जानते हैं। इस प्रकारकी शंकारहित जैसे हो तैसे सदा अर्थात् भूत भविष्यत् वर्तमानकालमें अविद्यमान खरगोशके सौंगको भी क्यों नहीं जनाते हो ? क्योंकि जब तुनने मृत्तिकासे असत् घटकी उत्पत्ति तथा भूतकालके असत् घटका भान मान लिया ह तो असत् शशशृङ्गको भी सिद्ध करके जनादेना तुम्हारे इष्ट ही है ॥ १३ ॥ ततोऽसतो हि नो बोधो नैव जन्म च जायते । - कार्यकारणयोरैक्यं द्रव्यादीनामपि श्रय ॥१४॥ भावार्थ:- इस पूर्वोक्त हेतुसे अविद्यमान पदार्थका ज्ञान नहीं होता है और न उत्पत्ति ही होती है, इस कारण तुम कार्य कारणकी तथा द्रव्य, गुण, पर्यायकी एकताको भी स्वीकार करा ॥१४॥ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [४१ व्याख्या। हि निश्चितमसतोऽविद्यमानस्यार्थस्य नो बोधः । च पुनर्जन्माप्यूत्पत्तिरपि न भवति । सत एवं ज्ञानं सत एवोत्पत्तिरित्याशयः । एवमपि निश्चयेन कार्यकारणयोरभेदोऽस्ति । तदृष्टान्तेन द्रव्यगुणपर्यायादीनामप्यभेदं श्रयाङ्गीकुरु ॥१४॥ व्याख्यार्थः-इस पूर्वोक्त कथनसे निश्चय कर अविद्यमान पदार्थका ज्ञान नहीं होता और अविद्यमान पदार्थकी उत्पत्ति भी नहीं होती, अर्थात् विद्यमान पदार्थका ही ज्ञान और उसकी ही उत्पत्ति होती है, यह आशय है। इस प्रकार भी निश्चयसे कार्य और कारणका अभेद है । उसी दृष्टान्तसे तुम द्रव्य गुण तथा पर्याय आदिके भी अभेदको स्वीकार करो। नैयायिको भेदनयं प्रकाशते । साङ्खयोऽप्यभेदं प्रकटीकरोति वै ॥ विस्तारयन जैनवरो द्वयं स्वयं । प्राप्नोति सर्वत्र जयं सुनिर्भयम् ॥१५॥ - भावार्थः-नैयायिक द्रव्य आदिके सर्वथा भेदको प्रकाशित करता है, और सांख्यवादी निश्चयसे अभेदको प्रकट करता है और जैनियों में श्रेष्ठ पुरुष अथवा श्रेष्ठ जैनमत तो अपेक्षासे भेद तथा अभेदको स्वयं निर्भय होकर विस्तारता हुआ सब बादियों में जयको प्राप्त होता है ॥१५॥ व्याख्या । नैयायिको द्रव्यादीनां भेदमङ्गी कुरुते । यत उत्पन्न द्रव्यं क्षणमगुणं तिष्ठतीति क्षणेन गुणानां पृथगुत्सादात् । द्रव्यं हि तावनिर्गुणमुत्पद्यते, पश्चात्तत्समवेता गुणा उत्पद्यते, समकानोत्पती तु गुणगुणिनोः समानसामग्रीकत्वाद्ध दो न स्यात्कारणभेदस्य कार्यभेदनियतत्वादिति भेद नयं नैयायिको वक्ति । साङ्कयोऽपि द्रव्यादीनामभेदमङ्गीकरोति । यतो गुण-गुणिनोः समानकालीनं जन्म मध्ये तरविषाणवत्पौर्वापर्याभावात् । न हि स एव तस्यैव पूर्वभावी पश्चाद्भावी च भवति । अतो यदैव द्रव्यं जायते तदैव तदगतरूपादयोऽपि जायन्त इति द्रव्यादीनां सालयमतेऽभेदता । जैनस्तु द्रव्यादीनां भेदमपि द्रव्यगुणपर्यायत्वादभेदमपि। द्रव्यं तदेव गुणस्तदेव पर्यायः, यथा घट: द्रव्येण मृद्गुणेन रक्तः, पर्यायेण कम्बुग्रीवः, इत्यभेद इत्येतद्वयमप्यङ्गीकुर्वाण: सर्वत्र जयं प्राप्नोति । उक्त च ---- अन्योऽन्यपक्षप्रतिपक्षभावाद्यथा परे मत्सरिणः प्रवादाः। . नयानशेषानविशेषमिच्छन्न पक्षपाती समयस्तथा ते ॥१॥ तथा य एव दोषाः किल नित्यवादे विनाशवादेऽपि समास्त एव । परस्परध्वंसिषु कण्ट केषु जयत्यधृष्यं जिनशासनं ते ॥२॥ तस्माद्भदनयपक्षस्यामिमानमभेदनयोऽपाकरोति । अथ नयद्वयस्वामिनं निदिशति । असत्कार्य दृश्यत. इति नैयायिकाभिमतम् । सदिति सांख्याभिमतम । सदसदिति जैनाभिमतं पक्षपातरहितमिति ॥१५॥ - इति श्रीभोजविनिर्मितायां द्रव्यानुयोगतर्कणायां तृतीयोऽध्यायः ॥३॥ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् व्याख्यार्थः-नैयायिक द्रव्यादिक ( द्रव्य, गुण, पर्याय ) का भेद मानता है, क्योंकि "उत्पन्न हुआ द्रव्य क्षणभर गुणरहित रहता है" इस नैयायिकके कथनसे गुणोंकी उत्पत्ति भिन्न क्षणमें होती है । भावार्थ-नैयायिक ऐसा कहता है कि द्रव्य प्रथम निर्गुण उत्पन्न होता है, फिर उसमें समवाय सम्बन्धसे रहनेवाले गुण उत्पन्न होते हैं, समान काल (एक ही समय) में द्रव्य तथा गुणकी उत्पत्ति होनेपर तो समान सामग्रीके होनेसे गुण और गुणी (द्रव्य) का भेद न होगा, क्योंकि कारणका भेद कार्यके भेदका नियामक होता है। अर्थात् कारणका भेद होनेसे कार्यका भेद अवश्य होता है। यदि कारणका भेद न हो तो कार्यका भी भेद नहीं होता, इसलिये जब गुण और गुणीकी सामग्री ही एक है तो उनका भेद नहीं होगा । और सांख्य द्रव्य आदिका अभेद मानता है, क्योंकि यह इसके पहले उत्पन्न हुआ यह इसके पीछे उत्पन्न हुआ, इस प्रकारके पूर्वापरभावका अभाव होनेसे पशुके दक्षिण तथा वामसींगकी भांति गुण और गुणीकी उत्पत्ति एक समयमें होती है, वह ही द्रव्य उसहोके पूर्वभावी तथा पश्चाद्भावी नहीं होता है। इसलिये जब द्रव्य उत्पन्न होता है तब ही उसमें प्राप्त रूपादिक गुण भी उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार द्रव्य आदिकी सांख्यमतमें अभेदता है, और जैन तो द्रव्य गुण तथा पर्यायपनेसे द्रव्य आदिके भेदको भी और अभेदको भी मानते हैं; और जो द्रव्य है वही गुण है, वही पर्याय है, जैसे कि घड़ा द्रव्यसे मृत्तिका है, गुणसे लाल रंगका है, पर्यायसे शङ्ककीसी ग्रीवाका धारक है। इस प्रकार अभेद मानते हैं । ऐसे भेद अभेद इन दोनोंको स्वीकार करते हुए जैन तो सब जगह विजयको प्राप्त होते हैं । सो ही कहा है कि हे जिनेंद्र ! जैसे अन्यमतावलम्बियोंके प्रवाद परस्पर पक्ष तथा प्रतिपक्षपनेसे ईर्षाके धारक हैं उस प्रकार सब मतोंको समानतासे चाहता हुआ आपका जिनशासन पक्षपाती नहीं है ॥१॥ (भावार्थः-कोई सर्वथा भेद मानता है, कोई सर्वथा अभेद मानता है, इस कारण दोनोंके सिद्धान्त परस्पर ईर्षाके धारक हैं। और अपेक्षासे भेद तथा अभेद इन दोनोंको स्वीकार करनेवाला जैनसिद्धान्त दोनों वादियोंको समान देखता है । किसीसे ईर्षा नहीं करता) तथा और भी कहा है कि जो दोष सर्वथा नित्यवादमें हैं वे ही सर्वथा एकान्त रूपसे अनित्यवादमें भी हैं, इसलिये परस्पर एक दूसरेके ध्वंस करनेवाले कंटक ( कंटक तुल्य मतों ) में अनेकान्तवादी होनेसे आपका प्रबल जिनशासन विजयको प्राप्त होता है । २ । इसलिये सवथा भेदनय पक्षके अभिनानको अभेदनय दूर करता है। अब भेद तथा अभेदमत के स्वामीका नाम दिखलाते हैं । कार्य असत् ( अविद्यमान ) दीखने में आता है और कार्य कारण तथा गुण , Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [४३ गुणीका परस्पर भेद है, यह तो नैयायिकको इष्ट है । सत् कार्य देखनेमें आता है और कार्यकारण तथा गुणगुणीका सर्वथा अभेद है, यह सांख्यवादीको अभीष्ट है । और कथंचित् सत् एवं कथंचित् असत् कार्य देखने में आता है तथा कार्य कारण और गुण गुणीका कथंचित् अभेद है, यह पक्षपात रहित मत जैनको अभीष्ट है ॥१५।। इति द्विवेद्य पनामकपण्डित ठाकुरप्रसादवैयाकरणाचार्यप्रणोतमाष्यानुवादसमलङ कृतायां द्रव्यानुयोगतर्कणायां तृतीयोऽध्यायः ॥३॥ व्याख्या-अथ परवादी वक्ति-द्रव्यादीनां भेदामेदौ द्वौ कथं मान्यो स्त इत्याशङ्किते प्रत्युत्तरयन्नाह । अर्थः-अब अन्यमतावलन्बी वादी कहता है कि द्रव्यआदिकोंके भेद अभेद ये दोनों धर्म किस प्रकारसे मान्य हैं ? ऐसे आशङ्काके प्राप्त होनेपर वादीको प्रत्युत्तर देते हुए कहते हैं। भेदाभेदौ कथं मान्यौ परस्परविरोधिनौ । कुत्राप्येकत्र न स्यातामन्धकारातपौ यथा ॥१॥ इत्थमाशङ्कितं शिष्यं गुरुराह जिनोक्तिभिः । सर्वत्राप्यविरोधेन धर्मों द्वावेकसंश्रयौ ॥२॥ भावार्थ:-हे गुरो ! जैसे कहीं भी अन्धकार और प्रकाश एक अधिकरणमें नहीं रहते हैं वैसे ही परस्पर विरोधके धारक भेद और अभेद ये दोनों एक वस्तु में कैसे मान्य हो सकते हैं ।।१।। इस प्रकार आशङ्काको प्राप्त हुए शिष्यके प्रति श्रीगुरु महाराज श्रीजिनभगवान की उक्तियों द्वारा कहते हैं कि हे शिष्य ! सब ही स्थान तथा वस्तुओं में एक द्रव्यमें रहनेवाले दोनों धर्म विरोधरहित हैं ॥२॥ व्याख्या । अहो भेदाभेदो कथ केन प्रकारेण मान्यौ, कोहशी तो परस्परविरोधिनी । यत्र भेदः स्यात्तत्राभेदो न, यत्राभेदस्तत्र भेदो न, इत्थमनयारन्योऽन्य विरोधोऽस्ति । द्वावेकत्र न तिष्ठतः । यथान्धकारातपावप्येकत्र स्थायिनी कदापि न भवतस्तथैवेंतावत्यर्थः । तथा चोक्तमाचाराङ्ग "वितिगित्थ समावन्नेणं अप्पाणेणं न ल मते समाहिति" तदर्थ शङ्कित शिष्यं गुरुः प्रवचनविच्छीयाद्वादनाणीमिः कथयति स्म । अहो शिय यह टस्य घटामावस्य च यद्ययन्योन्यं विरोध: सम्भाव्यते परन्त्वनयोभदाभेदयोः परस्पर विरोधो नास्ति । यतः कारणासर्वत्र स्थानेषु वस्तुषु च भेदाभेदलनगी धमावविरोधेन विरोधाभावेन काश्रयवृत्याश्रयायिभावेन च दृश्येते । अन उकमक करिम द्रव्ये मश्रय आधारो ययोग्तावेकसथयाविति । सत्यं तुल्यौ द्वौ तथाप्यभेदाख्यः स्वामाविकस्सत्यः, पुनर्भेद उपाधिकोऽपत्यश्च त्थं शतिः कश्निकथयिष्यति तदा तदप्यसम्भवमनुमवर्ग'चर चन। तत्कथं व्यवहारेण पगपेक्षत्वं द्वयोरपि । गुणादीनां भेद: गुणादीनामभेदश्च ति वचनाविरोष एव भेदाभेदयोर कर ममाथियोतिव्य इति ध्येयम ॥ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्राजचन्द्र जैनशाखमालायाम् व्याख्यार्थः - परस्पर विरोधधारक भेद और अभेद ये दोनों धर्म द्रव्यादिकमें किस प्रकारसे मानने योग्य हों, क्योंकि जहाँ भेद हो वहां अभेद नहीं रहता है, ऐसे ही जहां जिस वस्तुका अभेद हो वहां भेद नहीं रहता है, इस प्रकार आपस में विरोध है । इसलिये भेद और अभेद ये दोनों एक ही द्रव्यादिकमें नहीं रहते । अर्थात् जैसे अन्धकार और प्रकाश एक जगह रहनेवाले कभी भी नहीं होते हैं वैसे ही ये भेद अभेद भी एक स्थलमें रहनेवाले नहीं हैं । और वैसे ही आचाराङ्गमें कहा है कि “वितिमित्थ समावन्नणं अप्पाणेणं न लभते समाहिति" इस प्रकार शङ्काको प्राप्त हुए शिष्यको गुरु अर्थात् प्रवचनके ज्ञाता पुरुष श्रीस्याद्वाद के वचनों द्वारा कहते हुये कि अहो शिष्य ! यद्यपि घट और घटाभावका परस्पर विरोध संभावित होता है, परन्तु इन भेद तथा अभेद रूप दोनों धर्मोंका परस्पर विरोध नहीं है । क्योंकि सब स्थानों में तथा वस्तुओं में भेद अभेदरूप दोनों धर्म विरोधरहिततासे तथा आश्रयाश्रयिभावसे देख पड़ते हैं । इस ही कारण मूल सूत्रमें " एकसंश्रयौ ” यह पद दिया है अर्थात् एक द्रव्यमें है संश्रय (आधार) जिनका ऐसे भेद और अभेद सर्वत्र बिना किसी विरोधके रहते हैं । " ४४ ] "यह यद्यपि सत्य है कि भेद तथा अभेद ये दोनों तुल्य हैं तथापि अभेद स्वाभाविक ' और सत्य है और भेद औपाधिक तथा असत्य है" इस प्रकार शङ्कित होकर कोई कहेगा तो वह उसका कथन भी असम्भव है और अनुभव के गोचर नहीं है । सो कैसे कि व्यवहारसे दोनोंही परकी अपेक्षा करनेवाले हैं । उससे गुणादिकका भेद तथा गुणादिकका अभेद है, इस वचनसे एक आश्रय में रहनेवाले भेद तथा अभेदका अविरोध ही जानना चाहिये । ऐसा भाव है ।। २ ॥ व्या० - पुनविरोधमपाकुर्वन्नाह ! अर्थः-फिर भेद, अभेदके विरोधको दूर करते हुए कहते हैं । एकत्र जनतारूढ्या यत्प्रत्यक्षेण लभ्यते । रूपादीनामिवैतेषां भेदादि तत्कथं भ्रमः ॥ ३ ॥ भावार्थ:-- :- जब एक घटादि द्रव्य में लोकविदित व्यवहारसे जो प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा रूपादिका भेद अभेद प्राप्त होता है तब इन द्रव्यआदिका भेद अभेद है, इसके मानने में भ्रम कैसे होता है ? अर्थात् विरोध क्यों करते हो ? ॥ ३ ॥ स्थाने घटादिद्रव्यविषये प्रत्यक्षप्रमाणेन रक्तत्वादिगुण पर्यायाणां व्याख्या । एकस्मिन् लोकसाक्षित्वेन वा जनता रूढ्या यद्भेदाभेदत्वं लभ्यते १ स्वाभाविक अर्थात् स्वयंसिद्ध, तात्पर्य यह है कि मृत्तिका और घट में अभेद तो स्वयंसिद्ध है क्योंकि घट दशामें तथा उसके आगे पीछे भी मृत्तिका ही है इसलिये अभेद स्वाभाविक सत्य है । २ घटरूप उपाविसे उत्पन्न भेद औपाधिक ( बनावटो ) है इसलिये असत्य है । सर्वलोकविदितव्यवहारेण तत्कथं भ्रम Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतकणा [४५ इति । तेषां रूपादीनामिवैतेषां द्रव्यादीनामपि भेदादि वर्तते । तत्र विरोधः किमर्थं क्रियते ? यथा रूपरसादीनामेकाश्रयवृत्तित्वानुभवाद्विरोधो न कथ्यते, तथैव द्रव्यादीनामपि भेदाभेदयोरपि विरोधो न भवेत् । निश्चयेन ज्ञानं चक्षुषा विशृष्टं सूस्थमेव जायते । उक्त च-न हि प्रत्यक्षदृष्टेऽर्थे विरोधो नाम जायते । तथा प्रत्यक्षदृष्टार्थे दृष्टान्तस्याप्यमावतः । उक्त च-क्वेदमन्यत्र दृष्टत्वमहो निपुणता तव । दृष्टान्तं पठसे यत्त्वं प्रत्यक्षेऽप्यनुमानवत् ॥१॥ इति ॥३॥ व्याख्यार्थः-एक स्थानमें अर्थात् घटादि द्रव्यके विषे जनसमूहकी रूढिसे अर्थात् सब लोकके विदित व्यवहारसे अथवा सब लोकोंकी साक्षीसे प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा जब घटआदि द्रव्यमें रक्तत्वआदि गुण पर्यायोंका भेद और अभेद उपलब्ध होता है, तब उनके विरोधके विषयमें भ्रम कैसे होता है ? जैसे रूपआदिके भेद आदि हैं ऐसे ही इन द्रव्यगुणपर्यायोंके भी भेद अभेद हैं, इसमें विरोध क्यों करते हो ? जैसे एक घट अथवा आम्रके फल आदि अधिकरणमें अनुभवसिद्ध रूप रसआदिका भेद अभेद है, वहांपर तुम विरोध नहीं कहते हो, ऐसे ही द्रव्यपर्याय आदिके भेद अभेदका कोई विरोध नहीं हो सकता, क्योंकि निश्चयसे नेत्रद्वारा विचाराहुआ अर्थात् देखा हुआ ज्ञान सत्य ही होता है ऐसा कहा भी है कि प्रत्यक्षसे देखेहुए पदार्थ विरोध नहीं होता, और प्रत्यक्षसे दृष्टवस्तुमें दृष्टान्तका भी अभाव है तथा यह अन्यत्र कहां देखा है ऐसा पूछते हो सो अहो ! यह तुम्हारी निपुणता है कि प्रत्यक्षमें भी अनुमानकी भांति दृष्टान्तको भी पढते हो अर्थात् प्रत्यक्षरूपसे जो भेदाभेद दृष्ट है उस अनुभवको अनुमानके समान अन्धकार तथा प्रकाशके दृष्टान्तद्वारा छिपाते हो ॥३॥ व्याख्या --- अथ भेदाभेदयोः प्रत्यक्षस्याभिलापं पुद्गलद्रव्येण दर्शयन्नाह । अर्थः-अब भेद अभेदके प्रत्यक्षका अभिलाप पुद्गल द्रव्यसे दर्शाते हुए कहते हैं । पूर्व श्यामो घटः पश्चाद्भदाद्रक्तो भवन्स्वयम् । घटत्वेन विरोधित्वं नैव वक्ति कदाचन ॥४॥ भावार्थ:-जो घट पूर्व अवस्था में श्याम पर्यायवाला है वही पश्चात् भेदसे स्वय रक्तपर्याययुक्त होता हुआ घटत्वके साथ कभी विरोधपनेको नहीं कहता है ॥४॥ व्याख्या । यो हि घटः पूर्वावस्थायां श्यामभावोऽस्ति स एव घटः पश्चात्पाकादिपरिणतः सन् स्वयमात्मना रक्तो रक्तवर्णों भवन् सन् मिन्नत्वेन व्यपदेशं लभन्नपि घटत्वेन कालद्वयेऽपि पूर्वावस्थाश्यामरूपेण : परावस्थारक्तरूपेण च घट मावेन भेदाभेदी न कथयनीति । अतो घटत्वेन विरोधित्वं पूर्व श्यामोय एव , घटः पश्चाद्रक्तो जातः स घटो न इति विरोधिभावं न वक्ति । अर्थात् श्यामोऽपि घट: रक्तोऽपि घटः, घटत्वेनाविरोध एव । कदाचन पूर्वपरपर्यायगुणादानविभक्तोऽपि - घटस्तु घट एव । एवं श्यामावस्थायां रक्तावस्थायामवस्थाकृतभेदाद्धटभेदो न जातस्तदात्र द्रव्यादीनां परस्परं भेदाभेदौ मावधारय । घटदृष्टान्तेन . द्रव्यादीनामप्यन्योन्यमैक्यं विद्धि न कदापि मिनभावभानं जानीहि ॥४॥ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्रराजचन्द्रजैनशाखमालायाम् व्याख्यार्थः– जो घट पूर्वकालमें अर्थात् परिपाक दशाकी पूर्व अवस्थामें श्यामभाव है वही घट पश्चात् परिपाक दशामें परिणत होकर स्वयं अपने निज स्वरूपसे रक्त वर्णको प्राप्त होता हुआ और रक्तघट इस भिन्न नामको प्राप्त होता हुआ भी दोनों कालमें ही पूर्वका - लकी श्यामरूप अवस्थासे तथा उत्तरकालकी रक्तरूप अवस्थासे घटत्वके साथ भेद तथा अभेदको नहीं कहता है अर्थात् परिपाक दशाके पूर्व श्याम घट और पाकोत्तर रक्त घट होनेपर भी घटत्वरूप में इस कारण कोई विरोध नहीं है । घटत्वके साथ जो घट पूर्व श्याम था वही घट पीछे रक्त हुआ तब वह घट नहीं है ऐसा विरोध नहीं कहता अर्थात् श्याम भी घट था रक्त भी घट है, यद्यपि रक्तत्वका तथा श्यामत्वका पर्यायरूपसे भेद है परन्तु घटत्व रूपसे दोनों दशा में अभेद है । इस रीति से घटत्व के साथ भेद अभेद में कोई विरोध नहीं है। अर्थात् कभी पूर्व श्याम घट और उत्तरकाल में रक्त घट इस प्रकार पूर्वपर पर्याय गुणके ग्रहणसे यद्यपि विभक्त (कथंचित् गुण पर्याय कृत भेदविशिष्ट) भी है तथापि घट तो वह ही हैं, इस रीति से जब श्यामावस्था में तथा रक्तावस्था में श्याम तथा रक्त अवस्थाकृत भेद होनेपर भी घटका भेद न हुआ तब द्रव्य गुण पर्याय के भी परस्पर एकान्त भेद तथा एकान्त अभेदको मत निश्चय करो अर्थात् घटके दृष्टान्तसे द्रव्यादिककी परस्पर एकता जानो, इनके भी कदापि भिन्न भावका भान मत जानो अर्थात् जैसे घटत्व सब दशामें है ऐसे ही सब गुण पर्याय दशामें वही मृत्तिकारूप क्रय है और द्रव्यरूपता किसी गुण पर्यायसे जैसे भिन्न नहीं ऐसे ही गुण पर्याय भी द्रव्यसे भिन्न नहीं हैं, और द्रव्यदेशमें ही गुण पर्यायकी उपलब्धि होनेसे भी द्रव्यसे गुण पर्याय भिन्न नहीं है ॥ ४ ॥ व्याख्या -- अथात्मद्रव्ये भेदाभेदयोरनुभवं दर्शयन्नाह अर्थः—अब आत्मद्रव्यमें भेद तथा अभेद दर्शाते हुए आचार्य यह सूत्र कहते हैं । बालत्वे मनुजो योऽभूत्तारुण्ये सोऽन्य इष्यते । देवदत्ततयाप्येको ह्यविरोधेन निश्चयम् ॥५॥ भावार्थ::- बाल्य अवस्थामें जो मनुष्य था वह योवन अवस्थासे अन्य ही होजाता है, परन्तु देवदत्त रूपसे वह वाल्य योवन आदि सब अवस्थाओं नें एक ही है ||५|| ४६ ] व्याख्या -- बालभावे पुरुषो योऽभूद्वालावस्थामापन इत्युच्यते । तथा म एव पुमान् तरुणभावे यौवने अन्य इष्यत, यौवनावस्थामानां बालाद्भित्रस्तरुण इत्यर्थः । तथा च देवःतनया देवदत्त मावेन मनुष्यत्वपर्यायेण भिन्नत्वं नास्ति । यो हि देवदत्तो बालः म एव देवदत्तस्तरुणी मनुजव्यवहाराद्धिन्नो न । तस्मादत्रं कस्मि देवदतविषये बाल्यतारुण्यभावेन भेदस्तथा देवदत्तभावेनाभेद इन एतदविरोधेन निधार्यताम् । उक्तं च-पुरिसम्मि पुरिससद्द जम्माई मरणकालज्जते तस्सओ बालाईया पज्जवभेदा बहुवि । १ । इति ||५|| व्याख्यार्थः– बालभावमें जो मनुष्य था उस समय वह बाल्य अवस्थाको प्राप्त हुआ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [४७ ऐसा कहा जाता है और वह ही मनुष्य जब तरुण हुआ तब अन्य माना जाता है अर्थात् यौवन अवस्थाको प्राप्त हुआ मनुष्य बालपनेसे भिन्न तरुण कहा जाता है सो यद्यपि बाल्य अवस्था तथा तरुण अवस्थाकृत उस मनुष्यमें भेद है तथापि देवदत्तपनेरूप मनुष्यपर्यायसे उसमें भिन्नता नहीं है, क्योंकि जो देवदत्त बालक था वह ही देवदच अब तरुण होगया परन्तु मनुष्यव्यवहारसे भिन्न नहीं, इस प्रकार यद्यपि बाल तरुण पर्यायसे वह भेदसहित है तथापि देवदत्तभावरूप व्यवहारसे भिन्न कदापि नहीं है अर्थात् देवदत्तभावसे अभेद सहित है, इस कारणसे एक ही देवदत्तमें बाल्यतारुण्यभावसे भेद तथा देवदत्तरूप मनुष्यपर्यायसे अभेद विना विरोधके है ऐसा तुम निश्चयसे जानो। ऐसा कहाभी है कि “मनुष्यमें वा पुरुष शब्दमें जन्मसे आदि लेकर मरणपर्यन्त उसके बाल्यावस्थाको आदि लेकर अनेक प्रकारके विकल्प (भेद) होते हैं, अर्थात् बाल्य, शैशव, किशोर, यौवन तथा जरा आदि अनेक भेद होते हैं तथापि देवदत्तादि नामरूप मनुष्यपर्यायसे अभेद ही है ॥१५॥ व्याख्या -अथ यत्र भेदो भवेत्तत्राभेदो न भवत्येव, भेदो व्याप्यवृत्तिरस्ति तत एतादृशीं प्राचीननैयायिकशङ्का निराकुर्वन्नाह । अर्थः-अब "जहां भेद रहता है वहां अभेद नहीं रहता, क्योंकि भेद व्याप्यवृत्ति है अर्थात् धर्मभेद प्रयुक्त धर्मीका भी भेद सिद्ध है" ऐसी प्राचीन नैयायिककी आशंका को निराकरण करते हुए उसके मतका उद्घाटन करते हैं। धर्मभेदो यदा ज्ञाने मिभेदो न दृश्यते । जडचेतनयोरेको धर्मो तद्भिन्नधर्मयोः ॥६॥ भावार्थः-यदि ज्ञानमें धर्म अर्थात् श्यामत्व रक्तत्व आदिका भेद भासता है और धर्मी घटका भेद नहीं दीख पड़ता है तो परस्पर भिन्न धर्मके धारक जड़ चेतन द्रव्यमें धर्मी द्रव्यका अभेद लेकर जड़ चेतन एक होजायगे ॥६॥ ब्याख्या । इह यदि ज्ञाने ज्ञानविषये श्यामो न रक्त इति श्यामत्वरक्तत्वधर्मयोर्मेदो भासते । परन्तु धर्मिणो घटस्य श्यामत्वे रक्तत्वे वर्तमानस्य भेदो भिन्नत्वं न भासत इत्थं प्रतिपादयसि तर्हि जडचेतनयोमिन्नधर्मयोधर्मी एकद्रव्यं नु भविष्यति । अथ च जाचेतनयोर्मेदो भासते तत्र जडत्वचेतनत्वधर्मयोरेव भेदोप्यस्ति । परन्तु जडचेतनद्रव्ययोमँदो नास्ति । एवमवस्यया धर्मिणः प्रतियोगित्वेनोल्लेखोऽपि स्थानद्वयेऽपि सदृशोऽस्ति । अथ च प्रत्यक्षसिद्धार्थे बाधकं तु नावतरत्येव । उक्त च नानुपलब्धाय न्यायः प्रवर्त्तते अपि तु संदिग्धेर्थे" इत्युक्तत्वात् । एवं धर्मभेदो अनुमवे तव भासते मिभेद न कथयसि तदा भिन्नधर्मयोर्जडचेतनयोरेको धर्मी अपि लभ्यत इत्यर्थः॥६॥ व्याख्यार्थः-यहांपर यदि ज्ञानके विषयमें अर्थात् अनुभव में श्याम घट रक्त नहीं है Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ ] श्रीमद्रराजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् और रक्त घट श्याम नहीं है, इस प्रकार श्यामत्व तथा रक्तत्व धर्मका भेद ज्ञानमें भासता है, परन्तु श्यामत्व तथा रक्तत्व दोनों दशामें वर्तमान धर्मी घटकी भिन्नता नहीं भासती, ऐसा यदि तुम प्रतिपादन करते हो अर्थात् धर्मके भेदसे धर्मोका भेद नहीं मानते हो तो जड़ और चेतन जो भिन्न धर्म हैं उनका धर्मी एक द्रव्य निश्चयसे हो जायगा । कदाचित् कहो कि जड़ चेतनका जो भेद भासता है वहां जड़त्व और चेतनत्व इन दोनों धर्मों का ही भेद है परन्तु जड़, चेतन द्रव्योंका भेद नहीं है, इस प्रकार अवस्थासे धर्मीका 'प्रतियोगीरूपसे ( अर्थात् जड़ चेतन नहीं है और चेतन जड़ नहीं है ) उल्लेख ( कथन ) करनेपर भी जड़ चेतन तथा श्याम और रक्त घट भी सदृश हैं और प्रत्यक्षसिद्ध अर्थ में कोई बाधककाप्रसंग भी नहीं होता, क्योंकि अनुपलब्ध अर्थात अनुभव प्रमाणसे अप्राप्त वस्तुमें न्याय नहीं प्रवृत्त होता, किन्तु संदिग्ध वस्तुमें न्यायकी प्रवृत्ति होती है ऐसा कहा है, इस रीतिले धर्मका भेद आपके अनुभव में भासता है। धर्माका भेद तुम नहीं कहते हो तो भिन्न धर्मके धारक जड़ और चेतनका एक व प्राप्त होता है यह ही कारिकाका आशय है ||६|| भेदाभेदौ च तत्रापि दिशन् जैनो जयत्यलम् । रूपान्तरात्पृथग्रूपेऽप्यभेदो भुवि संभवेत् ॥७॥ भावार्थ - वहां भी भेद तथा अभेदका उपदेश करता हुआ जैनमत अतिशय करके सर्वोत्कृष्ट वर्तता है, क्योंकि रूपान्तर अर्थात् द्रव्यरूपसे पृथक् जो जीवादि भासते हैं वहां भी संसार में अभेदका संभव है ||७|| व्याख्या । च पुनस्तत्र जडचेतनयोर्मध्ये भेदाभेदौ कथयन् जैन एवं अलमत्यर्थं जयति सर्वोत्कृष्टत्वेन प्रवर्तते । कथं तद्यतो भिन्नरूपा ये जीवाजीवादयस्तेषु रूपान्तरद्रव्यत्वपदार्थत्वादिभ्यश्राभेदोऽपि जगत्यायाति । एतावता भेदाभेदयोः सर्वत्र व्यापकत्वं कथितम् । रूपान्तराद्रव्यत्वपदार्थत्वलक्षणाद्भिन्नरूपे जीवाजीवादिकेऽपि व्यापकत्वादभेदोऽपि भुवि जगत्यां संभवेदित्यर्थः ॥ ७ ॥ व्याख्यार्थ—फिर जहां जड़ चेतनमें नैयायिक भेदमात्र कहता है वहां भी जड़ तथा चेतनके मध्य में भेद अभेद दोनोंको कहता हुआ जैनमत ही अतिशयकर सर्वोत्कृष्टपसे वर्तता है सो कैसे कि भिन्न रूप जो जीव अजीव आदिक हैं उनमें रूपान्तर द्रव्यत्व पदार्थत्व आदिसे अभेद भी जगत् में आता है, इस कथनसे भेद अभेदके, सब जगह १ जब श्याम तथा रक्त इन अवस्थाओंका कथन होता है तब वहां "श्यामघटो रक्तो नास्ति" श्यामघट रक्त नहीं है और रक्त होनेपर "रक्तो घटः श्यामो नास्ति" रक्त घड़ा श्याम नहीं है ऐसा प्रतियोगीरूपसे धर्मी घटका भी मान होता है यह नैयायिकका आशय है । २ नैयायिकका अभिप्राय यह है कि जब धर्मका भेद है तब धर्मीका भेद अवश्य है, क्योंकि धर्मीके भेदार्थ ही धर्मका भेद है । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा व्यापकत्व कहा अर्थात् तुम्हारे मतसे भिन्नरूप जीव पदार्थ हैं उनमें भी रूपान्तर अर्थात् द्रव्यत्व, पदार्थत्व लक्षणसे व्यापकता होने के कारण जगत्में अभेद भी संभव होता है ऐसा अर्थ है । भावार्थ-तुमने सर्वत्र धर्मभेदसे भेदको ही व्यापक कहा है परन्तु जीव और अजीव दोनों द्रव्य होनेसे द्रव्यत्वरूपसे हमारे मतमें जड़ चेतन में भी अभेद व्यापक होनेसे विद्यमान है। यद्यपि जड़त्व तथा चेतनत्व पर्यायरूपसे भिन्न हैं, परन्तु उन ही दोनों में व्यापक द्रव्यत्वसे अभेद' भी जगत्में संभव है ॥७॥ ___ यस्य भेदोऽप्यभेदोऽपि रूपान्तरमुपेयुषः। एवं रूपान्तरोत्पन्नभेदाच्छतनयोदयः ॥८॥ भावार्थ:-जिस वस्तुका भेद भासता है उसी वस्तुका रूपान्तरको प्राप्त होते हुए अर्थात् भेदयुक्त वस्तु जब दूसरे स्वरूपमें परिवर्तित हो जाती है तब, उसीका अभेद भी हो जाता है। एवं रूपान्तरसे अन्य रूपान्तरमें उत्पन्न भेद तथा पुनः उससे भी रूपान्तरमें अभेद इस रीतिसे अन्य अन्य उत्पन्न गुणपर्यायद्वारा जो भेदसे अभेद है उसहीसे सैकड़ों नयोंका उदय है ॥ ८॥ ध्याख्या । यस्य वस्तुनो भेदस्तस्यैव रूपान्तरमुपेयुष: रूपान्तरपहितस्याभेदोऽपि भवेद्यया स्थासकोश कुशूलादयो घटस्य भेाः मन्ति पुनस्त एव स्थासादयो मृद्रव्यविशिष्टानपितस्वपर्याया अभेता रूपानरसंयुक्तत्वादभेदाः, तेषामेव रूगन्तराद्ध दो मवेत् । यथा स्थासकोशकुशूलादिपर्यायविशिष्ट मददव्यत्वेन तस्यैव भेदः । एवमस्य भेदस्याभेदोऽस्ति यः स एव शतमख्यमूलनयाना हेतुरस्ति । यत्त मप्तनयानां ये समतसंख्यामिता भेक्षा जायन्ते ते चानयव रीत्या द्रव्यपर्यायस्यार्पणयानर्पणया च शतारनयचक्र ध्ययनमध्यगता: पुरामन् । ते चाधु द्वादशारनपकमध्ये विधिविधिविधिरित्यादिरीत्या एककस्मिन्नयान्तरे द्वादश दादश भदा: सम्व न्ति । अतः सम्यगुक्तपाठपठितररिकलनाप्रसिद्धिमवधार्य मङ्गयोजना विधेयेत्यर्थः । यस्य भेदोऽस्ति तस्यैव रूपान्तरेणाभेदोऽप्यस्ति तस्यैव भेदः पुनस्तस्याभेद एवं शतनयावतारः ॥ ८॥ व्याख्यार्थः-जिस वस्तुका तुमको वर्तमान पर्यायको लेकर भेद भासता है वही वस्तु जब रूपान्तर सहित होजाती है तब उसका अभेद भी होजाता है। जैसे निज निज पर्यायसे योजित स्थास, कोश तथा कुशूल आदि सब घटके भेद हैं, पुनः वे ही स्थास कोश कुशूल आदि जब अपने २ पर्यायसे न योजित किये जांय अर्थात् पर्यायकी विवक्षा न को जाय तो मृत्तिकारूा द्रव्यसहित होनेसे अथवा केवल मृत्तिकारूकी विवक्षा १ पर्यायासे पिंड कुशूल घटादिका भेर रहते भी द्रव्यम्वरूप सर्वत्र अनुगत होनेसे पिंह कुशूलादिमें भेद नहीं है, नैयायिक भी पृथिवी जलादिके परस्पर भेद रहते भी नौ (९) द्रव्योमें द्रव्यत्व एक हो मानते हैं और प्रमेयत्वादि धर्मसे तो पदार्थका अभेद मानते हैं। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् करनेसे अभिन्नरूप हैं अर्थात् उनका भेद नहीं है, क्योंकि अब रूपान्तरसंयुक्त' होगये अब पुनः उनहीका रूपान्तर होनेसे पुनः भेद भी हो जाता है, जैसे स्थास कोश कुशूल आदि पर्यायसहित मृत्तिकाद्रव्यत्वसे उसीका भेद है । इस प्रकार इस भेदका जो अभेद है वह ही अभेद शतसंख्याक ( सौ १००) मूल नयोंका कारण है । और जो नैगम संग्रह आदि सात नयोंके सातसौ (७००) भेद होते हैं वह सब भेद भी इसी रीतिसे द्रव्य पर्यायके अपंण तथा अनर्पणसे अर्थात् कदाचित् द्रव्यार्थिक योजनासे और कदाचित् उसकी अविवक्षा करके पर्यायकी योजनासे शतारनयचक्राध्ययनके मध्यगत पूर्वकालमें थे वे ही अब द्वादशारनयचक्र के मध्य में “विधिर्विधिर्विधिः" इत्यादि रीति से एक एक नयके वीचमें बारह बारह भेद होते हैं, इसलिये सम्यक् प्रकारसे कथित पाठमें पढी हुई संख्याकी प्रसिद्धिको अवधारण कर भंगोंकी योजना करनी चाहिये । तात्पर्य यह कि जिसका पर्याय आदिकी अपेक्षासे भेद है उसका पुनः रूपान्तरमें प्राप्त होनेसे अभेद और पुनः उस भेदका अभेद एवं शत (१००) नयका अवतार होता है ॥ ८ ॥ व्याख्या । अथ ते नयभेदाश्र्चिकीर्षिता अतस्तानेव दर्शयन्नाह । व्याख्यार्थ - यहां उन नयोंके भेद करनेकी इच्छा की इसलिये अब उनही भेदोंको दर्शाते हुए अग्रिम सूत्र कहते हैं । तथा क्षेत्रादिभिः सप्तभङ्गीकोटिः प्रजायते । संक्षेपादिह बोधाय सप्तभङ्गी प्रतायते ॥ ९ ॥ भावार्थ:- उसी प्रकार सप्तभंग भी क्षेत्र कालादिकी अपेक्षासे अवान्तर भेद प्रभेद आदिके निरूपणसे कोटि (करोड) भङ्ग होजाते हैं, परन्तु यहां संक्षेपसे बोध होनेकेलिये केवल सप्तभङ्गीका विस्तार करते हैं ॥ ९ ॥ व्याख्या । यथा द्रव्यादिविशेषेण भंगा जायन्ते तथैव क्षेत्रादिविशेषेणापि भंगा अनेके संभवन्ति । यतः स्वतो विवक्षितो घटो द्रव्यमस्पापेक्षया क्षेत्रादिघटः परद्रव्यमिति । एवं प्रत्येक प्रत्येकं सप्तमङ्गोऽपि कोटिशो निष्पद्यन्ते । तयारि लोकप्रसिद्धया य: कुम्बुग्रीवादिपर्यायोपेतो घटो द्रव्यं वर्त्तते तस्यैव स्वतस्त्वमङ्गीकृत्य स्वरूपेणास्तित्वं पररूपेण नास्तित्वमित्यवधार्य तसभङ्गी व्याकुरुते । तथा हि स्वद्रय क्षेत्र कालभावापेक्षया घटोऽस्त्येव । १ । परद्रव्यक्षेत्रकालमावापेक्षया घटो नास्त्येव |२| एकदा युगपदुमयविजया घटोऽवाच्य एवं एकशब्देन पर्यायद्वयं मुख्यरूपेण वक्तुमशक्यत्वात् |३| एकोंऽशः स्वरूपेण विवक्ष्यतेऽपरोंऽशः पररूपेण विवक्ष्यते तदा अस्ति नास्ति घटः |४| एकोऽशः स्वरूपेणापरोंऽशो युगपदुभयरूपेण विवक्ष्यते तदा घटोऽस्ति परमवाच्य इति 1५। एकोंऽशः पररूपेणापरोंऽशो युगपदुभयरूपेण विवक्ष्यते तदा घटो नास्त्यवाच्य इति । ६ । एकोडशः स्वरूपेणे कोंडशः परखरेणैवांशो युगपदुभयरूपेण विवक्ष्यते घटोsस्ति नास्त्यवाच्य इति ॥७॥ तदा १ यहां "रूपान्तरसंयुक्त" इस पदसे दूसरे आकार में परिणत होनेसे तात्पर्य है । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतकणा [५१ घटः स्यादस्त्येव । १ । स्यानास्त्येव । २ । स्यादवाच्य एव । ३। स्यादस्त्येव स्यान्नास्त्येव । ४ । स्थादस्त्येव स्यादवाच्य एव । ५ । स्यान्नास्त्येव स्यादवक्तव्य एव ।६। स्यादस्त्येव स्यान्नास्त्येव स्यादवक्तव्य एवेति । ७ । इति प्रयोगः इति ॥९॥ व्याख्यार्थः-जैसे द्रव्य पर्याय आदि विशेषसे भङ्ग होते हैं वैसे ही क्षेत्र काल आदि विशेषसे भी अनेक भङ्गोका संभव है, क्योंकि स्वतः विवक्षित घट द्रव्य है इसी द्रव्य घटकी अपेक्षासे क्षेत्रआदिका घट परद्रव्य है, ऐसे ही प्रत्येक प्रत्येक अर्थात् हर एकके प्रति सप्तभंगिये भी करोड़ों सिद्ध होती हैं तथापि लोककी प्रसिद्धिसे जो कम्बुप्रीवादि पर्यायसहित घटद्रव्य है उसी घटका स्वतस्त्व अर्थात् निजस्वरूप कालादि अङ्गीकार करके 'स्वरूपसे घटका अस्तित्व और पररूपसे घटका नास्तित्व है ऐसा निश्चय करके सप्तभंगोंका व्याख्यान करते हैं। जैसे कि-अपने द्रव्य क्षेत्र काल भावकी अपेक्षासे "घटः अस्त्येव" घट है ही । १ । परके द्रव्य क्षेत्र काल तथा भावकी अपेक्षासे “घटः नास्ति एव" घट है ही नहीं । २ । और एक कालमें ही अस्ति तथा नास्ति की विवक्षासे घट अवाच्य ही है, क्योंकि एक शब्दसे अस्ति नास्ति रूप दोनों पर्याय एक काल में प्रधानतासे नहीं कहे जा सकते । ३ । तथा घटका एक अंश तो उसके निज स्वरूप आदिसे विवक्षित करते हैं और दूसरा अंश पररूपसे विवक्षित करते हैं तब “अस्ति 'नास्ति घटः" अर्थात् घट है भी और नहीं भी है, ऐसा चतुर्थ भंग होता है। ४ । तथा घटका एक अंश तो उसके स्वरूपसे विवक्षित करते हैं और अन्य अंश एक ही कालमें उभयरूपसे विवक्षित करते हैं तो “घटः अस्ति परन्तु अवाच्यः" अर्थात् घट है परन्तु वह 'अवाच्य है । इस पंचम भंगकी प्रवृत्ति होती है । ५ । तथा एक अंश तो पररूपसे और एक अंश उभयरूपसे एक कालमें विवक्षित करते हैं तो "घटो नास्ति अवाच्यः” घट नहीं है और अवाच्य है इस छठे भंगको प्रवृत्ति होती है । ६ । और जब एक अंश तो घटका स्वरूपसे विवक्षित करते हैं और एक अंश पररूपसे विवक्षित करते हैं तथा एक अंश एककालमें अस्ति नास्ति इस उभयरूपसे विवक्षित करते हैं तब “घटः अस्ति नास्ति अवाच्यः” घट है नहीं है अवाच्य है यह सप्तम भंग होता है (७) अब सप्तभंगीका प्रयोग इस प्रकार है कि कथंचित् घट है ही । १ । कथंचित् ( किसी अपेक्षासे ) घट नहीं ही है । २ । किसी अपेक्षासे घट अवाच्य ही है । ३। किसी अपेक्षासे घट है ही .१ अपने द्रव्य क्षेत्र काल मावसे । २ परके द्रव्य क्षेत्र काल मावसे । ३ कथन वा निरूपण करनेके अयोग्य । एक वस्तुकी एक कालही में स्वरूपसे सत्ता और पररूपसे असत्ता प्रधानतासे कहनेको असमर्थ हैं इसलिये वह अवाच्य है ।४ रवरूपसे अस्तित्व अंश और पररूपसे नास्तित्व अंश कहने से यह चौथा भंग होताहै। ५ कहने के हुधा निरूपसे सत्ता मानकर भी अरित नारित इस उमयरूपसे अवाच्य है । ७ अन्य द्रव्य क्षेत्रादिसे घटका असत्त्व और उभररूपसे अवाच्य है इसलिये “स्यानारित अवाच्यः" यह छठा भंग है। ८ निजद्रव्य क्षेत्रादिसे घटका सत्व पर द्रव्य क्षेत्रादिसे असत्व तथा बस्ति नास्ति उभयरूपसे अवाच्य इस अभिप्रायसे यह सातवा भग है। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् घट है ही किसी अपेक्षासे नहीं हो है । ४ । कथंचित् घट है ही कथंचित् घट अवक्तव्य ही है | ५ | कथंचित् घट नहीं ही है कथंचित् अवक्तव्य ही है । ६ । तथा किसी अपेक्षासे किसी अपेक्षासे हैं ही नहीं और किसी अपेक्षा से अवक्तय ही है । ७ ।॥९॥ अथास्याः सप्तमङ्गया भेदाभेदौ योजयति । अब इस 'सप्तभङ्गीके भेद तथा अभेदकी योजना करते हैं । पर्यायार्थनयाद्भिन्नं वस्तु द्रव्यार्थतोऽपृथक् । क्रमार्पितनयद्वन्द्वादद्भिन्नं चाभिन्नमेव तत् ॥ १० ॥ भावार्थ:- पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा से सम्पूर्ण वस्तु भिन्न भिन्न हैं और द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा से अभिन्न हैं तथा क्रमसे पर्यायार्थिक और द्रव्यार्थिक इन दोनों नयोंकी योजनासे कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न ही हैं ॥ १० ॥ व्याख्या । पर्यायार्थिकनयात्सर्वं वस्तु द्रव्यगुणपर्यायलक्षणः कथंचि'द्भनमस्ति । १ । द्रव्यार्थिकनया कथंचिदभिन्नमेव | गुणपर्यायौ हि द्रव्यस्यैवाविर्भावनिनावावित्युक्तत्वात् । २ । अनुक्रमेण यदि द्रव्यायिकपर्यायायिकयोरपणं क्रियते तदा कथंचिद्भिन्नं कथंचिदभिन्नं च कथ्यते । ३ ॥ १० ॥ व्याख्यार्थः – पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षासे द्रव्य गुण तथा पर्य्यायरूपसे सम्पूर्ण पदार्थ भिन्न हैं । १ । और द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षासे कथंचित् सब पदार्थ अभिन्न ही हैं, क्योंकि गुण और पर्याय तो द्रव्य ही के आविर्भाव तथा तिरोभावरूप हैं ऐसा प्रथम कह चुके हैं । २ । और अनुक्रमसे यदि पर्यायार्थिक तथा दयार्थिक दोनों नयोंकी योजना करते हैं तो कथंचित् भिन्न अर्थात् पर्यायसे भिन्न और द्रव्यार्थिकरूपसे अभिन्न कहे जाते हैं || ३ || १० ॥ दोभयादानं तदावाच्यं भवेच्च तत् । एकदेवैकशब्देन नार्थद्वयप्रकाशनात् ॥ ११॥ भावार्थ:- और यदि एक समयमें ही पर्यायार्थिक तथा द्रव्यार्थिक दोनों नयोंका ग्रहण करें तो अवाच्य होता है, क्योंकि एक शब्दसे एक ही क्षण में दो विरुद्ध अर्थोंका प्रकाश नहीं हो सकता ॥ १ ॥ व्याख्या । यद्य कवेलं नयद्वयार्थविवक्षा जायते, तदा त्ववाच्यमेव लभते । यत एकेन शकस्मिन् क्षणेऽर्थद्वयकथनासंभवात् । सांकेतिक शब्देनैकमेव संकेतरूपं निरूपणीयं स्यात्परन्तु रूपद्वयशब्द कथयितुमशक्य एव । पुष्पदन्तादिशब्दा अध्ये कोक्त्या चन्द्रपूर्य योक्ति वदन्ति परन्तु मिन्नाक्त्या कथयितुमशक्या इह तूभयनयार्थी मुख्यतयंव मिन्नोक्त्या उच्चारयितुं योग्यो तद्योग्यत्वं तु यत्रेनापि न १ सप्तानां वाक्यविशेषाणां समाहार इति सप्तमङ्गी । अर्थात् सात प्रकारके मङ्ग अर्थात् वाक्योंका जो एकत्र समावेश है उसका नाम सप्तमङ्गी है । Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतकणा [५३ भवति । तस्मादेकदा नयद्वयार्थविवक्षयावाच्य इति । ४ । ॥ ११ ॥ ___व्याख्यार्थः-यदि एक कालमें ही दोनों नयोंसे दोनों अर्थोकी विवक्षा उत्पन्न हो अर्थात् एक समयमें पर्यायार्थिक तथा द्रव्यार्थिक इन दोनों नयोंसे पर्याय तथा द्रव्य रूप दोनों अर्थोके कथनकी इच्छा हो तब तो पदार्थ अवक्तव्य दशाको ही प्राप्त होता है; क्योंकि एक शब्दसे एक ही क्षणमें द्रव्य पर्याय अथवा स्वरूप पररूपादि अर्थका कथन असंभव है, सांकेतिक शब्दसे जो संकेतरूप एक अर्थ है वह ही उस शब्दसे निरूपणीय (कथनयोग्य) होता है, परन्तु दो अर्थरूप शब्दका तो कथन करनेको वह शब्द असमर्थ ही है । और पुष्पदन्त आदि शब्द भी एक ही उक्तिसे अर्थात् समूहालम्बन ज्ञानसे सूर्य चन्द्रकी व्यक्तिको कहते हैं, परन्तु भिन्न भिन्न अर्थात् पृथक् पृथक् सूर्य तथा चन्द्रादिरूप अर्थ कहनेको असमर्थ हैं अर्थात् पृथक् पृथक् दो अर्थ एक शब्दसे एक ही क्षणमें कहने को अशक्य हैं। और यहां तो उभय अर्थात् पर्यायार्थिक तथा द्रव्यार्थिक दोनों नयोंके प्रतिपाद्य पर्याय तथा द्रव्यरूप अर्थ मुख्यता ( प्रधानता ) से भिन्न भिन्न उक्तिसे उच्चारण करने के योग्य हैं और एक ही कालमें उन दोनों अर्थोके उच्चारण करनेकी योग्यता तो यत्नसे भी नहीं होती, इस कारणसे एक कालमें एक शब्दसे दो नयके अर्थकी विवक्षासे अवाच्य ही है । ४ । ॥११॥ अथ पञ्चम मङ्गोल्लेखं करोति । अथ पश्चम भंगका प्रतिपादन करते हैं । पर्यायार्थिकसंकल्पात्पश्चाद्वयविवक्षितात् । भिन्नमवाच्यं वस्त्वेतत्स्यात्कारपदलाञ्छितम् ॥१२॥ भावार्थः--प्रथम पर्यायार्थिक नयके संकल्प (विवक्षा) करके पश्चात् दोनोंकी विवक्षा होनेसे यह पदार्थ स्यात्कार इस पदसे चिन्हित अर्थात् 'स्यात् भिन्न है और स्यात् अभिन्न है अवाच्य है। तात्पर्य यह कि प्रथम पर्यायार्थिक नयको विवक्षा की और पश्चात् द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक इन दोनों नयोंकी विवक्षा की तब वह वस्तु पर्यायकी अपेक्षासे कथंचित् भिन्न है और उभय नयकी अपेक्षासे कथंचित् अवाच्य है । ५ ॥१२॥ व्याख्या । प्रथम पर्यायार्थकल्पना तत एकदोमयनयार्पणं क्रियते तदा भिन्नमवक्तव्यमिति स्यात्कथंचिद्भिन्नमवक्तव्यमिति पञ्चममङ्गोल्लेखः ॥ १२ ॥ १ यह "यात्" शब्द संभावनार्थक कथंचित् वाचक अव्यय है, जिसके पूर्व लगाया जाता है उस वस्तुको किसी अपेक्षासे कहता है। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४. j श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् तथा पर्यायार्थिक एतत् उभय नयकी विवक्षा की तब " स्यात् भिन्नं स्यात् अवक्तव्यं च" अर्थात् वस्तु कथंचित् भिन्न कथंचित् अवक्तव्य है, यह पञ्चम भंगका वर्णन हुआ ॥ ५ ॥ १२ ॥ अथ षष्ठमङ्गोल्लेखः । अब छठवें भंगका प्रतिपादन करते हैं । द्रव्यार्थेनोभयादानादभिन्नं तदवाच्यकम् । युगपन्नयद्वयादानाद्भिन्नमभिन्नमवाच्यम् ॥ १३॥ भावार्थ:-- प्रथम द्रव्यार्थिक नयकी कल्पना करके उसके साथ पश्चात् उभय नयकी योजना की "तब स्यात् अभिन्नः स्यात् अवक्तयः" अर्थात् कथंचित् अभिन्न और कथंचित् अवक्तव्य इस छठे भंगकी प्रवृत्ति हुई और पुनः क्रमसे उभय नयकी विवक्षा की पश्चात् एक कालमें ही उभय नयकी विवक्षा की तब कथंचित् भिन्न, अभिन्न, अव कव्य इस सप्तम भंगी सिद्धि हुई । १३ ।। व्याख्या । तत्रादौ द्रव्यार्थिकनयकल्पना । तत एकदोमयनयार्पणं क्रियते । तदा कथंचिद्भिन्नमवक्तव्यमिति कथ्यते । इति षष्ठः । पुनरनुक्रमेण प्रथमं द्रव्यार्थिकपर्यायायिकेति नयद्वयकल्पना विधीयते । ततश्चैकदोमयनयार्पणं क्रियते तदा कथंचिद्भिन्नमभिन्नमवक्तव्यमिति मंगः सप्तमः समुत्पद्यत इति ॥ ७ ॥ १३ ॥ व्याख्यार्थः - षष्ठ ६ भंगमें आदि में केवल द्रव्यार्थिक नयकी विवक्षा की और उसके पश्चात् एक कालमें ही पर्यायार्थिक तथा द्रव्यार्थिक इन दोनों नयोंकी विवक्षा की तब कथंचित् अभिन्न तथा अवक्तव्य यह षष्ठ नय सिद्ध हुआ और प्रथम अनुक्रमसे पर्यायार्थिक नकी और उसके पश्चात् द्रव्यार्थिक नयकी विवक्षा की और पुनः एक समय में ही द्रव्यार्थिक तथा पर्यांयार्थिक इस उभय नयकी योजना की तत्र " स्यात् भिन्नम् अभिन्नम् अवक्तव्यं च" अर्थात् कथंचित् भिन्न, कथंचित् अभिन्न और कथंचित् अवक्तव्य इस सप्तम भंगकी उत्पत्ति हुई । ७ । ।। १३ ।। इमां सप्तभङ्ग दृढभ्यासयुक्तः सदा योऽभ्यसेत्तत्त्वदृष्ट्या विचार्य । क्रमाम्भोजसेवामवाप्यार्हतीं स भवेन्मुक्तियोग्योऽचिराद्भव्यजन्मा ॥ १४ ॥ भावार्थ:- इस सप्तभंगी नयका जो मनुष्य दृढ अभ्यासमें तत्पर होकर तत्त्वदृष्टिसे विचार करके सदा अभ्यास करेगा वह भव्य जन्मधारी प्राणी श्रीजिनभगवान् के चरणकमलकी सेवा भक्तिको पाकर शीघ्र मुक्तिके योग्य होगा ॥ १४ ॥ व्याख्या I एवमेका भेदपर्यायेऽभेदपर्याये च सप्तमङ्गीयोजना योजयितव्या । अथ शिष्यः प्रश्नयति 1 यतः भवेत्तत्रैकस्य मुख्यभावेन परस्य गौणभावेन सभङ्गी कृता पुनरित्थमेव सर्वत्र स्वामिन् यत्र नयद्वयविषयस्यैव विचारणा समुत्पद्यताम् परन्तु यत्र प्रदेश प्रस्थका Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा दिविचारेण सप्त ७ षट् ६ पञ्च ५ प्रमुखनयानां भिन्न २ विचारा भवन्ति तत्र त्वधिकभङ्गा एव जायन्ते तदा सप्तमङ्गया नियमः कुत्र स्थिरो भवति । सप्तमङ्गोनियमस्त्वत एव नियामको न दृश्यते । इति पुष्टो गुरुराह । भो शिष्य ! भवदुक्त सत्यं परमार्थतस्तु । एवं यत्त्वया गौणमुख्यव्यवहारो दर्शितस्तत्र त्वेकस्यैव नयार्थस्य मुख्यतया विधिरन्येषां तु सर्वेषामेव निषेधः । एवं विधिनिषेधौ गृहोत्वाऽनेके भङ्गाः क्रियन्ते । अस्माभिस्तु इत्थं ज्ञायते । उक्त च सकलनयार्थप्रतिपादकतापर्यायाधिकरणं वाक्यं प्रमाणवाक्यमिति । एतल्लक्षणत्वात्तादृशे स्थाने स्यात्कारपदलाञ्छितसकलनयार्थसमूहालम्बनमेकस्मिन् भङ्गेऽपि निषिद्ध नास्ति तस्माद्व्यञ्जनपर्यायस्य स्थाने २ भङ्गतार्थसिद्धिः संमतिग्रन्थविषये दर्शितास्ति । तथा च तद्ग्रन्थगाथा । एवं सत्तवियप्पो वयणपहोहोइ अत्थ पज्जाए । वंजणपज्जाए पुण सविअप्पो निम्विअप्पोय । १। अस्यार्थः । एवं पूर्वोक्तप्रकारेण सप्तविकल्पः सप्तप्रकारवचनमेव सप्तमंगीरूपवचनपन्थाः स चार्थपर्यायो योऽस्ति नास्तित्वादिविषय एव भवति । पुनर्व्यञ्जनपर्यायो घटकुम्भादिशब्दवाच्यता तत्र विषये सविकल्पविधिरूपनिर्विकल्पकविधिरूपे द्वे एव भङ्ग स्तः । परन्तु वक्तब्यादिमङ्गो न भवति । यस्मात्कारणादवक्तव्यशब्दविषयं ब्रवतां विरोधोत्पत्तिः । अथवा सविकल्पकशब्दसमभिरूढनयमते भवति । अपि च निर्विकल्पकशब्दवंभूतनयमते स्वित्थं भङ्गद्वयं ज्ञातव्यम् । अर्थनयाः प्रथमे चत्वारस्तु व्यंञ्जनपर्यायमेव नानुजानन्ति तस्मात्कारणात्तेषां नायानामिह प्रवृत्तिर्नास्ति । अत्राधिक्यन्त्वनेकान्तव्यवस्थातो ज्ञातव्यम् । तदेवमेकत्र विषये प्रतिस्वमनेकनयविप्रतिपत्तिस्थले स्यात्कारपदलाञ्छिततावनयार्थप्रकारकसप्तधालम्बनबोधजनक एक एव भङ्ग एष्टव्यो । व्यञ्जनपर्यायस्थले मङ्गद्वयम् । यदि च सर्वत्र सप्तमङ्गीनियम एवाश्वासस्तदा चालनीयन्यायेन तावन्नयार्थनिषेधबोधको द्वितीयोऽपि भङ्गस्तन्मूलकाश्चान्ये तावत्कोटिकाः पञ्चभङ्गाश्च कल्पनीयाः । इत्थमेव निराकाङ्क्षसकलभङ्गप्रतिपत्तिनिर्वाहादिति युक्त पश्यामः । अयं विचारः स्याद्वादपण्डितेन सूक्ष्मबुद्धिमता चेतसि धार्यः । अथ फलितार्थ कथयति । इमां व्यावर्ण्यमानां सप्तमङ्गी . तत्त्वदृष्टया विमृश्यातिप्रीढियुक्तो यो भव्योऽभ्यासीकुर्यात्स आहती जैनों चरणपङ्कजमक्ति प्राप्याचिरात्स्तोककालेन कतिपयमवग्रहणेन मोक्षं गच्छेत् ॥ १४ ॥ इति श्रीभोजविनिर्मितायां द्रव्यानुयोगतर्कणायां चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४॥ व्याख्यार्थः--इस रीतिसे एक वस्तुमें भेद पर्याय तथा अभेद पर्यायमें एक सप्तभङ्गीकी योजना की, और इस ही प्रकार सर्वत्र योजना करनी चाहिये । अब शिष्य गुरुसे प्रश्न करता है कि हे स्वामिन् ! जहांपर केवल दो ही नयोंके विषयका विचार हो 'वहांपर एककी प्रधानतासे और दूसरेकी गौणतासे सप्तभङ्गो उत्पन्न हो, परन्तु जहांपर प्रदेश, प्रस्थ, (अवयव, अवयवी) आदिके विचारसे सप्तम षष्ठ तथा पंचम आदि नयोंके भिन्न भिन्न विचार होते हैं वहां पर तो अधिक ही भङ्ग होंगे, उस समय सप्तभंगी का अर्थात् सात ही भंग हैं यह नियम कहां स्थिर होगा ? और इसी हेतुसे Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ ] श्रीमद्रराजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् सप्तभंगीका नियम नियामक नहीं दीख पड़ता इस प्रकार पूछे हुए श्रीगुरुमहाराज कहते हैं कि हे शिष्य ! परमार्थ से तेरा कहना सत्य है, क्योंकि जो तुमने गौण मुख्य व्यवहारका प्रदर्शन किया है वहां तो एक ही नयके अर्थकी मुख्यतासे विधि है और अन्य सब ही नयका निषेध है और इस प्रकार से विधि और निषेधको मूलभागमें ग्रहण करके पुनः अनेक भंग किये जाते हैं ऐसी हमारी सम्मति है । और ऐसा कहा भी है कि " संपूर्णनयों के अर्थकी प्रतिपादकता अर्थात् जिसके द्वारा संपूर्ण नयोंके अर्थका कथन किया जाय उसके पर्य्यायाधिकरण वाक्यको प्रमाणवाक्य कहते हैं" इस प्रकारके लक्षणसे जहां संपूर्ण पदार्थों का विवेचन होता है वहां स्याद्वादले चिन्हित अर्थात् स्यात् शब्दसे युक्त सम्पूर्ण नयों के अर्थोंके समूहका धारण करना एक भंगमें भी निषिद्ध नहीं हैं इस कारणसे व्यंजन पर्यायके स्थान में तो केवल दो भंगों से अर्थकी सिद्धि होती है ऐसा सम्मतिग्रंथ में दर्शाया है और उस ग्रन्थकी गाथा यह है इस प्रकार सप्तविकल्पसहित वचन ( नय) का मार्ग अथपर्याय में होता है और व्यञ्जनार्याय में तो सविकल्प विधिरूप art fafe farरूप दो ही भंग होते हैं। इसका विशेष विवरण यों है कि इस प्रकार पूर्वोक्त रीति से सप्त विकल्प अर्थात् सप्त (सात) प्रकारके भेदसहित जो वचन है सो ही सप्तभङ्गीरूप वचनका मार्ग है, वह अर्थपर्याय में अर्थात् अस्तित्व नास्तित्व आदिके विषयमें ही होता है और व्यञ्जनपर्याय जो घट कुम्भ आदि शब्दोंकी वाच्यता है वहांपर 'सविकल्प विधिरूप तथा निर्विकल्प विधिरूप दो ही भंग होते हैं, परन्तु अवक्तव्यत्व आदि भंग यहां नहीं होता, क्योंकि अवक्तय शब्दविषयको कहनेवालोंके विरोधको उत्पत्ति होती है अथवा सविकल्प शब्द समभिरूढ' नयके मतमें अवक्तयत्व आदि भंग होता है और निर्विकल्प शब्द एवं भूत नय में, तो इस प्रकार दो ही भंग जानते चाहिये और पहले चार जो अर्थनय हैं वे तो व्यञ्जनपर्यायको ही नहीं जानते हैं, इसलिये उन नयोंकी यहां प्रवृत्ति नहीं है यहांपर विशेष वर्णन अनेकान्त व्यवस्थासे जानना चाहिये । इस कारण पूर्वोक्त प्रकार से एक विषय में प्रतिवस्तु में जहां अनेक नयोंकी विप्रतिपत्ति हो पर स्यात्कार ( स्यात् ) पदसे लांछित उतने नयार्थका प्रकारवाला सात प्रकारका आलम्बनरूप जो बोध उस बोधको उत्पन्न करनेवाला अर्थात सात प्रकारके नयार्थीके प्रकार से विशेषता वा अनुयोगिता सम्बन्धसे अपनेमें रखनेत्राला जो ज्ञान उस ज्ञानका १ भेदसहित अर्थात् पय्र्यारूप भेदयुक्त २ भेवशून्य द्रव्य नयसे सब भेवशून्य है । ३ अनेक प्रकारके अर्थशेष करनेकी और झुकनसे ममभिरूढ नय कहलाता है। जैसे परमेश्वर्ययुक्त होनेसे इन्द्र समर्थ होनेसे शक और शत्रुके नगरका विदीर्ण करनेसे पुरन्दर कहलाते हैं, ऐसे ही उन उन arrant प्राप्त होनेमे द्रव्य विविधरूप संयुक्त होनेमे पर्याय इत्यादि । ४जिम रूप से है उससे बोध करावें वह एवंभून नय है। जैसे ऐश्वर्ययुक्त हो वही इन्द्र, समर्थ होनेसे शक्र ऐसे ही पर्यायों में जावे वह द्रव्य अनेक आकारयुक्त होनेसे पर्याय समझना चाहिये । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [५७ उत्पादक एक ही भंग इष्ट करना चाहिये और व्यञ्जन पर्यायस्थलमें पूर्वोक्त दो ही भंग समझने चाहिये और यदि सर्वत्र ( अर्थ तथा व्यञ्जनपर्याय ) स्थलमें सप्तभंगी नियमपर ही विश्वास है तो उस स्थलमें 'चालनी न्यायसे उतने ही नयार्थों के निषेधका बोधक भी दूसरा भंग और उसीको मूलाधारमें आश्रय करके उसी कोटि के अन्य पाँच भंगोंकी भी कल्पना करनी चाहिये क्योंकि इसी प्रकारसे निराकांक्ष संपूर्ण भंगोंकी प्रतिपत्ति ( बोध ) निर्वाह होता है इसलिये हम इस ही सिद्धान्तको युक्तियुक्त देखते हैं और यह विचार सूक्ष्म बुद्धिके धारक स्याद्वादमतज्ञाता पुरुषको अपने चित्तमें धारण करलेना चाहिये अब इस चतुर्दशवे (१४) सूत्रका फलितार्थ कहते हैं कि--इस वर्ण्यमान सप्तभंगीको तत्त्वदृष्टिसे विचारपूर्वक विवेचन करके अतिप्रौढतायुक्त जो भव्य अभ्यास करेगा वह जिन भगवानके चरणकमलोंकी सेवाको प्राप्त करके अचिर काल अर्थात् थोड़ेसे भवोंको ग्रहण करके मोक्षको प्राप्त होगा ॥ १४ ॥ इति श्रीवैयाकरणाचार्योपाधिधारकपं० ठाकुरप्रसाद द्विवेदिविरचितमाषाटीकासमलङ्कृतायां द्रव्यानुयोगतर्कणायां चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ।। - अथ पञ्चमाध्याये नयप्रमाणयोविवेचनं करोति अब इस पंचम अध्यायमें नय तथा प्रमाणका विचार करते हैं। एकोऽर्थस्तु त्रिरूपः स्यात्सत्प्रमाणावलोकितः । __ मुख्यवृत्त्योपचारेण जानीते नयवादवित् ॥१॥ भावार्थः-एक ही पदार्थ सत्प्रमाणसे दृष्ट होनेपर तीन प्रकारका होजाता है और नयवादका जाननेवाला इस त्रिरूपताको मुख्य तथा उपचार वृत्तिसे जानता है ॥१॥ व्याख्या । एकोऽर्थः घटपटादिर्जीवाजीवादिर्वा त्रिरूपः, रूपत्रयोपेतो ज्ञेयो यथा द्रव्यगुणपर्यायरूपः तथा हि घटादयो हि मृत्तिकादिरूपेण द्रव्याणि, घटगतरूपरसाद्यात्मकत्वेनानेके गणाः, घटादिरूपेण सजातीयद्रव्यत्वेन पर्यायाः । एवं जीवादीनामपि ज्ञेयम् । एकोऽर्थस्विरूपः स च कीदृशः सत्प्रमाणावलोकितः सत्प्रमाणं स्याद्वादस्तेनावलोकितो दृष्टः । यतः प्रमाणेन ससमलयात्मकत्वेन त्रिरूपत्वं मुख्यद्वारा ज्ञेयम । नयवादी ह्यकांशवादी स च मूख्यवृत्त्या तयोपचारेणकस्मिन्नर्थ त्रिरूपत्वं जानाति । यद्यपि नयवादिता एकांशवचनेन शक्तिरूप एकोऽर्थः कथ्यते । तथापि लक्षणारूपोपचारेणानेकेऽप्यर्था ज्ञायन्ते । एकदा वृत्तिद्वयं न भवेत् परं निश्चयो नास्ति । गङ्गायां मत्स्य घोषावित्यादिस्थलेष्विव वृतिद्वयस्यापि मान्यत्वात् । तद्वदि १ चालनीमें जलआदि डालोगे तो वह किसी न किसी ओर से निकल जायगा रुकेगा नहीं ऐसे ही द्रव्याथिक नयसे अभेद सिद्ध करोगे तो पर्यायाथिक निमित्तक भेदका निषेध होगा, भेद मानोगे तो अभेदका निषेध होगा दोनोंको एक कालमें लोगे तो वाक्यताका निषेध होगा इसी प्रकार किसीका निषेध और किसीका विधान होता रहेगा और सप्त भङ्ग बन जायेंगे । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् हापि मुख्यत्वेनामुख्यत्वेन चानन्तधर्मात्मकवस्तुज्ञापनायकस्य नयशब्दस्य वृत्तिद्वयमङ्गीकुवंतां विरोधो नास्ति । अथवा नयात्मकशास्त्रस्य क्रमेण वाक्यद्वयेनाप्यों ज्ञायते । अथवा एकशब्दबोधशब्देनैकबोधार्थः एवमनेके मंगा ज्ञेयाः ॥१॥ ___ व्याख्यार्थः-एक पदार्थ घट पटआदि अथवा जीव अजीवआदि तीन प्रकारका अर्थात् तीन रूपसंयुक्त होता है; प्रत्येक वस्तुको त्रिरूपसहित जानना चाहिये, और त्रिरूपता द्रव्य, गुण और पर्यायसे है जैसे घटआदि वस्तु मृत्तिकारूपसे द्रव्य हैं १ घटादिके रूप रसादिसे विवक्षा करो अर्थात् यह श्याम है, यह रक्त है, यह पीत है इस रीतिसे वे गुणरूप हैं २, और घटआदिरूप सजातीय द्रव्यत्वरूपसे विवक्षा करनेपर वे पर्याय हैं ३ । इस प्रकार घटादिके तीन रूप होगये और ऐसे ही जीवादिकोंको भी जानना चाहिये अर्थात् जीव आत्मरूपसे द्रव्य है १, ज्ञान दर्शनादिकी विवक्षासे गुण है २ और देव मनुष्यादि पर्यायको विवक्षासे पर्यायरूप है ३, अब वह एक पदार्थका त्रिरूप कैसा है कि-सत्प्रमाणसे अवलोकित ( दृष्ट) है अर्थात् समीचीन ( उत्तम ) स्याद्वादरूप प्रमाणसे विचारित होनेसे पदार्थकी त्रिरूपता स्पष्टतासे भासती है, क्योंकि सप्तभंगीरूप जो 'प्रमाण है, उससे वस्तुकी त्रिरूपता मुख्यवृत्तिसे जानी जाती है, और नयवादी अर्थात् एकअंशवादी' जो है वह मुख्यवृत्ति तथा उपचारसे भी एक पदार्थमें त्रिरूपताको जानता है । यद्यपि नयवादी एक अंशको कहनेवाले वचनसे शक्तिरूप' एक ही अर्थको कहता है, तथापि नपचारसे अर्थात् लक्षणाशक्तिसे अनेक अर्थोंको भी वह जानलेता है । यद्यपि एक कालमें ही दो वृत्ति अर्थात् अभिधा और लक्षणाशक्ति नहीं होसकती, परन्तु यह सिद्धान्त निश्चित नहीं है क्योंकि “गङ्गायां मत्स्यघोषौ” गंगामें मत्स्य तथा अहीरोंका ग्राम है, इत्यादि स्थलके तुल्य अन्यत्र भी एक कालमें ही दो शक्ति (अभिधा तथा लक्षणा) मान्य हैं । उसी प्रकारसे यहां भी मुख्यता तथा गौणतासे अनन्त धर्मस्वरूप वस्तुको जनानेके १ संपूर्णरूपसे पदार्थके स्वरूपको जो सिद्ध करे वह सम्यग्ज्ञानरूप सप्तमंगी नय यहां प्रमाण पदसे विवक्षित है क्योंकि "सकलादेशः प्रमाणाधीनः" संपूर्ण आदेश प्रमाणके आधीन हैं। २ वस्तुके स्वरूपके किसी अंशके प्रतिपादनको नय कहते हैं क्योंकि "विकलादेशो नयाधीनः" खंड, आदेश नयके, आधीन होता है। ३ जो अर्थको मुख्यवृत्तिसे प्रकाश करें वह अमिधा, लक्षणा तथा व्यंजना ये तीन प्रकारको शब्दमें शक्ति है और वाच्य, लक्ष्य, तथा व्यङ्गय, ये अर्थ भी तीन ही प्रकारके हैं, इसके अनुरोधसे शब्द मी वाचक लक्षक और व्यंजक इन भेदोंसे तीन प्रकारके हैं। ४ तात्पर्यकी अनुपपत्तिसे लक्षणाशक्तिसे वाक्यार्थ होता है " गङ्गायां घोषः" गजा नाम अभिधा शक्तिसे प्रवाहका है उसमें ग्राम नहीं रहसकता है, इसलिये गंगापदकी गगातटमें लक्षणा की, तब गंगा शब्द लक्षणाशक्तिसे गंगातटका बोधक हुआ तब अन्वय बनगया क्योंकि गंगातटमें अहीरोंका ग्राम रह सकता है। ऐसे ही लक्षणासे एक नय अन्यार्थका भी बोध करावेगा तो पदार्थकी विरूपताका बोधक हो जायगा। ५ यहां मत्स्यकेलिये तो गंगामें वाचकताशक्ति और घोषकेलिये लक्षणा है। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा लिये एक ही नयशब्दकी दो वृत्ति स्वीकार करनेवालोंको कोई विरोध नहीं है । अथवा नयप्रतिपादक शास्त्रके क्रमसे दो वाक्योंसे भी अर्थ जान सकते हैं। अथवा एकार्थबोधक एक शब्दसे एक अर्थका बोध होता है और अन्य अर्थका अन्य शब्दसे, इस रोतिसे अनेक भंग भी समझलेने चाहियें ॥ १ ॥ अथोक्तमेवार्थं शब्दत्वेन ज्ञापयन्नाह । अब पूर्वोक्त विषयको ही सूत्रद्वारा प्रकाशित करते हैं। द्रव्याथिकनयो मुख्यवृत्त्याभेदं वदंत्रिषु । अन्योन्यमुपचारेण तेषु भेदं दिशत्यलम् ॥ २ ॥ भावार्थः-द्रव्यार्थिकनय मुख्यवृत्ति अर्थात् वाचकता शक्तिसे द्रव्य, गुण, पर्याय तीनोंमें मृत्तिकारूपसे अभेद प्रकाश करता हुआ लक्षणाशक्तिसे उन तीनोंमें परस्पर भेद भी पूर्णरूपसे दर्शाता है !!२! व्या०--द्रव्याथिकनयो मुख्यवृत्त्या मुख्या प्रधाना शब्दार्थकथनपरा वृत्तिापारो यस्य स तस्य मावस्तत्ता तया शब्दार्थादेशकत्वेन त्रिषु द्रव्य गुणपर्यायेष्वभेदं भेदामावं वदन् कययन मन् यतो गुणपर्यायाभ्यां भिन्नस्य मृद्रव्यस्य विषये घटादिपदस्य सक्तिरस्तीत्येतेषामन्योन्यमभेदं प्रकटयन्पुनः स एव द्रव्याथिकनयस्तेषु द्रव्यगुणपर्यायेषु चान्योन्यं परस्परमुपचारेण लक्षणया भेदं भेदत्वमलमत्यर्थं दिशति । यतो द्रव्यं भिन्न कम्बुग्रीवादिपर्यायेषु च तस्य घटादिपदस्य लक्षणावगम्यते । किं च मुख्यार्थबाधे तथैव मुख्यार्थसंबन्धे च सति तथाविधव्यवहारप्रयोजनेऽनुमृत्य तत्र लक्षणा प्रवर्ततेऽदुर्घटत्वात् । उक्त च-मुख्यार्थबाधे तद्योगे रूढितोऽर्थप्रयोजनात् । अन्योऽर्थो लक्ष्यते यत्सा लक्षणारोपितक्रिया । १। इति ॥२॥ व्याख्यार्थः-द्रव्यार्थिक नय मुख्यवृत्तिसे अर्थात् शब्दार्थके कथनमें तत्पर व्यापार वाली अभिधाशक्तिसे शब्दके अर्थोका प्रकाश करनेसे द्रव्य, गुण तथा पर्याय इन तीनों में अभेद ( भेदभाव )को कहता हुआ अर्थात् गुण और पर्यायसे भिन्न मृत्तिका रूप द्रव्य के कथनमें घटादि पदकी शक्ति है इस रीतिसे इन तीनोंमें परस्पर अभेद प्रकाश करता हुआ पुनः वही द्रव्यार्थिक नय उन ही द्रव्य, गुण तथा पर्यायोंमें उपचार ( लक्षणाशक्ति )से भेदको भी पूर्ण रीतिसे प्रकट करता है, क्योंकि द्रव्य भिन्न है और कम्बुग्रीवत्वआदि पर्यायोंमें उस घटआदि पदकी लक्षणाशक्ति निश्चित होती है । और मुख्य अर्थके बधमें तथा मुख्य अर्थके संबन्ध रहते उसी प्रकारके व्यवहार तथा प्रयोजनका अनुसरण करके लक्षणाशक्ति प्रवृत्त होती है अन्यथा लक्षणाशक्तिको प्रवृत्ति दुर्घट है । और ऐसा कहा भी है-मुख्यार्थके बाध होनेपर उस मुख्य अर्थसे संबन्ध रखनेवाले तथामें ही रूढिसे अर्थ 'प्रयोजनसे १ प्रयोजनवश लक्षणाके अनेक भेद हैं परन्तु मुख्यतः एक प्रयोजनवती और दूपरी निढा लक्षणा है। प्रथम में गंगाशब्दका गंगातट रूप अर्थ करनेसे यह प्रयोजन है कि--अहीरोंका ग्राम अतिपवित्र तथा औत्यादि धर्मयुक्त है। दूसरी निरूढ़ा लक्षणा कुशल आदि शब्दोंमें ममझनी चाहिये अर्थात् कुशलका अर्थ कुशलानेवाला है परन्तु रूढिसे वह चतुरके अर्थ में वर्तता है यही निरूढा लक्षणा है । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् जहां अन्य अर्थ लक्षित हो उस आरोपित क्रियाको लेके प्रवृत्त होनेवाली शक्तिको लक्षणाशक्ति कहते हैं जैसे कहा भी है कि -- "मुख्यार्थबाधे तद्योगे रुढितोऽर्थप्रयोजनात् ॥ अन्योर्थो लक्ष्यते यत्सा लक्षणारोपितक्रिया ॥१॥ भावार्थ:-- मुख्य अर्थका बाध होनेपर तथा उसका योग होनेपर अर्थ प्रयोजनसे जिससे रूढ़ीसे भिन्न अर्थ लक्षित हो वह लक्षणा होती है ॥ १ ॥ जैसे “गङ्गायां घोषः" यहाँ गंगाका मुख्य अर्थ प्रवाह परन्तु उस मुख्य अर्थ में घोष ( अहीरोंके ग्राम ) की अधिकरणता ( आधारता ) का बाध है इसलिये गंगासे संबन्ध रखनेवाले अन्य अर्थ गंगातट में गंगाशब्दको लक्षणा हुई तब " गंङ्गायाम् ” इस पदका अर्थ “गंगातटे" ( गंगाजीके तटपर ) "घोषः " ग्राम है यह अन्वय बनगया ऐसे ही यहां भी समझलेना ॥ २॥ अथोक्तमेव दृढयन्नाह अब पूर्वोक्त अर्थको ही दृढ करते हुए कहते हैं । पर्यायार्थिक एवापि मुख्यवृत्त्यात्र भेदताम् । उपचारानुभूतिभ्यां मनुतेऽभेदतां त्रिषु ॥ ३ ॥ भावार्थ:-- और पर्यायार्थिक नय भी यहां मुख्यवृत्तिसे तो भेद भाव ही मानता है, परन्तु उपचार तथा अनुभवसे तीनोंमें अभेद मानता है || ३ || व्याख्या । पर्यायार्थिकनय एवापि एवमेव प्रकारेणोक्तलक्षणेन मुख्यवृत्त्या प्रधानव्यापारेणात्र द्रव्यगुणपर्यायेषु भेदतां भेदभावं ज्ञापयति । यत एतस्य नयस्य मते मृदादिपदस्य द्रव्यमित्यर्थः । १ । रूपादिपदस्य गुण इत्यर्थः । २ । घटादिपदस्य कम्बुग्रीवपृथुवुघ्नादिपर्याय इत्यर्थः । ३ । इत्थं त्रयाणामपि मिथो नामान्तरकल्पना भिन्ना भिन्ना प्रदर्शिता । अतो द्रव्यगुणपर्यायाणां प्राधान्येन भेदोऽस्तीति ध्येयम् । तथा पुनरुपचारानुभूतिभ्यामुपचारो लक्षणा, अनुभूतिरनुभवः, उपचारश्वानुभूतिश्च ताभ्यां पर्यायार्थिकनयोऽप्यभेदतामभेदभावं द्रव्यादिषु त्रिषु मनुते । यतो घटादि मृद्द्रव्याद्यभिन्नमेवास्ति लक्षणया ज्ञानेन चेति । इमां प्रतीति घटादिपदानां मृदादिद्रव्येषु लक्षणाप्रवृत्त्याङ्गीकुर्वतां न कदापि क्षतिरिति भावार्थः ।। ३ ।। व्याख्यार्थः - पर्यायार्थिक नय भी इस ही पूर्वोक्त प्रकारसे अर्थात् मुख्यवृत्ति ( प्रधान व्यापार ) से इन द्रव्यादि तीनोंमें अर्थात् द्रव्य गुण पर्यायोंमें भेदभाव ही ज्ञापित करता है । क्योंकि इस नयके मतसे मृत् ( मृत्तिका ) आदि पदका द्रव्य यह अर्थ है । १ । श्याम रक्त तथा पीतादि पदोंका गुण यह अर्थ है । २ । और घटआदि पदका कंबुग्रीव ( शंखके तुल्य गलेसहित ) तथा विशाल उदर सहितआदि पर्याय अर्थ है । ३ । इस प्रकार द्रव्य, गुण और पर्याय तीनोंकी नामान्तरकल्पना परस्पर भिन्न भिन्न प्रदर्शित की गई है, इससे यह सिद्ध हुआ कि --पर्यायार्थिक नयके अनुसार द्रव्य, गुण, पर्याय प्रधानतासे भिन्न भिन्न हैं ऐसा निश्चय करना चाहिये । और पुनः उपचार तथा अनुभव से पर्यायार्थिक Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतकणा [६१ नय भी द्रव्यादि तीनों पदार्थोंमें अभेद अर्थात् भेदाभाव ही मानता है। क्योंकि मृत्तिका के बिना घट अनुपपन्न है, इसलिये लक्षणा तथा ज्ञानसे घटआदि पदार्थ मृत्तिकारूप द्रव्यसे अभिन्न ही हैं। घटआदि पदोंकी मृत्तिकाआदि द्रव्योंमें इस प्रतीतिको लक्षणा प्रवृत्तिसे माननेवालोंके कोई भी दोष नहीं है, यह सूत्रका तात्पर्य है ॥३॥ अथ पुनर्भेदमेव दर्शयन्नाह । अब पुनः भेदको ही दर्शाते हुए कहते हैं ! गृह्णाति यो नयो धर्मी मुख्यामुख्यतया तथा । तस्यानुसारतस्तेषां वृत्त्योपचारकल्पनम् ॥४॥ भावार्थ:-जो नय मुख्यता तथा गौणतासे भेद अभेदरूप धर्मोंको ग्रहण करता है वहां उसीके अनुसार द्रव्य, गुण, पर्यायोंकी वृत्तिसे उस उपचारकल्पनाका विधान होता है ।। ४॥ व्याख्या । यो हि नयो द्रव्याथिकोऽथवा पर्यायाथिकः धमौं भेदाभेदात्मको प्राधान्यगौणतया गृह्णाति ऊहास्यप्रमाणेन धारयति । तस्य नयस्य द्रव्याथिकस्य वा पर्यायाथिकस्य मुख्यतया साक्षात्सङ्केतेन तथा वा व्यवहितसङ्केतेन चानुसृत्य तेषां द्रव्यगुणपर्यायाणां वृत्त्या तदुपचारकल्पनं विधीयते । यथा गङ्गापदस्य साक्षात्सङ्केत: प्रवाहरूपार्थविषयेऽस्ति तस्मात्प्रवाहेण शक्तिः । तथा "गङ्गातीरे घोषः" गङ्गासङ्कतव्यवहितसङ्कतोऽस्ति । ततश्च यथोपचारस्तथा द्रव्याथिकनयस्य साक्षात्सङ्कतोऽभेदे नास्ति । तत्र शक्तिभेदेन व्यवहितसङ्कतोऽस्ति ततश्चोपचरितत्वं तु पर्यायाथिकनयस्यापि शक्त्योपचार भेदाभेदनयविषयेऽपि योजनीयम ॥४॥ व्याख्यार्थः-जो नय द्रव्यार्थिक हो अथवा पर्यायार्थिक हो भेद तथा अभेद स्वरूप धर्मको प्रधानता अथवा गौणतासे ग्रहण करता है अर्थात् जहां ऊहा नामक ( कल्पना स्वरूप) प्रमाणसे धारण करता है वहांपर उसी द्रव्यार्थिक वा पर्यायार्थिक नयकी मुख्यता अर्थात् साक्षात्संकेत तथा गौणता अर्थात् व्यवहितसंकेतके अनुसार द्रव्य, गुण पर्यायोंकी वृत्ति (शक्ति)से उपचार कल्पनाका विधान होता है ।तात्पर्य यह कि द्रव्यार्थिकनय प्रधानता ( साक्षात् सङ्कत )से अभेदको प्रतिपादन करता है परन्तु वह गौणता ( व्यवहित संकेत )से भेदको भी कहेगा, ऐसे पर्यायार्थिक नय प्रधानता ( साक्षात्संकेत )से भेदको और गौणता ( व्यवहित संकेत )से अभेदरूप धर्मको कहता है । जैसे गंगापदका प्रधानतासे साक्षात्संकेत प्रवाह ( जलकी धारा )रूप अर्थमें है, इसलिये मुख्यतासे तो प्रवाहरूपसे ही शक्ति है तथा गंगातीरमें घोष है यहां तीररूप अर्थमें गंगासंकेतसे व्यवहित संकेत है, इसलिये गंगापदसे गंगातीर साक्षातरूप अर्थ उपचारसे हुआ । अब ऐसे ही द्रव्यार्थिक नयका संकेत तो अभेदरूप अर्थमें है, और उस नयकी Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् भिन्न शक्ति ( लक्षणा शक्ति )से व्यवहित संकेत अर्थात् भेदरूप अर्थमें वृत्ति है, इस लिये भेदरूप अर्थ प्रतिपादनके अर्थ द्रव्यार्थिकनयकी उपचारसे प्रवृत्ति हुई । ऐसे ही पर्यायार्थिक नयकी भी मुख्य शक्ति तथा उपचार शक्तिको ग्रहण करके भेदाभेद नय विषयमें योजना करलेनी चाहिये, अर्थात् पर्यायार्थिक नय मुख्यवृत्ति अर्थात् वाचकता शक्तिसे भेदरूप अर्थको कहता है और उपचार अर्थात् लक्षणा शक्तिसे अभेदरूप अर्थको भी कहता है ॥ ४॥ कश्चित्कथयति एको नय एकमेव विषयं गृह्णाति तद्रूषयति । कोई प्रतिवादी कहता है कि एक नय एक ही विषय ( भेद अथवा अभेदमें किसी एक अर्थ )को ग्रहण करता है । उस सिद्धान्तको अग्रिम श्लोकसे दूषित करते हैं । यो भिन्नविषयो ज्ञाने सर्वथा नेति चेन्नयः ।। तदा स्वतन्त्रभावेन स स्यान्मिथ्यात्विगोचरः ॥ ५ ॥ भावार्थः-जो नय है वह ज्ञानमें निजसे भिन्न नयके विषयको गौणतासे भी सर्वथा नहीं कह सकता ऐसा यदि मानो तो वह नय स्वतन्त्रतासे मिथ्यात्त्वियोंके गोचर होगा ॥५॥ व्याख्या । यो नयः ज्ञाने ज्ञानविषये भिन्नविषयो नयान्तरस्य मुख्यार्थः सर्वथा अमुख्यत्वेनापि न भासते । तदा स नयः स्वतन्त्रमावेन सर्वथा नयान्तरविमुखत्वेन मिथ्यात्विगोचरो मिथ्यादृष्टिमिविवेचनीयः कुदृष्टिपरिगृहीतः स्यात् । एतावता दुर्नय एव भवति । परन्तु सुनयो न भवति । एवं ज्ञेयम । अनुभवेन विचार्यमाण: कश्चिन्नयः भिन्नविषयत्वान्नयान्तरमुख्यार्थत्वासर्वथा अमुख्यत्वादपि न भासते । तदा स्वतन्त्रत्वेन ( नयान्तरविमुखत्वेन ) च मिथ्यात्विनां पार्वे स नयो निरन्तरं तिष्ठतीति भावः ॥ ५ ॥ व्याख्यार्थः-'जो नय है वह ज्ञानमें भिन्न विषय अर्थात् अपनेसे भिन्न दूसरे नयके मुख्य अर्थको सर्वथा गौणतासे भी नहीं भासित करता है ऐसा मानोगे तो वह नय स्वतन्त्रतासे सर्वथा अर्थात् अन्य नयोंसे विमुख होनेसे मिथ्यादृष्टियोंद्वारा विवेचन करने योग्य होवे । अर्थात् मिथ्यादृष्टियोंसे ग्रहण किया हुआ होवे भावार्थ-दुर्भय ही होवे और सुनय नहीं, ऐसा समझना चाहिये। भावार्थ यह है कि-अनुभवसे विचाराहुआ कोई नय भिन्न विषयको अर्थात् अन्य नयके मुख्य अर्थको गौणतासे भी सर्वथा नहीं कहता है तो वह नय स्व १ अनेकान्तवादमें वस्तुका स्वरूप ही अनेकान्त है तब नयस्वरूप अनेकार्थक क्यों न होगा क्योंकि प्रमाण और नयसे हो तो वस्तुकी विवेचना होती है यदि वह नय भेद अभेदादि अनेकार्थप्रतिपादक उपचारसे. भी न रहा किन्तु किसी एक ही अर्थका प्रतिपादक रहा तब वह नय कुदृष्टियोंका अर्थात् जनमतसे भिन्न मतानुयायी जनोंका ही विषय रहा; और कुद्रष्टियोसे गृहीत होनेके कारण वह दुष्ट नय होगया न कि सुनय अर्थात् स्याद्वादके अनुकूल वह उत्तम नय नहीं होसकता । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [६३ तंत्रभावसे अर्थात् अन्य नयसे विमुख होनेसे मिथ्यादृष्टियोंके ही निकट निरन्तर रहता है न कि स्याद्वादियोंके निकट ॥ ५ ॥ विशेषावश्यकेऽप्युक्तः संमतावर्थ एष च । भेदाभेदोपचाराद्याः संभवन्ति नयादिह ॥ ६ ॥ भावार्थ:-भेद, अभेदआदिके उपचारआदि स्याद्वादमें नयसे ही होते हैं; यही अर्थ अर्थात् यही अभिप्राय विशेषावश्यक तथा संमतिग्रन्थमें कहा है ॥ ६ ॥ व्याख्या । अयमों विशेषावश्यके तथा संमतिग्रन्थमध्य उक्तोऽस्ति । तथा च तद्गाथा"दोहिं विणये हिं णीय सत्थ मूलण्ण तहवि मिच्छत्तं । जस्स विसय प्पहाणं तणेणं अणुण्णनिरवेक्खं ।१।" "स्वार्थग्राही इतरांशाप्रतिक्षेपी सुनय” इति सुनयलक्षणम । " स्वार्थग्राही इतरांशप्रतिक्षेपी दुर्नय” इति दुर्नयलक्षणम् । एवं नयान्नयविचाराच्च भेदाभेदग्राह्यव्यवहारः संभवति । तथा नयसङ्कतविशेषाग्द्राहकवृत्तिविशेषरूप उपचारोऽपि संभवेत् । तस्माद्भेदाभेदयोमुख्यत्वेन प्रत्येकनयविषयो मुख्यामुख्यत्वेनोभयनयविषयरूप उपचारश्च मुख्यवृत्तिवनयपरिकरो भवेत् परन्तु नयविषयो न भवति । अयं च सरल: पन्थाः श्वेताम्बरप्रमाणशास्त्रसिद्धो ज्ञेयः । नीयते येन श्रु ताख्यप्रमाणविषयीकृतस्यार्थस्यांशस्तदितरांशीदासीन्यताः स प्रतिपत्त रमिप्रायेण विशेषो नय इति । अत्रकवचनमतन्यं तेनांशावंशा वा येन परामर्शविशेषेण धतप्रमाणप्रतिपन्नवस्तुनो विषयीक्रियते तदितरांशीदासीन्यापेक्षया स नयोऽभिधीयते । तदितरांशप्रतिक्षेपे तु तामासता मणिष्यते । प्रत्यपादयाम च स्तुतिद्वाविंशतिके "अहो चियं चित्रं तव चरितमेतन्मुनिपत, स्वकीयानामेषां विषमविषयव्याप्तिवशिनाम । विपक्षापेक्षाणां कथयसि नयानां सुनयतां, वि पुनरिह विमो दुष्टनयताम् । १।" पञ्चाशतिके च-"निश्शेषांशजुषां प्रमाणविषयीभूयं समासेदुषां, वस्तूनां नियतांशकल्पनपराः सप्तश्र ता: मङ्गिन: । औदासीन्यपरायणास्तदपरेचां भवेयुर्नया, श्वे देकांशकलङ्कपङ्ककलुषास्ते स्युः सदा दुर्नयाः । १ ।" इति ॥ ६ ॥ व्याख्यार्थ:-यह अभिप्राय विशेषावश्यकनामक ग्रन्थ और सम्मति ग्रन्थमें कहा है और उस ग्रन्थकी गाथाका अभिप्राय यह है कि “यद्यपि द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक इन दोनों मूल नयोंसे शास्त्र जानाजाता है तथापि जो नय अपना ही विषय प्रधान रखता है और परस्परकी अपेक्षा नहीं रखता अर्थात् दूसरे नयके मुख्य अर्थको गौणतासे भी नहीं कहता उसको मिथ्यात्व (दुर्नय) जानना चाहिये । १ । तथा स्वार्थका ग्राही हो और अन्य अर्थका निषेधक न हो वह सुनय है अर्थात् निज प्रधानशक्ति जो अपने अर्थको कहे उसको तो ग्रहण करे और अन्य नयके अर्थका तिरस्कार न करे किन्तु उपचारसे उस दूसरे नयके अर्थका भी कथन करे वह सुनय है । यही सुनयका लक्षण है। और जो केवल स्वार्थमात्रका ग्राही हो और अन्य अर्थका निषेधक हो वह दुर्नय है। यह दुनयका लक्षण है । इस प्रकार नय अर्थात् नयके विचारसे द्रव्य, गुण, पर्यायोंमें भेद तथा अभेदको ग्रहण Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् करने योग्य व्यवहारका संभव है। और नयके संकेत विशेषसे ग्राहक जो शक्तिविशेष है उसरूप उपचारका भी संभव है । इसलिये भेद तथा अभेदमें मुख्यतयासे प्रत्येक नयका विषय है अर्थात् एक अर्थकी प्रतिपादता प्रत्येक नयमें है । और मुख्य तथा अमुख्यता( गौणता )से द्रव्यार्थिक तथा पर्यायार्थिक इन दोनों नयोंके विषयरूप जो उपचार है वह मुख्य वृत्तिके सदृश नयका परिकर होता है परन्तु नयका विषय नहीं होता यह सरल मार्ग श्वेताम्बर मतके प्रमाण ( न्याय ) शास्त्रसे सिद्ध है ऐसा जानना चाहिये क्योंकि श्रुतनामक प्रमाणसे विषयमें कियेहुए पदार्थका अंश जिसके कहे हुए अन्य अंशकी उदासीनतासे प्राप्त किया जाय वह प्रतिपत्ता ( बोद्धा )का जो अभिप्राय विशेष है सो नय कहलाता है। 'श्रुताख्यप्रमाणविषयीकृतस्यार्थस्यांशः' यहां पर “अंशः” यह जो एक वचन दिया गया है वह स्वाधीन नहीं है इस कारण 'अंशौ अंशाः वा' इस प्रकार द्विवचन तथा बहुवचन भी लगा लेना चाहिये । जिस परामर्श (ज्ञान) विशेषसे श्रुत प्रमाणद्वारा ग्रहण किएहुए पदार्थका एक अंश दो अंश अथवा बहुतसे अंश विषयगोचर किये जावें और उससे भिन्न अंश वा अंशोंको उदासीनतासे विषयी किये जाय वह नय कहा जाता है । और जो वस्तुके विवक्षित अंशसे भिन्न अंश वा अंशोंका प्रतिक्षेप अर्थात् निषेध करे उसको आगे नयाभास कहेंगे। और स्तुति द्वात्रिंशतिकामें प्रतिपादित भी किया है कि-हे मुनीन्द्र ! हे विभो श्रीजिनेन्द्र ! आपका यह चरित अत्यन्त विस्मयको उत्पन्न करता है वह चरित क्या है कि आप अपने इन विषम विषयव्याप्तिके वशीभूत हुए जो नय विपक्षकी अर्थात् अपने स्वीकृत अर्थसे विमुख अन्यनयोंसे विवक्षित अर्थकी अपेक्षा रखते हैं अर्थात् गौणतासे उनका भी कथन करते हैं उन नयोंके सुनयता कहते हो और जो अन्य नयद्वारा स्वीकृत अर्थ है उसको निषेध करनेवाले जो नय हैं उनको दुष्ट नय (दुर्नय) कहतेहो ॥ १ ॥ और पश्चाशतिक नामक ग्रन्थमें भी प्रतिपादित किया है कि-संपूर्ण अंशोंको अर्थात् अनन्त धर्मोको धारण करनेवाले और प्रमाणकी विषयीभूतताको प्राप्तहुए पदार्थों के नियत अंश ( धर्म ) कल्पना करने में तत्पर सात सङ्गी हैं उनमें जो अपने कल्पित अंशसे भिन्न अंशमें उदासीनताको धारण करते हैं वे नय होते हैं और जो एक अपने ही अंशकी कल्पनारूप कलङ्क पङ्क ( दोषमय कर्दम )से मलीन हों अर्थात् एक ही अपने कल्पित अर्थ को तो स्वीकार करें और अन्य अंशोंका निषेध करें तो वे सातों सदा दुर्नय होते हैं ॥२॥६॥ पुनर्भावं कथयन्नाह । पुनः नयके भावको कहते हुए यह सूत्र कहते हैं । ये मार्ग सरलं त्यक्त्वोपनयान्कल्पयन्ति वै । तत्प्रपञ्च विबोधाय तेषां जल्पः प्रतायते ॥७॥ भावार्थ:-जो इस सरल श्वेताम्बरमतानुसारी नयमार्गको त्यागकर उपनयों Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा की कल्पना करते हैं; उनका प्रपश्च केवल शिष्योंकी बुद्धिको विवादिनी करनेवाला है। तथापि ज्ञानके अर्थ उन उपनयोंके कथनका विस्तार करते हैं ॥ ७ ॥ ___ व्याख्या । ये च केचन कल्पकाः सरलं सममेतदुक्तलक्षणं मागं नयनिगमपन्थानं त्यक्त्वा विमुच्य उपचारादि ग्रहीतुमिच्छयोपनयानयानां समीप उपनयास्तान् कल्पयन्ति । दिगम्बरशास्त्र हि द्रव्याथिकः १ पर्यायाथिकः २ नैगमः ३ सङ्गहः व्यवहारः ५ ऋजुमूत्रम् ६ शब्दः ७ समाभिरूढः ८ एवंभूतः । इति नव नया: स्मृता उपनयाश्च कथ्यन्ते नयानां समीपमुपनयाः सद्भूतव्यवहारः १ असद्भूतव्यवहारः २ उपचरितसद्भूतव्यवहार-३ श्चेत्युपनयास्त्रोधा इति । तत्प्रपचं तद्विस्तार शिष्यवृद्विद्वन्द्वनमात्र मेवास्ति । तथापि विबोधाय समानतन्त्रत्वेन परिज्ञानाय तेषां नयानां जल्प उल्लापः प्रतायते स्वप्रक्रियया उच्यत इत्यर्थः ॥ ७ ॥ व्याख्यार्थः-जो कोई कल्पक ( कल्पना करनेवाले ) इस पूर्वोक्त सरल नयनिगममार्गको त्यागकर उपचारआदिक ग्रहण करनेकी अभिलाषासे उपनयोंकी अर्थात् नयोंके समीप होनेवाले जो उपनय हैं; उनकी कल्पना करते हैं; भावार्थ-दिगम्बरोंके न्यायशास्त्रोंमें द्रव्यार्थिक १ पर्यायार्थिक २ नैगम ३ संग्रह ४ व्यवहार ५ ऋजुपूत्र ६ शब्द ७ समभिरूढ ८ और एवंभूत ९ ये नौ (९)नय मानेगये हैं; और सद्भूतव्यवहार १ असद्भूत असद्भूतव्यवहार २ तथा उपचरितसद्भूतव्यवहार ये तीन (३) प्रकारके उपनय ( उपनयका अर्थ है; नयके समीप रहनेवाले क्योंकि-उप अव्ययका समीप अर्थ है । इसलिये उपका नय शब्दके साथ अव्ययीभाव समास है ) कहेगये हैं । उनका विस्तार केवल शिष्योंको बुद्धिको विवादशोल करनेवाला है । तथापि दिगम्बरशास्त्र हमारे समान ही है इसलिये उसके ज्ञानकेलिये उन नयोंका जल्प (कथन) करते हैं; अर्थात् इन नय तथा उपनयोंका निरूपण हम हमारो प्रक्रियाके अनुसार करते हैं; इस प्रकार श्लोकका अर्थ है ॥ ७॥ नया न्यायानुसारेण नव चोपनयास्त्रयः । निश्चयव्यवहारौ हि तदध्यात्ममतानुगौ ॥ ८॥ भावार्थः-न्यायके अनुसार नय (९) हैं; और उपनय तीन हैं, तथा एक अध्यात्मनामक मत है; उसके अनुसार निश्चय और व्यवहार ये दो ही नय हैं ॥ ८॥ ध्याख्या। न्यायानुमारेण तन्मतीयग्रन्थगताभिप्रायेण नया नव सन्ति पूर्वोक्ता ज्ञेयाः । तथोपनयास्रूय एव मन्ति । तेप्युग्नयाः सद्भूतव्यवहारादपस्त्रय इति । तथा चाध्यात्ममपि मतभेदः कशिस्ति । तत्र च तदध्यात्ममतानुगौ तच्छलीपरिशीलिनो नयो निश्चयेन द्वावेव कथिती तौको निश्चयोऽपरो व्यवहारनयश्चेति द्वावेव नाधिको। अभेदानुपचारतया वस्तु निश्चीयत इति निश्चयः । यथा "जीवः शिवः शिवो जीवो नान्तरं शिवजीवयो" रिति । भेदोपचारतया वस्तू व्यवहियत इति व्यवहारः । यथा "कर्मबद्धो भवेजीवः कर्ममुक्तस्तदा शिव" इति ॥८॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् व्याख्यार्थः-न्यायके अनुसार अर्थात् दिगम्बरमतके ग्रन्थोंमें प्राप्त अभिप्रायसे नव संख्याक (गिन तिमें नौ) (९) नय हैं । इनके नाम पूर्वश्लोकमें गिना चुके हैं; वहांसे जानने चाहिये । तथा उपनय तीन ही हैं, वे उपनय भी पूर्वकथित सद्भूतव्यवहारादि तीन समझने चाहिये । और अध्यात्मनामक कोई मतभेद है। उनमेंसे उस अध्यात्ममतकी शैलीके अनुसार निश्चयसे दो ही नय कहेगये हैं; उनमें एक तो निश्चयनय और दूसरा व्यवहारनय है । इनसे अधिक नहीं; अभेद तथा अनुपचारसे जिसके द्वारा वस्तु निश्चय करी जाती है; वह निश्चयनय है । जैसे--"जीवः शिवः शिवो जीवो नान्तरं शिवजीवयोः । १ ॥” “जीव शिव (सिद्ध)रूप ही है; शिव जीवरूप ही है; शिव और जीव इन दोनोंमें कोई भेद नहीं है;" इस वचनमें अनुपचारसे जीव और शिवका अभेद दर्शाया गया है । और भेद तथा उपचारसे जिसकेद्वारा वस्तुका व्यवहार हो उसको व्यवहार नय कहते हैं । जैसे-कमबद्धो भवेज्जीवः कर्ममुक्तस्तदा शिवः । १।" “कर्मोंसे जो बंधा हुआ होता है; वह जीव है; और जब वह जीव कर्मोसे मुक्त होता है; तव शिवरूप है;" इस वाक्यमें कर्मबन्धनद्वारा जीव और शिवका भेद दर्शाया है ॥ ८॥ अथ नवसु नयेषु प्रथमो द्रव्यार्थिकनय उत्तोऽतस्तस्य भेदा दश तेषु प्रथमभेदं विवरिषुराह । अब पूर्वोक्त जो नौ (९) नय हैं; उनमें द्रव्यार्थिक नय सबसे प्रथम कहागया है; इसलिये उसके १० भेदोंमें से प्रथम भेदका विवरण करनेकी इच्छावाले आचार्य अग्रिम श्लोक कहते हैं। द्रव्याथिकनयस्त्वाद्यो दशधा समुदाहृतः । शुद्धद्रव्याथिकस्तत्र ह्यकर्मोपाधितो भवेत् ॥ ६ ॥ __ भावार्थ--नयोंमेंसे प्रथम द्रव्यार्थिकनय जो है; वह दस प्रकारका कहागया है, उन दसों भेदोंमें कर्मकृत उपाधियोंसे रहित शुद्ध द्रव्यार्थिकनय प्रथम (पहला) है ॥९॥ व्याख्या । द्रव्यार्थिकपर्यायाधिकादिक्रमेण नया नव वर्तन्ते तेषु आद्यः प्रथमो द्रब्याथिकनय आद्यो दशवा दशप्रकारः समुदाहृतः । तत्र च प्रथमो द्रव्याथिकनयः शुद्धद्रव्याथिक इति अकर्मोपाधितः कर्मणामुपाधितो रहित: शुद्धद्रव्याथिक: कथ्यते । सद्व्यम । लक्षणंत्विदम् - सीदति स्वकीयान् गुणपर्यायान् व्याप्नोतोति सत् उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त सत्, अर्थ क्रियाकारि च सत् । यदेवार्थक्रियाकारि तदेव परमार्थसत् । यच नार्थक्रियाकारि तदेव परतोऽप्यमदिति निज २ प्रदेशसमूहैरखण्डवृत्तात्स्वभावविभावपर्यायावति, द्रोष्यति, अदुद्र वदिति द्रव्यम् । गुणपर्यायवद्दयम् गुणाश्रयो द्रव्यं वा । यदुक्त विशेषावश्यकवृत्ती-दवए दूयए दोरवयबो विकारो गुणाण संदावो दव्वं भव्वं मावस्स भूयभावं च जं जोगं । १ । द्र Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ ६७ वति तांस्तान्पर्यायान् प्राप्नोति मुञ्चति वा । १ । यते स्वपर्यायरेव प्राप्यते मुञ्चते वा ।२। द्र: सत्ता तस्या एवावयवो विकारो वेति द्रव्यम । ३ । ४। अवान्तरसत्तारूपाणि द्रव्याणि महासत्ताया अवयवो विकारो भवत्येवेति भावः ।। गुणा रूपरसादयस्तेषां संद्रावः समूहो घटादिरूपो द्रव्यम । ५। तथा भवनं भावस्मत्तिभविष्यतीति मावस्तस्य भाविनः पर्यायस्य योग्यं यद्धव्यं तदपि द्रव्यम, राजपर्यायाह कुमारवत् । ६ । तथा भूतं हि पश्चात्कृतो मावः पर्यायो यस्य तदपि द्रव्यमिति दिक । तदेव द्रव्यमर्थः प्रयोजनं यस्यासौ द्रव्यार्थिकः । अस्त्यर्थे ठक् प्रत्ययः । शुद्धः कर्मोपाधिरहितश्चासौ द्रव्यार्थिकश्च शुद्धद्रव्यार्थिक इति ॥६॥ व्याख्यार्थः-द्रव्यार्थिक, पर्यायार्थिकादि क्रमसे जो नय कहेगये हैं; उनमेंसे प्रथम नय द्रव्यार्थिक नय है; उसके दश भेद हैं; उनमें कर्मोंकी उपाधिसे शून्य प्रथम द्रव्यार्थिकनय शुद्धद्रव्यार्थिकनय कहाजाता है। यहांपर “ सद्दव्य ” जो सत् है; वह द्रव्य है । जो अपने गुण पर्यायोंको व्याप्त करे सो सत् है, उत्पाद ( उत्पत्ति ) व्यय ( नाश ) ध्रौव्य (ध्रुवता वा नित्यता ) से जो युक्त हो उसको सत् कहते हैं। क्योंकि-उत्पादव्यय धौव्ययुक्तं सत्, यह तत्त्वार्थ शास्त्रका सूत्र है । जो अर्थ क्रियाका करनेवाला है; वह सत् कहलाता है; क्योंकि जो पदार्थ अर्थक्रियाकारक ( प्रयोजनसिद्ध करनेवाला ) है; वही परमार्थमें सत् है । और जो पदार्थ अर्थक्रिया नहीं करता वह परसे भी असत् है । ये सब सत्के लक्षण हैं ॥ जो निज २ प्रदेशसमूहोंकेद्वारा अखण्डवृत्त स्वभाव तथा विभाव पर्यायसे द्रवता है, द्रवेगा अथवा द्रवागया सो द्रव्य है । जो गुण तथा पर्यायवाला है; उसको द्रव्य कहते हैं; अथवा जो गुणोंका आश्रय है; वह द्रव्य कहलाता है । यही विषय विशेषावश्यक सूत्रकी वृत्तिमें कहा है कि-जो द्रवाता है, अथवा द्रवा जाता है, सत्ताका अवयव है, सत्ताका विकार है, गुणोंका संद्राव (समूह) है; जो भावका भव्य हैं; जिसका पर्याय पहले कियागया है; सो सब द्रव्य है; अर्थात् ये सब पृथक् २ द्रव्यके लक्षण हैं; (यह तो गाथाका भावार्थ है; और आगे इस ही गाथाकी व्याख्या करते हैं ) जो उन उन पर्यायोंको प्राप्त हो अथवा त्यागे सो द्रव्य है । १। जो अपने पर्यायोंसे प्राप्त किया जाय वा छोडा जाय वह द्रव्य कहलाता है । २। 'दु नाम सत्ताका है; उसहीका जो अवयव हो सो द्रव्य है ।३। अथवा सत्ताहीका जो विकार हो उसको द्रव्य कहते हैं । ४। भावार्थ-अवान्तर (मध्यमें होनेवाले ) जो सत्तारूप द्रव्य हैं; वे महासत्ताके अवयव अथवा विकार होते ही हैं। युग जो रूप रसआदि हैं; उनका जो संद्राव ( संमेलन वा समूह ) घटआदिरूप पदार्थ है; वह भी द्रव्य है । ५। जो होगा सो भाव है; उस भावी पर्यायके योग्य जो पदार्थ है; वह भी द्रव्य है। जैसे राजकुमारमें १ "द्र का अर्थ सत्ता धातुवोंको अनेकार्थक मानके किया है तब द्रु शब्दसे ॥ तस्य विकारः-पा. ४॥३॥१३४ इस अधिकारमें" दोश्च । पा० ४.३।१६१। इस सूत्रसे यत् प्रत्यय होनेसे दू.xl=द्रोxयंद्रव्यम । ऐसे द्रव्य शब्द सिद्ध हुआ। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८] श्रीमद्रराजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् राजापर्यायकी योग्यता है; अतः वह राजकुमार राजारूप पर्यायका द्रव्य है । ६ । और ऐसे ही जिसका भाव (पर्याय ) पूर्वकालमें किया गया है; वह भी द्रव्य है । ७। ये सब द्रव्यके लक्षण हैं । यही पूर्व अनेक प्रकारसे व्याख्यात द्रव्य ही है; प्रयोजन जिसका उसको द्रव्यार्थिकनय कहते हैं । द्रव्यार्थिक इस शब्दमें व्याकरणकी रीतिसे प्रयोजन है; इस अर्थमें "ठक्" प्रत्यय है; और उसको इक आदेश होनेसे द्रव्यार्थ + इक - होकर द्रव्यार्थिक ऐसा शब्द सिद्ध होता है । शुद्ध अर्थात् कर्मोंकी उपाधिसे रहित ऐसा जो द्रव्यार्थिकनय है; उसको शुद्ध द्रव्यार्थिकनय कहते हैं ॥९॥ अथ तस्य द्रव्याथिकस्य शुद्धताया विषयं दर्शयन्नाह । अब उस द्रव्यार्थिकनयकी शुद्धताका विषय दर्शाते हुए यह सूत्र कहते हैं । यथा संसारिणाः सन्ति प्राणिनः सिद्धसन्निभाः । शुद्धात्मानं पुरस्कृत्य भवपर्यायतां विना ॥१०॥ भावार्थः-जो संसारकी पर्यायताको ग्रहण करके अन्तरङ्गमें विद्यमान शुद्ध आत्माको आगे करके कथन करता है; वह शुद्धद्रव्यार्थिकनय है; जैसे संसारके प्राणी सिद्धोंके समान हैं ॥ १० ॥ व्याख्या । प्राणा द्रव्यभावभिन्नाः सन्ति एषां ते प्राणिनः । संसारो गतिचतुष्काविर्मावः सोऽस्ति येषां ते संसारिणाः । यथा येन प्रकारेण शुद्धात्मत्वादिलक्षणेन सिद्धसन्निमा अष्टकर्मनिमुक्तजीवनिमा विद्यन्ते । किं कृत्वा सन्ति शुद्धात्मानं मूलभावं तथा सहजभावं शुद्धात्मनः स्वरूपं पुरस्कृत्याग्ने कृत्वा कथं विना केन विना भवपर्यायतां भवः संसारस्तस्य पर्यायो मावस्तत्ता भवपर्यायता तां विना । एतावता या चानादिकालिकी जीवस्य संसारावस्था वर्त्तते सा प्रस्तुतापि न गण्यते । अविद्यमानोऽपि बाह्याकारणे सिद्धाकारस्तथापि गृह्यतेऽन्तरविद्यमानत्वात् । तदायमात्मा शुद्धद्रव्याथिकनयेन सिद्धसम एवास्तीति भावः । अत्र भावमात्रपरा द्रव्यसङ्गहगाथा । मग्गणगुणठाणेहिं चउदशाहिं हवंति तह अशुद्धणया । विण्णेया संसारी सब्बे सुद्धाहु सुद्ध गया । १ ॥१०॥ व्याख्यार्थः-जैसे 'भव जो संसार उसका जो पर्याय अर्थात् भाव उसका जो भाव है; उसके विना अर्थात् संसारकी पर्यायताके विना शुद्ध आत्माको अर्थात् मूल भाव अथवा सहजभावरूप शुद्ध आत्माके स्वरूपको आगे करके, नरक, तिर्यक् , मनुष्य और देव इन चारों गतियोंके आविर्भावको संसार कहते हैं; वह संसार जिनके होय अर्थात् जिन जीवोंके पूर्वोक्त नरक आदि चार गतियों में से किसी एक गतिका आविर्भाव (प्रकटता) है; वे संसारी कहलाते हैं द्रव्य तथा भाव ये दोनों प्राण जिनके हैं वे प्राणी हैं संसारी ऐसे जो प्राणी वे सिद्धोंके समान है, अर्थात् ज्ञानावरणआदि १ व्याख्या खण्डान्वय से है परन्तु व्याख्यार्थ अच्छी प्रकारसे अर्थका बोध होने के लिये दण्डान्वयके अनुसार लिखा गया है । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगकणा [ ६९ आठों कर्मोंसे रहित जीवोंके समान विद्यमान हैं । तात्पर्य यह कि जब जीवके जो अनादिकाल से संसारकी अवस्था विद्यमान है; उसकी तो प्रस्तुतकी भी गणना ( गिणती ) न की जाय और बाह्य आकारसे अविद्यमान जो सिद्ध स्वरूप है; उसको अभ्यन्तर में विद्य मान होने से ग्रहण करें तब यह आत्मा शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से सिद्धोंके समान ही हैं; यहां पर भावमात्रसे शुद्ध आत्माका बोध करने में तत्पर द्रव्यसंग्रहकी गाथा भी है उसका भावार्थ यह है; कि - चतुर्दश १४ गुणस्थान तथा चतुर्दश मार्गणस्थान के भेइसे चतुर्दश १४ प्रकारके संसा जीव अशुद्धनयकी विवक्षासे होते हैं और शुद्धनयकी विवक्षा भावमात्र के ग्रहण करनेसे तो सब जीव शुद्ध ही समझने चाहिये । १ । ॥ १० ॥ अथ द्वितीय भेदमुपदिशन्नाह । अब दूसरे भेदका उपदेश करते हुए कहते हैं । उत्पादव्यययोर्गौणे सत्तामुख्यतया परः । शुद्धद्रव्यार्थिको भेदो ज्ञेयो द्रव्यस्य नित्यवत् ॥११॥ भावार्थ:- उत्पाद ( उत्पत्ति ) और व्यय ( नाश ) इनकी गौणता मानने से तथा सत्ता (ध्रुव अथवा नित्यरूप) की मुख्यता माननेसे सत्ताग्राहक शुद्ध द्रव्यार्थिक नय द्रव्यकी नित्यताके समान समझना चाहिये ॥ ११ ॥ व्याख्या । उत्पादस्य व्ययस्य च गौणतायां तथा सत्ताया धवात्मकतायाश्च मुख्यतायामपर इति द्वितीय भेदः शुद्धद्रव्यार्थिकस्य ज्ञेयः । यत उत्पादव्यययोगौणत्वेन सत्ताग्राहकः शुद्धद्रव्यार्थिको नाम द्वितीयो भेद: 1२ । अस्य मते द्रव्यं नित्यं गृह्यते । नित्यं तु कालत्रयेऽप्यविचलितस्वरूपं सत्तामादायैवेदं युज्यते । कथं पर्यायाणां प्रतिक्षणं ध्वंसिनां परिणामित्वेनानित्यत्वोपलब्धेः । परन्तु जीवपुद्गलादिद्रव्याणां सत्ता अव्यभिचारिणी नित्यभावमलंब्य त्रिकालामिचलितं स्वरूपावतिष्ठते I ततो द्रव्यस्य नित्यवदिति द्रव्यस्य नित्यत्वेन द्वितीयो भेदः ॥ ११॥ व्याख्यार्थः-- पर्यायादिके उत्पाद और व्ययकी गौणतासे विवक्षा करनेपर तथा ध्रुव ( नित्य ) स्वरूप सत्ताको मुख्यतासे विवक्षा करनेपर अपर अर्थात् शुद्ध द्रव्यार्थिक नका दूसरा भेद जानना चाहिये । क्योंकि जब उत्पत्ति और नाश गौण हुए तब केवल सत्तामात्रका ग्राहक वह नय रहा इसलिये यह द्रव्यार्थिकनयका सत्तामाहक शुद्ध द्रव्यार्थिक नामवाला दूसरा भेद है । इस नयके मत में द्रव्यका नित्य स्वरूपसे ग्रहण होता है । और नित्य जो है, सो भूत, भविष्यत् वर्तमान इन तीनों कालों में अविचलितस्वरूप है और यह त्रिकालमें अविचलितस्वरूप नित्य सत्ताको ग्रहण करके ही ठीक होता है 1. क्योंकि -क्षण क्षण में विनाशशील पर्यायोंके परिणामीरना है; अतः उन पर्यायोंमें अनित्यताकी उपलब्धि होती है; परन्तु जीव पुद्गलआदि द्रव्योंकी जो सत्ता है; वह सदा अ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् व्यभिचारिणी है अर्थात् नित्यभावका आश्रय करके तीन कालमें अविचलितस्वरूप (अटलरूप) रहती है । इसलिये द्रव्य के नित्यपनेसे यह सत्ताग्राहक शुद्धदव्यार्थिक नामक द्रव्यार्थिकनयका द्वितीय भेद सिद्ध होगया ॥११॥ अथ तृतीयभेदमुपदिशन्नाह । अब तृतीय भेदको दर्शाते हुए कहते हैं । कल्पनारहितो भेदः शुद्धद्रव्याथिकाभिधः । तृतीयो गुणपर्यायादभिन्नः कथ्यते ध्रुवम् ॥१२॥ भावार्थः-जो गुण तथा पर्यायसे अभिन्न है वह भेदकी कल्पनासे रहित शुद्ध द्रव्यार्थिक नामवाला द्रव्यार्थिकनयका तीसरा भेद कहा जाता है ।। १२ ॥ व्याख्या । भेदकल्पनया रहितः कल्पनारहितस्तृतीयो भेद: शुद्धद्रव्याथिकनामास्ति ।३। यथा जीवद्रव्यं पुद्गलादिद्रव्यं च निजनिजगुणपर्यायेभ्यश्चामिन्नमस्ति । यद्यपि भेदो वर्तते द्रव्यादीनां गुणपर्यायेभ्यस्तथापि भिन्नविषयिण्यर्पणा न कृता । अभेदाख्यवार्पणा कृता अत:कारणाद्यद्रव्यं तत्तद्रव्यजन्य गुणपर्यायाभिन्नं तिष्ठति यदेव द्रव्यं तदेव कृणो यदेव द्रव्यं तदेव पर्यायो महापटजन्यखण्डपटवत्तदात्मकत्वात् । अत्र हि विवक्षावशाद्भिन्नाभिन्नत्वं ज्ञेयमिति ॥१२॥ ___ व्याख्यार्थः-भेदकी कल्पनासे रहित होनेसे कल्पनारहित तृतीय भेद शुद्धद्रव्यार्थिक नामक है; अर्थात् द्रव्यार्थिकनयके तीसरे भेदका नाम “कल्पनारहित शुद्धद्रव्यार्थिक है । जैसे जीव द्रव्य तथा पुद्गलआदि द्रव्य अपने अपने गुण तथा पर्यायोंसे अभिन्न है, यद्यपि द्रव्यआदिके गुण तथा पर्यायोंसे भेद भासता है; तथापि भेदके विषयवाली अपणा नहीं की, अभेदनामक ही अर्पणा की । इस हेतुसे जो द्रव्य है; वह उस द्रव्यसे उत्पन्न होने योग्य गुण और पर्यायोंसे अभिन्नरूप स्थित है; क्योंकि-जो द्रव्य है; वही गुण है; जो द्रव्य है; वही पर्याय है; तदात्मकपनेसे, जैसे कि-महापट ( बड़े वस्त्र ) से उत्पन्न खण्ड पट (छोटा वस्त्र) भावार्थ-एक बड़े वस्त्रको फाड़कर उसमेंसे छोटा वस्त्र निकालें तो वास्तवमें वह छोटे वखरूप पर्याय बडे वस्त्ररूप द्रव्यसे अभिन्न ही है; क्योंकि-वह छोटा वस्त्र बडे वस्त्रस्वरूप ही है। ऐसे ही जितने गुण और पर्याय हैं। वे तदात्मकतासे द्रव्यरूप ही है। यहां द्रव्य और पर्यायका भेद तथा अभेद विवक्षाके वशसे जानना चाहिये अर्थात् जब द्रव्यस्वरूपसे विवक्षा करेंगे तब तो द्रव्यपनेसे सब गुण, पर्याय अभिन्न हैं; और जब पर्यायरूपसे विवक्षा करेंगे तब सब गुण पर्याय द्रव्यसे भिन्न हैं ।। १२ ।। अथ चतुर्थभेदमाह । अब चतुर्थभेदका कथन करते हैं । कर्मोपाधेरशुद्धाख्यश्चतुर्थो भेद ईरितः। कर्मभावमयस्त्वात्मा क्रोधो मानी तदुद्भवात् ॥१३॥ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगता [ ७२ भावार्थ:- कर्मोंकी उपाधिके कारण अशुद्धद्रव्यार्थिक चतुर्थ भेद कहागया है; क्योंकि-कर्मोंकी प्रकृतिमय होनेसे क्रोधादिकी उत्पत्तिद्वारा आत्मा, क्रोधी मानी इत्यादि व्यवहारयुक्त होता है ॥ १३ ॥ व्याख्या 1 कर्मोपाधेः एकाशात् कर्ममिश्रजीवद्रव्यस्याशुद्धत्वं जायते । ततः कर्मोपाधेर शुद्धद्रव्यार्थिकचतुर्थी भेद: कथितः । यतः कर्मोपाधिसापेक्षोऽशुद्धद्रव्याथिक इति भेदः । अस्य च लक्षण कथयति । यथा कर्मभावमयः कर्मणां ज्ञानावरणादीनां मादाः प्रकृतयस्ते प्रचुरा यत्रेति कर्मभावमय आत्मा तादृग्रूपो लक्ष्यते । येन येन कर्मणा आगत्यात्मा निरुद्धयते तदा तत्तत्कर्मस्वभावतुल्यपरिणतः सन् व्यवह्रियते । यतः क्रोधोदयाजीवः क्रोधीति व्यपदिश्यते मानकर्मोदयाजीवो मानीति व्यपदिश्यते । एवं यदा यद्रव्यं येन भावेन परिणमति तदा तद्द्रव्यं तन्मयं कृत्वा ज्ञेयम् । यथा लोहोऽग्निना परिणतो यदा काले प्राप्यते तदा अग्निरूप एवोद्भाव्यते न तु लोहरूपः । एवमात्मापि मोहनीयकर्मोदयेन यदा क्रोधादिपरिणतः स्यात्तदा क्रोधादिरूप एव बोद्धव्यः । अत एवाष्टावात्मनो भेदा: सिद्धान्ते व्याख्याता इति ॥ १३ ॥ व्याख्यार्थः——कर्मोंकी उपाधि से अर्थात् आत्मा जब कर्मोंको ग्रहण करता है; तब वह कर्मोपाधिसहित कहाता है; और कर्मोंसे मिलित होनेसे जीवद्रव्यके अशुद्धता उत्पन्न होती है, इस कारण कर्मरूप उपाधिसे अशुद्ध चौथा भेद द्रव्यार्थिक कहागया है; क्योंकिकर्मोपाधिकी अपेक्षा रखनेसे इस चतुर्थ भेदका नाम अशुद्धद्रव्यार्थिक है । इसका लक्षण कहते हैं; कि—जैसे कर्मभावमय जब आत्मा होता है; अर्थात् कर्म जो ज्ञानावरण दर्शनावरणआदि हैं; उनकी जो प्रकृतियें हैं; वे जब आत्मप्रदेशमें प्रचुर (अधिक ) रूपसे एकत्र हो जाती हैं; उस समय आत्मा है; वह तादृक्रूप अर्थात् कर्मस्वरूप लक्षित होता है; अर्थात् जो जो कर्म आकर आत्माको रोकते हैं; अर्थात् आत्मा जिस जिस कर्मरूपी बंधन से बद्ध होता है तब उस उस कर्मके स्वभाव के तुल्य व्यवहारमें लाया जाता है; क्योंकि-क्रोधके उदयसे जीवको क्रोधी कहते हैं; एवं मानकर्मके उदयसे जीव मानी कहाजाता है । इसी प्रकार जब जो द्रव्य जिस भावसे परिणत होता है तब उसको उस भावरूप करके जानना चाहिये । जैसे अग्निमें गिराहुआ लोह जब अग्निस्वरूपसे परिणत हुआ मिलता है; _अर्थात् साक्षात् अग्निके समान बन जाता है; तब उसको अग्निरूप ही कहते हैं; नकि-लोहरूप । ऐसे ही आत्मारूप द्रव्य भी मोहनीयआदि कर्मोंके उदयसे जब क्रोधादिरूपसे परिणत होवे तब उस आत्माको क्रोधादिरूप ही जानना चाहिये । इस ही कारणसे जैन - सिद्धान्तमें आत्माके आठ भेद वर्णन किये गये हैं अर्थात् इस अशुद्धद्रव्यार्थिकनकी अपेक्षासे आठ कर्मोंकी उपाधिवश जीवके आठ ८ भेद शास्त्रमें कहे गये हैं ॥ १३ ॥ १ जब आत्माके क्रोधादि कर्मका उदय आता है; तब आत्मा उनका स्वरूप ही बनजाता है; उनसे अपने स्वरूपको अलग नहीं कर सकता किन्तु तन्न हो जाता है। इसीसे क्रोत्रीआदि शब्दोंद्वारा व्यवहृत होता है । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् अथ पञ्चमभेदमाह । अब पंचम ( पाँचवें) भेदका निरूपण करते हैं। उत्पादव्ययसापेक्षोऽशुद्धद्रव्याथिकोऽग्रिमः । एकस्मिन्समये द्रव्यमुत्पादव्ययध्रौव्ययुक् ॥१४॥ भावार्थ:-उत्पत्ति और नाशको अपेक्षासहित होने से अशुद्ध द्रव्यार्थिक पंचम (पाँचवां) भेद कहागया है; क्योंकि-एक ही समयमें द्रव्य उत्पत्ति, नाश तथा धौव्य (नित्यता)से संयुक्त है ॥ १४ ॥ व्याख्या । उत्पादव्ययसापेक्षः पञ्चमो भेदोऽशुद्धद्रव्यायिको ज्ञेयः । यत उत्पादव्ययसापेक्षः सत्ताग्राहकोऽशुद्धद्रव्यार्थिकः पञ्चम इति । ५ । यथा एकस्मिन्समये द्रव्यमुनादव्य प्रौव्यरूपं कथ्यते । कथं सद्यः कटकाद्युत्पादसमयः स एव केयूरादिविनाशसमय: । परन्तु कनकसत्ता कटककेयूरयोः परिणामिन्यावर्ज. नीयैव । एवं सति लक्षण्यग्राहकत्वेनेदं प्रमाणवचनमेव स्थान तु नपत्रचनमिति चेत्र । मुख्यगौणभावेनैवानेन नयेन गैलक्षण्यग्रहणान्मुख्यनयः स्वस्वार्थग्रहणे नयानां सप्तम ङ्गी तुवेन व व्यापारात् ॥ १४ ॥ व्याख्यार्थः-उत्पत्ति तथा नाशके सापेक्ष अर्थात् उत्पत्ति और नाशको अपेक्षा रखनेवाला अशुद्धद्रव्यार्थिक पांचवां भेद जानना चाहिये क्योंकि-उत्पत्ति और व्ययके सापेक्ष तथा सत्ताका ग्राहक जो है; उसको अशुद्धद्रव्यार्थिक पांचवाँ भेद मानागया है । ५ । जैसे एक कालमें द्रव्य उत्पाद ( उत्पत्ति ) व्यय (नाश ) तथा ध्रौव्य (नित्य ) स्वरूप कहा जाता है । यदि यह कहो कि-ये तीनों ( उत्पाद, व्यय तथा ध्रौव्य ) स्वरूप एक ही कालमें तथा एक ही पदार्थमें कैसे होते हैं, तो उसकी व्यवस्था इस प्रकार है; कि-जैसे सुवर्ण द्रव्यमें जो समय कटक (कड़ा )आदिरूप पर्यायकी उत्पत्तिका है; वही समय केयूर (बाजू) आदि पूर्व पर्यायके विनाशका भी है; परन्तु कटक और केयूर दोनों में जो सुवर्णकी सत्ता है वह परिणामिनी नहीं है; किन्तु सुवर्णरूपता पूर्व पर पर्यायोंमें एक ध्रुव (नित्य )स्वरूपसे विद्यमान है; अब कदाचित् ऐसी शंका करो कि-उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूपका ग्राहक होनेसे यह 'प्रमाणवचन ही हुआ न कि-नयवचन' ? सो नहीं कह सकते; क्योंकि-मुख्य तथा गौण भावसे ही इस पंचम नयकेद्वारा उत्पाद व्यय ध्रौव्यरूप तीन लमगों का ग्रहण होनेसे अपने अर्थके ग्रहणमें मुख्य नय है; और पर अर्थके में नहीं क्योंकि--सब नयोंका सप्तभंगीनयके द्वारा ही व्यापार होता है ।। १४ । १ संपूर्णरूपसे वस्तुको सिद्ध करनेवाला प्रमाण कहलाता है। अतः यहां जब द्रव्यके तीनों स्वरूपोंका कथन करदिया तो यह प्रमाण है । २ नय वस्तुके एक ही अंशको मुख्यतासे कहता है । ३ प्रवृत्त नय भी वस्तुको अनेकान्तस्वरूपता दर्शानेकेलिये सप्तमंगीको लेकर ही प्रवृत्त होता है। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [७३ अथ षष्ठभेदमाह। अब द्रव्यार्थिकनयका षष्ठ (छठा) भेद कहते हैं । भेदस्य कल्पनां गृह्णनशुद्धः षष्ठ इष्यते । यथात्मनो हि ज्ञानादिगुणः शुद्धः प्रकल्पनात् ॥१५॥ भावार्थः-भेदकी कल्पनाको ग्रहण करते हुए अशुद्ध द्रव्याथिकनामा छठा ६ भेद माना जाता है, जैसे आत्माके ज्ञानादि शुद्ध गुणोंकी कल्पना भेदको कहती है ॥ १५ ॥ व्याख्या । अशुद्धद्रव्याथिकः षष्ठो भेदो भेदस्य भेदभावस्य कल्पनां गृह्णन् सन् जायते । यथा हि ज्ञानादयो गुणा: शुद्धा आत्मन: कथ्यन्त इत्यत्र षष्ठीविभक्तिर्मेदं कथयति । भिक्षोः पात्रमितिवत् । परमार्थतस्तु गुणगुणिनोभेंद एव नास्ति । तस्मात्कल्पितो भेदोऽत्र ज्ञेयो न तु साहजिकः ॥ १५ ॥ व्याख्यार्थः-भेदभावकी कल्पनाको ग्रहण करता हुआ अशुद्धद्रव्यार्थिक छठा ६ भेद उत्पन्न होता है; जैसे कि-आत्माके शुद्ध ज्ञानादि गुण कहे जाते हैं; "आत्मनः गुणाः” (आत्माके गुण ) यहांपर षष्ठी विभक्ति भेदको कहती है; जैसे कि-"भिक्षोः पात्रम्" भिक्षुका पात्र यहांपर भिक्षुकसे पात्रको जुदा दिखलाती है; परन्तु यथार्थमें भिक्षुकके पात्रके समान ज्ञानादि गुण तथा गुणी आत्माके भेद नहीं है, इसलिये यहां कल्पित भेद समझना चाहिये न कि-स्वाभाविक क्योंकि-गुण और गुणी कहीं जुदे २ नहीं मिलते ॥ १५॥ अथ सप्तमभेदं कथयति । अब सप्तम (सातवें) भेदको कहते हैं । अन्वयी सप्तमश्चै कस्वभावः समुदाहृतः । द्रव्यमेकं यथा प्रोक्तं गुणपर्यायभावितम् ॥१६॥ भावार्थ:--अन्वयी द्रव्यार्थिक सप्तम भेद कहा गया है; जैसे कि-गुण तथा पर्यायोंसे युक्त द्रव्य एक ही स्वभाव कहा है ॥ १६ ॥ व्या०-अन्वयद्रव्याथिकः सप्तमो भेद एकस्वभाव उक्तः । यथा द्रव्यं चैकं गुणः पर्यायश्च भावित वर्त्तते द्रव्यमेकं गुणपर्यायस्वभावमस्ति । गुणेषु रूपादिषु पर्यायेषु कम्बुग्रीवादिषु द्रव्यस्य घटस्यान्वयोऽस्ति । यतस्तत्सत्त्वे तत्सत्त्वमन्वयः । अथवा सति सद्भावोऽन्वयो यथा सति दण्डे घटोत्पत्तिः । अत एव यदा द्रव्यं ज्ञायते तदा द्वव्यार्थादेशेन तदनुगतसर्वगुणपर्याया अपि ज्ञायन्ते । यथा सामान्य प्रत्यासत्या परस्य सर्वा व्यक्तिरप्यवगन्तव्या । तथात्रापि ज्ञेयमित्यन्वयद्रव्याथिकः सप्तम इति ॥ १६ ॥ व्याख्यार्थः-अन्वयद्रव्यार्थिक नामवाला सप्तम भेद एकस्वभाव कहा गया है; जैसे एक ही द्रव्य गुण और पर्यायोंसे युक्त है; अर्थात् एक द्रव्य गुणपर्यायस्वभाव है । रूप आदिक गुणोंमें और कंबुग्रीवआदि पर्यायोंमें द्रव्य जो घट है; उसका अन्वय है; क्योंकि १० Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् जिसके होते जिसकी विद्यमानता हो अर्थात् गुण पर्यायोंके रहनेपर घटआदि द्रव्यका जो अवश्य रहना है; वह अन्वय कहलाता है; अथवा जिसके रहते जिसकी उत्पत्ति हो वह अन्वय है; जैसे दंडकी सत्तामें घटकी उत्पत्ति होती है; "अर्थात् दण्ड कारण होय तब ही तो घट ( कार्य) उत्पन्न हो अन्यथा नहीं यह भी अन्वय कहा जाता है । द्रव्यस्वरूपका संपूर्ण गुण पर्यायोंमें अन्वय है; इसी कारण जब द्रव्यस्वरूप ज्ञात होता है; तब द्रव्यार्थके आदेशसे उस द्रव्यके साथ अनुगत जितने गुण और पर्याय हैं; वे भी जाने जाते हैं । जिस प्रकारसे कि-सामान्यकी 'प्रत्यासत्तिसे किसी एक घटआदि व्यक्तिका ज्ञान होनेसे उस जातिसहित संपूर्ण व्यक्तिये जानी जाती हैं । ऐसे ही यहां भी एक स्वभावके अन्वयसे यह अन्वय द्रव्यार्थिक सप्तम नय भी जानलेना चाहिये ।। १६ ।। अथाष्टमभेदोत्कीर्तनमाह। अब अष्टम भेदके कीर्तनको कहते हैं । स्वद्रव्यादिकसंग्राही ह्यष्टमो भेद आहितः । स्वद्रव्यादिचतुष्केभ्यः सन्नर्थो दृश्यते यथा ॥१७॥ भावार्थ:-स्वकीय द्रव्य क्षेत्रादिका ग्राहक होनेसे स्वद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिक यह अष्टम भेद कहागया है; जैसे स्वद्रव्यादि चतुष्टयकी अपेक्षासे घटआदि पदार्थ सद्रूपसे ही दृष्ट होता है ॥ १७ ॥ व्याख्या-स्वद्रव्यादिग्राहको द्रव्याथिकोऽष्टमो भेदः कथितः । यथार्थो घटादिः स्वद्रव्यतः स्वक्षेत्रतः स्वकालतः स्वभावतः सन्नेव प्रवर्त्तते । स्वद्रव्याद्धटः काञ्चनो मृन्मयो वा ॥१॥ स्वक्षेत्राद्धट: पाटलिपुत्रो माथुरो वा । २। स्वकालाद्धटो वासन्तिको श्रेष्मो वा । ३। स्वभावाद्धट: श्यामो रक्तो वा । ४ । एवं चतुर्वपि घटद्रव्यस्य सत्ता प्रमाणसिद्ध वास्ति । स्वद्रव्यादि ग्राहको द्रव्याथिकोऽष्टमो भेद इति ज्ञेयम् ।।१७।। व्याख्यार्थः-अपने द्रव्यआदिको ग्रहण करनेवाला अष्टम द्रव्यार्थिक भेद कहा गया है । जैसे घटआदि पदार्थ अपने द्रव्यसे १, अपने क्षेत्रसे २, अपने कालसे ३, तथा अपने स्वभावसे सत् (विद्यमान) रूप हो प्रवृत्त होता है । स्व (निज) द्रव्यसे घट सुवर्णका बना हुआ है; अथवा मृत्तिकास बनाहुआ है; १, अपने क्षेत्रसे घट पटनेका वा मथुराका है; २, अपने कालसे घट वसन्त ऋतुका अथवा ग्रीष्म ऋतुका है; ३, अपने भावसे घट श्याम वा रक्त है; ४, ऐसे स्वकीय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन चारोंमें घटद्रव्यकी सत्ता प्रमाणसे सिद्ध है। इसलिये “स्वद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिकनय" यह अष्टम भेद जानना चाहिये ॥ १७॥ । १सबपर रहनेवाला सामान्य धर्म, तर प्रत्यातत्ति अर्थात एक प्रकारकी व्यक्ति अर्थात जैसे एक प्रकारको घटआदि व्यक्तियोंपर रहनेवाले तिर्यक् सामान्यसे सब व्यक्तियोंका बोध होता है; ऐसे ही द्रव्यरूपके अन्वयसे सब गुण पर्यायोंका ज्ञान होता है। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ ७५ अथ नवमभेदमाह । अब नवम भेदको कहते हैं । परद्रव्यादिकग्राही नवमो भेद उच्यते । परद्रव्यादिकेभ्योऽसन्नर्थः संभाव्यते यथा ॥ १८ ॥ भावार्थः-परद्रव्यआदिका ग्रहण करनेवाला नवम ९ भेद कहा जाता है, जैसे परद्रव्यआदिकी अपेक्षासे पदार्थ (घट) असत्रूपसे संभावित होता है ॥ १८ ॥ व्याख्या - तेषु द्रव्यार्थादिषु परद्रव्यादिग्राहको द्रव्याथिको नवमः (8) यथार्यों घटादिः परद्रव्यादिचतुष्टयेभ्योऽसन् वर्त्तते । घटापेक्षया परद्रव्यं पटोऽतस्तन्त्वादिभ्यो घटोऽसन्नस्ति । १। परक्षेत्राद्यथा घटो माथुरो वर्त्तते न काशीज: किन्तु घटक्षेत्र मथुरा तदपेक्षया काशीमिन्ना अत एव परक्षेत्रात्काशीलक्षणादसन् घटः । २। परकालाद्यथा घटो वसन्ते निष्पन्नोऽतो वासन्तिको घटः, वसन्तापेक्षया प्रैष्मो भिन्नस्ततो ग्रीष्मकालजाद्वासन्तिको घटोऽसन् । ३ । परभावाद्विवक्षितश्यामादिभावापेक्षया रक्तो घटोऽसन्वर्त्तते । ४ । एवं परद्रव्यादिग्राहको द्रव्याथिको नवमः । ६ ॥ १८ ॥ व्याख्यार्थः- उन द्रव्यार्थआदिमें परद्रव्यादिका ग्राहक होनेसे परद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिकनामक नवम भेद है । जैसे घटआदि पदार्थ परद्रव्य, क्षेत्र, काल और भावरूप चतुष्टयकी अपेक्षासे असत् ( अविद्यमान )रूप ही वर्त्तता है। घटको अपेक्षासे परद्रव्य पट है, इस हेतुसे तन्तु (सूत)आदिसे घट असत् है; अर्थात् पटादिरूपसे 'घट नहीं है । १। इसो रीतिसे परक्षेत्रकी अपेक्षासे भी जैसे घट मथुरामें बना हुआ है; न कि-काशीमें उत्पन्न हुआ और घटका क्षेत्र(स्थान)जो मथुरा है; उसकी अपेक्षा काशी भिन्न है; इस ही कारण काशीरूप जो परक्षेत्र है; उसकी अपेक्षासे घट नहीं है । २ । परकालकी अपेक्षासे जैसे घट वसन्तकालमें उत्पन्न हुआ इसकारण घट वासन्तिक हुआ और इस वसन्त ऋतुकी अपेक्षासे ग्रीष्म ऋतु भिन्न है; अतः ग्रीष्म(गर्मी)के-कालमें उत्पन्न हुए घटसे वसन्त समयमें उत्पन्न हुआ 'घट असत् है । ३ । ऐसे ही परभावसे भी विवक्षित श्यामआदि भावकी अपेक्षासे रक्त घट असत् है । ४। ऐसे परद्रव्यआदिका ग्राहक नवमां द्रव्यार्थिकनय है ॥ १८ ॥ अथ दशमभेदोत्कीर्तनमाह । अब दशम भेद का कथन करते हैं । १ सप्त भंगोंमें स्यादस्ति और स्यान्नास्तिका निरूपण प्रथम करचुके हैं, उसका यही अभिप्राय है; कि स्वकीय द्रव्यादिकी अपेक्षासे तो घट है; परन्तु परकीय द्रव्यादिकी अपेक्षासे घट नहीं है अर्थात् पदार्थके स्वरूपसे जैसे अस्तित्व पदार्थका स्वरूप मासता है। ऐसे ही परकीयरूप द्रव्यादिकी अपेक्षासे नास्तित्व भी पदार्यका स्वरूप ही है, यही स्याद्वादका रहस्य है। २ जैसे परद्रव्यरूपसे घटकी असत्ताका भान होता है; ऐसे परकाल जो ग्रीष्म है; उसकी अपेक्षासे घट नहीं है, अर्थात् घटकी अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावसे तो सत्ता है; औरखव्यादि चतुष्टयसे असता है । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् परमभावसंग्राही दशमो भेद आप्यते । ज्ञानस्वरूपकस्त्वात्मा ज्ञानं सर्वत्र सुन्दरम् ॥१६॥ भावार्थ:-परमभावका संग्राही यह द्रव्याथिकनयका दशम भेद प्राप्त है; जैसे किआत्मा ज्ञानस्वरूप है; क्योंकि-आत्माके सब गुणोंमें सारभूत गुण ज्ञान ही है ।।१९।। व्याख्या-परमभावसंग्राही परमभावग्राहको दशमो भेद: कथितः ।१०। यथा ज्ञानस्वरूपक आत्मा ज्ञानस्वरूपी कथितः । दर्शनचारित्रवीर्यलेश्यादयो ह्यात्मनो गुणा अनन्ताः सन्ति, परन्तु तेषु एकं ज्ञानं सारतरं वर्तते । अन्यद्रव्येभ्य आत्मनो भेदो ज्ञानगणेन दर्शयिष्यते तस्मात्कारणाच्छीघ्रोपस्थितिकत्वेनात्मनः परमस्वभावो ज्ञानमेवास्ते । इत्थमन्येषामपि परममावा असाधारणगुणा ग्रहीतब्या: । परममावग्राहको द्रव्याथिकदशम इति । अत्रानेकस्वभावानां मध्ये ज्ञानाख्यः परमस्वभावो गृहीत इति द्रव्याथिकस्य दश भेदाः ॥ १९ ।। व्याख्यार्थः-परमभावका संग्रहण करानेवाला होनेसे परमभावग्राहक द्रव्यार्थिक यह दशम भेद कहागया है; जैसे आत्मा ज्ञानस्वरूपी कहा है, यद्यपि दर्शन, चारित्र, वीर्य तथा लेश्याआदि आत्माके अनन्त गुण हैं; परन्तु उन सबमें एक ज्ञान गुण सबसे अधिक सारभूत है, क्योंकि हम अन्यद्रव्योंसे आत्माका भेद ज्ञानगुणसे ही दर्शावेगे, इस हेतुसे तथा सब गुणोंमेंसे शीघ्र उपस्थिति एक ज्ञान गुणकी ही होती है; इसलिये आत्माका परम ( सर्वोत्तम ) स्वभाव ज्ञान ही है। इसी रीतिसे अन्य द्रव्योंके भी असाधारण गुणरूप परम भावोंका ग्रहण करना चाहिये । इसलिये यह परमभावग्राहक द्रव्यार्थिक दशम १० भेद है। इस नयमें आत्माके अनेक स्वभावोंके बीचमेंसे ज्ञाननामक परम स्वभाव ग्रहण किया है । इस प्रकार नौ नयोंमें प्रथम जो द्रव्यार्थिक है; उसके दश भेदोंका स्वरूप है ॥ १९ ॥ अथाध्यायसमाप्ती ज्ञानस्य मोक्षहेतोः प्रशंसामाह । अब पंचम अध्यायकी समाप्तिमें मोक्षका साक्षात् हेतु जो ज्ञान है; उसकी प्रशंसा कहते हैं। ज्ञानाख्यमेतन्मकरन्दमिष्टं भव्यालयो वीतभया निपीय । अर्हत्क्रमाम्भोजभवं सुगन्धं स्वभावसौहित्यमवाप्नुवन्ति ॥२०॥ भावार्थः-भव्य पुरुषरूपी भ्रमर सबको इष्ट श्रीजिनेन्द्रके चरणकमलोंसे उत्पन्न, अत एव अतिसुगन्धताके धारक इस ज्ञानरूपी मकरन्द ( पुष्परस ) को निर्भय होके पीकर निजभावरूपी तृप्तिको प्राप्त होते हैं ।। २० ॥ व्याख्या-भव्यालयः भवाय अर्हा मव्यास्त एवालयो भ्रमरा एतदुत्कृष्टज्ञानाख्यं मकरन्दं मरन्दं निपीय पीत्वा स्वभावसौहित्यं स्वस्य आत्मनो मावः परममावस्तद्र पं सौहित्यं तृप्ति स्तदवाप्नुवन्ति । कीदृशा भव्यालयः बीतभया वीतं गत भयं येषान्ते वीतमा दिवानिशमाकस्मिकसाध्वसरहिताः कीदृङ्मकरन्दमिष्टं वल्लभं भवविपाकत्वेन परमरुचिप्रम् । पुनः Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [७७ कीङ्मकरन्दमहत्क्रमाम्भोजभवमहतां श्रीतीर्थकराणां क्रमाश्चरणास्त एवाम्भोजानि कमलानि तेम्यो भव उत्पत्तिर्यस्य तदर्हत्क्रमाम्भोजभवं जिनेश्वरचरणपङ्कजसंभवम । पुनः कोहक सुगन्धं शोभनो गन्धः आमोदो यस्य तत्सुगन्धमिति पद्यार्थः । यथालयोऽम्भोजभवं सुगन्धमिष्टं मकरन्दं निपीय सौहित्यमवाप्नुवन्ति । तथा मच्या एतद्ज्ञानाख्यं परमभावमिष्टं निपीय स्वभावमवाप्नुवन्ति । अभ्यद्विशेषणैस्तुल्यत्वं ज्ञेयम । भव्यानामलिसादृश्यं ज्ञानस्य च मकरन्दसादृश्यं च युक्तोपमात्वं, जिनक्रमे कमलोपमानञ्च साधर्म्यतया चेत्यपि बोध्यम् । आसन्नसिद्धिकाः, परमरुचिपरा इहामुत्रफलविरागा, इन्द्रियमात्रविषयावशा, नित्यसंवेगशान्तहृदया, विपाकलब्धनिमर्गबोधोदयेन परमभावेन ज्ञानेनाशेषकलुषकर्मसन्ताननि शनप्रकटित शूद्धशूक्लध्याननैर्मल्यविधूतशेषकर्मप्रकृतिशुभतयोत्कर्माणो, निजभावमनन्तचतुष्टयात्मकसौहित्यसंपूरितमनसं शिवावासमासादयन्तीति भावः ॥ २०॥ इति श्रीकृतिमोजविनिर्मितायां द्रव्यानुयोगतर्कणायां पञ्चमोऽध्यायः व्याख्यार्थः-गया है भय जिनका वह वीतभय अर्थात् रात्रि दिन आकस्मिक भयसे रहित भव्यालि अर्थात् मोक्षके अधिकारी भव्यजनरूपी भ्रमर, इष्ट (प्यारा) अर्थात् भवकी विपाकतासे उत्कृष्ट रुचिका देनेवाला, और श्रीजिनेन्द्रके चरणरूपी कमलोंसे जिसकी उत्पत्ति है; ऐसा तथा श्रेष्ठ गन्धके धारक इस उत्कृष्ट ज्ञाननामक मकरन्द ( पुष्परस ) को पीकर अपने आत्माका जो परमभावरूप सौहित्य ( तृप्ति ) है; उसको प्राप्त होते हैं; इस प्रकार पद्यका अर्थ है; तात्पर्य इसका यह है; कि-भ्रमर जैसे कमलसे उत्पन्न इष्ट मकरन्दको पानकरके परमतृप्तिको पाते हैं; ऐसे ही भव्य जन इस ज्ञाननामक इष्ट परमभावको पीकर स्वभावको प्राप्त होते हैं । अन्य सब विशेषणोंसे ज्ञान तथा मकरन्दकी तुल्यता समझ लेनी चाहिये । और भव्योंके भ्रमरका सादृश्य और ज्ञानको मकरन्दका सादृश्य जो दिया है; यह उपमाके योग्य ही है । तथा जिन भगवान के चरणोंके कमलकी जो उपमा दी है; सो भी साधर्म्यसे ही है; यह भी जानना चाहिये । समीप है; मुक्ति जिनकी ऐसे तथा ज्ञानकी प्राप्तिमें परम प्रीतिके धारक, इस लोक और पर लोकसम्बन्धी स्वर्गादिकोंके सुखरूप फलोंमें रागरहित, पांचों इन्द्रियोंके विषयोंकी आधीनतासे मुक्त, निरन्तर संवेगसे शान्तहृदयके धारक, विपाकसे प्राप्त स्वाभाविक ज्ञानके उदयरूप परम भाव जो ज्ञान है; उसकरके संपूर्ण मलिन कर्मों के घातिया कोंके नाश करनेसे प्रकट हुआ जो शुद्ध शुल्कध्यान उसकी निर्मलतासे नष्ट करी है; वाकिके कर्मोंकी अर्थात् चार अघाती या कर्मोंकी प्रकृतिरूप शुभश्रेणी जिन्होंने और अतएव कर्मरहित ऐसे भव्यजन अपने भावको अर्थात् अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत सुख, अनन्त वीर्यरूप अनन्त चतुष्टयलक्षणतृप्तिसे भरे हुए, अंतरहित ऐसे मोक्षस्थानको प्राप्त होते हैं; यह भाव है ॥ २० ॥ इति श्रीपण्डितठाकुरप्रसादशास्त्रिविरचितमाषाटीकासमलङ्कतायां द्रव्यानुयोगतर्कणायां पञ्चमोऽध्यायः ॥५॥ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् अथ षष्ठाध्याये पर्यायाथिकनयं विवृणोति । तत्रादी पर्यायाथिक: षविधोऽतस्तमेव कीलयन्नाह । तत्रापि नमस्कारगर्भितं जिनवाक्यस्वरूपं प्ररूपयति । अब षष्ठ (छठे) अध्यायमें पर्यायार्थिकनयका विवरण करते हैं; उसमें आरंभमें पर्यायार्थिकके ६ भेद हैं; उनको ही दिखाते हैं, उसमें भी नमस्कार गर्भित जिनेश्वरकी वाणीके स्वरूपका निरूपण करते हैं। एकाप्यनाद्याखिलतत्त्वरूपा, जिनेशगीविस्तरमाप तकः । तत्राप्यसत्यं त्यज सत्यमङ्गी, कुरु स्वयं स्वीयहिताभिलाषिन् । भावार्थः--यद्यपि अनादि तथा संपूर्ण तत्त्वोंको धारण करनेवाली जिनवाणी एक ही है; तथापि तर्कोसे विस्तारको प्राप्त होगई अर्थात् अनेकरूप धारण करलिये हैं; अतः हे निज आत्माके हितको चाहनेवाले भव्य ! उस दिगम्बर मतमें भी जो असत्य है; उसका तो त्याग कर और जो सत्य है; उसको स्वीकार कर ॥ १॥ ___ व्याख्या-एकापि जिनेशगीरहद्वाणी अर्हन्मुखानिर्गच्छमाना अद्वितीया यथाभाषितं तथा श्रूयमाणा तथा अनाद्या आदिरहिता एकेन तीर्थकृता यदुपदिष्टं तदनेकेषां पूर्वपूर्वतरतीयकृतामपि तथैव निरूप्यमाण स्वावादिरहिता । पुनः कीदृशी अखिलतत्त्वरूपा समस्ततत्वमयी तविचारैबहुभेदतां प्राप बहुप्रकारैर्बहुधा विस्तृता। यतो दिग्वाससां मतमपि जिनमतं धृत्वैतादृशनयानामनेकाकारतां प्रवर्तयति । अतस्तन्मतेऽपि यद्विमृश्यमानं सत्यं जायते तदेवाङ्गीकुरु, यच्चासत्यं तत्सर्वमपि त्यज स्वयमात्मना हे स्वीयहिताभिलाषिन् ! निजहितकाक्ष्विन् ! शब्दान्तरत्वेन तन्मतमपि न द्वषविषयोकर्त्तव्यम् । सर्वमप्यर्थंकत्वविवक्षया समञ्जसमेवेति ॥१॥ व्याख्यार्थः-श्रीजिनेश अर्थात् अर्हत् भगवान के मुखारविन्दसे निःसृत वाणी एक (अद्वितीय) रूप ही है; अर्थात् जिस प्रकार श्रीजिनेश्वर भगवान्ने भाषण किया उसी प्रकारसे श्रयमाण (सुननेमें) चली आती है; तथा अनादि अर्थात् आदिरहित है; क्योंकि-एक तीर्थकरने जो उपदेश किया है; वह ही अनेक पूर्व पूर्व कालके जिनेश्वरोंने भी निरूपण किया है । पुनः वह जिनेशवाणी कैसी है; कि-संपूर्ण तत्त्वमयी है; अर्थात् उसमें सब तत्त्वों का निरूपण है; तथापि अनेक प्रकारके तर्कों ( विचारों ) से अनेक भेदोंको प्राप्त हुई है; अर्थात् अनेक प्रकारके तर्कोसे अनेक रूपोंसे विस्तारको प्राप्त हुई है; क्योंकि-दिगम्बरियोंका जो मत है; वह भी जिनमतको धारण करके इन द्रव्यार्थिकादि नयोंकी अनेक आकारताको प्रवृत्त करता है; इस कारण हे निजहिताभिलाषी भव्यजनो ! उनके मतमें भी जो विषय विचाराहुआ सत्य हो अर्थात् विचार करनेपर जो तुमको सत्य प्रतीत हो उसीको स्वयं अर्थात् अपने आत्मासे स्वीकार करो और जो उनके मतमें असत्य है; उस सबको त्यागो । शब्दभेद होनेसे दिगम्बरोंके मतसे भी द्वेष न करना चाहिये क्योंकि-अर्थके एकत्वकी विवक्षासे तो उनका भी सब कथन युक्त ही है ॥ १॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ ७९ अथ पर्यायर्थिकषड्भेदानाह । अब पर्यायार्थिकनयके ६ भेदोंको कहते हैं । पर्यायार्थिकषड्भेदस्तत्राद्योऽनादिनित्यकः । पुद्गलानान्तु पर्यायो मेरुशैल इवाचलः ॥ २ ॥ भावार्थः-पर्यायार्थिक नय ६ भेदों सहित है; उनमें पर्यायार्थिकका प्रथम भेद अनादिनित्यशुद्धपर्यायार्थिक है; जैसे पुद्गलोंका पर्याय मेरु पर्वतकी तरह अचल ( अनादि नित्य ) है ॥२॥ व्याख्या । पर्यायाथिकश्चासौ षड्भेदश्च पर्यायार्थिकषड्भेद: पर्यायाथिको नयः षट् प्रकार इत्यर्थः तत्र तेषु षट्सु भेदेषु प्रथमो भेदोऽनादिनित्यशुद्धपर्यायाथिकः कथ्यते । न विद्यत आदियंस्यानादिः पूर्वकल्पनारहितः, उत्पत्त्यमावान्नित्य एव नित्यकः “स्वार्थे कः" सदैकस्वभावोऽनश्वरत्वात् । अनादिश्च नित्यकश्चेति द्वन्द्वः । अयं च शुद्धपर्यायाथिक: प्रथमः । क इवाचलो मेरुरिव । यथा भेरुः पुद्गलपर्यायेण प्रवाहतोऽनादिनित्यकोऽस्ति, असंख्यातकाले अन्योन्यपुद्गलसंक्रमेणापि संस्थानतः स एव मेरुवर्तते । एवं रत्नप्रभादीनामपि पृथ्वीपर्याया ज्ञातव्या इति ॥ २ ॥ व्याख्यार्थः-पर्यायार्थिकरूप जो षड्भेद इस प्रकारसे यहांपर कर्मधारय तत्पुरुष समास है; भावार्थ-पर्यायार्थिकनय षट् (छ) भेद सहित है। उन षट् भेदोंमेंसे प्रथम भेद अनादि नित्य शुद्धपर्यायार्थिक कहा जाता है; नहीं है आदि जिसका उसको अनादि कहते हैं; पूर्व कल्पनाशून्य होनेसे यह अनादि कहागया है; तथा उत्पत्तिके अभावसे यह नित्य फहागया है; नित्य ही जो है, उसको नित्यक कहते हैं; "नित्य एव नित्यकः” यहांपर स्वार्थ (नित्य शब्दके अर्थ )में क प्रत्यय है, अर्थात् अविनाशी होनेसे जो सदा एक स्वभाव है, वह नित्यक है; अनादि और नित्यक जो होयसो अनादिनित्यक है; यहांपर द्वन्द्व समास है। यह शुद्ध पर्यायार्थिक प्रथम भेद है । किसके समान है; कि मेरु पर्वतके समान, जैसे मेरु पर्वत पुद्गलपर्यायसे प्रवाहद्वारा अनादि और नित्य है, अर्थात् असंख्यात कालमें परस्पर पुद्गलोंका संक्रम होनेपर भी संस्थानसे वह ही मेरु है; न कि-अन्य । इसी प्रकार रत्नप्रभा भूमिआदि पर्याय भी नित्य तथा अनादि समझने चाहियें ॥२॥ अथ द्वितीयो भेद: पर्यायाथिकस्य कथ्यते ।। अब पर्यायार्थिकका द्वितीय भेद कहते हैं । पर्यायार्थिकः सादिनित्यः सिद्धस्वरूपवत् । भावार्थ:-सिद्धस्वरूपके तुल्य "सादिनित्यपर्यायार्थिक" यह पर्यायार्थिकनयका द्वितीय भेद है। व्याख्या। पर्यायाथिको द्वितीयः मादिरादिसहितः पुननित्यःकिंवत् सिद्धस्वरूपवत् । यथा Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०] श्रीमद्रराजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् सिद्धस्य पर्यायः सादिरस्त्युत्पत्तिमत्त्वात् । सर्वकर्मक्षयासिद्धपर्याय उत्पन्नः यस्तु नित्योऽविनश्वरत्वात् । सिद्धपर्यायः सदाकालावस्थितो लभ्यते । राजपर्यायसमं सिद्धपर्यायद्रव्यं भावनीयम् । व्याख्यार्थः– द्वितीय पर्यायार्थिक सादि अर्थात् आदि सहित है; और सिद्धस्वरूपके समान नित्य है, जैसे उत्पत्तिमान् होनेसे सिद्धका पर्याय सादि है; यद्यपि संपूर्ण कर्मोंके क्षयसे सिद्ध पर्याय उत्पन्न हुआ है; तथापि वह अविनाशी होनेसे नित्य है; क्योंकि - सिद्ध पर्याय सदा कालमें अवस्थितरूप मिलता है, इसलिये राज पर्यायके समान सिद्धपर्याय द्रव्यकी भी भावना करनी चाहिये । अथ तृतीयपर्यायार्थिकः श्लोकार्थेन पुनरग्रेन न श्लोकानाह । अब तृतीय श्लोकके उत्तरार्द्धसे तथा चतुर्थश्लोक के पूर्वार्द्धसे पर्यायार्थिकका तृतीय भेद कहते हैं । सत्तागौणतयोत्पादव्यययुक् सदनित्यकः ॥ ३ ॥ एकस्मिन्समये यद्दत्पर्यायो नश्वरो भवेत् । भावार्थ:- सत्ताको गौण माननेसे उत्पत्ति नारासहित अनित्यशुद्धपर्यायार्थिक यह तृतीय भेद है ||३|| जैसे एक समय में जिस पर्यायकी उत्पत्ति होती है; उसका समयान्तर में नाश भी होता है; अर्थात् एक समय में पर्याय नाशशील भी है । व्याख्या । सत्तागोणतथा ध्रुवत्वेनोसादव्ययग्राहकः सदतित्यकः संवासावनित्यश्चानित्यशुद्धत ययार्थिकः कथ्यते । सच्छब्देन शुद्धमित्यर्थस्तदा अनित्यशुद्धपर्यायार्थिको भवति । कीदृश उत्पादव्यययुक् उत्पादश्च व्ययोत्पादव्ययौ ताभ्यां युक् सहितः । सतो हि वस्तुन उत्पादव्ययी पर्यायेण भवतस्तस्मात्सत्तागौणतया सत्ताया अप्राधान्येन, उत्पादव्यययोः प्राधान्येन "अनित्यशुद्धपर्यायार्थिकः " ॥ ३ ॥ तत्र दृष्टान्तमाह ॥ यथैकस्मिन्समये पर्यायो नश्वरः पर्यायो विनाशी भवेत् । यद्वच्छन्दः यथा पर्यायवाचक: । अत्र हि नाशं कथयतः पर्यायस्योत्पादोऽप्यागतः परं ध्रौव्यं तु गौणत्वेन न दर्शितम् । प्राधान्याप्राधान्ययोः प्राधान्यविधिर्बलवान् । तस्माद्यस्य प्रधानत्वं तस्यैवोत्पत्तिनाशयोः समावेशः । सत्ता हि ध्रुवे नाशे च विचरन्त्या - त्मनो गौणत्वव्यपदेशिवर्त्तमानत्वमुभयत्र निक्षिपतीति । व्याख्यार्थः - सत्ताको गौण मानकर अर्थात् अध्रुवत्वका आरोप करके उत्पाद तथा व्यय (उत्पत्ति और नाश) का ग्राहक सदनित्य अर्थात् अनित्यशुद्धपर्यायार्थिक तृतीय भेद कहा जाता है; “सदनित्य" यहां पर जो सत् शब्द है; उसका शुद्ध यह अर्थ करते हैं; और नित्य अर्थ नहीं करते हैं; तब अनित्यशुद्धपर्यायार्थिक यह अर्थ हुआ | कैसा है; यह चत्पाद और व्यय इन दोनों करके सहित हैं; क्योंकि - विद्यमान वस्तुका उत्पाद तथा नाश पर्याय से होता है; इसलिये सत्ताकी अप्रधानतासे और उत्पाद तथा व्ययकी प्रधानतासे अनित्यशुद्धपर्यायार्थिक यह तृतीय भेद कहा गया || ३ || इसी विषय में अग्रिम श्लोकके Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतकणा पूर्वार्द्धसे दृष्टान्त कहते हैं; इस श्लोकमें 'यद्वत्' यह शब्द यथा ( जैसे ) शब्दके अर्थका वाचक है; इसलिये जैसे एक समयमें पर्याय विनश्वर (विनाशशील ) होता है, यहांपर पर्यायका नाश कहतेहुएके पर्यायका उत्पाद भी आगया अर्थात् जैसे एक समयमें पर्यायका नाश होता है। ऐसे ही एक समयमें उसकी उत्पत्ति भी होती है; परन्तु ध्रौव्य( नित्यत्व ) को तो गौणतासे नहीं दर्शित किया क्योंकि--"प्रधान तथा अप्रधान इन दोनोंमें प्रधानविधि अधिक बलवान होती है" इस हेतुसे जिसकी प्रधानता है; उसीका उत्पत्ति और नाशमें समावेश है; और सत्ता जो है; वह तो ध्रुव और नाशमें विचरती हुई पर्यायको उत्पत्ति तथा नाशदशामें अपने गोणत्वव्यपदेशमें वर्तमानताको निक्षिप्त करती है ॥३॥ अथ चतुर्थभेदमुपदिशन्नाह । अब चतुर्थ भेदका उपदेश करते हैं। सत्तां गृह्णन् चतुर्थाख्यो नित्योऽशुद्ध उदीरितः ॥ ४ ॥ यथोत्पादव्ययध्रौव्यरूपै रुद्धः स्वपर्ययः । एकस्मिन्समये-- भावार्थ:-सत्ताको ग्रहण करता हुआ नित्य अशुद्ध पर्यायार्थिक चौथा भेद कहागया है॥४॥ जैसे उत्पाद व्यय तथा धोव्यरूप तीनों लक्षणोंसे रुद्ध स्वकीय पर्याय एक समयमें है। व्याख्या । सत्तेति । सतां ध्र वत्वं गृलनङ्गीकुर्वन् चतुर्थास्यश्चतुर्थो भेदो नित्याराद्धपर्यायाथिक उदीरितः कथित इति श्लोकार्थः ॥ ४ ॥ अथामुमेत्र दृष्टान्तेन द्रढयति । यथैकसमय मध्ये पर्यायो रूपत्रययुक्त उत्पादव्ययध्रौव्यलक्षण रुद्धः । किं च कोऽपि पर्यय, उत्तरचरो रूपादि: पाकानुकूलघटे श्यामवर्णः पूर्वचरो नष्टस्तत उत्तरो रक्तवर्ण उत्पन्नः रूपी घटः श्यामो वा रक्तो वेति वितर्यमाणः सत्तया तथाकारपरिणतपर्ययः प्राप्यत इति । अत्र हि पर्यायस्य शुद्धरूपं सत्ता सा यदि गृह्यते तदा नित्याशुद्वपर्याधायिको भवति । सत्तादर्शनमेवाशुद्धमिति । व्याख्यार्थः--सत्ता(ध्रवत्व)को अंगीकार करता हुआ नित्य अशुद्ध पर्यायार्थिक यह चतुर्थभेद कहा गया है। यह चतुर्थ श्लोकके उत्तरार्द्धका अर्थ है॥४॥ अब पञ्चम श्लोकके पूर्वार्द्धसे पूर्व विषयको दृष्टान्तसे दृढ़ करते हैं। जैसे एक समयमें पर्याय उत्पाद, व्यय तथा ध्रौव्यरूप तीनों लक्षगोंसे अवरुद्ध (युक्त) है; क्योंकि-याकके अनुकूल घटमें जब पूर्वचर (पहला) श्यामवर्णरूपी पर्याय नष्ट हुआ तब उत्तरचर रूपादि अर्थात् आगे होनेवाला रक्तवर्ण उत्पन्न हुआ। यहांपर घट है; सो रूपवाला है; परन्तु श्याम है; अथवा रक्त है। इस प्रकार जब उसके रूपका विचार कियागया तब सत्तासे उस रक्त आकारको परिणत होकर रक्त पर्यायको प्राप्त होता है। अब यहां रक्तपर्यायका उत्पाद श्यामपर्यायका व्यय (नाश) तथा घट द्रव्यका ध्रौव्य इस प्रकार उत्पाद व्यय तथा ध्रौव्य स्वरूप तीनों लक्षणोंसे युक्त है। यहां पर्यायका ११ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् शुद्ध स्वरूप सत्ता है; वह सत्ता जब ग्रहण की जाती है; तब नित्य अशुद्ध पर्यायार्थिक यह चतुर्थ भेद सिद्ध होता है । यहांपर सत्ताका जो दर्शन है; सो ही अशुद्ध है; इस लिये यह नित्य अशुद्ध पर्यायार्थिक नय कहलाया । अथ पञ्चमभेदोत्कीर्त्तनं करोति । अब पंचम भेदका वर्णन करते हैं । ऽथातः पर्यायार्थिकपञ्चमः ॥ ५ ॥ कर्मोपाधिविनिर्मुक्तो नित्यः शुद्धः प्रकीत्तितः । यथा सिद्धस्य पर्यायैः समो जन्तुर्भवी शुचिः ॥ ६ ॥ भावार्थ:- अब इसके आगे पर्यायार्थिकका पंचम भेद ॥ ५ ॥ नित्यशुद्ध पर्यायार्थिक कहागया है । कैसा है; यह नय कर्मजनित उपाधियोंसे रहित है । जैसे संसारी जीव सिद्धके पर्यायोंके समान पवित्र है ॥ ६ ॥ व्याख्या । अथातः परं पर्यायार्थिकपञ्चमो ज्ञेयः ॥ ५ ॥ नित्यशुद्धपर्यायार्थिकोऽस्ति । कीदृशः कर्मोपाधिविनिर्मुक्तः कर्मणामोपाधिकानांमन्यद्रव्याणां कुतश्चित्सङ्गतानामुपाधिः साहचर्यं तेन विनिर्मुक्तो रहितः कर्मोपाधिविनिर्मुक्तः । यथेति यथाशब्देन दृष्टान्तं विषयीकरोति । यथा भत्री मवः संसारोऽस्तीति भवी संसारी जन्तुः प्राणी सिद्धस्य कर्मोपाधिविनिर्मुक्तस्य सिद्धस्य पर्यायः समः शुचिर्निर्मलः । संसारे संसरतः प्राणिनोऽष्टावपि कर्माणि सन्ति तानि च विचार्यमाणान्युपाधिरूपाणि वर्तन्ते । यद्वदग्नेः शुद्धद्रव्यस्याद्रन्धन संयोगजनितो घूम औपाधिक एव संमाध्यते । तद्वदिहापि विद्यमानान्यपि कर्माण्यनात्मगुणaatपाधिकानि सन्ति । अनस्तेभ्यो युक्तोऽप्ययुक्ततया विचिन्त्यमानः प्राणो सिद्ध एवेति कर्मोपाधिभाव: सन्नपि न विवक्षणीयः । अथ च ज्ञानदर्शनचारित्राणि छन्नान्यपि बहिः प्रकटतया विवक्षितानि । ततो नित्यशुद्धपर्यायार्थिक भेदस्य भावना संपद्यते ॥ ६॥ व्याख्यार्थः:- अब इस चतुर्थभेदके पश्चात् पर्यायार्थिकका पञ्चम भेद जानना चाहिये || ५ | वह पंचमभेद नामसे " नित्यशुद्वायार्थिक" है । वह कैसा है; किकर्मोपाधिविनिर्मुक्त है; अर्थात् कर्म जो किसी कारणवशसे संगत उपाधिक अन्य द्रव्य हैं; उनकी जो उपाधि ( साहचर्य ) अर्थात् आत्माकी साथ सहभाव है; उससे रहित है । जैसे भव ( संसार ) को धारण करनेवाला जो भत्रो अर्थात् संसारी जीव है; वह कर्मोंकी उपाधि से रहित ऐसे जो सिद्ध हैं; उनके समान शुचि अर्थात् निमल है । भावार्थ संसार में भ्रमण करनेवाले प्राणीके आठ कर्म हैं। और वे विचारे जाते हैं; तो उपाधिरूप हैं; जैसे शुद्ध अग्निरूप क्रयका आर्द्र ( गीले) इन्धनले उत्पन्न धूम उपाधिरूप ही संभावित है; ऐसे ही सहज शुद्धभाव आत्मामें सब कर्म आत्मा के निजगुण न होने से आधिजनित ही हैं, इसलिये यद्यपि संसारी आत्मा उन कर्मोंसे युक्त है; Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ ८३ तथापि उसको जब उन कर्मोंसे अयुक्त (रहित ) विचारा जाता है; तो वह सिद्ध ही है; तात्पर्य यह कि-संसारी जीवके कर्मरूप उपाधिभाव है; वह विद्यमान होते भी विवक्षित न किया जाय और उन कर्मोंसे ढके हुये भी जो बान, दर्शन चारित्ररूप सहजस्वभाव हैं; उनको वाह्य में प्रकट रूपपनेसे कहें तब नित्य शुद्ध पर्यायार्थिक नामक पंचम भेदकी भावना सिद्ध होती है ।। ६॥ अथ पर्यायार्थिकस्य षष्ठभेदोपकीर्तन माह । अब पर्यायार्थिक नयके षष्ठ (छठे) भेदके निरूपणार्थ यह सूत्र कहते हैं । अशुद्धश्च तथानित्यपर्यायाथिकोऽन्तिमः । यथा संसारिणः कर्मोपाधिसापेक्षकं जनुः ॥७॥ भावार्थः-तथा अशुद्ध और अनित्य अंतिम पर्यायार्थिक है; जैसे संसारी प्राणीका जन्म इस संसारमें कर्मरूप उपाधिकी अपेक्षा रखता है ॥७॥ ध्याख्या । कर्मोपाधिसापेक्षोऽशुद्धो विनश्वरत्वादनित्यः । एवमनित्यमादों कृत्वा अशुद्धततो योजयित्वा पर्यायाथिकपदेन समुच्चार्यते तदा षष्ठोऽन्तिमोभेदोऽनित्याशुद्धपर्यायाथिको निष्पद्यते । अथ तस्योदाहरणमाह । यथा संसारिणः संसारबासिजनस्य जनर्जन्म कर्मोपाधिसापेक्षकं प्रवर्तते । जन्ममरणव्याधयो वर्तमाना: पर्याया अनित्या उत्पत्तिविनाशशालित्वात पुनरशुद्धा कर्मसंयोगजनितत्वात् । भवस्थितानां प्राणिनां भवन्तीति । अत एव मोक्षाथिनो जीवा जन्मादिपर्यायाणां विनाशाय ज्ञानादिना मोक्षे यतन्ते । तस्मात्कर्माण्यनित्यान्यशुद्धानि तैः सापेक्षकं जन्माद्यप्यनित्यमशुद्ध चेत्थं योजनया निष्पन्नो नयोऽपि “अनित्याशुद्धपर्यायार्थिकः कथ्यत इत्यर्थः ॥ ७ ॥ व्याख्यार्थः-कर्मरूप उपाधिके सापेक्ष होनेसे अशुद्ध, विनाशी होनेसे अनित्य यह नय है, इस प्रकार प्रथम अनित्यशब्दकी तथा पुनः अशुद्ध शब्दकी योजना करके पश्चात् पर्यायार्थिक शब्दके साथ उच्चारण करनेसे यह अन्तिम भेद अनित्य अशुद्ध पर्यायाथिक सिद्ध होता है। इसमें उदाहरण देते हैं; कि-जैसे संसारी जीवका जन्म कर्मरूप उपाधिके सापेक्ष है। भावार्थ-संसारो जीवोंके जन्म मरणरूप जो व्याधिये हैं; उनमें वर्तमान जो पर्याय है; वे अनित्य हैं; क्योंकि-इन पर्यायोंका स्वभाव उत्पन्न तथा विनाश होनेका है; और फर्मोंके संयोगसे उत्पन्न होते हैं। इस कारण वे पर्याय अशुद्ध भी हैं। इसीसे मोक्षार्थी जीव जन्म मरण आदि पर्यायांका नाश करने के अयं ज्ञान आदि द्वारा मोक्षके विषयमें प्रयत्न करते हैं। इस कारणसे कर्म अनित्य तथा अशुद्ध हैं; और उन कर्मोंकी अपेक्षा रखनेवाले जन्मआदि भी अशुद्ध हैं; और इस प्रकारको (अनित्य तथा अशुद्धकी) योजनासे सिद्ध हुआ जो नय है; वह भी अनित्य अशुद्ध पर्यायार्थिक कहा जाता है ॥७॥ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् अथ नगमादिनयानां भेदानाह । द्रव्यार्थिक तथा पर्यायार्थिक नयोंके भेदोंको निरूपण करके अब नैगमसंग्रहआदि नयोंके भेदोंको कहते हैं। नैगमो बहुमानः स्यात्तस्य भेदात्रयस्तथा । वर्तमानारोपकृते भूतार्थेषु च तत्परः ॥ ६ ॥ भावार्थः-नैगमनय बहुमान अर्थात् सामान्य विशेषआदि अनेकरूपका ग्राही है; और उसके तीन भेद हैं; उनमें भूतार्थके विषयमें जो वर्तमानका आरोप करनेके लिये तत्पर है; वह नैगमनयका प्रथम भेद है ।।९।। व्याख्या । नैगमो नयो बहुमानः सामान्यविशेषादिबहुरूपज्ञानस्य ग्राही कथ्यते । नैकर्मानैर्गम्यते मीयत इति नैकगम: ककारलोपान्नैगम इति व्युत्पत्तिः । तस्य नैगमनयस्य भेदाः प्रकारास्त्रयः । ततश्च तत्र च त्रिषु भेदेषु प्रथमो भेदोऽयं भूतार्थेषु तत्परः भूतार्थविषयेषु वर्त्तमानारोपकृते वर्तमानरोपकरणाय तत्परो लीन ईदृशो नैगमो भूतादिनैगमः प्रथमो ज्ञेयः ॥ ६ ॥ व्याख्यार्थः-सामान्य तथा विशेषआदि बहुतरूप ज्ञानका ग्राही होनेसे यह नैगमनय बहुमान कहा जाता है । इस नैगम शब्दकी सिद्धि यों मानी है; कि-न एकगम-नैकगम, पुनः ककारका लोप करनेसे नैगम ऐसा हो गया; नहीं जो एक अर्थात् अनेक प्रकारसे जिसका मान किया जाय वह नैगम है । इस प्रकार इसकी व्युत्पत्ति है; इस नैगमनयके तीन ( भूतनैगम, भावीनैगम तथा भावीवर्तमाननैगम ) भेद हैं; और उन तीनों भेदोंमेंसे जो प्रथम भेद है; वह भूतपदार्थमें वर्तमानका आरोप करनेमें तत्पर है; ऐसा भूतादि नैगम, नैगमनयका प्रथम भेद जानना चाहिये ।। ९ ॥ अथास्योदाहरणमाह । अब इस प्रथम भेदका उदाहरण कहते हैं। भूतादिनगमस्त्वाद्यो यथा वीरजिनेश्वरः । दीपोत्सवदिने चास्मिन्गतो मोक्षं निरामयः ॥ १० ॥ भावार्थः-भूतादिनैगम प्रथम भेद है, जैसे इसी दीपमालिकाके दिन सब विकारशून्य भगवान् श्रीवीर ( वर्द्धमान ) जिनेश्वर मोक्षको गये हैं ॥ १० ॥ व्याख्या । यया श्रीवीरजिनेश्वरोऽस्मिन्दीपोत्सवदिने निरामयः कर्मप्रपञ्चरहितो मोक्षं गतः । अत्र ह्यतीतायां दीपमालायां प्रमोर्मोनकल्याणकं जातम, परवस्मित्रित पदेशाद्यनुभवत्वं कलिनम, अतीतदोपमालयां वर्तमानदीपमालाया आरोपः कृतः । वर्तमानदिनविषये भूतदिनस्यारोपस्तु तत्कालीनदिने देवागमनादिकमहाकल्यागकमाजते पहभूपदिने देवगनादिनहाकायाम जो सति चातस्मिस्तदध्यारोप आरोपः, असर्पभूतायां रजो सारोपवत् । अन्यश्वारजतभूतायां शुक्ती रजतारोपवदित्यारोपस्तु द्रव्यविषयी, Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ ८५ raise प्रगुणोऽपि नानुसन्धेयः किश्व | कालावच्छेदेन विचार्यमाणः पदार्थः कालान्तरेण प्रदर्शनीय स्तेनात्र भूतकालो हि तत्सदृशनामवर्तमानकालमुपलक्ष्य स्मर्यतेऽतो भूते वर्त्तमाना रोपप्रतीतिरुत्पद्यते । अथवातीतदीपोत्सवे वर्त्तमानदीपोत्सवस्यारोपं कुर्वन्ति, पुनश्च वर्त्तमानदिने भूतदिनस्यारोपं कुर्वन्ति, कस्मैचित्कार्याय, तत्वार्यन्विदम् - यदा भगवतो निर्वाणं जातम् त्वानेव सुरसम्पातो जातः, सुराद्यागमनमहामहोत्सवादिविरचनेन व तद्दिनप्रतीतिर्जाता अतः प्रतीतिप्रयोजनाय भूते वर्तमानारोपः । यथा "गङ्गायां घोष: " अत्र गङ्गायामिति पदेन गङ्गातटे गङ्गाया आरोप: क्रियते । तत्त शैत्यपावनत्वादिप्रत्यायन प्रयोजनाय । तद्वदिहापि घटमानमस्ति । यदि वीरस्य सिद्धिगमनेनान्वयानुभावकत्वात्प्रकर्षभक्तिलाभाय प्रतीतिर्विचिन्त्यते, तर्हि तत्तद्दिनसमुदितप्रतीतियुक्त वर्त्तमानदिनमप्यन्वयेनारोप्यते "तत्सत्त्वे तत्सत्त्वमन्वय" इति वचनन्यायाभ्यां समन्वेतव्यम् । वस्तुतस्तु "वर्त्तमानापकृते" वर्त्तमानारोपाय "भूतार्थेषु" भूतविषयेषु तत्परो लीनो भूतनैगमः प्रथमः । यथा दीपोत्सवदिनमद्य वर्त्तते, अत्र वीरेण शिवं प्राप्तमित्य तीतदिन लक्षितवीरनिर्वाणकल्याणकत्वं वर्तमानतन्नामदिन प्राप्तावारोपितं महाकल्याणकप्रतीतिप्रयोजनायेति दिक् । अलङ्कारनिपुणैरत्रार्थेऽलङ्कारग्रन्थोऽपि द्रष्टव्यः ॥ १० ॥ आगमनरूप महाकल्याणका भाजन व्याख्यार्थ :- जैसे संपूर्ण रोगोंसे अर्थात् कर्मरूप प्रपंचोंसे रहित होकर श्रीमहावीर जिनेश्वर इस दीपोत्सव ( दीपमालिका ) के दिनमें मोक्षको गये हैं । यहां पर महावीर भगवान्का मोक्ष कल्याणक अतीत दीपमालिका अर्थात् कई दीपमालिकाके पूर्व जो दीपमालिकाका दिन है; उसमें हुआ है, परन्तु " अस्मिन् " इस पदसे आज के ही दिनका अनुभव कल्पित किया गया है; इसलिये अतीत दीपमालिकामें वर्त्तमान दीपमालिCTET आरोप किया, और वर्त्तमान दिनके विषय में भूत दिनका आरोप तो उस दिन ( वर्त्तमान दीपमालिकाके दिन ) को देवताओंके न होनेपर और भूत दिन ( जिस दिन श्रीवीर भगवान् मोक्षको गये उस दिन ) को देवताओंके आगमनका भाजन होनेपर अर्थात् वर्त्तमान दिनमें तो देवआदि आके प्रभुके मोक्ष सन्बन्धी महाकल्याणक नहीं करते और भूत दिन ( जिस दिन मोक्ष गये उस दिन ) देवोंने आके महाकल्याणक किया था ऐसा व्यवहार दृष्ट होता है; इस लिये आरोप होता है, अर्थात् वर्त्तमान में ही भूतका आरोप होता है; क्योंकि - जो वह नहीं है; उसमें उसका जो धारण करना है; उसको आरोप कहते हैं; इसलिये यहाँ वर्त्तमान दीपमालिकामें भूत दीपमालिका महाकल्याणक नहीं है; तथापि इसमें उसको धारण करलिया अतः यह आरोप हुआ और जिस रज्जु ( डोर ) में सर्प नहीं हैं; अर्थात् जो रज्जू सर्परूप नहीं है; उसमें सर्पका आरोप करलेना अर्थात् उस रज्जुको भ्रमसे सर्प मान लेना अथवा जो सीप चाँदीरूप नहीं है; उसमें चाँदीका आरोप Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् करना इस प्रकारका जो आरोप है; वह तो द्रव्यके विषयमें हैं । इसलिये यहांपर प्रगुणका अनुसंधान भी नहीं करना चाहिये, किन्तु जिस पदार्थका कालावच्छेदसे विचार कियाजाय तो उसको अन्य दूसरे कालसे ही दिखलाना चाहिये । इस कारण यहांपर भूत काल जो है; उसके सदृश नामके धारक वर्तमानकालको पाकर उस भूतकालका स्मरण किया जाता है। इस कारण भूतमें वर्तमानकालके आरोपकी प्रतीति उत्पन्न होती है । अथवा अतीत ( गये हुए ) दीपोत्सवमें वर्तमान दीपोत्सवका आरोप इस नंगमनयसे करते हैं । और वर्तमान दिनमें भूत दिनका आरोप करते हैं । और यह आरोप किसी कार्यकेलिये किया जाता है । और वह कार्य यह है; कि - जिस समय भगवानका निर्वाण हुआ उस समय अनेक देवताओंका यहांपर समागमन हुआ और उस दिन जो देव आदिका आगमन हुआ तथा उन्होंने आकर जो महामहोत्सव आदिकी रचना की जिससे उस दिनकी प्रतीति उत्पन्न हुई । इसलिये प्रतीतिरूप प्रयोजनकेलिये भूतमें वर्तमानत्वका आरोप कियागया है। जैसे कि-"गंगामें घोष ( अहीरोंका ग्राम ) है" यहांपर गंगाजीके तटमें गंगारूप अर्थका आरोप किया जाता है; और वह आरोप शैत्य ( ठंडापन ) पावनत्व ( पवित्राना ) धर्मको अधिकता द्योतनरूप प्रयोजनकेलिये किया गया है, इसी प्रकार यहां भी प्रयोजन संघटित हो सकता है । यदि श्रीमहावीरस्वामीके मुक्तिमें जानेसे उसके अन्वगको प्रीतिआदिके विषयमें अनुभवका हेतु होनेसे अधिक भक्तिके लाभार्थ प्रतीतिका विचार किया जाय तो उस दिनमें सम्यक् प्रकारसे उदयको प्राप्त प्रतीतियुक्त वर्तमान दिवस भी अन्वयसे आरोपित किया जाता है । और उस कल्याण दिनकी सत्ताहीसे भक्तिआदि लाभकी जो सत्ता है; सो ही अन्वय है। क्योंकि " तत्सत्त्वे तत्सत्त्वमन्वयः " अर्थात् “उसके होनेपर उसकी सत्ता अर्थात् कारणके रहनेपर कार्यकी सत्ता” इत्यादि वचन तथा न्यायसे यहां आरोपका अन्वय करना चाहिये । और यथार्थ में तो भूत पदार्थों में वर्त्तमानके आरोपकेलिये जो तत्पर है; वही भूतनैगम प्रथम भेद है। जैसे आज दीपोत्सव दिन है; इसी दिन श्रीमहावीरस्वामीने मोक्षको प्राप्त किया है। यहां भूत दिनसे उपलक्षित श्रीवीरका मोक्ष कल्याणकको प्राप्त होना वर्तमानमें उसी ( दीपोत्सव ) नामक दिनको प्राप्त होनेपर महाकल्याणककी प्रतीतिके प्रयोजनकेलिये आरोपित है; यह संक्षेपसे भूतनैगमनयका मार्ग दर्शायागया है। और अलंकारशास्त्रमें प्रवीण जनोंको इस अथमें अलंकारका ग्रन्थ भी देखना उचित है ॥९॥ अथ नैगमस्य द्वितीयभेदमुदाहरति । अब नैगमनयके द्वितीय भेदका उदाहरण कहते हैं। . Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा भूतवन्नैगमो भावी जिनः सिद्धो यथोच्यते । केवल सिद्धवद्धर्त्तमाननैगमभाषणे ॥ १० ॥ भावार्थ:- भूतके साथ भावनैगम द्वितीय भेद है । जैसे जिन भगवान् सिद्ध हैं, तथा वर्त्तमान नैगमके कथनमें सिद्धवत् आरोपसे केवली सिद्ध हैं । ऐसा भी व्यवहार होता है ॥ १० ॥ [ ८७ व्याख्या | भावी नैगमो भूतयुक्तो ज्ञेयः । भाविनि भूतवदुपचारो । यथा हि जिनः केवली सिद्धः सिद्धवज् ज्ञायते तदा भावी नैगमो भवति । असिद्धोऽपि जिनः सिद्धवज्जीर्णज्वलित रज्जुप्रायाघातिकर्मचतुष्टयसद्भावेऽपि शीघ्रभावितक्षयोपस्थितावसिद्धोऽपि सिद्ध एवेति ज्ञेयम् । अथ तृतीय भेदमाह । अनिष्पन्नमपि निष्पन्नतया व्यपदिश्यमानं भावि वर्त्तमानमिवान्वेषणीयमिति । यथा हि केवली केवलज्ञानकलितो भगवान् त्रयोदशगुणस्थानस्थितः सिद्धः कर्मदोषपोषविकलः संभाव्यते । वर्तमानदशायां हि जिनावस्था वर्त्तते कियकालानन्तरं भाविनी सिद्धावस्थानुदिताच्यारोपबलादयं केवली सिद्ध इति भाविविषयो वर्त्तमानविषयतया गृहीतस्तस्मात् माविनैगमः । अत्र हि किञ्चित्सिद्धमुत किञ्चिदसिद्धमेतदुभयमपि जिनः सिद्धवद्वर्त्तमाननैगमाद् ज्ञेय इति ॥१०॥ व्याख्यार्थ::- अब भावी नैगमको भूत संयुक्त समझना चाहिये अर्थात् भावीमें भूतके समान उपचार होता है । जैसे “जिन भगवान् जो केवली हैं; सो सिद्ध हैं; अर्थात् सिद्धकी तरह जाने जाते हैं” ऐसे व्यवहारमें भावीनैगम होता है । असिद्ध भी जिन सिद्धके समान हैं; अर्थात् जीर्ण ( पुरानी या जूनी) तथा अग्निसे प्रज्वलित रज्जु (रस्सी) के सदृश जब अघातिया चार कर्मोंका अर्थात् आयुकर्म, गोत्रकर्म, नामकर्म और वेदनी इन अघातिया कर्मचतुष्टय के सद्भाव ( विद्यमानता ) में भी शीघ्रतासे उन कर्मोंके नाशको उपस्थित होनेसे असिद्ध भी सिद्ध ही है । ऐसा समझना चाहिये । अब तृतीय भेदका वर्णन करते हैं - असिद्ध भी सिद्धि निकट होनेसे जब सिद्धतासे कहाजाता है; तब भावी भी वर्त्तमानके सदृश जानना चाहिये; जैसे केवली अर्थात् त्रयोदश १३ वें सयोगकेवली नामक गुणस्थान में विराजमान केवलज्ञानके धारक श्रीजिनेन्द्र भगवान् सिद्ध अर्थात् कर्मरूप दोषोंकी जो पुष्टि है; उससे रहित संभावित होता है । भावार्थ- वर्त्तमान दशामें जिन अवस्था विद्यमान है, कुछ कालके पश्चात् सिद्ध अवस्था होनेवाली है; वह सिद्धावस्था इस वर्त्तमान जिन अवस्था में उदयको प्राप्त नहीं हुई है; तथापि आरोपके बलसे यह केवली (श्रीजिनेन्द्र ) सिद्ध हैं; इस प्रकार भावी जो सिद्ध अवस्थारूप विषय है, वह वर्त्तमान विषयपने से ग्रहण कियागया इस कारण यह भावी नैगमनामक नैगमनका तृतीय भेद है । यहांपर श्रीजिनेन्द्र किसी अंश में तो सिद्ध और किसी अंशमें असिद्ध ऐसे सिद्धासिद्धरूप है; तो भी वर्त्तमान नैगमसे उनको सिद्धके समान जानना चाहिये ||१०|| Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ ] श्रीमद्रराजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् अर्थतस्यैवोदाहरणं पक्षान्तरव्युदासाय प्रकटीकरोति । अब अन्य पक्षोंके निरासार्थ इसी नैगमका पुनः उदाहरण देते हैं । आरोपाद्वर्त्तमानश्च यथाभक्तं पचत्यसौ । अत्र भूतक्रियां लात्वा भूतवाक्यं विलुप्यते ॥ ११ ॥ भावार्थ:- आरोपले भूत तथा भविष्यत् भी वर्त्तमानके तुल्य ही होते हैं; जैसे यह भात पकाता है; यहां पर भूत क्रियाको वर्त्तमानरूपसे ग्रहण करके भूतकालिक वाक्यका प्रयोग नहीं करते || ११ ॥ व्याख्या । आरोपाद्वर्त्तमानो भवति यथा असौ देवदतो मक्तं पचतीति वर्त्तमानता परमत्र भक्तस्य कियन्तोऽवयवाः सिद्धाः सन्ति, अथ च कियन्तञ्च वयवाः सिद्ध्यमानाः सन्ति । परन्तु पूर्वापरभूतावयवक्रियायाः सन्तानो ह्येकबुद्धयारोप्यमाणो वर्तमानारोपाऽस्तीति । कथयति अत्र हि कश्चित् । आरोपसामग्रीमहिम्ना अवयवानां भूतक्रियां लात्वा पचतीति स्थाने अपाक्षीदिति प्रयोगं न करोति यतस्तदुक्तिः । नैयायिकस्तु चरमक्रियाध्वंसः पाक इत्यत्रातीत प्रत्ययविषयता तन्मते किञ्चित्पत्वम्, किञ्चिदपक्वम् पच्यत इति प्रयोगान्न भवितुमर्हति तस्मादत्र वर्तमाना रोपनैगम एव भेदो ज्ञातव्यः । तेनैवात्र भूतक्रियां लावा भूतवाक्यं विलुप्यते तदसमञ्जममेवेति ॥ ११ ॥ 1 व्याख्यार्थः- आरोपसे भूत तथा भावी भी वर्त्तमान हो जाता है । जैसे यह देवदत्त भात पकाता है । यह पर भातकी वर्त्तमानदशा प्रतीति होती है । परन्तु पाककालमें भातके कुछ अवयव तो सिद्ध (सीझे ) हैं; और कितने ही अवयव सिद्ध होने ( पकने ) वाले हैं, तथापि पूर्व अपर अवयवभूत क्रियासमूहको एक बुद्धिमें आरोप करनेसे 'पचति' ( पकाता है ) यह वर्त्तमानत्वका आरोप है । ऐसा यहांपर कोई कहता है । और वह आरोप सामग्रीकी महिमासे अवयवोंकी भूतक्रियाको करके "पचति' पकाता है. इसके स्थान में 'अपाक्षीत् ' ( पकाया ) ऐसा प्रयोग नहीं करता है; इसीलिये उसका यह पूर्वोक्त कथन है । और नैयायिक तो अन्तिम क्रियाके नाशको पाक कहते हैं; अर्थात् तंडुलोंको चूल्हेपर रखनेसे आदिके जब तक अन्तिम क्रिया चांवलोंके सब अवयवोंको पकाकर नष्ट न होजाय तत्र तक पाक यहां पर भूतकालकी विषयता है । उनके मत में चांवलका कुछ अंश पक्व है; और कुछ अंश अपक्व है; इस दशा में "देवदत्तेन ओदनः पच्यते" देवदत्त चांवल पकाता है; यह प्रयोग देखने में आता है; सो नहीं हो सकता। क्योंकि — अभी तक अन्तकी क्रियाका नाश तो हुआ ही नहीं, इस हेतुसे पचति इस स्थल में भावि नैगमसे वर्त्तमानका आरोप मानते हैं । इसलिये 'पाक' १ " वर्त्तमाने" लट्” इस पाणिनीय ३ । २ । १२३ । सूत्रसे वर्त्तमान कालमें लट् लकार होता है; और भूतकाल में लुङ् होता है; वर्तमान में "पचति" भूतमें "अपाक्षीत्" रूप होता है । Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा पही उत्तम जानना चाहिये इसीसे यहाँ भूत क्रियाको लाकर जो भूतवाक्यका लोप किया जाता है; वह असमंजस ही है ।। ११ ।। अथ संग्रहनयं विवृणोति । अब संग्रहनयका विवरण करते हैं। सङग्रहो द्विविधो ज्ञेयः सामान्याच्च विशेषतः । द्रव्याणि चाविरोधोनि यथा जीवाः समे समाः ॥१२॥ भावार्थ:-सामान्य तथा विशेषसे संग्रहनयके दो (२) भेद हैं; जैसे द्रव्य सब अविरुद्ध स्वभाव हैं, और सब जीव समान हैं ।। १२ ।। व्याख्या । संगृह्णौतीति संग्रहः, अथवा संगृह्यतेऽनेन सामान्यविशेषाविति संग्रहः । स च द्विविध: द्विप्रकारः । तयोरेक: सामान्यौघात् सामान्यसंग्रहः १ द्वितीयो विशेषान्द्यक्त विशेषसंग्रहः २ इत्थं द्विभेदः । अथानयोः प्रत्येकमुदाहरणे द्रव्याणि धर्मास्तिकायादीन्यविरोधीनि परस्परविरोधरहितानीत्यर्थः । एकद्रव्य .. सद्भावे द्रव्यषटकमेव प्राप्यत इति प्रथमोदाहरणम् ॥१॥ यथा च जीवाः सर्वेऽविरोधिनो जीवा हि संसृतिविषयिणः सिद्धिविषयिणश्वानन्ता वर्तन्ते तेषां निरुक्ति:-जीवति चैतन्यादिति जीवः । अथ च जीवप्राणधारणे तत्र प्राणा द्विधा द्रव्यमावभेदात्तत्र च द्रव्यप्राणा दश, भावप्राणाश्चत्वारः । मोक्षप्राप्ती यद्यपि द्रव्यप्राणानां कर्मजन्यानां सर्वथा क्षयस्तथापि जीवनलक्षणा जीवस्य भावप्राणाः सहचारिण: कर्मासद्भावेऽपि भवन्ति सिद्धानामपि जीवस्वाद्भावप्राणा भवन्त्यतो मुक्ता: संसारिणश्न जीवाः । मुक्ताः पुनः पञ्चदशभेदाः, संसारिणो देवनारकतिर्यङमनुष्यभेदाच्चतुर्धा तत्रान्तिमभेदयोः पञ्च भेदास्तत्रापि मनुष्यस्य पञ्चाक्षलक्षण एक एव भेदः, तिरश्च एकस्मादारभ्य पञ्च यावत् । अक्षभेदादेकाक्षग्द्यक्षश्यक्षचतुरक्षपञ्चाक्षभेदात्पञ्च भवन्ति । एवं भेदतोऽपि जीवाः सर्वेऽविरोधिनः संग्रहाद्विशेषसंग्रहभेदः ॥ २ ॥ अथ च संग्रहस्वरूपमुपवर्णयन्ति । सामान्यमात्रग्राही परामर्शः संग्रह इति, सामान्यमात्रमशेषविशेषरहितम् । स तु द्रव्यत्वादिकं गृह्णातीत्येवं शीलः । समेकीमावेन विशेषराशि गृह्णातीति सग्रहः । अयमर्थः स्वजातेष्टेष्टेष्टाभ्यामविरोधेन विशेषाणामेकरूपतया यग्रहणं स संग्रह इति । अनुभेदानादर्शयन्ति । अयमुभयविकल्पः परोऽपरश्चति । तत्र परसंग्रहमाहुः । अशेषविशेषेष्वौदासीन्यं मजमानः शुद्धद्रव्यं सन्मात्रमभिमन्यमानः परसंग्रह इति परामर्श इति । अग्रेतनेऽपि योजनीयमुदाहरति । विश्वमेकं सदविशेषादिति यथेति । अस्मिन्ननुक्त हि सदिति ज्ञानाभिधानानुवृत्तिलिङ्गानुमितिसत्ताकत्वेन कत्वमशेषार्थानां संगृह्यते ॥ १२ ॥ व्याख्यार्थः-जो संग्रह करे अथवा जिसके द्वारा सामान्य तथा विशेष संग्रह किये जावें उसको संग्रहनय कहते हैं। वह दो प्रकारका है। उनमें प्रथम तो सामान्य ओघसे सामान्यसंग्रहनामक भेद है; और द्वितीय विशेषसे व्यक्तिका संग्रह करनेसे विशेषसंग्रह भेद है। इस रीतिसे सामान्य संग्रह और विशेष संग्रह यह दो (२)भेद संग्रहनयके हुवे । अब इन दोनोंमेंसे प्रत्येकके उदाहरण यह हैं, जैसे धर्मास्तिकायआदि सब द्रव्य अवि १२ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० ] श्रीमद्रराजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् रोधी अर्थात् परस्पर विरोधरहित हैं। क्योंकि - एक द्रव्यके सद्भावमें छहों द्रव्योंकी प्राप्ति होती है । यह प्रथम सामान्यसंग्रहका उदाहरण है । तथा जैसे संपूर्ण जीव अविरोधी हैं । और संसृतिविषयी ( संसारी ) तथा सिद्धिविषयी ( मुक्त ) जीव अनन्त हैं । और उनकी निरुक्ति (व्युत्पत्ति ) अर्थात् जीव शब्दका अर्थ यह है; कि जो चैतन्यसे जीता है; उसको जीव कहते हैं । अथवा जीव धातुका अर्थ है; प्राण धारण करना और वह प्राण द्रव्य तथा भाव भेदसे दो प्रकारके हैं । उनमें भी द्रव्यप्राण तो दश १० हैं; और भाव प्राण चार ४ हैं । और जब जीवके मोक्षकी प्राप्ति होती है; तब यद्यपि कर्मसे उत्पन्न होनेवाले जो दश १० द्रव्यप्राण हैं; उनका सर्वथा नाश हो जाता है; तथापि जीवके सहचारी जीवनरूप चारों ४ भावप्राण कर्मोंके अभाव में भी जीवके होते हैं; अर्थात् सिद्धोंके भी जीवत्व होनेसे भाव प्राण हैं; इसलिये जीव मुक्त तथा संसारी ऐसे दो प्रकार के हैं । फिर मुक्त जीवोंके भी पन्द्रह १५ भेद' हैं । और देव नारक तिर्यन और मनुष्य इन भेदोंसे संसारी भी ४ प्रकारके हैं। उनमें भी अन्तके दो भेदोंके अर्थात् तिर्यञ्च और मनुष्योंके पांच भेद हैं, उनमें भी मनुष्यका पञ्चेन्द्रियत्वरूप एक ही भेद है, तिर्यञ्च एकसे लेकर पांच तक हैं; अर्थात् इन्द्रियजनित भेदसे अर्थात् एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, और पञ्चेन्द्रिय इन भेदोंसे पांच प्रकारके होते हैं। इस रीति से यद्यपि जीव भेदसहित हैं; तथापि सब जीव अविरोधी हैं; अर्थात् जीवन धारण करनेमें किसी जीवका विरोध नहीं है। जीव द्रव्यविशेषका संग्रह करनेसे यह दूसरा भेद विशेष संग्रहनामक है । २ । अब संग्रहनयके स्वरूपका वर्णन करते हैं । सामान्यमात्रका ग्रहण करनेवाला जो ज्ञान सो संग्रह है; संपूर्ण विशेषोंसे जो रहित है; उसको सामान्यमात्र कहते हैं; और वह द्रव्यत्वआदिको ग्रहण करनेवाले स्वभावका धारक है। तथा सम् अर्थात् ऐकीभावसे पिण्डीभूत विशेष राशिको जो ग्रहण करे वह संग्रह है । तात्पर्य यह कि- स्वकीय जातिले जो दृष्ट तथा इष्ट हैं; उनके द्वारा संपूर्ण विशेषोंको जो एक ही रूपसे ग्रहण करे वह संग्रह है । अब इस संग्रहनयके भेदोंको दिखाते हैं । यह संग्रह दो विकल्पोंका धारक है । अर्थात् इसके दो भेद हैं । एक तो परसंग्रह और दूसरा अपरसंग्रह उनमें संपूर्ण विशेषों में उदासीन रहे और सत्तामात्रको शुद्ध द्रव्य माने ऐसा जो ज्ञान है; उसको परसंग्रह कहते हैं । आगे इसमें युक्त करने योग्य उदाहरण देते हैं । जैसे यह संसार सद्रूपसे एक है; अर्थात् सब संसार एक है, क्योंकि सब संसारमें सत्पना एक ही है; उसमें कोई विशेष नहीं । और "विश्व एक है सत् में विशेष न होनेसे" ऐसा न भी कहें तो भी सत्तारूप ज्ञान सब पदार्थ में है, उस सत्स्वरूप ज्ञान तथा सत् शब्दके कथन की १ पन्द्रह कर्म भूमियों में उत्पन्न होके मुक्त होनेकी अपेक्षासे मुक्त जीवोंके पन्द्रह १५ भेद हैं । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [९१ सर्वत्र 'अनुवृत्तिरूप लिंगसे अनुमानसिद्ध जो सर्वत्र सत्तारूप एकत्व है; उस सत्वरूप एकत्वसे संपूर्ण पदार्थोंका संग्रह होता है । तात्पर्य यह कि-इस परसंग्रहमें एक सत्रूपसे संपूर्ण वस्तुमात्रका ग्रहण होता है । इसीसे इस संग्रहनयके अनुसार यह कह सकते हैं; कि-यह संपूर्ण विश्व सत्स्वरूपसे एक है ॥ १२ ॥ अथ संग्रहनयभेदं दर्शयन्नाह । अब इस पूर्वोक्त संग्रहनयके भेदक व्यवहारनयको दर्शाते हुए कहते हैं । संग्रह भेदकव्यवहारोऽपि द्विविधः स्मृतः। जीवाजीवौ यथा द्रव्यं जोवाः संसारिणः शिवाः ॥१३॥ भावार्थः-संग्रहनयका भेदक जो विषय है; उसका दर्शक व्यवहारनय है; वह भी दो प्रकारका है; अर्थात् पूर्ववत् सामान्यसंग्रहभेदक व्यवहार और विशेषसंग्रह भेदक व्ययहार इस भांतिसे व्यवहारके दो भेद हैं; क्रमसे दोनोंके उदाहरण यह हैं; किजैसे जीव और अजीव ये दोनों द्रव्य हैं । जोव दो प्रकारके हैं; संसारीजीव और मुक्तजीब इन भेदोंसे ॥ १३ ॥ व्याख्या । संग्रहस्य नयस्य यो भेदको विषयस्तस्य दर्शक: स व्यवहारनयः कथ्यते । व्यवह्रियते संग्रहविषयोऽनेनेति व्यवहारः । सोऽपि द्विविधः द्विप्रकारः स्मृतः कथितः । तस्यैव पूर्वोदितस्य संग्रहनयस्य भेदवदस्यापि भेदभावना कर्त्तव्या । यत ए: सामान्यसंग्रहभेदकयवहारः १ द्वितीयो विशेपसंग्रहभेदकव्यवहारः २ एवं भेदद्वयम् । अय तयोरुदाहरणे । तत्राद्यस्योदाहृतिर्यथा-जीवाजीवो द्रव्यम् । अत्र जीवस्य चेतनस्याजीवस्याचेतनस्य संग्रहसामान्यविषयत्वाद्रव्यभित्येकैव संज्ञा, कथं द्रवति तांस्तात्पर्यायान्गच्छतीति त्रिकालानुयायी यो वस्स्वंशस्तव्यमिति व्युत्पत्त्या स्वगुणपर्यायवत्वेनोभयोरपि जीवाजीवयोव्यपदं साधारणमित्यर्थाज्जीवद्रव्यमजीवद्रव्यमिति सामान्यसग्रहभेदकव्यवहारः ।।। अथ जीवा: संसारिणः सिद्धाश्चात्र जीवानामनन्तानां चैतन्यवतां समारित्वं सिद्धत्वं च विशेषव्यवहारोऽतो द्वितीयभेदो विशेषसंग्रहभेदकव्यवहार: ।२। एवमुत्तरोत्तरविवक्षया सामान्यविशेषत्वं मावनीयम् ॥ १३ ॥ ___ व्याख्यार्थः-इस संग्रहनयका जो भेदक विषय है; उसके दर्शकको व्यवहारनय कहते हैं । संग्रहनयके विषयका व्यवहार जिसके द्वारा हो वह व्यवहारनय है, यह व्यवहार शब्दकी व्युत्पत्ती है । वह व्यवहारनय भी दो प्रकारका कहा गया है, तात्पर्य यह है; कि-उमी पूर्वकथित संग्रहनयके भेदके समान इसकी भी भेदभावना करना चाहिये क्योंकि-एक सामान्यसंग्रहनयका भेदक व्यवहारनय है। और द्वितीय विशेषसंग्रहका भेदक (विशेषसंग्रहके विषयको भिन्नरूपसे व्यवहार करनेवाला) व्यवहारनय है । इस प्रकार सामान्यसंग्रहभेदक व्यवहारनय तथा विशेषसंग्रहभेदक व्यवहारनय ये दो भेद १ घट सत्, पट सत्, जीव सत्, है; तथा पुद्गल सत् है; इस प्रकारसे सत्की अनुवृत्ति सर्वत्र है । उस अनुवृत्तिरूप लिंग हेतुसे सत् सर्वत्र है। ऐसा ज्ञान होता है। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् हुये ।२। अब इन दोनों भेदोंके उदाहरण कहते हैं। उनमें सामान्यसंग्रहभेदक व्यवहारनयका उदाहरण यह है कि जीव और अजीव दोनों द्रव्य हैं, यहांपर चेतन जीव तथा अचेतन अजीव, इन दोनोंके संग्रहका सामान्य विषय होनेसे दोनों द्रव्य हैं। यह व्यवहार होता है। यदि यह कहो कि-चेतन तथा अचेतन दोनोंके विरुद्ध धर्म होनेसे एक द्रव्य संज्ञा कैसे हुई ? तो इस रीतिसे है; कि-दूधातुका गमन अर्थ है; उससे यत् प्रत्यय कहनेसे दू+य = द्रो+य = द्रव्य शब्द सिद्ध होता है। जो उन २ अनेक पर्यायोंमें प्राप्त हो वह द्रव्य है; अर्थात् समस्त पर्सायोंमें त्रिकालमें अनुगामी जो वस्तुका अंश है; वह सर्वत्र अनुगत होनेसे द्रव्य है। इस व्युत्पत्तिसे अपने गुण पायोंसे युक्त होनेसे जीव अजीव दोनोंका द्रव्य इस साधारण पदसे ग्रहण होता है; क्योंकि-जीव द्रव्य भी देव, मनुष्य, तथा सिद्ध, पर्सायोंको प्राप्त होता है; परन्तु चेतन जीवरूपता सब पर्सायोंमें अनुगत है, अजीव मृत्तिका सुवर्णआदि द्रव्य भी घट शराब तथा कुंडल कटकआदि पर्सायोंमें प्राप्त होता है; किन्तु मृत्तिका तथा सुवर्ण अंश सर्वत्र अनुगत है, इसलिये द्रव्य यह पद दोनोंकेलिये सामान्यसंग्रह है; उसमें जीवद्रव्य तथा अजीव द्रव्य यह सामान्यभेदक व्यवहारनय है; ( अर्थात् द्रव्य सामान्यमें जीव और अजीव इस व्यवहारके लिये इस नयने भेद कर दिया, इसी हेतुसे यह सामान्यसंग्रहभेदक व्यवहार नय प्रथम भेद है) और जीव संसारी तथा सिद्ध (मुक्त ) दो प्रकारके होते हैं, इस कथनमें चेतनत्वधर्मयुक्त जीव जो अनन्त संख्यायुक्त हैं, उनका संसारित्व तथा सिद्धत्व यह विशेष व्यवहार है, तात्पर्य यह है; कि-द्रव्य सामान्यमें जो विशेष द्रव्य जीव है; उस जीव सामान्य द्रव्यमें भी संसारित्व तथा सिद्धत्व यह विशेषव्यवहार हुआ, इस हेतुमें यह विशेषसंग्रहभेदक व्यवहारनय द्वितीय भेद है। इसी प्रकार उत्तरोत्तर विवक्षाके अनुसार सामान्यविशेषकी भावना करते चला जाना चाहिये जहांतक व्यवहारका अन्त नहीं है; वहां तक बराबर सामान्यविशेष भाव लगा है। जैसे संसारी तथा सिद्ध ये दो भेद होनेपर भी पुनः संसारीको सामान्य मानकर उनके देव मनुष्य नारक तथा तिर्यश्चअनेक भेद हैं, पुनः सामान्य देवोंके वैमानिक, व्यन्तर भवनवासीआदि अनेक भेद हैं, पुनः वैमानिकआदिके भी अनेक भेद हैं। ऐसे ही मनुष्यआदिके भेद, अवान्तर भेदका व्यवहार करते चले जावो। इस व्यवहार नयका यह प्रयोजन है; कि-सामान्य संग्रहसे व्यवहार नहीं चलता क्योंकि-केवल द्रव्य कहनेसे लोक व्यवहार नहीं चलता, द्रव्य लाओ ऐसा कहनेसे यह आकांक्षा अवश्य होती है; कौन द्रव्य, जीव वा अजीव; । द्रव्यसामान्यकी अपेक्षासे तो जीवद्रव्य विशेष है, परन्तु सब प्रकारके जीव जैसे मनुष्य जीव, देव जीव इत्यादि विवक्षासे जीव भी सामान्य है। २ इसलिये सब जीवकी अपेक्षासे जीव सामान्य तथा विशेष अपेक्षाभेदसे हैं। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [९३ उस जीवआदि द्रव्यमें भी कौन जीव संसारी अथवा सिद्ध, संसारीमें भी कौन मनुष्य मनुष्योंमें भी कौन मनुष्य जैन अथवा वैष्णव इत्यादि रीतसे सर्वत्र सामान्य विशेषभाव की व्यवस्था समझ लेना ॥१३॥ अथ ऋजुसूत्रनयस्य भेदमाह । अब ऋजुसूत्रनामक चतुर्थ नयके भेदको कहते हैं । स्वानुकूलं वर्त्तमानं ऋजुसूत्रो हि भाषते । तत्र क्षणिकपर्यायं सूक्ष्मः स्थूलो नरादिकम् ॥१४॥ भावार्थः-अपने अनुकूल केवल वर्तमान कालवर्ती विषयको ऋजुसूत्र नय कहता है; उसमें भी सूक्ष्म क्षणिकपर्यायको और स्थूल मनुष्यआदिको कहता है ॥१४॥ व्याख्या। हि निश्चितं ऋजुसूत्रो नयो वर्तमानं केवलमतीतानागतकालरहितं भाषते मनुते । तदपि कीदृशं स्वानुकूलं स्वस्यात्मनोऽनुकूलं कार्यप्रत्ययं मनुते परन्तु परप्रत्ययं न मनुते । सोऽपि ऋजुसूत्रो द्विभेदो द्विप्रकार एकः सूक्ष्मऋजुसूत्रः, अपरः स्थूलऋजुसूत्रः। तत्र सूक्ष्मस्तु क्षणिकपर्यायं मनुते, क्षणिकाः पर्यायाः परतोऽवस्थान्तरभेदात्पर्यायाणां स्ववर्त्तमानतायां क्षणावस्थायित्वमेवोचितमिति । स्थूलस्तु मनुष्यादिपर्याय वर्त्तमानं मनुतेऽतीतानागतादिनारकादिपर्यायं न मनुते । यो हि व्यवहारनयः कालत्रयवर्तिपर्यायग्राहकस्तस्मास्थूलऋजुसूत्रो व्यवहारनयेन संकरत्वं न लभते । अथ च ऋजुवर्त्तमानक्षणस्थायिपर्यायमात्रप्राधान्यतः सूत्रयन्नभिप्राय ऋजुसूत्रनय इत्यतीतानागतकाललक्षणकौटिल्यवैकल्यात्प्राञ्जलमिति ॥१४॥ ___ व्याख्यार्थः-निश्चयरूपसे ऋजुसूत्रनय भूत भविष्यसे रहित केवल वर्तमान कालको स्वीकार करता है; और वह भी अपने आत्माके अनुकूल कार्यके प्रत्ययको मानता है; न कि-पर प्रत्ययको । यह ऋजुसूत्र नय भी दो प्रकारका है; एक सूक्ष्म ऋजुसूत्र और दूसरा स्थूलऋजुसूत्र । उनमेंसे सूक्ष्मऋजुसूत्र क्षणिक पर्यायको मानता है; क्योंकि इस नयकी अपेक्षासे सब पर्याय क्षणिक हैं; अन्यकी अपेक्षासे अवस्थान्तरका भेद होनेसे पर्यायोंकी निजवर्तमानतामें क्षणिकस्थायिताका मानना ही उचित है । और स्थूलऋजुसूत्र वर्तमान मनुष्यादि पर्यायको मानता है; और अतीत तथा अनागत (भविष्य) नारक आदि पर्यायको नहीं मानता है । जो व्यवहार नय है; वह त्रिकालवर्ती पर्यायोंका ग्राहक है; इस कारण उस व्यवहारनयके साथ स्थूलऋजुमूत्र संकर दोषताको नहीं प्राप्त होता क्योंकि-भूतभविष्यरूप कुटिलता दोषसे रहित ऋजु (सरल) केवल वर्तमानक्षणस्थायी पर्यायमात्रको सूचित (ग्रहण) करनेरूप जिस नयका प्रधानतासे अभिप्राय है; उसको ऋजुसूत्र कहते हैं । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४] श्रीमद्राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् अथ शब्दमयमाह। अब शब्दनयको कहते हैं। शाब्दिको मनुते शब्दं सिद्ध धात्वादिभिस्तथा । भिन्न समभिरूढाख्यः शब्दथं तथैव च ॥१५॥ भावार्थः-शब्दनय धातुआदिसे सिद्ध शब्दोंको स्वीकार करता है; परस्तु लिंगवचनादिद्वारा शब्दभेदसे अर्थका भेद मानता है; और ऐसे ही समाभिरूढनय अर्थ भेद होनेसे शब्दभेद अवश्य मानता है ।। १५॥ व्याख्या । शाब्दिक: शब्दनयो थात्वादिमिः प्रकृतिप्रत्ययादिविमागेन व्युत्पन्न शब्दं सिद्ध मनुते परन्तु लिङ्गवचनादिभेदेनार्थस्य भेदं मनुते । यथा--तट: तटी, तटमिति लिङ्गत्रयभेदादर्थभेदः, तथा आपो जलमित्यत्र बहुवचनकवचनभेदादर्थभेद इति । अयं हि शब्दनयः ऋजुसूत्रनयं प्रतीदं वक्ति यत्कालभेदेन स्वमर्थभेदं मनुषे तर्हि लिङ्गादिभेदेनार्थभेदं प्रस्तुतमपि कथं न मनुष इति। अथ समभिरूढनयमाह । समभिरूढाख्यो नयः शब्दं मिन्न पुनश्चार्थमपि भिन्न मनुते । शब्दभेदेऽर्थभेद इति ब्र वन्नसो शब्दनयं प्रतिक्षिपति । तथा हि-यदि भवाल्लिङ्गादिमेदेनार्थभेदमङ्गीकरोति तदा शब्दभेदेनार्थभेदमपि कथं नाङ्गीकरोति तस्माद् घटो भिन्नार्थः, कुम्भो भिन्नार्थः, शब्दभेदादर्थभेद इति । शब्दार्थयोरैक्यं यदस्ति तत्त, शब्दादिनयानां वासनया वर्तते शब्दनयस्यैव भेद इति ज्ञेय इति . अथ च पर्यायशब्देषु निरुक्तिभेदेन भिन्नमथं समभिरोहन सममिरूढ इति । शब्दनयो हि पर्यायाभेदेऽप्यर्थभेदममिनीति, सममिरूढस्तु पर्यायभेदे भिन्नाननभिमन्यते । अभेदं त्वर्थगतं पर्यायशब्दानामुपेक्ष्यत इति ॥१५॥ व्याख्यार्थः-शब्दनय धातु, प्रकृति तथा प्रत्ययआदिके विभागसे व्युत्पन्न शब्दको सिद्ध मानता है; परन्तु लिंग, वचन, तथा धातुआदिके भेदसे अर्थका भेद मानता है। जैसे तटः यह पुल्लिंग, लटी यह स्त्रीलिंग तथा तटम् यह नपुंसकलिंगमें रूप होता है। यहाँ तीनों लिंगोंमें शब्दके स्वरूपमें भेद होनेसे अर्थका भेद मानता है। और आपः तथा जलम् ये दोनों शब्द यद्यपि पर्याय (एकार्थवाचक ) हैं; तथापि अप शब्द नित्य स्त्री लिंग ही है; और बहुवचन है; और जल शब्द नपुंसकलिंग तथा एकवचन है; इस हेतुसे (बहुवचन तथा एकवचनके भेदसे) अर्थ भेद है। और यह शब्दनय ऋजुसूत्र नयके प्रति यह कहता है; कि-यदि तुम कालके भेइसे पदार्थ का भेद मानते हो तो लिंग, वचनआकि भेदसे उपस्थित जो पदार्थभेद है; उसको भी क्यों नहीं मानते ? अब समभिरूढनामक नय शब्दको भिन्न और अर्थको भिन्न मानता है; क्योंकि-शब्दका भेद होनेपर अर्थका भेद है; ऐसा कहता हुआ यह नय शब्दनयके प्रति आक्षेप करता है; सो ही दिखाते हैं; कि-यदि आप लिंगादिके भेदसे अर्थ भेद मानते हो तो शब्दके भेदसे अर्थके भेदको भी क्यों नहीं अङ्गीकार करते ? शब्दभेदसे अर्थभेद अवश्य है; इसलिये घट Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा शब्द भिन्न अर्थवाचक है; और कुम्भशब्द भिन्नार्थवाचक है; इसलिये शब्द के भेदसे अर्थमें भेद है; और शब्द तथा अर्थकी जो एकता है; वह तो शब्दआदि नयकी वासनासे है, अर्थात् वह एकता शब्दनयका ही भेद है; ऐसा समझना चाहिये और पर्याय शब्दोंमें व्युत्पत्तिके भेदसे अर्थके भेदको जो आरूढ करै वह समभिरूढ कहलाता है; यह इसका लक्षण है; जैसे-समर्थ होनेसे शक्र (शकनात् शक्रः) अनेक प्रकारके ऐश्वर्योंसे संयुक्त होनेसे इन्द्र (इन्दति ऐश्वयं प्राप्नोतीति इन्द्रः) शत्रुवोंके नगरोंको विदारण करनेसे पुरंदर (पूः दारयतीति पुरन्दरः) इत्यादि समभिरूढ नयके उदाहरण समझने चाहिये । शब्दनय तो पर्यायके अभेदमें भी लिंग वचनआदिके निमित्तसे अर्थभेद मानता है; और समभिरूढ़नय तो पर्यायोंके भेदमें भिन्न २ अर्थोंको स्वीकार करता है; जैसा कि-पूर्व उदाहरणोंसे दर्शा चुके हैं । और जो अर्थनिष्ट अभेद पर्यायवाचक शब्दोंका है; वह तो अर्थात् (अर्थसे) प्राप्त होगा जैसे शक्र, इन्द्रआदि शब्दोंका उन उन कार्योंसे भेद रहते भी उसी शचीके पतिरूप अर्थको सब कहते हैं ॥१५॥ अथैवंभूतनयं प्रकाशयन्ति । अब एवंभूतनयका प्रकाश करते हैं । क्रियापरिणतार्थ चेदेवंभूतो नयो वदेत् । नवानां च नयानां स्युर्भेदाः सिद्धिगुन्मिताः॥१६॥ भावार्थ:-क्रियाके परिणाम कालमें जो अर्थ हो उसको एवंभूत सप्तम नय कहता है; इस प्रकारसे द्रव्यार्थिकआदि नव ९ नयोंके भेद सिद्धि ८ और दृक् (दृष्टि) २ “ अङ्कानां वामतो गतिः” इस न्यायसे २ और ८ अर्थात् अट्ठाईस भेद हैं ।।१६।। व्याख्या । यथा- एवंभूतो नयः शब्दानां प्रवृत्तिनिमित्तभूतक्रियाविष्टमर्थ वाच्यत्वेना भ्युपगच्छन्नेवंभूत इति । सममिरूढनयो हीन्दनादिक्रियायां सत्यामसत्यां च वासवादेरर्थस्येन्द्रादिव्यपदेशमभिति, पशुविशेषस्य गमनक्रियायां सत्यामसत्यां वा गोव्यपदेशवत्तथा रूढः सद्भावात् । एवंभूतः पुनरिन्दनादिक्रियापरिणतमर्थं तत्क्रियाकालं इन्द्रादिव्यपदेशमाजमभिमन्यते । न हि कश्चिदक्रियाशब्दोऽस्यास्ति । गौरश्व इत्यादिजातिशब्दाभिमतानामपि क्रियाशब्दत्वाग्दच्छ तीति गौः, आशुगामित्वादश्वः, इति क्रियापरिणतार्थं क्रियया परिणतमर्थ वदेत् क्रियासमय एव मनुते । परन्तु क्रियासमयमुल्लङ्घय न मनुत इति भावार्थः यथा राजा इति सभायां सत्यां छो शिरसि ध्रियमाणे चामराम्यां च वीज्यमाने सत्येव व्यपदेशं लमते । अन्यत्र स्नानादिवेलायां सभाछत्रचामरादिभिस्तचिह्न रसद्भी राजापि नास्तीति । अथ च गुणशब्दा अपि शुक्लो नील इत्यादयो गुणशब्दाभिमताः शब्दाः क्रिया एव, शुचिभवनाच्छुल्को नीलनान्नील इति । देवदत्तो यज्ञदत्त इति यदृच्छाशब्दाभिमता अपि क्रियाशब्दादेव एनं देयादिति । संयोगिद्रव्यशब्दाः समवापिद्रव्यशब्दाश्चाभिमताः क्रिया Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ ] श्रीमद्रराजचन्द्रजैनशाखमालायाम् शब्दा एव “दण्डोऽस्यास्तीति दण्डी", विषाणमस्यास्तीति विषाणीत्यत्र क्रियाप्रधानत्वात् । पञ्चत्रयी तु शब्दानां व्यवहारमात्रा न निश्वयादित्ययं नयः स्वीकुरुते । उदाहरन्ति यथेन्दनमनुभवन्निन्द्रः शकनक्रियापरिणतः शक्रः, पूरणप्रवृत्तः पुरन्दर इत्युच्यते ।। १६ ।। व्याख्यार्थः-जैसे एवंभूतनय शब्दोंको प्रवृत्तिनिमित्त भूतक्रियासे आविष्ट ( युक्त ) अर्थको ही वाच्यत्वरूपसे स्वीकार करता है; इसलिये यह एवंभूतनामक है; अर्थात् जिस क्रियारूपमें परिणत अर्थ है; यही वाच्य है। और समभिरूढ़नय तो इन्दनादि क्रिया अर्थात् ऐश्वर्य साहित्य हो वा न हो बासवआदि शब्दोंकी इन्द्रआदि शब्द वाच्यताको अंगीकार करता है; जैसे पशुविशेष ( गो ) में गमनआदि क्रिया हो वा न हो गो व्यपदेश ( कथन ) होता है; क्योंकि -- ऐसे ही रूढिका सद्भाव होता है; और एवंभूत नय तो इन्दन अर्थात् ऐश्वर्यआदिके साहित्यरूप क्रियामें परिणत जब अर्थ है; उस क्रियाके कालमें ही इन्द्रआदि नामको मानता है; और इस एवंभूतनयकी अपेक्षासे कोई अक्रियाशब्द अर्थात् क्रियावाचक न हो ऐसा शब्द नहीं है; क्योंकि इस नयके अनुसार गो, अश्वआदि शब्द जो जातिवाचकरूपसे इष्ट हैं; वे भी क्रियावाचक हैं; जैसे गमन क्रिया करनेसे गो, और शीघ्र गमन करनेसे अश्व इस प्रकारसे क्रियापरिणत अर्थको कहता है; और उस अर्थको भी क्रियाके समयमें ही मानता है; और क्रियाके समयको उल्लंघन करके उस अर्थको नहीं मानता तात्पर्य यह है; कि-जैसे “ राजते (शोभते) इति राजा" अर्थात् छत्र चामरआदिसे जो शोभित हो वह राजा है; यहांपर राजन् शब्दकी पूर्व कथित व्युत्पत्तिसे जब कोई मनुष्य सभामें स्थित होगा और उसके मस्तकपर छत्र धरा हुआ होगा और दो चमरोंसे झूल रहा ( वीजित ) होगा तभी वह राजा इस व्यपदेशको प्राप्त होता है; स्नानआदिके समय में जब कि-सभा; छत्र, चामरआदि राजाके चिन्ह नहीं हैं; उस समय वही मनुष्य राजा नहीं है और शुक्र, नील इत्यादिक शब्द गुणवाचकरूपसे अभीष्ट हैं; वे भी इस नयके अनुसार क्रियाशब्द ही हैं; जैसे शुचि होनेसे शुल्क, नील रंग करनेसे नीलआदि भी क्रियाशब्द ही हैं। देवदत्त, यज्ञदत्त आदि जो यदृच्छा ( संज्ञा वा नामवाचक ) शब्दरूपसे अभीष्ट हैं, वह भी क्रियाशब्द ही हैं; जैसे देव इसको देवे, इत्यादि क्रियारूपता इनमें भी विद्यमान है; तथा संयोगी द्रव्य वाचक शब्द तथा समवायी द्रव्यवाचक शब्द अर्थात् संयोग सम्बन्धसे द्रव्यवाचक और समवाय सम्बन्धसे द्रव्यवाचकत्वरूपसे जो इष्ट हैं, वह भी इस नयके अनुसार क्रियाशब्द ही हैं; जैसे-दंड है; जिसके वह दंडी तथा जिसके विषाण (श्रृंग) सींग है; वह विषाणी इत्यादि शब्दोंमें भी क्रियाकी प्रधानता है । और जाति, गुण, संज्ञा, द्रव्य, तथा क्रिया इन पांच प्रकारसे जो शब्दोंकी प्रवृत्ति कही गई है; वह तो केवल व्यवहारनयसे है; न किनिश्चयनयसे ऐसा यह नय मानता है; और इसी व्यवस्थासे अर्थात् संपूर्ण शब्दोंकी .. Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [९७ क्रियावाचकताके अनुसार ही प्रवृत्ति है; ऐसा उदाहरण भी देता है; जैसे इन्द्र संज्ञा तभी हो सकती है; जब वह इन्दन (एश्वर्यको) अनुभव करता हो ऐसे ही शकन ( सामर्थ्य संपादनरूप) क्रियामें जब परिणत है; तभी शक ओर इसी रोतिसे पुर (शत्रुके ) दारणमें जब प्रवृत्त है; तभी पुरन्दर कहा जाता है ।। १६ ॥ अथ व्याख्यासमाप्ति यानां कृता तथैवाह । अब जो नौ नयोंकी व्याख्याकी समाप्ति की है; उसोको कहते हैं। नया नवैते कथितास्तथोपनयास्त्रयः सारतमाः श्रु तस्य । विज्ञाय तानेव बुधाः श्रयन्तां जिनक्रमाम्भोजयुगाश्रयं सत् १७ भावार्थ:-यह शास्त्रके सारभूत नव ९ नय तथा वक्ष्यमाण तीन ३ उपनय कहे गये हैं; बुद्धिमान उन्हीको पूर्णरूपसे जानकर सद्रूप (सर्वरूपसे समर्थ) श्रीजिनदेवके चरण कमलयुगलका आश्रय ग्रहण करें ॥ १७॥ व्याख्या। नवानां नवसङ्ख्याकानां नयानां द्रव्याथिक १ पर्यायाथिक २ नैगम ३ संग्रह ४ व्यवहार ५ ऋजुसूत्र ६ शब्द ७ समभिरूढ ८ एवंभूत ६ मुखाना भेदाः प्रकाराः मिद्धिगुन्मिता: २८ प्रमिता: सर्वे स्युभवन्ति । तत्र द्रव्याधिको दशभेदः, पयायार्षिक: बभेदः, नैगमस्त्रिभेदः, संग्रहो द्विभेदः, व्यवहारो द्विभेदः, ऋजुसूत्रो द्विभेदः, शब्द एकभेदः, सममिरूढ एकभेद एवमेतेषां भेदा अष्टाविंशतिः। अथान्त्यनमस्कार प्ररुतप्ररूपणं नामोत्कीर्तनमप्याह । एते पूर्वव्यावर्ण्यमाना नया नव संख्यया, तथा तेन प्रकारेणवोपनयानयोऽग्रे वक्ष्यमाणाश्व श्रुतस्य श्रीवीतरागदेवप्रणीतागमस्य सारतमा अतिशयेन प्रधानाः सारतमा वर्तन्ते । तदुक्तमावश्यके नियुक्तो। एएहिं दिठिवाए परूवणा सुत्त अत्थ कहणाय । इह पुण अपुणब्भवगमो अहिगारो तीहि उस्सुन्न । १। इति तानेव नयान् विज्ञाय ज्ञात्वा बुधाः सुधियः सत्सर्वतः समर्थं जिनक्रमाम्भोजयुगाश्रयं श्रयन्तामित्यर्थः ।। १७ ।। इति श्रीकृतिमोजसागरनिर्मितायां द्रव्यानुयोगतर्कणायां षष्ठोऽध्यायः । ६ । व्याख्यार्थः-द्रव्यार्थिक १ पर्यायार्थिक २ नैगम ३ सङ्ग्रह ४ व्यवहार ५ ऋजुसूत्र ६ शब्द ७ समभिरूढ ८ तथा एवंभूत इन मुख्य नौ नयोंके दृक् (दृष्टि) तथा सिद्धि परिमित अर्थात् अट्ठाईस २८ सब अवान्तर भेद हैं; उनमें द्रव्यार्थिकके दश १० भेद, पर्यायाथिकके षट (छ) ६ भेद, नैगमके तीन ३ भेद, संग्रह के दो २ भेद, व्यवहारके दो २ भेद, ऋजुसूत्रके दो २ भेद, शब्दका एक १ भेद, समभिरूढका एक १ भेद और . एवंभूतनयका भी एक १ भेद है; इस प्रकार यह सब मिलकर अट्ठाईस २८ भेद हैं। अब अन्तमें श्रीजिनदेवके चरणों का आश्रयरूप नमस्कार प्रकृतप्ररूग और श्लषसे अपने नामका भी कथन करते हैं। यह पूर्व प्रसंगमें व्याख्यात संख्यासे नौ ९ नय तथा जिनका कथन आगे करेंगे ऐसे तीन ३ उपनय यह सब श्रुतके अर्थात् श्रीवीतराग जिनदेवप्रणीत शास्त्रके अत्यन्त प्रधान विषय हैं; अर्थात् अति उपयोगी हैं; सो ही आवश्यक १३ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ ] श्रीमद्रराजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् निर्युक्ति में कहा है; कि - दृष्टिवादनामक अंगमें सूत्र और अर्थके कथन केलिये इनसे ही प्ररूपण है; और यहां मोक्षका अधिकार है; इसलिये अत्यन्तोपयोगी अर्थात् सारभूत हैं ॥ १ ॥ इस कारण इन नयोंको ही पूर्णरूपसे जान कर बुद्धिमान् प्राणी सब प्रकार से समर्थ श्रीजिनदेव के चरणकमलयुगलका आश्रय करें ॥ १७ ॥ इतिश्रीठाकुरप्रसादशास्त्रिप्रणीत भाषाटीकासमलङक्तायां द्रव्यानुयोगतर्कणायाँ षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥ अथोपनयानां प्रकारमाह । अब उपनयोंके भेद कहते हैं । और धर्मी भेदाच्छुद्धस्तथाशुद्धः सभूतव्यवहारवान् ॥१u भावार्थः—तीन ३ उपनय हैं; उनमें प्रथम उपनय सद्भूतव्यवहार है; वह धर्म भेदसे शुद्धसद्ध तव्यवहार तथा अशुद्धसद्ध तव्यवहार इन भेदोंसे दो प्रकार है ॥ १ ॥ त्रयश्चोपनयास्तत्र प्रथमो धर्मधर्मिणोः । । तत्रेयधिकारसूचकविषयसप्तमीयम् । नयानां समीपमुपनयास्त्रस्त्रियसंख्याकाः । तेषु त्रिषु प्रथम आद्य धर्मश्च धर्मी च तयोर्भेदस्तस्मात् । धर्मधर्मिणोरसाधारणं कारणं धर्मः, स च धर्मोऽस्यास्तीति धर्मी तयोरितिद्वन्द्वसमासेन भेदात् द्विधा द्विप्रकारः । एतावता यः प्रथमो भेदो धर्मधर्मिभेदाञ्जातः सोऽपि द्विविधो ज्ञेय एकः शुद्धोऽपरो द्वितीयोऽशुद्धः । कथंभूतः शुद्धस्तथाशुद्धञ्च सद्भूतव्यवहारवान् सद्भयतेऽनेनेति सद्भतः, व्यवह्रियत इति व्यवहारः सद्भूतश्च व्यवहारश्व सद्भूतव्यवहारौ । शुद्धाशुद्धौ तो विद्यतेऽस्येतिसद्भूतव्यवहारवान् । शुद्धयोर्धर्मधर्मिणोर्भेदाच्छुमभूतव्यवहारः ॥ १ ॥ अशुद्धधर्मधर्मिणोर्भेदादशुद्धसद्भूतव्यवहारः ॥२॥ सद्भूतस्त्वेकं द्रव्यमेवास्ति भिन्नद्रव्यसंयोगापेक्षयेत्येस्ति । व्यवहारस्तु भेदापेक्षयेत्येवं निरुक्तिः ॥ १॥ व्याख्यार्थ:: - तत्र ( उसमें ) यह जो सप्तमी विभक्ति है; वह अधिकारके ज्ञापन (जनाने) के लिये है; अर्थात् अब उपनयोंका अधिकार है । नयोंके समीपवर्ती जो हों वह उपनय हैं; वह तीन अर्थात् तीन संख्यायुक्त हैं, उन तीनोंमेंसे प्रथम भेद धर्म तथा धर्मीके भेदसे है; धर्म और धर्मी इन दोनोंमें जो असाधारण कारण है; उसको धर्म कहते हैं; वह असाधारण कारणरूप धर्म जिसके है; उसको धर्मी कहते हैं धर्म तथा धर्मिन् शब्दका द्वन्द्व समास करनेसे “धर्मधर्मिणोः " ऐसा पाठ बना है। इन धर्म धर्मीके भेदसे उत्पन्न हुआ प्रथम भेद दो प्रकारका है । अर्थात् धर्म धर्मके भेदसे जो प्रथम भेद हुआ है; वह भी दो प्रकारका जानना चाहिये। एक शुद्ध और दूसरा अशुद्ध । वह शुद्ध और अशुद्ध कैसा है; कि - सद्भतव्यवहारसे युक्त है । सद् जिसके द्वारा हो उसको सद्भत । Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा। [ ९९ कहते हैं। जिसके द्वारा व्यवहार किया जाय वह व्यवहार कहलाता है। सद्भत तथा व्यवहार इन दोनों शब्दोंका द्वन्द्वसमास करके सद्भ तव्यवहार यह एक शब्द बना । यह शुद्ध तथा अशुद्ध सद्भतव्यवहार जिसके हैं; वह सद्भ तव्यवहारवान है। इनमेंसे शुद्ध धर्म धर्मीके भेदसे तो उत्पन्न शुद्धसद्भ तव्यवहार और 'अशुद्ध धर्म धर्मीके भेदसे उत्पन्न अशुद्धसद्भ तव्यवहारनामक सद्भुतव्यवहारका भेद है। सद्भत तो एक द्रव्य ही है; उससे भिन्न द्रव्यके संयोगकी अपेक्षा नहीं है। और जो व्यवहार है; वह भिन्न द्रव्यके संयोगकी अपेक्षासे होता है। इस प्रकार सद्भतव्यवहारशब्दकी व्युत्पत्ति ( अर्थ ) है ॥१॥ उपाहरणमाह । अब शुद्धसद्भ तव्यवहारका उदाहरण देते हैं।' ज्ञानं यथात्मनो विश्वे केवलं गुण इष्यते । मतिज्ञानादयोऽप्येते तथैवात्मगुणा भुवि ॥२॥ भावार्थः-जैसे इस संसारमें आत्माका केवलज्ञान गुण है, वैसे ही मति ज्ञान आदि भी पृथ्वीपर आत्माके ही गुण हैं ॥२॥ व्याख्या। यथा विश्व जगत्यात्मनः केवलं ज्ञानं गुण इति षष्ठीप्रयोगः । इदमात्मद्रव्यस्य ज्ञानमिति । तथा मतिज्ञानादयोऽथात्मद्रव्यस्य गुणा इति व्यवह्रियते । केवलज्ञानं यद्वर्त्तते स एव शुद्ध आत्मास्ति मत्यादयो ज्ञानानि केवलावरणविशेषिता व्यवहारा अशुद्धा लक्ष्यन्त इति ॥ ३ ॥ व्याख्यार्थः-जैसे इस संसारमें आत्माका केवलज्ञान गुण है, "आत्मनः" यह षष्ठी विभक्तिका प्रयोग सूत्रमें किया है, अर्थात् यह केवलज्ञान आत्मद्रव्यका गुण है, इसी प्रकार मति ज्ञानआदि भी आत्मद्रव्यके ही गुण हैं, ऐसा व्यवहार लोक में होता है । केवलज्ञान जो है, सो हो शुद्ध आत्मा है, केवलावरणविशिष्ट जो मति ज्ञानआदि हैं, वह व्यवहाररूप हैं, अतः अशुद्ध आत्मगुण है ॥ २ ॥ गुणो गुणी च पर्यायः पर्यायी च स्वभावकः । स्वभावी करकस्तद्वानेकद्रव्यानुगा विधाः ॥३॥ भावार्थः-गुण, गुणी १ पर्याय, पायी २ स्वभाव, स्वभावी ३ कारक तथा कारकवान् ४ ये सब भेद एक द्रव्यकेही अनुगामी हैं ॥३॥ व्याख्या। गुणो रूपादिः, गुणी घट: १ पर्यायः मुद्राकुण्डलादिः, पर्यायी कनकम् २ स्वभावो ज्ञानम्, स्वभावी जीवः ३ कारकश्चक्रदण्डादिः, कारकी कुलाल: ४ अथवा गुणगुणिनी १ क्रियाक्रियावन्तौ २ जातिव्यक्ती ३ नित्यद्रव्यविशेषौ चेति ४ एवं एकद्रव्यानुगतभेदा उच्यते । ते सर्वेऽप्युपनयस्यार्था ज्ञातव्या: । अवयवावयविनाविति । अवयवादयो हिं यथाक्रममवयव्याद्याश्रिता एव तिष्ठन्तेऽविनश्यन्तो, विनश्यदवस्थास्त्वनाश्रिता एव तिष्ठन्त इत्यादि ॥ ३ ॥ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० ] श्रीमद्रराजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ___ व्याख्यार्थः-रूपआदि गुण हैं, घटआदि गुणी हैं; १ मुद्रा तथा कटक, कुंडल आदि पर्याय हैं, पर्यायी सुवर्ण है; जिसमें कि-कटक, कुंडलआदि पर्याय रहते हैं, २ ज्ञान स्वभाव है, और उस ज्ञानस्वभावका धारक जीव स्वभावी है; ३ चक्र (चाक) दंडआदि कारक हैं, और कारकवान या कारकी कुंभकार (कुंभार ) है; ४ अथवा दूसरी रीतिसे गुण, गुणी १ क्रिया, क्रियावान् २ जाति, व्यक्ति ३ तथा नित्यद्रव्य और उनके विशेष ऐसे ४ यह सब एक द्रव्यमें अनुगत भेद कहे जाते हैं। और उन सब गुण गुणीआदिको उपनयका अर्थ जानना चाहिये। अवयवआदि यथा क्रमसे अवयवीआदिके आश्रय रहते हैं, परन्तु जबतक नाशको प्राप्त नहीं होते तभीतक अवयव अवयवीआदि आश्रय आश्रयीभावसे स्थित रहते हैं। और विनाशको प्राप्त होते हुये तो अनाश्रित ही रहते हैं ॥३॥ अथासद्भ तव्यवहारं निरूपयति । अब असद्भ तव्यवहारका निरूपण करते हैं । असद्भूतव्यवहारो द्रव्यारुपचारतः। परपरिणतिश्लष,-जन्यो भेदो नवात्मकः ॥४॥ भावार्थ:-द्रव्यादिके उपचारसे परवस्तुके परिणमनके संसर्गसे उत्पन्न असद्भत व्यवहार है; और वह नव ९ प्रकारका है ॥ ४॥ व्याख्या। असद्भ तव्यवहारः स कथ्यते यः परद्रव्यस्य परिणत्यामिश्रितः, अर्थात् द्रव्यादेधर्माधर्मादेरुपचारत उपचरणात्परपरिणतिश्लोषजन्यः परस्य वस्तुनः परिणतिः परिणमनं तस्य श्लषः संसर्गस्तेन जन्यः परपरिणतिश्लोषजन्योऽसद्भ तव्यवहार: कथ्यते । अत्र हि शुद्धस्फटिकसंकाशजीवभावस्य परशब्देन कर्म तस्य परिणतिः पञ्चवर्णादिरौद्रात्मिका तस्याः श्लषोजीवप्रदेशः कर्मप्रदेशसंसर्गस्तेन जन्य उत्पन्नः परपरिणतिश्लेषजन्योऽसद्भूतव्यवहाराख्यो द्वितीयो भेदः कथ्यते । स नवधा नवप्रकारो भवति । तथा हि -द्रव्ये द्रव्योपचारः १ गुणे गुणोपचारः २ पर्यायेपर्यायोपचारः ३ द्रव्ये गुणोपचारः ४ द्रव्ये पर्यायोपचारः ५ गुणे द्रव्योपचार: ६ गुणे पर्यायोपचारः ७ पर्याये द्रव्योपचारः ८ पर्याये गुणोपचारः ९ ॥ इति सर्वोऽप्यसद्भूतव्यवहारस्याओं द्रष्टव्यः । अत एवोपचारः पृथग्नयो न भवति । मुख्याभावे सति प्रयोजने निमिरो चोपचारः प्रवर्तते । सोऽपि संबन्धाविनामावः श्लेषः संबन्धः । परिणामपरिणामिसंबन्धः; श्रद्वाश्रद्वयसंवत्र ज्ञानज्ञेयसंबन्धश्चेति । भेदोपचारतया वस्तु व्यवह्रियत इति व्यवहारः । गुणगुणितो व्यपर्याययोः संज्ञासंज्ञिनो. स्वभावतद्वतोः कारकतद्वतोः क्रियातद्वतोर्मेदादभेदकः सद्भूतव्यवहारः । शुद्धगुणगुणिनोः शुद्धद्रव्यपर्याययोभैदकथनं शुद्धसद्भूतव्यवहारः। तत्र उपचरितसद्भूतव्यवहारः सोपाधिकगुणगुणिनोर्मेदविषय उपचरितसद्भूतव्यवहारो यथा जीवस्य मतिज्ञानादयो गुणाः । निरुपाधिकगुणगुणिनोर्भेदकोऽनुपचारी सद्भूतव्यवहारो यथा जीवस्य केवलज्ञानादयो गुणा: ३ शुद्धगुणगुणिनोरशुद्धद्रव्यपर्याययोर्भेदकथनम शुद्धसद्भूतव्यवहारः ४ इत्यादिप्रयोगवशाज्ज्ञेयमिति ॥४॥ व्याख्यार्थः-असद्ध तव्यवहार उसको कहते हैं; कि-जो परवस्तुके परिणामसे मिश्रित Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ १०१ रहता है; अर्थात् धर्म अधर्मआदि जो द्रव्य हैं; उनके उपचारसे जो परवस्तुका परिणाम है; उस परिणामके संसर्गसे उत्पन्न असद्ध तव्यवहार कहा जाता है । यहांपर शुद्ध स्फटिकमणिके समान जीवभावका ग्रहण है । उस जीवभावका परवस्तु कर्म है; उसकी परिणति पंचवर्णादि रौद्रात्मिका है; उस पंचवर्णादि रौद्रस्वरूप परिणतिका सन्बन्ध जीव प्रदेशोंके साथ कर्मप्रदेशोंका संसर्ग होना है, उस परपरिणतिसे जन्य अर्थात् उत्पन्न असद्भ तव्यवहारनामक द्वितीय भेद कहा गया है । और वह असद्भ तव्यवहार नौ ९ प्रकारका है; जैसे द्रव्यमें द्रव्यका उपचार १ गुणमें गुणका उपचार २ पर्यायमें पर्यायका उए चार ३ द्रव्यमें गुणका उपचार ४ द्रव्यमें पर्यायका उपचार ५ गुणमें द्रव्यका उपचार ६ गुणमें पर्यायका उपचार ७ पर्यायमें द्रव्यका उपचार ८ तथा पर्यायमें गुणका उपचार यह नौ ९ भेद असद्भ तव्यवहारके हैं । इस प्रकार इन सब भेदोंको असद्भ तव्यवहारका ही अर्थ समझना चाहिये । असद्भ तमें अन्तर्भाव होनेसे ही उपचार प्रथग् नय नहीं होता है; क्योंकि-मुख्यके अभाव में प्रयोजन तथा निमित्तमें उपचारकी प्रवृत्ति होती है। और वह उपचार भी एक अविनाभाव (व्याप्ति) रूपसंबंध ही है । जैसे कि-परिणामपरिणामिभावसंबन्ध, श्रद्धाश्रद्धयभावसंबन्ध, तथा ज्ञानज्ञेयभावसंबन्ध । जिससे भेदके उपचारसे वस्तुका व्यवहार किया जाय सो व्यवहार है । जैसे गुण गुणीका, संज्ञा संज्ञी (नाम नामी) का, स्वभाव स्वभाववान् का, कारक कारकवान तथा क्रिया और क्रियावान्के भेद रहनेपर भी जो अभेदक है; अर्थात् अभेद दर्शाता है; वह सद्भ तव्यवहार है । और शुद्ध गुण गुणी, तथा शुद्ध द्रव्य और पर्यायका जो भेदका कथन है; वह शुद्धसद्भ तव्यवहार है । उसमें भी उपाधिसहित गुण गुणीके भेदविषयक जो है; वह उपचरितसद्भ तव्यवहार है, जैसे जीवके मति ज्ञानआदि गुण हैं। और उपाधिरहित गुण गुणीके भेदका कथन करनेवाला अनुपचरित सद्भ तव्यवहार है; जैसे जीवके केवलज्ञानआदि गुण हैं । यहां पूर्वमें तो जीव कर्मआदि उपाधिसहित है; उसका तथा उसके मति ज्ञानआदि गुणोंका भेद दर्शाया गया है, और अन्तके उदाहरण में जीव कर्मादि उपाधियोंसे रहित विवक्षित है; अतएव उपाधिरहित जीव गुणी तथा केवलज्ञानआदि उसके गुणोंका भेद अनुपचरितसद्भत उपनयसे दर्शाया गया है । तथा शुद्ध गुण गुणी और अशुद्ध द्रव्य पर्यायके जो भेदका कथन है; वह अशुद्धसद्भतव्यवहार है ॥ इत्यादि अन्य भी प्रयोगके अनुसार समझ लेना ॥४॥ अथ नवभेदानसद्भ तव्यवहारजन्यान्विवृणोति । अब जो असद्ध तव्यवहारसे उत्पन्न नो भेद हैं; उनका विवरण करते हैं । द्रव्ये द्रव्योपचारो हि यथापुद्गलजीवयोः । गुणे गुणोपचारश्च भावद्रव्याख्यलेश्ययोः ॥५॥ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ ] श्रीमद्रराजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् भावार्थः — पुद्गलमें जीवका जो मानना है; सो तो द्रव्यमें द्रव्यका उपचार है; भावलेया जो द्रव्यलेश्याका कथन करना है; सो गुणमें गुणका उपचार है ॥ ५ ॥ व्याख्या | हि निश्चितं द्रव्ये गुणपर्यायवति वस्तुनि द्रव्योपचारः । द्रव्यस्य प्रस्तुतस्योपचार उपच रणमात्रधर्मः । यथेति दृष्टान्तः । श्रीजिनस्यागमे पुद्गल जीवयोरैक्यं जीवः पुद्गलरूपः पुद्गलात्मकः । अत्र जीवोऽपि द्रव्यम, पुद्गलोऽपि द्रव्यम्, उपचारेण जीवः पुद्गलमय एवासद्भूतव्यवहारेण मन्या न तु परमार्थतः । यथा च क्षीरनीरयोर्व्यायात् । क्षीरं हि नीरमिश्रितं क्षीरमेवोच्यते व्यवहारादेवमत्र जीवद्रव्ये पुद्गलद्रव्योपचारः ||१|| पुनर्गुणे गुणोपचारो गुणे रूपादिके गुणस्योपचारः । यथा मावलेश्या द्रव्य लेश्ययोरुपचारः । भावलेश्या ह्यात्मनोऽरूपी गुणस्तस्य हि यत्कृष्णनीलादिकथनं वर्तते तद्धि पुद्गलद्रव्यजगुणस्योपचारोऽस्ति । अयं ह्यात्मगुणस्य पुद्गल गुणस्योपचारो ज्ञातव्यः ||५|| व्याख्यार्थः- निश्चय करके द्रव्यमें अर्थात् गुणपर्यायवान् वस्तु में प्रस्तुत द्रव्यका उपचार अर्थात् धर्ममात्रका आरोप करना । यथा इस शब्द से दृष्टान्त कहते हैं । जैसे श्रीजिनदेवके आगम में पुद्गल और जीवकी एकता है; अर्थात् जीव पुद्गलरूप है । यहां जीव भी द्रव्य है; और पुद्गल भी द्रव्य है; इसलिये उपचारसे जीव पुद्गलमय ही है; ऐसा असद्भूतव्यवहारसे माना जाता है, न कि परमार्थसे । यहां पर जीवको पुद्गलरूपता क्षीर नीरके न्यायसे है; अर्थात् व्यवहारसे जलमिश्रित भी दुग्ध दुग्ध ही कहा जाता है; इसी प्रकार यहां भी जीवद्रव्य में पुद्गल द्रव्यका उपचार ( आरोप ) है; तात्पर्य यह कि - जल दुग्धमें मिलकर दुग्धाकार हो जाता है; और दुग्धके ग्रहणसे ही उसका ग्रहण होता है; ऐसे ही पुद्गल में मिलनेसे जीव भी पुद्गलाकार समझा जाता है । और गुण जो रूपआदि हैं; उनमें गुणका ही आरोप करना सो गुण में गुणका अचार है । जैसे भावलेश्या में द्रव्यलेश्या का उपचार होता है । भावार्थ - भावलेश्या जो है; वह आत्माका अरूपी गुण है । उस आत्माके भावलेश्यानामक रूपरहित गुणको कृष्ण, नील इत्यादिरूपसे कहते हैं । और वह कृष्ण, नीलआदिरूप जो कथन है; सो पुद्गलसे उत्पन्न हुए गुणका उपचार है । इसको आत्माके गुणके पुद्गलके गुणका उपचार जानना चाहिये । क्योंकि भावलेश्या तो आत्माका अरूपी गुण है; और कृष्ण नीलआदि पुद्गलके गुण हैं ||१५|| पर्याये किल पर्यायोपचारश्च यथाभवेत् । स्कन्धा यथात्मद्रव्यस्य गजवाजिमुखाः समे ॥६॥ भावार्थः—–पर्यायमें पर्यायका उपचार करना यह असद्ध तव्यवहारका तृतीय भेद हैं; जैसे आत्मद्रव्यपर्यायके तुल्य गज तथा अश्व आदि पर्यायस्कंध होते हैं ||६|| पर्यायस्य व्याख्या । पर्याये पर्यायविषये नरत्वादिके पर्यायस्य तदादिकस्यैवोपचारः । यथात्मद्रव्यगजवाजिमुखाः उपचारादात्मद्रव्यस्य समानजातीय द्रव्यपर्यायास्तेषां पर्यायस्कन्धा Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ १०३ स्कन्धाः कथ्यन्ते । ते चात्मपर्यायस्योपरि पुद्गलपर्यायस्योपचरणात्स्कन्धा व्यपदिश्यन्ते व्यवहारात् ॥ ६ ॥ व्याख्याथः-पर्यायमें अर्थात् आत्मद्रव्यके मनुष्यआदि पर्यायमें मनुष्यआदि पर्यायका ही उपचार जो है, वह पर्यायमें पर्यायका उपचार कहलाता है । जैसे आत्मद्रव्यपर्यायके हस्ती ( हाथी) अश्व (घोड़ा) आदि पर्यायस्कन्ध उपचारसे आत्माके समानजातीय (तुल्य ) जो द्रव्य पर्याय है, उनके स्कन्ध ( प्रदेश ) कहे जाते हैं। और वह आत्माके पर्यायके ऊपर पुद्गलके पर्यायका उपचार करनेसे व्यवहारकी अपेक्षासे स्कन्धरूपसे व्यपदेशित होते हैं । अथ द्रव्यमे गुणोपचारः। अब द्रव्यमें गुणका उपचार दिखाते हैं । द्रव्ये गुणोपचारश्च गौरोऽहमिति द्रव्यके । पर्यायस्योपचारश्च ह्यहं देहीति निर्णयः ॥७॥ भावार्थः—और मैं गौर हूं यह तो आत्मद्रव्यमें गुणका उपचार हैं, तथा मैं देही हूं यह आत्माद्रव्यमें पर्यायका उपचार है ।। ७॥ व्याख्या । यथाहं गौर इति ब्रुवतामहमित्यात्मद्रव्यम्, तत्र गौर इति पुद्गलस्योज्ज्वलताख्यो गण उपचरितः । ४। अथ द्रव्ये पर्यायोपचारः । अथवा "अहं देहीति निर्णयः" इत्यत्राहमित्य तत्रात्मद्रव्यविषये देहीति देहमस्यास्तीति देही । देहमिति पुद्गलद्रव्यस्य समानजातीयद्रव्यपर्याय उपचरितः ।५॥ ॥७॥ व्याख्यार्थः-जैसे मैं गौरवर्ण हूँ ऐसा कहनेवालोंकेलिये यहांपर "अहम्" यह आत्मद्रव्य है, उसमें गौर इस पुद्गलके उज्ज्वल नाम गुणका उपचार किया गया है । अब द्रव्यमें पर्यायके उपचारका उदाहरण कहते हैं। जैसे कि मैं देही हूं अर्थात् मैं शरीरवान हूं ऐसा निर्णय करना यहां "अहं देही" (मैं देहवाला हूं) इस वाक्यमें "अहम्" पदसे आत्मद्रव्य विवक्षित है, उस आत्मारूप द्रव्यमें देही अर्थात् जिसके देह है, तो देह सहित होना यह पुद्गलद्रव्यके पर्यायका उपचार हुआ है ॥७॥ गुणे द्रव्योपचारश्च पर्यायेऽपि तथैव च । गौर आत्मा देहमात्मा दृष्टान्तौ हि कमात्तयोः ॥८॥ भावार्थ:-गुणमें द्रव्यका उपचार यह षष्ठ और पर्यायमें गुणका उपचार यह सप्तम असद्भ तव्यवहार उपनयके भेद हैं । "आत्मा गौर है" यह षष्ठ नयका और देह आत्मा है, यह सप्तमका क्रमसे दृष्टान्त है ॥८॥ व्याख्या । गुणे द्रव्योपचारश्च तथा पर्याये गुणोपचारश्च वं द्वावुपनयासद्भूतव्यवहारस्य भेदौ । अथ तयोरेवानुक्रमेण दृष्टान्तौ । यथा " अयं गौरो दृश्यते स चात्मा " अत्र गौर मुद्दिश्यात्मनो विधानं क्रियते यत्तदिह गौरतारूपपुद्गलगुणोपर्यात्मद्रव्यस्योपचारपठन Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ ] श्रीमद्रराजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् मिति । पर्याये द्रव्योपचारो यथा " देहमित्यात्मा" अत्र हि देहमिति देहाकारपरिणतानां पुद्गलानां पर्यायेषु विषयभूतेषु चात्मद्रव्यस्योपचारः कृतः । देहमेवात्मा देहरूपपुद्गलपर्यायविषय आत्मद्रव्यस्यापीद्गलिकस्योपचारः कृत इति सप्तमो भेदः । " अतति सातत्येन गच्छति तांस्तान्पर्यायानित्यात्मा" अत्र पर्यायाणां द्रव्य भावभेदितानां गमनप्रयोगो यद्यपीष्टस्तथाप्यसद्भूतव्यवहारविवक्षाबलेनोपचारधर्मस्यैव प्राधान्याद्वहिः पर्यायावलम्बनेन कर्मज शुभाशुभपुद्गल परिणत गौराख्यवर्णोऽपि लक्षित आत्मा मासते तदा गौर आत्मेति प्रतीतिर्जायते । अन्यथात्मनः शुद्धस्याकर्मणः कुतो गौरत्वध्वनिरत एवोपचारधर्मः देहमात्मेत्यत्र त्वौदारिकादिपुद्गलप्रणीतं देहमौदयिकेनाश्रित आत्मा उपलभ्यते तदा देहमात्मेत्युपचारध्वनिः ॥ ८ ॥ व्याख्यार्थः- गुण में द्रव्यका उपचार, और पर्यायमें द्रव्यका उपचार यह दोनों क्रमसे षष्ठ तथा सप्तम असद्भ ूतव्यवहार उपनयके भेद हैं, अब इन दोनोंके क्रमसे उदाहरण यह हैं । जैसे "यह जो गौर देखने में आता है; वह आत्मा ही हैं" इस वाक्य में गौरको उद्देश्य करके आत्मारूप द्रव्यका जो विधान किया जाता है; वह गौरतारूप पुद्गल द्रव्यके गुणके ऊपर आत्मद्रव्यका उपचारपठन है । अब पर्याय द्रव्यका उपचार जैसे यह देह आत्मा है; इस वाक्य में " देहम्" देह आत्मा है; ऐसा कहने में विषयभूत जो देहके आकार पुद्गलोंके पर्याय हैं; उनमें आत्मद्रव्यका उपचार किया गया है ; भावार्थ देह ही आत्मा है; यहां देहरूप पुद्गल पर्याय के विषय में अपौद्गलिक अर्थात् पुद्गलभिन्न जो आत्मद्रव्य है; उसका उपचार किया गया है; ऐसा पर्याय में द्रव्यका उपचाररूप सप्तम भेद है |७| अब आत्मा शब्द निरन्तरगमनार्थक अत् धातुसे मन् प्रत्यय लगानेसे बनता है; इसलिये उन २ पर्यायोंमें जो निरन्तर गमन करे वह आत्मा है । यहांपर द्रव्यभावसे भेदको प्राप्त पर्यायोंका यद्यपि गमनरूपसे प्रयोग इष्ट है; तथापि असत व्यवहार उपनयकी विवक्षाके बलसे उपचार धर्मको हो प्रधानता है, इसलिये बाह्यदेश में पर्यायोंका अवलम्बन करनेसे कर्मोंसे उत्पन्न शुभ तथा अशुभ पुद्गलोंके परिणामरूप जो गौर ( उज्ज्वल ) नामा वर्ण है; वह भी देखा हुआ जब आत्मा भासता है; तब यह गौर आत्मा है; ऐसी प्रतीति उत्पन्न होती है, अन्यथा परमार्थ में शुद्ध तथा कर्मरहित आत्म गौरucer कथन कहांसे हो सकता है । इसीलिये उपचार धर्म है । और “देहमात्मा" देह आत्मा है; यहांपर औदारिकआदि शरीरसम्बन्धी पुद्गलोंसे शरीरकी औदयिक भावसे आश्रित आत्मा प्राप्त होता है; तब यह देह आत्मा है; ऐसे उपचारकी ध्वनि होती है ॥८॥ अथाष्टमभेदोत्कीर्तनमाह । अब अष्टम भेदका निरूपण करते हैं । गुणे पर्यायचारश्च मतिज्ञानं यथा तनुः । पर्याये गुणचारोऽपि शरीरं मतिरिष्यते ॥९॥ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ १०५ उपचार जैसे मतिज्ञान शरीर है, तथा पर्याय में गुणका भावार्थः—गुणमें पर्यायका उपचार जैसे शरीर मतिज्ञान है ||९|| व्याख्या । गुणे पर्यायोपचारः पर्यायचार इत्युपचारो वाच्यो भीमो भीमसेन इति वत् । यथा मतिज्ञानं तदेव शरीरं शरीरजन्यं वर्त्तते ततः कारणादत्र मतिज्ञानरूपात्मकगुणविषये शरीररूपपुद्गल पर्यायस्योपचारः कृतः |८| अथ नवमभेदोत्कीर्त्तनमाह । पर्याये गुणोपचारः । यथा हि पूर्व प्रयोगजमन्यथा क्रियते । यतः शरीरं तदेव मतिज्ञानरूपो गुणोऽस्ति । अत्र हि शरीररूपपर्यायविषये मतिज्ञानरूपाख्यस्य गुणस्योपचारः क्रियते । शरीरमिति पर्यायस्तस्मिन्विषये मतिज्ञानाख्यो गुणस्तस्य चोयचारः कृतः । अत्र चाष्टमनवम विकल्पयोः समविषमकरणेनोपचारो विहितस्तत्रापि सहभाविनो गुणाः क्रममाविनः पर्यायाः । सहमावित्वं च द्रव्येण क्रममावित्वमपि द्रव्येणैव ज्ञेयमतो द्रव्यस्यैव गुणाः, पर्याया अपि द्रव्यस्यैव | गुणपर्याययोः पर्यायगुणयोश्च परस्परमुपचारव्यवहारः कृतः । यत्रोपचारस्तत्र निदर्शनमात्रमेव विसहृदाधर्मित्वेन धर्मारोपवत् । किञ्च मतिज्ञानमात्मनः कश्चिदुद्धटितो गुणः । शरीरे च पुद्गलद्रव्यस्य समवायिकारणम् । यथा मृत्पिण्डे घटस्य समवायिकारणमितिवत् । एवं सत्युपचारो जायते परेण परस्योपचारात् स्वेन स्वेनोपचारासम्भवः । यथा मृत्पिण्डस्य घटेन, तन्तूनां पटेनेत्येवमसद्ध तव्यवहारो नवधोपदिष्टः । उपचारबलेन नवधोपचाराः कृताः ॥६॥ व्याख्यार्थः—यहां गुणमें पर्यायका चार “गुणे पर्य्यायचारः " इस पदसे पर्यायके उपचारसे तात्पर्य है; जैसे भीम और भीमसेन दोनोंसे एक ही अर्थ होता है; अर्थात् जैसे भीमके कथनमें भीमसेनका बोध होता है; ऐसे ही यहां भी चार इस कथन से उपचार अर्थसे तात्पर्य है; गुणमें पर्यायके उपचारका उदाहरण जैसे जो मतिज्ञान है; वही शरीर है; अर्थात् शरीरजन्य है, इसलिये यहां मतिज्ञानरूप गुणके विषय में शरीररूप पुद्गल पर्यायका उपचार किया गया है |८| अब नवम भेदका कथन करते हैं; पर्याय में गुणका उपचार जैसे पूर्व प्रयोग जो मतिज्ञान है; वही शरीर है; इसको विपरीत कर देनेसे जो शरीर है, वही मतिज्ञानरूप गुण है । यहां शरीररूप पर्यायके विषय में मतिज्ञानरूप गुणका उपचार है । क्योंकि शरीर तो पर्याय है, उस शरीरके विषय में मतिज्ञाननामक गुणका उपचार किया गया है । इन अष्टम, नवम, असद्ध तव्यवहारउपनयके भेदों में सम विषम करनेसे उपचार कियागया है। इनमें भी सहभावी जो हैं, वह गुण हैं, ओर जो क्रमभावी हैं; वह पर्याय हैं | और सहभावित्व अर्थात् साथ होना भी द्रव्यसे ही है, तथा क्रमभावित्व अर्थात् क्रमसे होना यह भी द्रव्यसे ही है, इस कारण द्रव्यके ही गुण हैं, और द्रव्यके ही पर्याय हैं । गुण तथा पर्यायका और पर्याय तथा गुणका परस्पर अचार व्यवहार किया गया है : जिसमें जिसका उपचार होता है, उसमें उसका विसदृशधर्म के धर्मके आरोपके सदृश दृष्टान्तमात्र दर्शाया जाता है । और मतिज्ञान जो है; वह आत्माका कोई उत्पन्न हुआ गुण है, तथा शरीर १४ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् पुद्गल द्रव्यका समवायीकारण है। जैसे मृत्तिकाके पिण्डमें घट की समवायीकारणता है; और ऐसी दशा होनेपर ही उपचार होता है; क्योंकि-परके साथ परका उपचार होता है; और स्वके साथ स्व (निज) का उपचार नहीं हो सकता है । जैसे मृत्पिण्डका घटके साथ तथा तंतुवोंका पटके साथ उपचार नहीं होता। इस रीतिसे असद्भ तव्यवहार नव ९ प्रकारसे निरूपण कियागया । अर्थात् उपचारके बलसे उपचार भी नव ९ प्रकारके ही किये गये ॥९॥ अथ तस्यैवासद्भुतव्यवहारस्य भेदत्रयं कथ्यते । अब उसी असद्भ तव्यवहारके तीन भेद कहते हैं । असद्भूतव्यवहार एवमेव त्रिधा भवेत् । तत्राद्यो निजया जात्याप्यणुर्भू रिप्रदेशयुक् ॥१०॥ भावार्थः-असद्भ तव्यवहार पूर्व कथित प्रकारसे ही तीन प्रकारका होता है, उनमें आदि भेदका उदाहरण जैसे निज जातिसे परमाणु अनेक प्रदेशोंका धारक है ॥१०॥ व्याख्या । असद्दभूतव्यवहार एवं पूर्वोक्तरीत्यैव त्रिधा त्रिप्रकारो भवेत् । तत्र त्रिषु भेदेष्वाद्यो भेदो यथा परमाणुः बहुप्रदेशी कथ्यते । कथं तहि-परमाणुस्तु निरवयवोऽतो निरवयवस्य सप्रदेशत्वं नास्ति तथापि बहप्रदेशानां सांसगिकी जातिः परमाणोरस्ति । यथा हि द्वघणुकृत्र्यणुकादिस्कन्धवत् ॥१०॥ व्याख्यार्थः-असद्भ तव्यवहार पूर्व कथित प्रकार से ही तीन प्रकारका होता है; उन तीनों भेदोंमेंसे प्रथम भेदका उदाहरण यह है; कि-जैसे परमाणु बहुप्रदेशमुक्त कहा जाता है । अब परमाणु अनेक देशभागी है; यह कथन कैसे संगत हो सकता है; क्योंकि-परमाणु तो निरवयव ( अवयवरहित ) पदार्थ है; इसलिये यद्यपि निरवयवको सप्रदेशता (प्रदेशसहितपना) ही नहीं है; तथापि बहुप्रदेशोंकी सांसर्गिकी अर्थात् संसर्गसिद्ध परमाणुके हैं; जैसे दो अणुवोंका स्कन्ध, तीन अणुवोंका स्कन्ध इत्यादि ।। १० ।। अथ द्वितीयो भेदश्च । अब असद्भ तव्यवहारके द्वितीय भेदका भी कथन करते हैं। विजात्यापि स ऐवान्मा यथा मूत्तिमती मतिः । मूर्तिमद्भिरपि द्रव्यनिष्पन्ना चोपचारतः ॥११॥ भावार्थः-विजातिसे भी वही असद्ध तव्यवहार प्रवृत्त होता है, जैसे मूर्तिमान द्रव्योंके उपचारसे मतिज्ञान मूर्तिमान सिद्ध होता है, अर्थात् “मूतिर्मूर्तिमती" ऐसा व्यवहार दृष्ट है; यह अन्य अर्थात् द्वितीय असद्भत व्यवहार है ॥ ११ ॥ व्याख्या । यथा स सवासद्भूतो विजात्या वर्तते । यथा वा मूर्तिमती मतिः । मतिर्ज्ञान - Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ १०७ मूर्त कथितं तत् मूर्तविषयलोकमनस्कारादिकेभ्य उत्पन्नं तस्मान्मूर्त वस्तुतस्तु मतिज्ञानमात्मगुणस्तस्य चापौग्दलिकस्य मूर्तिमत्पुद्गलगुणोपचारः कतः । स तु विजात्या असद्भ तव्यवहारः ॥११॥ व्याख्यार्थः--जैसे वही असद्भ तव्यवहार विजाति अर्थात् अन्यजातिसे भी है । जैसे मति मूर्तिमती है; अर्थात् मतिज्ञान मूर्त्त ( आकारसंयुक्त ) कहा गया है। वह मूर्त विषय लोक तथा मनस्कारआदिसे उत्पन्न हुआ है; इस कारण मूर्त है । यथार्थमें तो मतिज्ञान आत्माका गुण है; अतः वह अपौद्गलिक है; अर्थात् पुद्गलसे उत्पन्न हुआ नहीं है; उस अपौद्गलिक मतिज्ञानके मूर्तिमान् पुद्गलगुणका उपचार किया गया है; और यह उपचार चेतन धर्मसे विजातीय मूर्त्तिमान पुद्गल गुण है; इस कारण विजातिसे असद्ध तव्यवहार है ॥ ११॥ अथ तृतीयमाह । अब असद्भ तव्यवहारका तृतीय भेद कहते हैं। स्वजात्या च विजात्यापि, असद्भूतस्तृतीयकः । जीवाजीवमयं ज्ञानं व्यवहाराद्यथोदितम् ॥१२॥ भावार्थः-स्वजातिसे तथा विजातिसे तृतीय असद्भूतव्यवहार प्रवृत्त होता है । जैसे व्यवहारसे जीव तथा अजीवमय ज्ञान कहा गया है ॥ १२ ॥ व्याख्या । स एव पुनरसद्भूतव्यवहारः स्वजात्या विजात्या च सम्बन्धितः कथितः । यथा जीवाजीवविषयं मति ज्ञानं । अत्र हि जीवो मतिज्ञानस्य स्वजातिरस्स्त यात्मनो ज्ञानमयस्वान, अजीवो मतिज्ञानस्य विजातिरस्ति । यद्यपि मतिज्ञानस्य विजातिरस्ति । यद्यपि मतिज्ञानादिविषयीभूतघटोऽयमिति ज्ञानम । तथापि विजातिर्जडचेतनसंबन्धात् । अनयोजिवयोविषय-विषयिभावनामा उपचरितसम्बन्धोऽस्ति । स हि स्वजातिविजात्यसद्भूतव्यवहारोऽस्ति तद्भानमेव ज्ञेयम् । स्वजात्यंशे किन्नायं सद्भूत इति चेद्विजात्यशे विषयतासंबन्धस्योपचरितस्यैवानुमवादिति गृहाणेति । व्यवहाराद्यथोदितं तथा विचारयेति पद्यार्थः ॥१२॥ व्याख्यार्थः-स्व ( निज ) जाति तथा विजाति ( परजाति ) से संबन्धयुक्त होनेसे तृतीय असद्भ तव्यवहार कहा गया है । जैसे “मतिज्ञान जोब अजोव विषयक है, इस वाक्यमें जीव तो मतिज्ञानका स्वजाति है; क्योंकि-आत्मा ज्ञानस्वरूप ही है । ओर अजोव मतिज्ञानका विजाति है। यद्यपि “अयं घट;" यह घट है; यह ज्ञान मतिज्ञानआदिका विषयभूत है; तथापि यह विजाति है; क्योंकि-इस ज्ञानमें जड़ तथा चेतनका सम्बन्ध है। इन जीव तथा अजीवका विषयविषयीभावनामक उपचरित संबन्ध है; और वही सजातिविजातिसंबन्धी असद्भ तव्यवहार है। इसलिये असद्भ तका ही भान होता है; ऐसा समझना चाहिये । यदि ऐसा कहो कि-स्वजात्यंशमें यह सद्भत क्यों नहीं ? तो यह Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् शंका नहीं कर सकते क्योंकि-विजातीय अंश ( जड़ता अंश ) में विषयता संबन्धसे उपचरितका ही अनुभव होता है; ऐसा अंगीकार करो, अर्थात् व्यवहारसे जैसा कहागया है; वैसा विचारो यह श्लोकका अर्थ है ।।१२।। अथोपवरितासन तस्य लक्षणमाह । अब उपचरितअसद्ध तव्यवहारनामक तृतीय उपनयका लक्षण कहते हैं । यश्च केनोपचारेणोपचारो हि विधीयते। स स्यादुपचरिताद्यसद्भ तव्यवहारकः ॥१३॥ भावार्थ:-जो एक उपचारके द्वारा दूसरे उपचारका विधान किया जाता है; वह उपचरितअसद्ध तव्यवहार कहा जाता है ।। १३ ।। व्याख्या । यश्च पुनरेकेनोपचारेण कृत्वा द्वितीय उपचारो विधीयते । स ह्य पचरितोपचरितो जात उपचारितासद्भूतव्यवहार इति नाम लभते । इत्यर्थः ॥ १३ ॥ व्याख्यार्थः-जो कि-एक प्रकारसे उपचार करके पुनः द्वितीय उपचारका विधान किया जाता है, वह उपचरितोपचरित हो गया अर्थात् उसका उपचार होगया । वह उपचरित है; आदिमें जिसके ऐसा असद्ध तव्यवहार अर्थात् उपचरितअसद्भ तव्यवहार नामको प्राप्त होता है । यही सूत्रका तात्पर्य है ।। १३ ।। अथोदाहरणमाह। अब इसका उदाहरण स्वजात्या तं विजानीत योऽहं पुत्रादिरस्मि वै। पुत्रमित्रकलत्राद्या मदीया निखिला इमे ॥१४॥ भावार्थ:-तुम स्वजातिसे उपचरित असद्ध तव्यवहार उसको जानो कि-जो मैं निश्वयसे पुत्रआदि हूं, और यह सब पुत्र, मित्र, स्त्रीआदि मेरे हैं; ऐसा मानता है ॥ १४ ।। __ व्याख्या । तमुपचरितासद्भूतं स्त्रात्या निजशक्तयोपचरितसंबन्धेनासद्भ तव्यवहारं जानीत । संबन्धकल्पनं यथा "अहम पुत्रादिः" अहमित्यात्मपर्यायः, पुत्रादिरिति परपर्यायः, अहं पुत्रादिरिति सम्बन्धकल्पनम् । पुनः पुत्रमित्रकलत्राद्या निखिला इमे मदीयाः संबन्धिनः अत्र "अहं मम" चेत्यादि कथनं पुवादिषु तद्धयुपचरितेनोपचरितम् । तत्कथं-पुत्रादयो ह्यात्मनो भेदाः स्ववीर्यपरिणामत्वादभेदसम्बन्धः परम्पराहेतुतयोपचारितः । पुत्रादयस्तु शरीरात्मकपर्यायरोण स्वजातिः, परन्तु कल्पनमात्रम । न चेदेवं तहि स्वशरीरसंबन्धयोजनया सम्बन्धः कथितः पुत्रादीनां, तथैव मत्कुणादीनामपि पुत्रव्यवहारः कथं न कथित इति ॥ १४॥ व्याख्यार्थ:--स्वजातिसे अर्थात् निजशक्ति से उपचरित संबन्धसे उस असद्ध तव्यवहारको जानो; संबन्धकी कल्पनाका उदाहरण जैसे "अहं पुत्रादिः' पुत्र आदि मैं ही हूं । यहापर अहम् यह आत्माका पर्याय है, और पुत्रादि यह परपर्याय है, और "अह Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ १०९ पुत्रादिः' मैं ही पुत्रआदि हूं, यह संबन्ध कल्पना है। पुनः यह पुत्र, मित्र; स्त्रीआदि सब मेरे हैं; अर्थात यह सब मेरेसे ही संबन्ध रखनेवाले ( मेरे संबन्धी )हैं; अब यहां पुत्र आदिके विषय में “ अहम" मैं और मम" मेरे यह जो कथन है; सो उपचरितसे उपचार किया गया है, सो कैसे कि-निज वीर्य के परिणाम होनेसे पुत्रआदि अपने आत्माके ही भेद हैं; इसलिये पुत्रादिमें भेद होते हुये भी परंपराके हेतुसे अभेद संबन्धका उपचार कियागया और पुत्रादि निजशरीरकी पर्यायरूपतासे तो अपनी जाति है; परन्तु कल्पनामात्रसे ही मैं तथा मेरे यह व्यवहार होता है; यदि ऐसा न हो (यदि पुत्रादिमें अपना अंशमानना कल्पना मात्र न हो) तो अपने शरीरकी योजनासे जो पुत्रादिकका सम्बन्ध कहा गया है; उसी प्रकार मत्कुण (खटनल ) आदिसे भी शरीरका संबन्ध है; उनमें पुत्रादि व्यवहारका कथन क्यों नहीं करते ।। १४ ।। अथ विजात्यानद्भः व्यवहारः अब विजातिसे असद्भत व्यवहारका निरूपण करते हैं । विजात्या किल तं वित्थ योऽहं वस्त्रादिरद्भुतः। वस्त्रादीनि ममैतानि वप्रदेशादयो द्विधा ॥ १५ ॥ भावार्थः-उसको विजातिसे उपचरित असद्भ तव्यवहार जानो कि-जो मैं वस्त्र आदि हूँ; और वस्त्रआदि मेरे हैं; ऐसा मानता है; तथा वप्र ( पर्वतोंपर क्रीडाका स्थान ) प्रदेशआदि मैं हूं; तथा वप्र प्रदेशआदि मेरे हैं; इत्यादि मानता है; सो स्वजातिविजात्युपचरितासद्भूतव्यवहार है ॥ १५ ।। व्याख्या । विजात्युपचरितासद्भूतव्यवहारं प्रकटयति । किल इति सत्ये, तमसदभूतब्यवहारं विजात्योपचरितं विजानीत । यश्चाहं वस्त्रादिः, अहमिति सम्बन्धिवचनं वस्त्रादिरितिसम्बन्धवचनमहं वस्त्रादिरित्युपचरितम् । सर्वोऽपि ब्यतिकरोऽसद्भूतव्यवहार: सम्बन्धसम्बन्धिकल्पनत्वात् । अथ चैतानि वस्त्रादीनि मम सन्ति “अत्र हि वस्त्रादीनि पुद्गलपर्यायाणि ममेति सम्बन्धयोजनया भोज्यभोजकमोगमोगिकोपचारकल्पनमात्रपराणि भवन्तीति निष्कर्षः । अन्यथा वल्कलादीनां वानेयानां पुद्गलानां शरीराच्छादन-- समर्थानामपि मम वस्त्राणीत्युपचारसम्बन्धकल्पनं कथं न कथ्यते। वस्त्रादीनि हि विजातिषु स्वसम्बन्धो-- पचरितानि सन्तीति भावः । पुन: वप्रदेशादयो द्विधेति" वप्रादिरहम्, वप्रदेशादयो ममेति कथयता स्वजातिविजात्युपचरितासद्भूतव्यवहारो भवेत् । कथं वप्रदेशादयो हि जीवाजीवात्मकोमयसमुदायल्पाः मन्ति ॥ १५ ॥ व्याख्यार्थः-विजातिसे उपचरित असद्भूतव्यवहारको प्रकट करते हैं। सूत्रमें जो “किल" पद है; वह सत्य अर्थका वाचक है; इसलिये सत्य प्रकारसे उसको विजातिसे उपचरित असद्भूतव्यवहार जानो । जो 'अहं वस्त्रादि' मैं वस्त्र आदि हूँ; यहाँ पर अहं यह जो पद है, वह संबन्धीका वाचक है, ओर वत्रादि यह सम्बंध वाचक Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् है; और आदि मैं हूँ यह उपचारसे कथन है, अर्थात् वस्त्रादिमें मत्त्व (आत्मत्व ) उपचारसे माना गया है । सम्बंध तथा सम्बन्धीकी कल्पना होनेसे यह सब व्यतिकर (जड़में आत्मबुद्धि तथा आत्मामें वखादि उलटा ज्ञान ) असद्भूतव्यवहारका विषय है; और यह वस्त्रआदि सब मेरे हैं; यहां पर वत्रआदि पुद्गल पर्याय हैं, उनमें मेरे हैं; इस सम्बन्धकी योजनासे भोज्य भोजक वा भोग भोगीके उपचारकी कल्पना मात्रमें तत्पर हैं, अर्थात् वस्त्रआदि भोज्य हैं; और आत्मा उनका भोग करनेवाला है; इस कल्पनाके विधायक हैं । यदि ऐसा न हो तो वृझोंके वल्कल (छाल) वा उनके अन्य पत्रादि जो शरीर के आच्छादनमें समर्थ हैं; तो भी उनमें ये मेरे वस्त्र हैं; अथवा ये मैं हूँ इत्यादि उपचार संबन्धकी कल्पना क्यों नहीं कहते । अतः जिन वस्त्रोंमें भोज्य भोजक है; वह ही वत्रआदि विजातीय आत्माआदिमें निज संबन्धसे उपचरित हैं; यह तात्पर्य है । अत्र 'वप्रदेशादयो द्विधा' इस वाक्यकी व्याख्या करते हैं। वप्रआदि मैं हूँ और प्रआदि देश मेरे हैं, ऐसा कहने वालोंको स्वजातीय तथा विजातीय उपचार से असदुभूतव्यवहार है, क्योंकि-वत्र, देशआदि जीव तथा अजोव इन दोनोंके समुदाय - रूप है ।। १५ ।। अथ संक्षेपमाह । अब संक्षेपसे नय तथा उपनयके विषयका उपसंहार करते हैं । इत्थं समे चोपनयाः प्रदिष्टाः स्याद्वादमुद्रोपनिषत्स्वरूपाः । विज्ञाय तान् शुद्धधियः श्रयंतां जिनक्रमाम्भोजयुगं महीयः ॥ १६ ॥ भावार्थ:- इस रीति से स्याद्वादशैली के रहस्यभूत नय तथा उपनय दोनोंका समानरूपसे उपदेश किया है; शुद्धबुद्धिके धारक उनको जान कर सर्वपूजनीय जिन भगवान्के चरणकमलका आश्रय लें ॥ १६ ॥ व्याख्या । इत्यमनया दिशा समे नयाश्च पुनः उपनयाः प्रदिष्टाः कथिताः । कोदृशास्ते स्याद्वादस्य श्रीनागमस्य या मुद्रा शैली तस्या उपनिषत्स्वरूपा रहस्यरूपाः सन्ति तान् सर्वानिनि विज्ञाय ज्ञात्वा शुद्धधियः निर्मलबुद्धयः श्रयन्तामङ्गीकुर्वतां कि जिनकनाम्मोनयुगं वीतरागवरणकवलं अत्तामध्यर्थः ॥ १६ ॥ इति श्रीकृतिभोजसागरविनिर्मितायां द्रव्यानुयोगतर्कणायां सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥ व्याख्यार्थ :- इस पूर्वोक्त दिशासे अर्थात् पूर्वकथित रोति के अनुसार समानरूपसे नय तथा उपनय दोनोंका निरूपण किया है, वह नय तथा अतय कैसे हैं; कि ओजिदेव प्रणीत स्याद्वादी जो मुद्रा अर्थात् शैली है; उसके रहस्य ( सार ) भूत हैं; इस हेतुसे निर्मलबुद्धि जन उन सब नय तथा उपनयोंको भेद प्रभेदसहित जानकर सर्व पूजate श्रीजन भगवान के चरणकमलोंका आश्रय ग्रहण करें यही सूत्रका तात्पर्य है ॥ १६ ॥ इति श्रीआचार्योपाधिधारक पं० ठाकुरप्रसाद प्रणीत भाषाटीका समलङ्कृतायां द्रव्यानुयोगतर्कणाव्याख्यायां सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥ . Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ १११ अथाष्टमाध्यायं विवृणोति । अब अष्टम अध्यायका विवरण करते हैं। निश्चयव्यवहारौ हि द्वौ च मूलनयौ स्मृतौ । निश्चयो द्विविधस्तत्र शुद्धाशुद्धविभेदतः ॥ १॥ भावार्थ:-निश्चय तथा व्यवहार यह दो ही मूल नय हैं, इनमें शुद्ध अशुद्धके भेदसे निश्चयनय दो प्रकारका है, अर्थात् शुद्धनिश्चयनय, और अशुद्धनिश्चयनय, यह निश्चयनयके दो भेद हैं ॥ १ ॥ व्याख्या। हि निश्रितमध्यात्मभाषायां मूलनयो द्वौ स्मृतौ तौ च निश्चयव्यवहारौ निश्चिनोति तत्त्वमिति निश्चय: १ व्यवहियत इति व्यवहार: २ तत्रापि निश्चयनामा द्विविधो द्विप्रकारः। एकः शुद्धनिश्चयनयः, द्वितीयोऽशुद्धनिश्चयनयः । एवं द्विप्रकारो शेयः ॥ १ ॥ व्याख्यार्थः-सूत्रमें जो 'हि' शब्द है; उसका अर्थ निश्चय है, इसलिये निश्चय रूपसे अध्यात्मभाषाके अनुसार मूलभूत नय निश्चय तथा व्यवहार यह दो ही हैं । इनमें तत्वका जो निश्चय करै उसको निश्चय कहते हैं, तथा जो व्यवहार कियाजाय वह व्यवहारनय है, उनमें भी निश्चयनामक नय दो प्रकारका है; एक तो शुद्धनिश्चयनय है; और दूसरा अशुद्ध निश्चयनय दो प्रकारका है ॥१॥ यथा केवलज्ञानादिरूपो जीवोऽनुपाधिकः । शुद्धो मत्यादिकस्त्वात्माशुद्धः सोपाधिकः स्मृतः ॥२॥ भावार्थः-जैसे उपाधिरहित जीव केवलज्ञानआदिरूप है, यह शुद्धनिश्चय नय है, और उपाधिसहित जीव मतिज्ञानअदिरूप है; यह अशुद्धनिश्चयनय है ॥२॥ व्याख्या। यथा हि केवलज्ञानादिरूपो जीवोऽनुपाधिक उपाधिः कर्मजन्यस्तेन विहीनोऽनुपाधिकः शुद्ध इति शुद्धनिश्चयभेदेन प्रथमः । अय हि केवलज्ञानमासाद्य शुद्धगुणमयात्मकरूपेण जीवस्याभेदो दर्शितः । तथा च मतिज्ञानादिक आत्मा अशुद्धनिश्चयभेदेन द्वितीयः । अत्र ह्यात्मनः सोपाधिकस्यावरणक्षयजनितज्ञानविकल्पेनात्मा मतिज्ञानी अशुद्ध उपलक्ष्यते सोपाधिकत्वात् केवलज्ञानाख्यो गुणः शुद्धगुणस्तदुपेत आत्मापि शुद्धस्तन्नामनयोदयाच्छुद्धनिश्चयनयः । मतिज्ञानादिगुणोऽशुद्धस्तदुपेत आत्माप्यशुद्धस्तदाख्यया नयोऽप्यशुद्धः निश्चयशब्द आत्ममात्रपरः, शुद्धशब्दः कर्मावरणविशिष्टः । आवरणक्षये शुद्धः सति तस्मिन्नशुद्धः ॥ २॥ व्याख्यार्थः-जैसे केवलज्ञानादिरूप अर्थात् केवलज्ञानमय जीव अनुपाधिक है, अर्थात् कर्मोंसे उत्पन्न हुई जो उपाधि है उससे रहित है; भावार्थ शुद्ध है। यह शुद्ध निश्चयके भेदसे प्रथम भेद दर्शाया गया है। और मतिज्ञान आदिक आत्मा है, यह Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् अशुद्धनिश्चयके भेदसे द्वितीय नय है। इस भेदमें उपाधिसहित आत्माके मतिज्ञानावरणीय कर्मके क्षयसे उत्पन्न जो ज्ञान है; उसके भेदसे आत्मा मति ज्ञानी है; अर्थात् मतिज्ञान जीव है; ऐसे अशुद्ध उपलक्षित होता है; क्योंकि-वह मतिज्ञान सोपाधिक है, अर्थात् कर्मजन्य है। भावार्थ-केवलज्ञाननामक जो गुण है; वह शुद्ध गुण है, इसलिये उस शुद्ध गुणसे युक्त आत्मा भी शुद्ध है; और शुद्धनामक नयके उदयसे शुद्ध निश्चय नय है। मतिज्ञानआदि जो गुण है; वह अशुद्ध गुण है, इस कारण उस अशुद्ध गुणसे युक्त आत्मा भी अशुद्ध है; और उस नामसे नय भी अशुद्ध निश्चय है। निश्चय शब्द आत्मामात्रमें तत्पर है; और शुद्ध शब्द कर्म के आवरणविशिष्ट है; अर्थात् कर्मके आवरणका क्षय होनेपर शुद्ध है; और उस आवरणकी विद्यमानतामें अशुद्ध है; यह शुद्ध और अशुद्ध शब्दका विवेचन हुआ और शुद्ध अशुद्ध इन दोनोंके साथ निश्चय शब्द इसलिये लगा है; कि-केवलज्ञान भी आत्माका गुण है; ओर मतिज्ञान भी आत्माहीका गुण है; इस कारण शुद्ध भी निश्चयनय है; और उपाधिकी सत्तासे अशुद्ध भी निश्चयनय है ॥२॥ अथ व्यवहारस्य भेदं दर्शयति । अथ व्यवहारनयके भेदको दर्शाते हैं। सद्भूतश्चाप्यसद्भूतो व्यवहारो द्विधा भवेत् । तौकविषयस्त्वाद्यः परः परगतो मतः ॥३॥ भावार्थ:-सद्भूत और असद्भूत इन दो भेदोंसे व्यवहार भो दो प्रकारका होता है; अर्थात् एक सद्भूतव्यवहारनय और दूसरा असद्भूतव्यवहारनय । उन में प्रथम तो एक द्रव्यके आश्रित सद्भूतव्यवहार है; और दूसरा असद्भूतव्यवहार परद्रयाश्रित है ॥३॥ ___ व्याख्या। व्यवहारोऽपि सद्भूतः पुनरसद्भूत इति भेदाम्यां द्विधा द्विप्रकारः । तत्र आद्यः प्रथम एकविषय एकद्रव्याश्रितः सद्भूतव्यवहारः । अपरः परविषयः परद्रव्याश्रितः सद्भूत व्यवहार इति ॥ ३ ॥ व्याख्यार्थः-व्यवहारनय भी नियञ्चयके सदृश सद्भूत तथा असद्भूत इन दोनों भेदोंसे दो प्रकारका है। उनमें प्रथम सद्भूतव्यवहार तो एक द्रव्यविषयक है, अर्थात् एक द्रव्यके आश्रयसे रहता है। और द्वितीय असद्भूतव्यवहार परद्रव्यके आश्रयसे रहता है ।।३॥ उपचरितसद्भूतानुपचरितभेदतः । आद्यो द्विधा च सोपाधिगुणगुणिनिदर्शनात् ॥४॥ त्रिष्वपि पुस्तकेष्वयमेव पाठो विद्यते परन्त्वस्य स्थाने "असदभूतव्यवहारः" इति पाठ: सम्यगाभाति । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ ११३ भावार्थ:-उपचरितसद्भत और अनुपचरितसद्भत इन दोनों मेदोंका कारण प्रथम जो सद्भूतव्यवहार है; वह भी दो प्रकारका है; उनमें सोपाधिक गुण गुणीके भेदसे प्रथम भेद होता है ॥४॥ व्याख्या । उपचरितसद्भूतभेदेनानुपचरितसद्भूतभेदेन चाद्य एकद्रव्याश्रितसद्भूतव्यवहारो द्विधा द्विप्रकारः । तत्र च सोपाधिकगुणगुणिभेदात्प्रथमो भेदो भवति ॥४॥ ___ व्याख्यार्थः-उपचरितसद्भूतभेदसे तथा अनुपचरितसद्भूतभेदसे आदि जो एक द्रव्यके आश्रित सद्भूतव्यवहार है; वह दो प्रकारका है, उनमेंसे उपाधिसहित गुण और गुणीके भेदसे प्रथम भेद अर्थात् उपचरितसद्भूतव्यवहारनय होता है ॥ ४ ॥ यथोपचारतो लोके जीवस्य मतिरुच्यते । अनुपचरितसद्भूतोऽनुपाधिगुणतद्वतोः ॥५॥ भावार्थ:-जैसे लोकमें उपचारसे यह कहा जाता है; कि-जीवका मतिज्ञान है । और अनुपचरितसद्भूत व्यवहार वह है; जो उपाधिरहित गुण गुणीको प्रदर्शन करे ॥ ५॥ व्याख्या । यथा जीवस्य मतिज्ञानम् । अत्र हि मतिरुपाधि: कर्मावरणकलुषितात्मनः सकलज्ञानत्वेन ज्ञानमिति कल्पनं सोपाधिकमुपचारतो जातमिदम् । अथ द्वितीयभेदमाह । उपाधिरहितेन गुणेनानुपाषिक आत्मा यदा संपद्यते तदनुपाधिकगुणगुणिनोर्मेंदाद् मिन्नोऽनुपचरितसद्भूतोऽपि द्वितीयो भेदाः समुत्पद्यत इति ॥५॥ ___ व्याख्यार्थः-उपचरितसद्भूतका उदाहरण-जैसे जीवका मतिज्ञान इत्यादि लोकमें व्यवहार होता है; इस व्यवहारमें उपाधिरूप कर्मके आवरणसे कलुषित आत्माका मलसहित ज्ञान होनेसे जीवका मतिज्ञान यह उपाधिसहित कल्पना उपचारसे हुई है, इसलिये सोपाधिक होनेसे यह उपचरित सद्भूतव्यवहारनामक प्रथम भेद है । अब द्वितीय भेदको कहते हैं । उपाधिरहित गुणके साथ उपाधिशून्य आत्मा जब संपन्न होता है; तब अनुपाधिक (उपाधिसे वर्जित) गुण गुणीके भेदसे भिन्न (भेदको प्राप्त हुआ) अनुपचरितसद्भूतनामक व्यवहारनयका दूसरा भेद भी सिद्ध होता है ॥५॥ अथास्योदाहरणमाह । अब इस अनुपचरितसद्भूतव्यवहारका उदाहरण कहते हैं । केवलादिगुणोपेतो गुण्यात्मा निरुपाधिकः। असद्भूतव्यवहारो द्विधैवं परिकीत्तितः ॥६॥ भावार्थः-केवलज्ञानआदिगुणसहित गुणी आत्मा उपाधिरहित है । और असद्भूतव्यवहार भी पूर्वोक्त सद्भूतव्यवहारकी भांति दो प्रकारका कहा गया है ॥६॥ व्याख्या । केवलादिगुणोपेतः केवलज्ञानसहितः कर्मक्षयाविभूतप्रभूतानुभवमावात्मको जीवो निरुपाधिकगुणोपेतो निरुपाधिकं गुणी भवति । आत्मा हि संसारावस्थायामष्टकर्म Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् जनितावरणपरिस्फुटप्रभावमावितः सोपाधिकगुणमंत्यादिमिस्तद्वानिति सोपाधिक आत्मेति व्यपदेशमाग्भवति । अत्र तु तदभावे तदभावान्निरुपाधिकगुणगुणिभेदभावनासमुत्पादादनुपचरितसद्भूतभेदोऽपि समुत्पन्नः। केवलादिरिति केवलस्यकत्वादादिरिति तदुत्थानन्तगुणोदयात्केवलादिरिति कथनम् । अथासद्भूतव्यवहारस्यापीत्थमेव भेदद्वयं प्रकटयन्नाह । असद्भूतव्यवहारोऽप्येवं पूर्वोक्तसद्भूतवद्विधा द्विप्रकार: परिकीर्तितः कथित इति ।।६।। व्याख्यार्थः-जैसे केवलादिगुणसे युक्त ( केवलज्ञानरूप गुणसे सहित ) आत्मा अर्थात् कर्मोके क्षयसे उत्पन्न जो प्रभूत ( महा ) अनुभव है; उस महानुभवस्वरूप भाव मय जो जीव हैं; वही उपाधिरहित केवलज्ञानसे संयुक्त निरुपाधिक आत्मा है । क्योंकिआत्मा संसारमयी अवस्थामें अष्ट प्रकारके जो कर्म हैं; उन कर्मोंसे उत्पन्न आवरणोंके अप्रकट प्रभावसे सहित हुआ उपाधिसहित गुण जो मतिआदिक ज्ञान हैं; उनसे मतिज्ञानी अर्थात् उपाधिसहित आत्मा इस नामका भागी होता है। और यहांपर कारणके अभावसे कार्यका भी अभाव होता है; इस न्यायसे उपाधिसहित मतिज्ञानादि गुणोंके अभावसे उपाधिसहित गुणी आत्मा भी नहीं रहता इसलिये उपाधिसे वर्जित गुण गुणीके भेदकी भावनाकी सम्यक् प्रकारसे उत्पत्तिसे "अनुपचरितसद्ध त" यह नयका भेद सिद्ध होता है । और सूत्रमें जो “केवलआदिगुणसहित गुणी आत्मा निरुपाधिक है" इस बाक्यमें "केवल" पदके आगे "आदि" पद दिया है; वह कैसे संगत हो सकता है; क्यों कि-केवलज्ञान तो एक है ? इसका उत्तर यह है; कि-यद्यपि केवलज्ञान एक ही है; तथापि केवलज्ञानसे उत्पन्न जो अनन्त सुख, अनन्त वीर्यआदि गुण हैं; उन गुणोंकी विवक्षासे "केवलादि" यहांपर आदि पद दिया है; अर्थात् केवलज्ञानके सहचारी अनन्त गुण सहित निरुपाधिक आत्मा यह अभिप्राय "आदि" इस पदका है ॥ अब असद्भूतव्यवहारके भी इसी प्रकार दो भेदोंको प्रकट करते हुए कहते हैं । असद्भूत व्यवहार नय भी पूर्वोक्त सद्भूतनयके समान दो ही प्रकारका कहा गया है ॥६॥ अर्थतस्यासद्भूतव्यवहारस्य भेदद्वयं सोदाहरणपूर्वकं प्रकटयन्नाह । अब इस असद्भूतव्यवहारके उदाहरणसहित दोनों भेदोंको प्रकट करते हुए आचार्य इस अग्रिम सूत्रको कहते हैं ! असंश्लेषितयोगेऽन यो देवदत्तधनं यथा । स्यात्संश्लेषितयोगेऽन्यो यथास्ते देहमात्मनः ॥७॥ भावार्थः-असंमिलित योगमें जहां संबन्धकी कल्पना होती है; वहांपर प्रथम भेद अर्थात् उपचरितअसद्भूतव्यवहार होता है । जैसे देवदत्तका धन । और संमिलित (मिले हुए) योगमें जहां संबन्धकी कल्पना होती है, वहां द्वितीय भेद अर्थात् अनुपचरित असद्भूतव्यवहारनय होता है; जैसे आत्माके देह स्थित है ॥७॥ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ ११५ व्याख्या । अब द्वयोरपि भेदयोर्मध्ये अग्र्यः अग्रेमवोऽयो मुख्यः प्रथमः असंश्लेषितयोगे कल्पितसम्बन्धविषय उपचरितासद्भूतव्यवहारो भवेत् । यथा देवदत्तधनम्, इह धनेन देवदत्तस्य संबन्धः स्वस्वामिभावरूपश्च जायते सोऽपि कल्पितत्वादूपचरितः । यतो देवदत्तः पुनर्धनच कद्रव्यं न हि तस्माद्भि नद्रव्यत्वादसद्भतभावनाकरणेनासद्भूतव्यवहार इति । तथा द्वितीयोऽन्यः संश्लेषितयोगे कर्मजसंबन्धे भवति । यथा आत्मनो जीवस्य देहमित्यास्ते तिष्ठति । अत्र ह्यात्मदेहयोः संबन्धे देवदत्तधनसंबन्धइव कल्पनं नास्ति विपरीतभावना निवर्त्यत्वाद्यावजीवस्थायित्वादनुपचरितं तथा भिन्नविषयत्वादसद्भूत व्यवहार इति ॥ ७ ॥ व्याख्यार्थः-यहां इन दोनों भेदोंके अर्थात् उपचरितअसद्भूतव्यवहार तथा अनुपचरितअसद्भूतव्यवहारके मध्यमें अग्रय, आगे ( प्रथम ) होनेवाला मुख्य भेद अर्थात् पहिला भेद संश्लेष (संबन्ध) का योग न होनेपर अर्थात् कल्पित संबन्ध माननेपर उपचरितअसद्भूतव्यवहार होता है; जैसे “देवदत्तका धन" यहांपर देवदत्तका धनके साथ स्वस्वामिभावरूपसे संबन्ध माना गया है; वह भी कल्पित होनेसे उपचरित ( उपचारसे सिद्ध ) है । क्योंकि-देवदत्त और धन यह दोनों एक द्रव्य नहीं हैं, इस हेतुसे अर्थात् भिन्न द्रव्य होनेसे देवदत्त तथा धनमें सद्भूत (यथार्थ) संबन्ध नहीं है, अतएव असद्भूतभावना करनेसे उपचरितअसद्भूतव्यवहार है । और अन्य ( द्वितीय ) भेद जहां मिलित योग है; अर्थात् कर्मजनितसंबन्ध है; वहां होता है। जैसे “जीवके देह स्थित है" यहांपर आत्मा तथा देहका संबन्ध देवदत्त तथा उसके धनके संबन्धके तुल्य कल्पित संबन्ध नहीं है, क्योंकि-'विपरीतभावनासे निवर्तनीय यहांपर यह यावज्जीव स्थायो होनेसे अनुपचरित है; तथा जीव और देहके भिन्न विषयपनेसे असद्भूतव्यवहार है ॥७॥ अथोक्तविषयस्वामित्वमाह । अब उक्तविषयके स्वामित्वका वर्णन करते हैं । नयाश्चोपनयाश्च ते तथामूलनयावपि । इत्थमेव समाविष्टा नयचक्रेऽपि तत्कृता ॥८॥ भावार्थः-नय, उपनय तथा मूलनय जैसे हमने इस ग्रंथ में निरूपण किये हैं, इसी प्रकारसे नयचक्रनामक ग्रंथमें नयचक्रकारने भी वर्णन किये हैं ॥८॥ व्याख्या । एते नया उक्तलक्षणाश्च पुनरुपनयास्तथैव द्वौ मूलनयावपि निश्चयेनेत्यममुना प्रकार व नयचऽपि दिगम्बरदेवसेनकृते शास्त्रे नयचक्रऽपि तत्कृता तस्य नयचक्रस्य कृता उत्रादकेन समादिष्टा: कथिताः । एतावता दिगम्बरमतानुगतनय चक्रग्रंथपाठपठितनयोपनयमूलनयादिकं सर्वमपि सर्वज्ञत्रणीतसदागमोक्तयुक्तियोजनासमानतन्त्रत्वमेबास्ते न किमपि विसंवादितयास्तीति ॥८॥ १ विपरीतभावना अर्थात् जो भावना देवदत्त भावनासे यह सम्बन्ध रचा गया है। और उसके धन के विषयमें है; उससे उलटी Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशाकामालायाम् व्याख्यार्थ:-यह पूर्वकथित लक्षणसहित नय, उपनय तथा दो मूलनय जैसे हमने निरूपण किये हैं, निश्चयरूपसे ऐसे ही दिगम्बर श्रीदेवसेन आचार्यकृत नयचक्र शास्त्रमें भी उस नयचक्रके उत्पादक ( कर्ता ) अर्थात् दिगम्बर देवसेनाचार्यजीने कहे हैं । इससे यह वार्ता सिद्ध हुई कि-दिगम्बरमतके अनुगत (अनुसार) नयचक्रनामक ग्रन्थमें पठित नय, उपनय तथा मूलनयआदिक सब ही श्रीसर्वज्ञप्रणीत सत्शास्त्रकथित युक्तिकी योजनाओंसे समानतन्त्र अर्थात् हमारे सिद्धान्तके समान ही है; उसमें किंचित् भी विसंवादपनसे कथन नहीं है ॥ ८॥ अथ पुनरपि श्वेताम्बरदिगम्बरयोः समानतत्रत्वमुपदिशन्नाह । अब फिर भी श्वेताम्बरों तथा दिगम्बरोंके मतमें समानतंत्रता (अविरुद्धशास्रता) है; इस बातका उपदेश देते हुये कहते हैं । यद्यपीहार्थभेदो न तस्यास्माकमपि स्फुटम् । तथाप्युत्क्रमशैल्यासौ दह्यते चान्तरात्मना ॥६॥ भावार्थ:-यद्यपि हमारे तथा श्रीदेवसेनजी दिगम्बरके कथनमें कुछ भी अर्थका भेद नहीं है । तथापि पाठकी शैलीको विपरीतरूपसे करने रचनेसे यह देवसेनजी ईर्षायुक्त अन्तरात्मासे संतप्त हो रहे हैं ॥९॥ व्याख्या। यद्यपि तस्य देवसेनस्य दिग्वाससोऽपि तथास्माकं श्वेतमिक्षणां स्फुटं प्रकटं यथा स्यात्तथेह द्रव्यादिपरिज्ञानोपयोगिनि नयविचारेऽर्थभेदो विषयभेदो नास्ति। उमयोरप्यर्थादेशे विषयाभेदत्वमेव शब्दादेशे किमपि पाठान्तरत्वान्न किमपि दोषः । यथा हि-अर्थे प्रयोजनवन्तस्तार्किकाः शब्दस्याप्रयोजकत्वात् । तथाप्यसो देवसेनो दिगम्बर उत्क्रमशैल्या विपरीतपरिभाषयार्थस्य तादृशत्वेन शब्दस्यातादृशत्वेन चोत्क्रमशल्या कृत्वान्तरात्मनान्तरङ्गपरिणामेनेालुत्वाद्दह्यते खिद्यते । ईलिवो ह्यन्तरुपतापपरा एव भवन्ति निष्कारणमेवेति । यतो "यद्यपि न भवति हानिः परकीयां चरति रासमो द्राक्षाम् । असमञ्जसं तु दृष्टवा तथापि परिखिद्यते चेतः ।।" इति वचनाद्यथोक्तभागवतसिद्धान्तशुद्धपरिभाषां त्यक्त्वा स्वकपोलकल्पितसंस्कृतमाषया श्रीवीतरागोक्तार्थविषयमङ्गीकृत्य नवीन्थं विरचय्य प्रभावं ख्यापयतीत्यर्थः ॥९॥ ___ व्याख्यार्थः-यद्यपि उस दिगम्बर देवसेन तथा हम श्वेतभिक्षुओं (श्वेताम्बरों) के प्रकट जैसे होय तैसे अर्थात् स्पष्टरूपसे इस द्रव्यार्थिपदार्थोंके ज्ञान में उपयोगी नयके विचारमें अर्थका अर्थात् विषयका भेद नहीं है । अर्थात् श्वेताम्बर, दिगम्बर दोनोंके ही अर्थके आदेशमें विषयका अभेद ही है, शब्दादेशमें (शब्दकी रचनामें) कुछ पाठभेद है; उस पाठभेदसे कुछ भी दोष नहीं है, क्योंकि-नैयायिकोंका प्रयोजन अर्थमें ही है, शब्दतो नैयायिकोंके लिये अप्रयोजक है। तथापि यह दिगम्बर देवसेनजी उत्क्रमशैली ( विपरीत परिभाषा ) अर्थात् अर्थकी समानता और शब्दकी असमानतारूप उत्क्रमशैलीसे अन्तरं Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतकणा [११७ गपरिणामसे ईर्ष्यायुक्त होने के कारण संतप्त है; क्योंकि-जो ईष्यायुक्त होते हैं, आभ्यन्तरमें बिना कारण ही संतापमें परायण होते हैं। और हमारा चित्ततो देवसेनजीसे "अन्यके खेतकी दाख जब गधा चरता है; तब हमारी कोई हानि नहीं होती है; तथापि अयोग्य देखकर चित्त खेदित होता है" इन वचन (न्याय ) के अनुसार दुःखित होता है । क्योंकि-देवसेनजी यथोक्त श्रीजिनभगवान के सिद्धान्तसे सिद्ध जो शुद्धपरिभाषा है; उसको त्यागकर निज कपोलकल्पित संस्कृतभाषासे श्रीवीतरागकथित अर्थके विषयको ही अङ्गीकार करके और नयचक्रनामक नवीन ग्रन्थ( शास्त्र)को रचके अपना प्रभाव (प्रमुत्व ) प्रसिद्ध करते हैं। यह इस श्लोकका अर्थ है ॥९॥ अथ बोटिकताभिमतविपरीतपरिभाषां दर्शयन्नाह । अब बोटिकमतके अभिमत जो विपरीत परिभाषा है; उसको दर्शाते हुये कहते है। तत्त्वार्थेऽपि नयाः सप्त पश्चादेशान्तरेऽपि वा। अन्तर्भूतौ समुदत्य नवेति किमु कल्पते ॥ १० ॥ भावार्थः-तत्त्वार्थसूत्रमें भी सप्त ( सात ) ही नय कहे हैं; और मतान्तरमें भी ऋजुसूत्र और एवंभूतका शब्दनयमें अन्तर्भाव मानकर पांच ही नय माने हैं; और देवसेनजी इन सातमें अन्तर्भूत जो द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक हैं; उनको उनमेंसे अलगकर नव ९ नय कैसे कल्पते हैं ॥१०॥ व्याख्या। तत्त्वार्थसूत्र नयाः सप्त उक्ताः पुनरादेशान्तरे मतान्तरे तोव नयाः पञ्च प्रतिपादिताः । तथा च तस्सूत्रम् “सप्त मूलनयाः पंचेत्यादेशान्तर" मिति शब्द: समभिरूढः, एवंभूतेति नयत्रिकं शब्दनय इति नाम्ना संगृहीतानां तयाणामेवकं नाम शब्दनय इति ज्ञायते। ततः प्रथमे चत्वारोऽतस्तैः सह पञ्चनया इति । अर्थकैकस्य भेदानां शतमस्ति । तत्र च सप्तशतं तथा पञ्चशतमेवं मतद्वयेऽपि भेदकल्पनम् । तथोक्तमावश्यके "इक्किकोय सहविहो सत्तणयसया हवंति एमेवे। अण्णोविहु आएसो पंचेमे सयाण याणंतु ॥१॥" एतादृशीं शास्त्रारिभाषां त्यक्त्वा द्रव्याथिकपर्यायाथिकनामानावेष्वन्तर्भावितावेवोद्ध त्य दूरे कृत्वा नव नया: कथिता इति किमु कल्पते । देवसेनेन क: प्रपञ्चः क्रियते ॥१०॥ व्याख्यार्थः-तत्त्वार्थसूत्रमें भी सात ही नय कहे हैं; और वहां ही मतान्तरमें पांच नय प्रतिपादन किये हैं । और पंचनयप्रतिपादक उनका सूत्र भी यह है "सप्त मूलनयाः पञ्चेत्यादेशान्तरम" अर्थात् मूलनय सात हैं; और मतान्तरमें पांच नय हैं ॥ शब्द, समभिरूढ तथा एवंभूत यह जो तीन नय कहे हैं; इन तीनोंका संग्रह, करनेसे शब्दनयरूप एक ही नाम होता है । इस कारण नैगम; संग्रह, व्यवहार, और ऋजुसूत्र यह पहिले चार तथा इन तीनों (शब्द, समभिरूढ़, एवं भूत ) का एक शब्दनय ऐसे मिलकर पांच नय होते हैं । और एक एक नयके सो १०० भेद हैं; उनमें जिस मतमें सात नय हैं; वहांपर सातसो Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ७०० भेद और जिस मतमें पांच नय माने हैं; उसमें ५०० पांचसौ भेदोंकी कल्पना है। यही विषय आवश्यकनामक ग्रन्थमें भी कहा है। उसकी गाथाका भाव यह है “एक २ नय सौ सौ भेदसहित है; इस प्रकार सा नय सातसौ हो जाते हैं; और अन्य मतके अनुसार भी पांच नय पाँच सौ हो जाते हैं ॥१॥” इस प्रकारकी शास्त्रीयपरिभाषाको त्यागकर द्रव्यार्थिक तथा पर्यायार्थिक नाम दो नयोंको जिनका कि-इन्ही सप्त या पंच भेदोंमें अन्तर्भाव है; उनको उन सात या पांच में से दूर करके देवसेनजीने नव नय कहे हैं; सो इस प्रकार देवसेनजी क्या प्रपंच करते हैं ॥ १०॥ पुनश्चर्चा कथयन्नाह। और भी इस विषयमें विशेष चर्चा (विवाद) कहते हुए इस सूत्रको कहते हैं । यदि पर्यायद्रव्यार्थनयौ भिन्नौ विलोकितौ । पितापिताभ्यां तु स्युनकादश तत्कथम् ॥११॥ भावार्थः-यदि द्रव्यार्थिक तथा पर्यायार्थिकनय सा भेदोंसे भिन्न ( जुदे ) देखे गये हैं; तो अर्पित तथा अनर्षित इन दोनों भेदांसे एकादश ११ ( ग्यारह )नय क्यों नहीं मानते ।। ११॥ व्याख्या। यदि पर्यायार्थद्रव्यार्थनयो भिन्नौ विलोकिती पृथक् दृष्टी तत्तस्मान्नव नया इति कथितम् । तत्तस्मादपितानपिताम्यां सहैकादश नया इति कथं न स्युरपि तु स्युः । भावार्थस्त्वयं नैगमसङग्रहव्यवहार-- भेदाद्यो द्रव्यार्थिकस्त्रिधा, पर्यायायिकश्चतुर्धा-ऋजुसूत्रं, शब्दः, सपभिरूड, एवं भूमश्चति । अपितानति मे सावपि सामान्यविशेषपर्यायो तो च द्रव्यपर्याययोश्चेति । तथा हि सामान्यं द्विप्रकारमूर्द्धतासामान्यं तिर्यक्सामान्य च। तत्रोर्ध्वतासामान्यं द्रव्यमेव, तिर्यक्सामान्यं तु प्रति भक्तिपदश गारगतिलक्षणं व्यञ्जनार्याय एव स्थूलाः कालान्तरस्थायिनः शब्दानां सङ्केतविषया व्यञ्जनपर्याया इति प्रावनिकप्रसिद्धः । विशेषोऽपि वैसादृश्यविवर्त्तलक्षणः पर्याय एवान्तर्भवतीति नैताभ्यामधि कनयावकाशः ॥ ११ ॥ व्याख्यार्थः यदि द्रव्यार्थिक तथा पर्यायार्थिक नय भिन्नारसे अर्थात् पृथक्तासे देखे गये हैं; और उसी कारणसे नव ९ नयका तुमने कथन किया है। तो अर्पित और अनर्पित भेदोंको साथ मिलाके एकादश ११ नय क्यों नहीं होवेंगे किन्तु अवश्य होवेंगे॥भावार्थ यह है; कि-नैगम, संग्रह, तथा व्यवहार इन भेदोंसे प्रथम जो द्रव्यार्थिक नय है; वह तीन प्रकारका है; और ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ तथा एवंभूत इन भेदोंसे पर्यायार्थिक चार ४ प्रकारका है। और अर्पित तथा अनर्पितरूप जो दो भेद हैं; यह भी सामान्य और विशेषके पर्याय हैं; और द्रव्य तथा पर्यायमें रहते हैं। सो ही कहते हैं; कि-सामान्य दो प्रकारका है; एक ऊर्ध्वतासामान्य और दूसरा तिर्यक्सामान्य, इनमेंसे ऊर्वतासामान्य तो द्रव्यरूप ही है; क्योंकि-वह सब पर्यायोंमें साधारणरूपसे रहता है; और तिर्यक्सामान्य प्रति . Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ ११९ व्यक्ति ( घट पटआदि व्यक्ति) सदृश परिणाम लक्षण व्यंजन पर्यायमें ही रहता है; क्यों कि-स्थूलरूपसे कालान्तरमें ठहरनेवाले और शब्दोंके संकेत गोचर व्यंजन पर्याय हैं; ऐसी प्रावनिकोंकी प्रसिद्धि है । और वैसादृश्यरूप विवर्त लक्षणसहित विशेष है; सो भी पर्यायमें ही अन्तर्गत होता है; इसलिये सामान्य विशेषसे अधिक नयका अवकाश नहीं है ॥ ११ ॥ संग्रहे व्यवहारे च यदीमौ युङ क्थ केवलम् । तदाद्यन्तनयस्तोके किं न युङ क्थ हि तावपि ॥ १२॥ भावार्थः-यदि संग्रह तथा व्यवहारनयमें अर्पित तथा अनर्पित युक्त होते हैं; अर्थात् अन्तर्भूत होते हैं; तो द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक यह दोनों आदिके तीन नय और अन्तके चार नय समूहमें क्यों नहीं योजित करते ? ॥ १२ ॥ व्याख्या । अथ सङग्रहे च पुनर्व्यवहारे यदीमावर्पितानर्पितौ युथ ताद्यन्तनयस्तोके तावपि किं न युक्थ इति । यद्यवं कथयथ अर्पितानपितसिद्ध रित्यादिसूत्रवर्पिता विशेषा अनर्पिताः सामान्या तत्रापिता व्यवहारादिविशेषनयेष्वन्तर्भवन्तिः अनर्पिताः सङग्र हेऽन्तर्भवन्ति तदा आद्य षु प्रथमेष्वन्त्येषु पाश्चात्येषु नयस्तोकेष्विमो द्रव्यपर्यायो कथं न युञ्जीत सप्तनयसम्बन्धसिद्ध रिति विचारणीयम् । सिद्धान्ते श्रीजिनवाणी सप्तनयावतारिका एवास्ति न न्यूनाधिका। यतः सेंकितं नए सत्तमूलनया पण्णत्ता तं जहाणेगमे, संगहे, ववहारे, उज्जुसुए, मद्दे, समभिरूढे, एवंभूए । इत्यादिसूत्रपाठोऽपि ज्ञेयोऽतस्तत्सूत्रमार्ग त्यक्त्वा "नया नव" इत्यधिकयोजना न साधीयसी । अथान्तर्भूतानां पृथक्करणमपि पिष्टपेषणमेवेति ॥ १२ ॥ व्याख्यार्थः-यदि इस अर्पित और अनर्पितको संग्रह तथा व्यवहारनयमें संमिलित करते हो तो उस द्रव्यार्थिक तथा पर्यायार्थिक नयको भी क्रमसे आदिके तीन नयस्तोकमें और अन्तके चार नय समुदायमें क्यों नहीं संमिलित करते। यदि आप ऐसा कहें कि" अर्पितानर्पितसिद्धेः” इत्यादि सूत्रोंमें अर्पित विशेषरूप हैं; और जो अनर्पित हैं; वह, सामान्य हैं। इसलिये इन दोनोंमेंसे अर्पित तो व्यवहारआदि विशेषनयोंमें अंतर्भूत होते हैं, और अनर्पित सङग्रहनयमें अन्तर्गत ( शामिल ) होते हैं; तो आदिके तीन और अन्तके चार नयोंके जो समुदाय हैं; उनमें इन द्रव्यार्थिक तथा पर्यायार्थिकको क्यों नहीं युक्त (शामिल ) करते हो ? क्योंकि-सात नयोंका जो संबन्ध है; उसकी सिद्धि होती है; ऐसा विचार करना चाहिये। अर्थात् सिद्धान्त( शास्त्र )में श्रीजिनवाणी सात नयोंका ही अचतार करती है; सातसे न्यून (कम) अथवा अधिक नयोंका अवतार नहीं करती उसकी भी सिद्धि होजायगी क्योंकि-"सिद्धान्त में सात मूलनय कहे गये हैं; वह जैसे नैगम १ संग्रह २ व्यवहार ३ ऋजुसूत्र ४ शब्द ५ समभिरूढ ६ और एवंभूत । इत्यादिरूपसे सूत्रका पाठ भी जानना चाहिये। इसलिये उस सूत्रके मार्गको त्यागकर “ नय नव हैं" Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशासमालायाम् ऐसा कहकर जो अधिक मयोंकी योजना करते हो सो अच्छी नहीं है। तथा द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक जो क्रमसे प्रथम तीन और अन्तके चार नयोंके स्तोकमें अन्तर्भूत हैं; इनको उनसे जुदे करना है; सो भी पिष्टपेषण ही है ॥ १२ ॥ ____ अथ नयमसके द्रव्यपर्यायो यथान्तर्भवतस्तद्दर्शयति ।। ___ अब जिस प्रकारसे सात नयोंमें द्रव्य तथा पर्यायका अर्थात् द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयोंका अन्तर्भाव होता है; उस प्रकारको दर्शाते हैं। पर्यायाथिकनामानो नयाः स्युरन्तिमास्त्रयः । 'द्रव्याथिकनयास्तद्वच्चत्वारः प्रथमे पुनः ॥ १३ ॥ भावार्थ:-अन्तके तीन नय पर्यायार्थिक नाम के धारक हैं। और इसी प्रकार पहिले चार ४ नय द्रव्यार्थिक नय हैं ॥ १३ ॥ व्याख्या । अन्तिमात्रयः शब्दसमभिरुढ वंभूताख्यास्त्रयः पर्यायाथिकाः कथ्यन्ते । तथा प्रथमे चत्वारो नेगमसङ्ग्रहव्यवहार सूत्राख्या द्रव्यार्थिकनया इति ॥ १३ ॥ व्याख्यार्थः-अन्तके तीन अर्थात् शब्द, समभिरूढ और एवंभूत यह तीन नय पर्यायार्थिक कहे जाते हैं। तथा आदिके नैगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्रनामक यह चार द्रव्यार्थिक नय हैं ।। १३ ।। अथ य आचार्या नयावतारं कुर्वन्ति तेषां नामान्याह । अब जो आचार्या नयोंका अवतार करते हैं; उनके नामोंको कहते हैं। इत्याह च महाभाष्ये क्षमाश्रमणपुङ्गवः। जिनभद्रगणिः सर्वसिद्धान्तमतपारगः ॥ १४ ॥ भावार्थः-अन्तके तीन नय पर्यायार्थिक हैं; तथा आदिके चार ४ नय द्रव्यार्थिक हैं; इस पूर्वोक्त कथनको महाभाष्यमें क्षमाश्रमणपुङ्गव तथा सब सिद्धान्तमतके पारंगत 'श्रीजिनभद्रगणि कहते हैं ॥ १४ ॥ व्याख्या । तत्र महाभाष्ये विशेषावश्यके क्षमाश्रमणपुङ्गवः क्षमाश्रमणप्रधानः श्रीजिनभद्रगणिराचार्य इत्याह । इतीति किं पूर्ववद्य आद्याश्चत्वारो नया द्रव्यार्थिका, अन्तिमात्रयो नयाः पर्यायाथिका इत्याह ॥१४॥ व्याख्यार्थः-उस महाभाष्यमें अर्थात् विशेषावश्यकनामग्रंथमें क्षमाश्रमणपुङ्गव अर्थात् क्षमागुणधारी मुनियोंमें श्रेष्ठ तथा संपूर्णसिद्धान्तमतके पारंगत अर्थात सब सिद्धान्तोंके वेत्ता श्रीजिनभद्रनामक गणि 'आचार्य' आदिके चार ४ नय तो द्रव्यार्थिक हैं; तथा अन्तके तीन नय पर्यायार्थिक हैं; यह जो पूर्वश्लोकमें कहा है; ऐसा ही कहते हैं ॥ १४ ॥ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ १२१ इत्याह सिद्धसेनोऽपि आद्या द्रव्यनयास्त्रयः। द्रव्यावश्यकलीनस्तहजुसूत्रो न संभवेत् ॥१५॥ भावार्थ:-और सिद्धसेनजी भी आदिके तीन नयोंको द्रव्यार्थिकनय कहते हैं; और शेष चारोंको पर्यायार्थिक कहते हैं; क्योंकि-द्रव्यके वर्तमानमात्र पर्यायके कहनेसे ऋजुसूत्र द्रव्यार्थिकनय नहीं संभव हो सकता ॥१५।। ___व्याख्या । पुनः सिद्धसेनोऽपि सिद्धसेनदिवाकरो मल्लवादी तार्किकः प्रथमे त्रयो नेगम १ संग्रह २ व्यवहारलक्षणाः द्रव्यनया अन्तिमाश्चत्वारो नया ऋजुसूत्र १ शब्द २ समभिरूढ ३ एवंभूताख्याः पर्यायाथिकनया इत्याह । एवमवरेऽपि सिद्धान्तवेदिन आचार्या एनमेवार्थमाहुरिति । आद्या द्रव्यनयास्त्रय इत्यत्रर्जुसूत्र १ शब्द २ समभिरूढ ३ एवंभूतजिता इति । तथा च "द्रव्याथिकमते सर्वे पर्यायाः खलु कल्पिताः । पतत्येष्वन्वयि द्रव्यं कुण्डलादिषु हेमवत् ॥१॥ पर्यायार्थमते द्रव्यं पर्यायेभ्योऽस्ति नो पृथक् । यत्तैरर्थक्रिया दृष्टा नित्यं कुत्रोपयुज्यते ॥२॥ इति द्रव्यार्थपर्यायार्थनयलक्षणादतीतानागतपर्यायप्रतिपक्षी ऋजुसूत्रः शुद्धमर्थपर्यायं मन्यमानः कथं द्रव्याथिकः स्यादिश्येतेषामाशयः । इति तेषामाचार्याणां मत ऋजुसूत्रनयो द्रव्यावश्यकविषये लीनो न संभवति । तथा च "उज्जुसुयस्स एगे अणुव उत्तेएगं दबावस्सयं पुहुत्तणन्थि ।" इत्यनुयोगद्वारसूत्रविरोधः । अथ च वर्तमानपर्यायाधारस्वद्रव्यांशपूर्वापरपरिणामसाधारणमूर्खतासामान्यं द्रव्यांशाः १ सादृश्यास्तित्वरूपतिर्यकसामान्यं द्रव्यांशः । एषु चैकमपि पर्यायनयो न मनुते तदा ऋजुसूत्रं, पर्याय इति कथयत एतत्सूत्र कथं मिलति । ततः कारणात्क्षणिकद्रव्यवादी सूक्ष्मणु सूत्रम् , तत्तद्वर्त्तमानपर्यायापन्नद्रव्यवादी स्थूलजुसूत्रं द्रव्यनय इति कथनीयमिति सिद्धान्तवा दिनां मतम् । अनुपयोगद्रव्यांशमेव सूत्रपरिभाषितमादायोत्सूत्रताकिकमते नोपर्याय - पदमप्युपपद्यत इत्यस्मदेकपरिशीलितं यथेति ॥१५॥ व्याख्यार्थः-पुनः मल्लवादी और तार्किक जो सिद्धसेनजी दिवाकर हैं; वह प्रथमके नैगम १ संग्रह २ तथा व्यवहार ३ रूप तीनों नयोंको द्रव्यार्थिकनय कहते हैं; और अन्तके ऋजुसूत्र १ शब्द २ समभिरूढ ३ तथा एवंभूत ४ इन चार ४ नयोंको पर्यायार्थिककनय कहते हैं । और इसी अर्थको. सिद्धान्तके जाननेवाले अन्य आचार्य भी कहते हैं, अर्थात् सिद्धसेनजी और उनके अनुगामी अन्य आचार्योंके मतमें भी ऋजुसूत्र १ शब्द २ समभिरूढ ३ और एवंभूत ४ इन चार नयोंसे वर्जित आदिके तीन नय द्रव्याथिक हैं। और “द्रव्यार्थिकनयके मत में सब पर्याय निश्चयरूपसे कल्पित हैं, क्योंकि-सब पर्यायों में अन्वयी (अनुगामी) द्रव्य समाविष्ट होता है; जैसे कुण्डलआदिपर्यायोंमें सुवणे द्रव्य ॥१॥ १६ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् और पर्यायार्थिक मतमें द्रव्य पर्यायोंसे भिन्न नहीं है । क्योंकि - पर्यायोंसे जो अर्थक्रिया है; उस अर्थक्रियाका नित्य उपयोग कहां होता है । अर्थात् सुवर्णके कुण्डलआदि तथा मृत्तिका घटआदि पर्यायोंसे जो आभूषण तथा जलधारणआदिरूप अर्थक्रिया ढ है; वह नित्य नहीं है, क्योंकि-पर्यायोंके नष्ट होनेके पश्चात् वही सुवर्ण तथा मृत्तिका रूपद्रव्य शेष रहता है || २ ||" यह द्रव्यार्थिक तथा पर्यायार्थिकनयका लक्षण है; इस लिये अतीत (भूत) तथा अनागत ( भविष्य ) पर्यायोंका प्रतिक्षेपी ( दूर फेंकनेवाला ) शुद्ध अर्थ पर्यायको मानता हुआ ऋजुसूत्रनय द्रव्यार्थिक किस रीतिसे होवे ऐसा इन आचार्योंका अभिप्राय है । इस कारण उन आचायोंके मतमें ऋजुसूत्रनय द्रव्यावश्यक के विषयमें लीन नहीं होता है; और उस प्रकार " उज्जुसुयस्स एगे अणुव उत्ते एगं दब्बास्यं पुहुत्त न्थि " इस अनुयोगद्वारसूत्रका विरोध होगा । और वर्त्तमान पर्यायका आधारभूत तथा निजद्रव्यके पूर्वापरपरिणाममें साधारण ऊर्द्धतासामान्य द्रव्यांश है |१| सादृश्य सब व्यक्तियोंमें समानता के अस्तित्वरूप तिर्यक्सामान्य भी द्रव्यांश ही है ।। २॥ और इनमें से एकको भी पर्यायनय नहीं मानता तब ऋजुसूत्र पर्यायार्थिक है; ऐसा कहनेवालोंके यह सूत्र कैसे संगत होता है । इस कारण क्षणिक द्रव्यको कहनेवाला तो सूक्ष्म ऋजुसूत्र है; और उस उस वर्त्तमानपर्याय को प्राप्त हुए द्रव्यको कहनेवाला स्थूलऋजु - सूत्र है; ऐसे ऋजुसूत्रको द्रव्यार्थिकनय कहना चाहिये यह सिद्धान्तवादियों का मत है । और सूत्रपरिभाषित ( सूत्रोक्त ) अनुपयोग द्रव्यांशको लेकर सूत्रविरुद्ध चलनेवाले तार्किक ( नैयायिक) के मत से नोपर्यायपद भी सिद्ध होता है । यह हमारा मुख्यरूपसे निर्धारित सिद्धान्त है ।। १५ ।। एवमन्तर्गतानां स्यादुपदेशः कथं पृथक् । पञ्चभ्यो हि यथा सप्तस्वर्थभेदो मनाङ न हि ॥ १६ ॥ भावार्थ — इस प्रकार से अन्तर्भूत द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिकनयोंका पृथक रूपसे उपदेश कैसे हो सकता है ? और यदि ऐसा कहो किं-मतान्तर में पांच नय हैं; उनमें दो मिलाकर जैसे सात नय मानते हैं; उसी प्रकार हमारे इन नयोंका भी भिन्न उपदेश होगा सो नहीं क्योंकि - हम जो पांचसे भिन्न दो मानते हैं; उनमें विषयभेद है; और तुम्हारे दो नयोंमें किंचित् भी विषयभेद नहीं अतः भिन्न उपदेश नहीं हो सकता ॥ १६ ॥ 1 व्याख्या एवमन्तर्गतानामन्तर्भावितानां द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकानां नयानां पृथग्मिन्न उपदेशः कथं कृतः स्यात् । यद्येवं कथयत मतान्तरे पञ्च नयाः सन्ति तेषु द्वाविमौ मिश्रितो सन्तो नय सप्तकमिति व्यवहारो जायते तेन द्वयोः द्रव्यार्थिकपृथगुपदेशो भविष्यतीति चेन्न पर्यायार्थिकयोः द्रव्यार्थ पर्यायायिकयोरपि विषयभेदोऽस्ति पृथगुपदेशस्तद्वदस्माकमपि वक्तव्यम । शब्वसमभिरूढैवं भूतानां सनयेभ्यो भिन्नविषयत्वं तथैव यथा दर्शयत 1 Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ १२३ किञ्च त्रयाणां नयानामेकां संज्ञा सगृह्य नयपञ्चकं कथितमस्ति परन्तु विषयो मिन्नो वर्तते अत्र तु विषयो मिन्नो न वर्त्तते । पुनर्ये द्रव्याथिकनयस्य दश १० भेदा दर्शितास्ते सर्वेऽपि शुद्धाशुद्धसंग्रहादिष्वन्तर्भवन्ति, ये च षड्भेदाः पर्यायाथिकनयस्य दर्शितास्ते सर्वेऽप्युपचरितानुपचरितव्यवहारशुद्धाशुद्धर्जुसूत्रादिष्वन्तर्भवन्ति । गोबलीवर्दन्यायेन विषयभेदे मिन्ननयत्वं कथ्यते तर्हि स्यादस्त्येव, स्यान्नास्त्येव, इत्यादिसप्तमङ्गीमध्ये कोटिप्रकारैरपिता-नर्पितसत्त्वासत्त्वग्राहकनयभेदेन भिन्नभिन्ननयवादेन च सप्तमूलनयप्रक्रिया बम्भज्यते । एतत्सुधीभिर्विमृश्यम् ॥१६॥ ___व्याख्यार्थः-पूर्वोक्त रीतिसे सात अथवा मत भेदसे पाँच नयोंमें अन्तर्भाव किये गये ऐसे द्रव्यार्थिक तथा पर्यायार्थिक नयोंका भिन्नरूपसे उपदेश ( निरूपण ) कैसे किया जावे ? अर्थात् सप्त या पंच नयसे भिन्न इनका कथन अयुक्त है; क्योंकि उन्हीं नैगम, संग्रहआदिमें इनका अन्तर्भाव है । कदाचित् ऐसा कहो कि–अन्यमतमें पाँच ही नय हैं; उन पांचमें समभिरूढ और एवंभूत इन दोनोंको मिला देनेसे "सात नय" ऐसा व्यवहार होता है; जिससे समभिरूढ और एवंभूतका पृथक् उपदेश किया गया है। ऐसे ही हमारे भी द्रव्यार्थिक तथा पर्यायार्थिक इन दोनों नयोंका भिन्नरूपतासे उपदेश होगा । सो ऐसा नहीं कहना चाहिये क्योंकि-जैसे शब्द समभिरूढ और एवंभूत नयोंके विषयभेद है; ऐसे ही आप भी द्रव्यार्थिक तथा पर्यायार्थिकके 'सातों नयोंसे विषयका भेद दिखलाओ ? और शब्द, समभिरूढ तथा एवंभूत इन तीनोंकी एक संज्ञाका संग्रह करके पंच नयका कथन किया है; परन्तु विषय भिन्न २ है; और द्रव्यार्थिक तथा पर्यायार्थिकका विषय सप्त नयसे भिन्न नहीं है; अर्थात् अभिन्न ही है । और शब्दआदिक नय तो भिन्नविषयक हैं; और जो द्रव्यार्थिकनयके दश १० भेद कहे गये हैं; वह सब भी शुद्धसंग्रह अशुद्धसंग्रहआदिमें अन्तर्गत हो जाते हैं; तथा जो पर्यायार्थिकनयके षट् ६ भेद दर्शाये गये हैं; वह भी सब उपचरितव्यवहार और अनुपचरितव्यवहार तथा शुद्ध और अशुद्ध ऋजुसूत्रनयमें अन्तर्भूत हो जाते हैं; और यदि “गोबलीवर्दन्याय (जो गो है, वही बलीवर्द (बैल) है; इस न्याय) से भिन्न विषय मानकर भिन्न नय कहते हो तो "स्यादत्येव" कथंचित् है; ही "स्यान्नास्त्येव" कथंचित् नहीं ही है; इत्यादि सप्तभंगीके मध्यमें कोटि (करोड़ों) प्रकारों से अर्पित, अनर्पित, सत्त्व तथा असत्त्वको ग्रहण करनेवाले नयोंके भेदोंसे और भिन्न २ नयके वाद (कथन) से जो सप्त मूलनय माने गये हैं; उनकी प्रक्रियाका सर्वथा भंग हो जायगा अर्थात् मूलनय सात हैं; यह सिद्धान्त न रहेगा यह विषय बुद्धिमानोंको विचारना चाहिये । तात्पर्य यह कि-तार्थ विषयको भी यदि भिन्न मानकर नयके भेदकी कल्पना करते हो तो मूल नय सात ७ ही हैं; यह प्रक्रिया सर्वथा टूट जायगी ।। १६ ॥ अब यदि विषयभेदेन नयभेदमङ्गीकरिष्यथ तदा सामान्यनगमसंग्रहमध्ये, विशेष Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् नंगमव्यवहारमध्ये, योजयतां युष्माकं षडेव नया निष्पत्स्यन्त इत्येतादृशीं पक्षकर्तुं राशङ्कां स्फोटयितु श्लोकमाह । अब यदि विषयके भेदसे ही नयके भेदको अङ्गीकार करते हो तो सामान्य नैगमको संग्रहके मध्यमें और विशेष नैगमको व्यवहारनयके मध्यमें योजित करनेवाले तुम्हारे मतमें षट् ६ ही नय सिद्ध होते हैं; अर्थात् नैगमके सामान्य और विशेष यह दोनों भेद जब क्रमशः संग्रह तथा व्यवहार में अन्तर्भूत हो जायेंगे तब नैगमनयका अभाव हो जानेसे छ (६) ही नय रह जायेंगे इस प्रकार पक्षक की शंकाको दूर करनेकेलिये यह अग्रिम श्लोक कहते हैं। संग्रहाव्यवहाराच्च नैगमोऽपि पृथक्वचित् । तस्मादलग्नकस्ताभ्यां स एतौ तु पृथंग हि ॥१७॥ भावार्थः-संग्रह और व्यवहारनयसे तो नैगमनय कहीं भिन्न भी देखा जाता है; इस लिये संग्रह तथा व्यवहारसे असंलग्न विषयको धारण करनेवाला नैगम इन दोनोंसे पृथक् है; और द्रव्यार्थिक तथा पर्यायार्थिक यह दोनों सप्त नयसे सर्वथा कहीं भी भिन्नविषयक नहीं हैं ॥ १७॥ व्याख्या । संग्रहेति-यद्यपि संग्रहनये व्यवहारनये च नैगमनयस्य सामान्यविशेषपर्यायावन्तर्भवतस्तथापि संग्रहाद् ब्यवहाराच्च क्वचिस्प्रदेशादिदृष्टान्तस्थाने नंगमो मिन्नोऽपि भवति उक्त च-छण्हं तह पंचण्हं पंचविहं तहय होइ भयाणिज्जो। तम्मिय सोयण्णसो सोचेव पायेव सत्तण्हं । १ । इत्यादि । तस्मात् क्वापि भिन्नविषयत्वान्नैगमनयोऽपि ताम्यां मिन्नः प्रतिपादितः । तू पुनः एतौ द्वौ द्रव्याथिकपर्यायाथिको पृथक् भिन्नी स्थिती नैगमादिनयेभ्यो न हि संभवतः । अभिन्नविषयत्वात् तेभ्यो वियोज्य नवभेदादेशान्तर: किमु कथ्यत इति ॥ १७ ॥ ___ व्याख्यार्थः यद्यपि संग्रहनय तथा व्यवहारनयमें नैगमके सामान्य और विशेष यह दोनों पर्याय अन्तर्भूत हो जाते हैं; तथापि कहीं कहीं प्रदेशादि दृष्टान्त स्थानमें संग्रह तथा व्यवहार नयसे नैगम भिन्नविषयक भी होता है । ऐसा कहा भी है ॥ इस कारणसे कहीं भिन्न विषय होनेसे नैगमनयका भी उन दोनों संग्रह और व्यवहारनयोंसे भिन्न प्रतिपादन किया गया है। और यह द्रव्यार्थिक तथा पर्यायार्थिक तो नैगमसंग्रहआदि नयोंसे भिन्न विषयके धारक नहीं संभव होते क्योंकि-यह सप्त नयोंसे अभिन्न विषय हैं; अतः उन सातोंसे भिन्न करके सप्त नय भेदके स्थानमें नयोंके नो ९ भेद हैं; ऐसा भिन्न आदेश कैसे कहते हो ॥ १७ ॥ पुनरेनमर्थं प्रतिदिशन्नाह । अब पुनः इस अर्थका उपदेश करते हुए कहते हैं। Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ १२५ कुर्वन्नवं समाप्नोति विभक्तस्य विभाजनम् । जीवादिवन्न चैवात्र प्रयोजननियोजनम् ॥ १८ ॥ भावार्थः-इस प्रकारसे विभाग किये हुये पदार्थका पुनः विभाग प्राप्त होता है; परन्तु यहां जीवआदिके सदृश विभागके प्रयोजनकी नियोजना नहीं है ।। १८ ॥ ___ व्याख्या। एवमनया रीत्या नव ९ नयान् कुर्वन् रचयन् विभक्तस्य विभागीकृतस्य विभाजनं विभागकरणं समाप्नोति । विभक्तानां विभागो जायत इत्यर्थः। तदा जीवादिवत् जीवा द्विधा संसारिणो मुक्ताश्च संसारिणः पृथिवीकयिकादिषड्भेदा:, सिद्धाः पञ्चदशभेदा एतद्वन्नया अपि द्विधा द्रव्याथिकपर्यायाथिकभेदा द्रव्यार्थिक स्त्रिधा नंगमादिभेदात्, ऋजुसूत्रादिभेदाच्चतुर्धा पर्यायार्थिकाः इत्थं कथयितु युक्त परन्तु नव नया इत्येकवाक्यतायां विभागो विहितः स तु सर्वथापि मिथ्या ज्ञातव्यः । अन्यथा तु जीवाः संसारिणः सिद्धा इत्यादि विभागवाक्यमपि भवितुमर्हति । तथैव द्रव्याथिकपर्यायाथिको नयावित्यपि कथयतां अन्ये नया आगताः स्युस्तथापि वयं स्वप्रक्रियानयेन नव नया इति कथयिष्यामः इतीत्थं वा दिनामेवं प्रतीपादनीयम यथा-अत्र प्रयोजननियोजनं जीवां जीवादिवन्नास्ति भिन्नानि भिन्नानि तत्त्वानि व्यवहारमाशेण साध्यानि तानि च तथैव सभवन्ति अत्र वितरव्यावृत्तिसाध्यानि तत्र च हेतुकोटिना अनपेक्षितभेदप्रवेशेन वैयर्थ्यदोषो जायते तत्त्वप्रक्रियया इदं प्रयोजनमस्ति जीवस्तथा अजीवश्च ती द्वौ मुख्यौ यो पदाथौँ कथनीयौ बन्धमोक्षी मुख्यतया हेयोपादेयौ च कथनीयौ तस्माद्वन्धकारणतः हेय आस्त्रवः, तथा मोक्षो मुख्यपदार्थोऽस्ति । ततस्तस्य च द्वे कारणे संवरनिर्जराख्ये कथनीये इति सप्ततत्त्वकथनप्रयोजनप्रक्रिया । पुण्यपापरूपशुभाशुभबन्धभेदव्यक्ति दुरे कृत्वा अनयव प्रक्रियया नवतत्त्वानीति ध्येयम् । अत्र तू द्रव्याथिकनयेन मिन्नोपदेशस्य किमपि प्रयोजनं नास्तीति ॥ १८ ॥ व्याख्यार्थ:-इस पूर्वोक्त रीतिसे नव ९ नयोंकी रचना करते हुये आपको विभक्त अर्थात् एक वार विभाग कियेहुये पदार्थोंका पुनः विभाग करना प्राप्त होता है; तब जीवादिके सदृश अर्थात् जैसे प्रथम द्रव्य के जीव तथा अजीव इस प्रकार दो विभाग करके पुनः जीवके संसारी और मुक्त ऐसे दो भेद किये और फिर संसारी पृथिवीकायिक आदि छ भेदके धारक तथा सिद्ध पन्दरह भेदवाले द्योतित किये इसी प्रकारसे यह भी द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक भेदसे दो प्रकारके हैं; उनमें नैगमआदि भेदोंसे द्रव्यार्थिक तीन प्रकारका है; और ऋजुसूत्र आदि भेदोंसे चार प्रकारका पर्यायार्थिक है; ऐसा कहना योग्य है; परन्तु नय नव हैं; इस प्रकार जो एकवाक्यतामें विभाग किया है; वह विभाग तो सर्वथा मिथ्या जानना चाहिये । और यदि ऐसा ही विभाग करो तब तो जीव, संसारी सिद्ध इत्यादि रीतिसे भी विभागवाक्य हो सकता है; अर्थात् जैसे द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिकके भेदोंमें द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिकको मिलाकर नव नयोंका कथन किया इसी प्रकार जीवके संसारी और मुक्त इन दोनों भेदोंमें जीवको भी योजित करके जीव, संसारी, सिद्ध ऐसे Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशाखमालायाम् तीन भेद कहने चाहिये "जैसे जीव और अजीवके कहनेसे आखवआदि तत्त्वोंका ग्रहण सिद्ध है; वैसे ही द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक इन दोनोंके कथनसे अन्य नैगमादि सब नयोंका ग्रहण हो जावे परन्तु तो भी जैसे आखवआदिक भिन्न कहे हैं; उसी प्रकार हम हमारी नय प्रक्रियासे नय नव ९ हैं ऐसा कहेंगे” इस प्रकार कहनेवालोंके प्रति ऐसा कहना चाहिये कि-यहांपर जीव अजीवआदिके समान तुम्हारे प्रयोजनकी नियोजना नहीं है; क्योंकि-व्यवहारमात्रसे भिन्न २ तत्त्व साध्य होते हैं; और जो आश्रवादिक भिन्न तत्त्व कहे गये हैं; वह भी व्यवहारमात्रसे ही कहे हैं; और नयके विषयमें तो एक नयसे दूसरेका किसी प्रकार भेद सिद्ध हो तब भिन्न नयकी सिद्धि हो उसमें यदि हेतुकोटिसे अनपेक्षित भेदका प्रवेश हो तो वैयर्थ्य दोष होता है; तात्पर्य यह कि-जिस भेदमें प्रबल हेतु न दिया जाय तो वह भेद व्यर्थ ही है; और तत्त्वप्रक्रियामें जो जीव, अजीव इन दोनोंमें ही सब तत्त्वोंके गतार्थ होनेपर जो सप्त तत्त्व निरूपण किये हैं; उनमें तो यह निम्नलिखित प्रयोजन है; कि-जीव और अजीव यह दो ही मुख्य द्रव्य हैं; अर्थात् इन्ही दोनोंको मुख्य पदार्थ कहना तथा समझना चाहिये और बन्धको हेय (त्याग करने योग्य ) तथा मोक्षको उपादेय (ग्रहण करने योग्य) रूपसे कहना चाहिये और आश्रव है; सो बन्धका कारण है; इसलिये आश्रवको भी हेयरूपसे कहना चाहिये और मोक्ष मुख्य पदार्थ है; क्योंकिउसीकेलिये सब पदार्थोंका निरूपण है; और वही उपादेय है; इस कारण उस मोक्षके संबर और निर्जरा इन दोनों कारणोंका कथन करना चाहिये इस रीतिसे जीव अजीव आश्रव बंध संवर निर्जरा और मोक्ष इन सप्ततत्त्वोंके कथनकी प्रयोजनवाली प्रक्रिया है; और इसी प्रक्रियासे शुभ अशुभ बंधके कारण पुण्य पापको भी भिन्न करके कहनेसे नव तत्त्व हो जाते हैं। ऐसा समझना चाहिये । और यहाँ द्रव्यार्थिक तथा पर्यायार्थिक नयसे नैगमआदिको भिन्न उपदेश करनेका कोई भी प्रयोजन नहीं है ।। १८ ।। अभिन्नकारणाः सूत्रो नयाः सप्त व कोत्तिताः । उच्यते तत्कथं वाक्यमधिकं सूत्रज्जितम् ॥ १६ ॥ भावार्थः-सूत्रमें अभिन्नकारण सात ही नय दर्शाये गये हैं; इसलिये तुम सूत्रवर्जित अधिक वाक्य कैसे कहते हो ॥ १९ ।।। व्याख्या । तस्मात्कारणात्सूशे नया अभिन्न कारणाः सप्त व कथिताः तद्यथ सूत्रम् “सप्तमूल नया पणत्ता" एतादृशसूत्रे कथितमस्ति तद्वाक्यं सूत्रसदृशमुल्लङ्घयाधिकं नव नया इति वाक्यं कथमुच्यते स्वसूत्रपरिरक्षणार्थ यथोक्तमेव न्याय्यम् । इत्थं परिचित्य केषांचिद्वाक्यसङ्कलनामनादृत्य श्रीवीतरागमाषितवचनरचनापवित्रे सूत्र बुद्धिरारोपणीया स्वसम्यक्त्वशुद्धिसंसिद्धिवृद्धये ॥ १६॥ व्याख्यार्थः-इस कारण भिन्नकारणशून्य सात ही नय सूत्रमें कहे गये हैं; वह Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ १२७ सूत्र यह है; जैसे "मूलनय सात ही हैं" इस प्रकार सूत्रमें स्पष्टरूपसे कहा गया है; सो उस सूत्र जैसे वाक्यका उल्लंघन करके सप्तसे अधिक अर्थात् नय नव हैं; ऐसा वाक्य कैसे अथवा किस आधारसे कहते हो। इसलिये अपने सूत्रको रक्षाकेलिये यथोक्त (सप्तनय )का ही कथन करना योग्य है; ऐसा विचार करके जिस किसीकी वाक्य रचनाका अनादर कर बुद्धिमान् पुरुषोंको अपने शुद्ध सम्यक्त्वकी सिद्धिके अर्थ अथवा सम्यक्त्वकी वृद्धि के लिये श्रीवीतरागभाषित वचनोंकी रचनासे पवित्र ऐसा जो सूत्र है; उसीमें बुद्धिको लगाना चाहिये ॥ १९ ॥ अथ साक्षिणं दर्शयति । अब साक्षीको दिखलाते हैं। दश भेदादिकाश्चात्र सन्ति युक्तोपलक्षणाः । न चेदन्तर्भवेत्कुत्र प्रदेशार्थनयो वद ॥ २० ॥ भावार्थः-और द्रव्यार्थिकआदिके जो दश भेद वगैरह देवसेनजीने कहे हैं; वह भी उपलक्षणमात्र हैं । यदि उपलक्षणमात्र न मानें तो कहो प्रदेशार्थनयका किसमें अन्तर्भाव होवे ॥२०॥ ___व्याख्या । अत्र देवसेनरचितनयचक्नग्रन्थे द्रव्याथिकादिदश १० भेदा उपदिष्टास्ते चोपलक्षणत्वेन ज्ञातव्याः। यद्येव न क्रियते तहि प्रदेशार्थनयः कस्मिन् स्थाने चरितार्थो भवेदित्थं विचारणीयम् । दशभेदादिका अत्र देवसेनीये ग्रन्थे युक्तोपलक्षणा, उपलक्षणमात्रपराः सन्ति चेद्यद्य वं ते कुत्र न तर्हि प्रदेशार्थनयोऽपि कुत्रान्तर्भवेदिति वद । उक्तं च सूरे "दृष्टियाए पदेसट्टियाए दब्वट्ठय पदेसट्ठय" इत्यादि । तथा कर्मोपाधिसापेक्षजीवभावग्राहकद्रव्याथिको यथोपदिष्टस्तथा जीवसंयोगसापेक्षपुगळभावग्राहकनयोऽपि भिन्नतया कथयितु योग्य एव । एवं सत्यनेके भेदा भवन्ति तथा प्रस्थकादिदृष्टान्तेन नैगमादीनामशुद्ध १ अशुद्धतर २ अशुद्धतम ३ शुद्ध ४ शुद्धतर ५ शुद्धतमादिभेदा भवन्ति ते भेदा: कुत्र संगृह्यन्ते । तेषां सङ्ग्रहार्थमुपचारो विहितस्तत उपचारेण ते उपनया भवन्तीति यदि कथ्यते तदापसिद्धान्तो भवेत् । अनुयोगद्वारे ते नयभेदाः प्रदर्शिताः सन्ति तत एतदेव दृढीक्रियते उपनयाः कथिता ये सन्ति ते व्यवहारनगमादिभ्यः पृथग् न सन्ति उक्त च तत्त्वार्थसूत्र व्यवहारलक्षणं "उपचारबहुलो विस्तृतार्थो लौकिकप्रायो ध्यवहारः" इति ॥ २० ॥ व्याख्यार्थः-इस देवसेनजीरचित नयचक्रनामक ग्रन्थमें जो द्रव्यार्थिकआदि दश भेद द्रव्यार्थिक नयके कहे हैं; उनको उपलक्षणपनेसे जानने चाहिये अर्थात् यह भेद १ निजका तथा निजके समीपस्य तथा अपने संबन्धीका भी बोध करनेवाला शब्द, जैसे “काकेभ्यो दधि रक्षताम" यहाँपर काकपद दधिके उपचातक ( नाश करनेवाले ) श्वान मार्जारआदिका उपलक्षण है न कि यह कि काकोंसे दधिकी रक्षाकरो और बिल्ली कुत्ते आवें तो खाने दो। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् दिग्दर्शनमात्र हैं; इनसे अधिक और भी भेद होते हैं । और यदि उन दशको उपलक्षणमात्र नहीं करें तो प्रदेशार्थनय किस स्थान में चरितार्थ ( अन्तर्भूत ) हो यह विचारना चाहिये तथा यदि इस देवसेनजीके ग्रन्थ में दश भेद उपलक्षणसहित न हों तो प्रदेशार्थनयका किस नयमें अन्तर्भाव होता है; यह कहो । पुनः इस प्रदेशार्थनयका वर्णन सूत्रमें भी है; जैसे “द्रव्यार्थिकप्रदेशार्थनय" इत्यादि । तथा जैसे कर्मरूप उपाधिकी अपेक्षा रखनेवाले जीवभावको ग्रहण करानेवाला द्रव्यार्थिकनयका उपदेश किया है; इसी रीतिसे जीवके संयोगकी अपेक्षाका धारक जो पुद्गलभाव है; उसका ग्रहण कराने वाला नय भी भिन्नरूपतासे कथन करनेके योग्य ही हैं; और जब जीवसंयोगापेक्षपुद्गल भावग्राहक नय माना जायगा तब इसी प्रकार अन्य भी अनेक नय होंगे। और प्रस्थ आदि दृष्टांतसे नैगम आदि नयोंके अशुद्ध १ अशुद्धतर २ अशुद्धतम ३ शुद्ध ४ शुद्धतर ५ और शुद्धतम आदि जो अनेक भेद होते हैं; उन भेदोंका संग्रह कहां किया जायगा अर्थात् तुमको उपलक्षणमात्र ही इन दश भेदोंको मानना चाहिये अन्यथा पूर्वोत भेदों का संग्रह न होगा । अब यदि ऐसा कहो कि - " इन पूर्वोक्त भेदोंके संग्रहके अर्थ हमने उपचार किया है; और इसी कारण उपचारसे वह उपनय होते हैं" तो अपसिद्धान्त होगा अर्थात् सिद्धान्तकी हानि होगी। क्योंकि - अनुयोगद्वार में उनको नयोंके भेद दिखलाये गये हैं । इसलिये यही पक्ष दृढ किया जाता है; कि जो उपनय कहे गये हैं; वह नहीं है; अर्थात् व्यवहार नैगमआदि नयोंसे जुदे नहीं हैं; और तत्वार्थसूत्रमें व्यवहारका लक्षण भी यही कहा है, कि जो बहुधा उपचारसे पूर्ण हो अर्थात् जिसमें उपचार अधिक हो वह तथा संक्षिप्त अक्षरोंमें विस्तारसहित अर्थका धारक हो और प्रायः लौकिक हो वह व्यवहार है ||२०|| १२८ ] व्यवहारे समायान्ति तथैवोपनया अपि । न चेत्प्रमाणमप्यत्रोपप्रमाणत्वमाश्रयेत् ॥२१॥ भावार्थ:-- और वह उपनय भी व्यवहारमें ही गर्भित हो जाते हैं । यदि ऐसा न हो तो प्रमाण भी उपप्रमाणताका आश्रय करे ||२१|| व्याख्या । एवं सति नयभेदान् यद्य पनयान् कृत्वा मनुते तर्हि स्वपरव्यवसायिज्ञानं प्रमाणमित्येत-ल्लक्षणेन लक्षितस्य ज्ञानरूपप्रमाणस्याप्येकदेशो मत्यादिरथवा तद्दशोऽवग्रहादिः सोऽप्युपप्रमाणमिति पृथग्भेदो भविष्यति । तस्मान्नयोपनयप्रक्रिया शिष्याणां बुद्धिद्वन्द्वनमात्रेव ज्ञातव्या ॥ २१ ॥ निश्चयाद्व्यवहारेण कोपचारविशेषता । मुख्यवृत्तिर्यदेकस्य तदान्यस्योपचारता ॥२२॥ . Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ १२९ भावार्थ:- निश्चयनयसे व्यवहारनय में उपचारकी विशेषता क्या है ? इसका उत्तर यह है; कि - जब एककी मुख्यता होती है; तब अन्य ( दूसरे ) की उपचारता होती है ||२२|| व्याख्या | निश्चयात् निश्चयनयात् व्यवहारेण सहोपचारविशेषता कास्ति । व्यवहारविषय उपचारोऽस्ति निश्चय उपचारो नास्त्येतावद्विशेषता । यदैकनयस्य मुख्यवृत्तिगृह्यते तदा परनयस्योपचारवृत्तिरायाति । रत्नाकरवाक्ये स्याद्वादरत्नाकरे च प्रसिद्धमस्ति "स्वस्वार्थ सत्यत्वस्यामिमानोऽखिल नयानामभ्योन्यं वर्त्तते फलात्सत्यत्वं तु सम्यग्दर्शनयोग एवास्ति" । एवं च प्रकृतमर्थं व्याख्यायते । निश्चयनयाद् व्यवहार-नयेन सहोपचारविशेषता कास्ति योपचारविशेषता वर्त्तते तां दर्शयति । यदैकस्य कस्यचिन्नयस्य मुख्यता मुख्यमावो वर्त्तते तदान्यस्यान्यनयस्य उपचारता गौणत्वं भवतीति ज्ञेयम् । यथा हि निश्वयेनात्मेति शब्द एतस्य निश्वयार्थस्तु "असंख्यात प्रदेशी निरञ्जनोऽनन्तज्ञानादिगुणोपेतो नित्यो विभुः कर्मदोषैरसङ्गतः सिद्ध इव देह उपलभ्यते" तदास्य व्यवहारेणोपाधिकस्य जडशरीरादेः सङ्गतस्योदयिकादिभावोपगतनरनैरयकादिभा वस्पर्शतोऽपि गौणत्वं मासते । - अथ च " अतति सातत्येन गच्छति तांस्तान्पर्यायानित्यात्मा" संसारस्यो देहादिसङ्गतो जन्ममरण जरायोवनादिक्लेशमनुभवमानः प्रत्यक्षप्रमाणेन व्यवहारादेशाद्द वो मनुष्यो नारकस्तिर्यङ् च कथ्यते तत्र सिद्धत्वस्य गौणत्वम् ॥ २२ ॥ व्याख्यार्थः – निश्चयनयसे व्यवहारनय के साथ उपचारकी विशेषता क्या है ? इस जिज्ञासा ( जाननेकी इच्छा ) में कहते हैं; कि - यवहारनय के विशेष उपचार है; और निश्चयनयमें उपचार नहीं है; इतनी ही विशेषता है; अर्थात् जब एक नयकी मुख्य अर्थ में शक्ति रहती है तब अन्यनयकी उपचारवृत्ति स्वयं आती है। और यह वार्त्ता रत्नाकर वाक्यमें तथा स्याद्वादरत्नाकरमें प्रसिद्ध है । जैसे "अपने २ अर्थकी सत्यताका अभिमान सब नयोंके परस्पर रहता है; और उन नयोंके फलसे सत्यता तो सम्यग्दर्शन के संयोगके होनेपर ही होती है, " जब ऐसा सिद्धान्त है; तब इस प्रकृत अर्थका इस प्रकार व्याख्यान होता है; कि - "निश्चयनयसे व्यवहारनयके साथ उपचार विशेषता क्या है ? जो उपचारविशेषपना है, उसको दिखाते हैं । जब किसी एक नय की मुख्यता रहती हैं, तब अन्य ( दूसरे ) नयकी उपचारता रहती है; तात्पर्य यह कि - एक नय प्रधानभाव से जब रहेगा तब अन्य गौणत्व (अप्रधानपने) रूपसे आप ही रहेगा, यह गौणत्ववृत्ति होना ही उपचारता है; ऐसा समझना चाहिये । उदाहरण केलिये जैसे निश्चयनयसे " आत्मा यह शब्द है; तब इस आत्माका निश्चयनयसे अर्थ असंख्यातप्रदेशोंका धारक, निरंजन, अनंत ज्ञानआदि गुणोंसे सहित, नित्य, विभु ( व्यापक ) और कर्मों से उत्पन्न जो दोष हैं; उनसे रहित सिद्धके सदृश आत्मा ही देहमें जाना जाता है । उन निश्वयार्थदशा में यद्यपि व्यवहारसे औपाधिक जो जड़ पदार्थ शरीर आदि हैं; उनके " १७ → Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० श्रीमद्रराजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् सहित तथा औदयिक आदि भावोंसे प्राप्त जो नर नारकी, और तिर्यन आदिपना है; उसको स्पर्शता हुआ भी जो आत्मा है; उसका गौणत्व भासता है । और जब "अति इति आत्मा" अर्थात् जो निरन्तर उन उन पर्यायोंके प्रति गमन करता है; अथवा निरन्तर न उन पर्यायोंको प्राप्त होता है; वह आत्मा है; ऐसा व्यवहारसे अर्थ करते हैं; तब यह आत्मा संसारी है, देहआदिकसे सहित है, जन्म, मरण, वृद्धावस्था, और यौवनआदिक दशाओंमें जो दुःख होता है; उसको प्रत्यक्ष प्रमाणसे अनुभव करताहुआ देव है, मनुष्य है, नारकी है; और तिर्यन है; इत्यादिरूपसे कहा जाता है । उस व्यवहारदशामें इसका निश्वयोक्त अनन्त गुणादिसहित जो सिद्धपना है; उसकी गौणता भासती है ||२२|| अथ पुनस्तदेव प्रतिपादयति । अब फिर उसी विषयका प्रतिपादन करते हैं । तेनेदं भाष्यसंदिष्टं गृहीतव्यं विनिश्चयम् । तत्त्वार्थं निश्चयो वक्ति व्यवहारो जनोदितम् ॥२३॥ भावार्थ:- इस कारण भाष्यमें कहाहुआ जो यह विनिश्चय है; - "निश्चियनय तत्त्वार्थको कहता है; और व्यवहारनय केवल मनुष्योंसे कहेहुएको हो कहता है" इसको स्वीकार करना चाहिये ॥ २३ ॥ व्याख्या । तेन कारणेनेदं विनिश्चयं निश्चयव्यवहारयोलंक्षणं माष्यसंदिष्टं विशेषावश्यक निरूपितं गृहीतव्यमवचारणीयम् । अथ निश्चयव्यवहारयोर्लक्षणमाह । निश्चयो निश्चयतयः तत्त्वार्थं युक्तिसिद्धमर्थं वक्ति कथयति । पुनर्व्यवहारो व्यवहारनयो जनोदितं लोकाभिग्राहित्वं वक्ति यतो लोकाभिमतमेव व्यवहारस्तस्य ग्राहकं प्रमाणं न भवति । प्रमाणं तु तत्वार्थ ग्राहक मेवास्ति तथापि प्रमाणस्य सकलतत्त्वार्थग्राही निश्चयनयः, एकदेशतत्त्वार्थग्राही व्यवहारश्चायं विवेकः । निश्चयनयस्य विषयत्वमथ च व्यवहारनयस्य विषयत्वमनुभवसिद्ध मिन्नमेवास्ते । असता न निष्ठेति । यथा सविकल्पकज्ञानं नष्टप्रकारतादिकमन्यवादिनो भिन्नमेवामनतीति हृदये विमर्शनीयम् ॥२३॥ व्याख्यार्थः: - इस कारण से भाष्य अर्थात् विशेषावश्यकमें कहा हुआ जो यह विनिरचय अर्थात् निश्चय और व्यवहारका लक्षण है; उसको निश्चित करना चाहिये । अब जो निश्चय और व्यवहारका लक्षण भाष्य में कहाहुआ है; उसका कथन करते हैं; कि-निश्चय नय जो है; वह तो तत्त्वार्थ अर्थात् युक्तिसे सिद्ध अर्थको कहता है; और व्यवहारनय जो है; वह जनोदित अर्थात् लोकके इष्ट जो ग्रहण है; उसको कहता है, क्योंकि लोकके ही जो अभिमत होता है; वह व्यवहार है । इसलिये उस व्यवहारका जो ग्राहक ( ग्रहण करनेवाला है; वह प्रमाण नहीं होता; किन्तु जो तत्त्वार्थका ग्राहक होता है; वही प्रमाण होता है; तथापि प्रमाणके संपूर्ण तस्वार्थको ग्रहण करानेवाला निश्चयन है; और प्रमा . Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ १३१ णके एकदेश तत्त्वार्थको जो ग्रहण करता है, वह व्यवहार कहलाता है, यह निश्चय और व्यवहार इन दोनों नयोंका विवेक है। और निश्चयनयका विषय तथा व्यवहारनयका विषय तो भिन्न ही है, यह अनुभवसे सिद्ध है। और व्यवहारग्राहक प्रमाण असत् है, इससे उसकी निष्ठा (उत्पत्ति ) नहीं है, ऐसा नहीं क्योंकि-जैसे अन्यवादी सविकल्पक झानको और निर्विकल्पकको भिन्न ही मानते हैं, उसी प्रकार निश्चय और व्यवहार है, ऐसा हृदयमें विचारना चाहिये ॥ २३ ॥ अथोपचारं निर्दिशति । अब उपचारका निर्देश करते हैं। बाह्यस्याभ्यन्तरत्वं यद्वहुव्यक्तरभेदता । यच्च द्रव्यस्य नेमल्यमिति निश्चयगोचराः ॥ २४ ॥ भावार्थः-जो बाह्य पदार्थका अन्तरंगत्व है, जो अनेकव्यक्तिगत अभेदता है, और जो द्रव्यकी निर्मलता है, सो सब निश्चयनयका विषय है ।। २४ ॥ व्याख्या। यद्वाह्यस्य बृाह्यर्थस्याभ्यन्तरत्वमन्तरङ्गवं वर्तते तदतिगोचरं निश्चयविषयमित्यर्थः यथा "समाधिर्नन्दनं धैर्यो दंभोलि: समता समा। ज्ञान महाविमानं च वासरश्रीरियं पुनः ॥१॥" इत्यादि पुण्डरीकाध्ययनाद्यर्थोऽप्येवं भावनीयः । अथ पुनर्बहुव्यक्ते रनेकविशेषस्याभेदता भेदराहित्यं तदपि निश्चयविषयं यथा “एगे आया" इत्यादिसूत्रम, तथा वेदान्तदर्शनमपि शुद्धसङग्रहनयादेशरूपः शुद्धनिश्च पनयार्थः संमतिग्रन्थे कथितः । तथा पुन व्यस्य पदार्थस्य नेमल्यं तदपि निश्चयविषयम् । नेमल्यं तु विमल परिणतिर्बाह्यनिरपेक्षपरिणामस्सोऽपि निश्चयनयार्थो बोद्धव्यः । यथा “आयासामाइए आयासामाइ यस्स अट्ट" एवमेतेऽभ्यन्तर-- स्वादयो निश्चयगोचरा एव यथा यया रीत्या लोकातिक्रान्तीऽर्थोऽवाप्यते तथा तया रोत्या निश्वयनयस्य भेदा भवन्ति तस्माच्च लोकोतरार्थभावना समायातीति ज्ञेयम् ॥ २४ ॥ व्याख्यार्थः-जो बाह्य पदार्थका आभ्यन्तरत्व अर्थात् अन्तरंगना है, वह निश्चय नयका विषय है, जैसे समाधि, नंदनवन, दंभोलि (वन) समता सभाज्ञान महाविमान . और यह वासरश्री अर्थात् दिनकी शोभा । १। इत्यादि पुण्डरोकाध्ययनार्थ भी इसी प्रकार विचारना चाहिये। और बहुव्यक्तिगत जो अनेक विशेष हैं, उनको अभेदता (भेदरहितपना) जो है, बह भी निश्चयनयका विषय है, जैसे “एगे आया" इत्यादि सूत्र है। इसी प्रकार वेदान्त दर्शन भी शुद्वसहनयका आदेशरूर होने से शुद्वनिधनका अर्थरूप संमति प्रन्थमें कहा है। और जो द्रव्य अर्थात् पदार्थको निर्मलता है, वह भो निश्चयनयका विषय है, यहाँपर नैर्मल्य शब्दका अर्थ निर्मल परिणाम अर्थात् बाह्य विषाकी अपेक्षा न रखवाला जो द्रव्यका परिणाम है, वह भी निश्वयनयका ही अर्थ ( विषय ) समझना चाहिये, जैसे “ आया सामाइय आया सामाइयस्स अट्टे" इत्यादि । इस Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ) १३२ ] श्रीमद्रराजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् प्रकार यह पूर्वोक्त अभ्यन्तरत्वआदि निश्वयनयके ही विषय हैं । और जिस रीतिसे लोकोत्तर अर्थ प्राप्त होता है; उसी प्रकार से निश्चयनयके भेद होते हैं; और इस हेतुसे लोकोत्तर अर्थकी भावना प्राप्त होती है। ऐसा जानना चाहिये ॥ २४ ॥ अथ व्यवहारविषयं दर्शयति । अब व्यहारनयके विषयको दर्शाते हैं । यो हि भेदो भवेद्वयक्तेर्यश्व वोत्कटपर्यवः । कार्यकारणयोरैक्यमिति व्यवहृतेविधाः ॥ २५ ॥ भावार्थ:- जो व्यक्तिका भेद होता है; जो उत्कट पर्याय है; तथा जो कार्य और arrest एकता है; सो सब व्यवहारके भेद हैं ।। २५ ।। | हि निश्चितं यो भेदो व्यक्त मंवेत् स च व्यवहारभेदो ज्ञेयः । यथा अनेकानि द्रव्याणि, अनेके जीवाः, इत्यादि प्रकारेण व्यवहारनयार्थः । तथा च पुनरेव निश्चयनय उत्कटपर्यंवः उद्धतपर्यायः सोऽपि व्यवहारनयस्य भेद: । अत एव “निछयणण्णं पंचवण्णे ममरे वयहारणएण कालवणे" इत्यादिसिद्धान्ते प्रसिद्ध उत्कटपर्यायोऽपि व्यवहारः । तथा च कार्यकारणयोनिमित्ती निमित्तश्च एतयोरथैक्यं यद्भवति तदेवापि व्यवहारविषयम् । यथा हि आयुर्धृतमित्यादि, यथा व गिरिर्दह्यते, यथा वा कुण्डिका स्रवति, मञ्चाः क्रोशन्ति कुन्ताः प्रविशन्ति, गङ्गायां घोष इत्यादिव्यवहारभाषा अनेकरूपा वर्त्तते । सा च सर्वापि व्यवहारनयविषयिणी ज्ञेया । इति कि यो व्यक्तोर्भेदः, यः पुनरुत्कटपर्यंवः यदपि कार्यकारणयोरैक्यम इत्यादि व्यवहृतेर्व्यवहारस्य विद्याः प्रकारा इत्यर्थः ॥ २५ ॥ व्याख्यार्थः - जो व्यक्तिका भेद होता है; उसको निश्चयरूपसे व्यवहारका भेद जानना चाहिये, जैसे अनेक द्रव्य हैं, अनेक जीव हैं, इत्यादि रीतिसे व्यवहारनयका अर्थ है; और फिर जो निश्चयनयमें उद्धत पर्याय है; सो भी व्यवहारनयका भेद है । इसी हेतुसे ऐसा कहा भी है; कि - निश्चयनयसे भ्रमर ( भंवरा ) पंचवर्ण अर्थात् पांच रंगका है, और व्यवहारनयसे केवल कृष्णवर्ण ( काले रंगका ) ही है, इत्यादि रीति से सिद्धान्त में प्रसिद्ध जो उत्कट पर्याय है, वह भी व्यवहारनयका भेद है। और फिर कार्य कारण अर्थात् निमिती और निमित्तकी जो एकता है, वह भी व्यवहारनयका विषय है, जैसे आयु घृत है, यहां घृतरूप जो आयुका कारण है, उसमें आयुरूपता मानी है, अथवा जैसे पर्वत जलता है, 'कुंडी करती है ' ' मंच (मांचे) शब्द करते हैं' ' भाले घुसते हैं ' ' गंगा में घोष (अहीरोंका ग्राम) है' इत्यादि जो अनेकरूप व्यवहारभाषा ( व्यवहार में कहनेकी परिपाटी ) है; वह व्यवहारयके विषयको धारण करनेवाली ही जानना चाहिये । तालर्य यह है, कि जो व्यक्तिका भेद है, और जो उत्कट पर्याय है, तथा जो कार्य कारणकी एकता है, इत्यादि यह सब व्यवहारनयके भेद हैं ।। २५ ॥ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ १३३ अत्र प्रपञ्चितस्य संक्षेपमाह । अब जो पूर्वोक्त प्रपंच है; उसको संक्षेपसे कहते हैं । इत्याधनेकविषयांश्च नयान्विहाय संक्षिप्य तांश्च वचसाप्यधिकान्विधाय । बालावबोधनकृते किल देवसेन स्तत्प्रपञ्चनमचीकरदाप्तशून्यम् ॥ २६ ॥ भावार्थः-इत्यादि अनेक विषयोंको धारण करनेवाले निश्चय व्यवहारआदि नयोंको त्यागकर और फिर उनको ही उपचारसे संक्षिप्तकर और सूत्रवाक्यसे भी अधिक नयोको अपनी बुद्धिसे करके मंदबुद्धियोंको वंचने( ठगने )केलिये देवसेनजीने आप्तशून्य इस प्रपंचको किया है ॥२६॥ व्याख्या । इत्याद्यनेकविषयान् अनेके भूयांसो विषया गोचरा अर्था वा एषान्तेऽनेकविषयास्ताननेकविषयान् नयान् न्यायान् निश्चयव्यवहारात्मकान् विहाय त्यक्त्वा च पुनस्तानेव नयान् संक्षिप्य संक्षेप कृत्वा उपचारपदेन संकोचयित्वा अपि पुनर्वचसा वचनान्तरेण अधिकान् अतिरेकान् विधाय रचयित्वा सूत्र सप्त नया आदेशान्तरेण पञ्च नयास्तत्र च 'नब नया' इत्याधिक्यं कृत्वा बालावबोधनकृते बालानां मन्दमतिनामवबोधनं प्रतारणं "अवबोधनं प्रतारणे वंचने शिक्षणे चेत्यनेकार्थात्" मंदमतिवञ्चनकृते प्रतारणार्थाय किल इत्यसत्ये "सत्येऽलीके भावनायां निश्चे यऽपि किस स्मृतमिति" देवसेनो नयचक्रग्रन्थनिर्मायको दिगम्बरमताग्रणीः एतत् प्रागुक्त प्रपञ्चनं नयविस्तारणं अचीकरत् चकार। कोहगचीकरत आप्तशून्यं आप्तोवीतरागस्तस्य वाक्यं सिद्धान्तस्तेन शून्यं वजितम्, आप्तशून्यमिति मध्यमपदलोपी समासः आप्तवाक्येन शून्यमाप्तशून्यं स्वमत्या असंभावितं विरचय्य लोके ग्रन्थगौरवो दर्शित इति ॥ २६ ॥ व्याख्यार्थः-इत्यादि बहुतसे गोचर अथवा अर्थोके धारक निश्चय और व्यवहार स्वरूप नयोंको छोड़कर और फिर उन्ही नयोंका संक्षेप करके अर्थात् उपचारपदसे संकोच करके पुनः वचनान्तरसे अधिक नयोंकी रचना करके अर्थात् सूत्रमें सप्त नय हैं; और मतांतरसे पांच नय हैं; वहांपर अर्थात् सात तथा पाँच नयोंके स्थानमें "नय नव हैं" ऐसी अधिकता करके मंदबुद्धियोंको वंचनेकेलिये अवबोधन शब्द प्रतारण वंचन तथा शिक्षणआदि अनेकार्थका वाची है; इसलिये सूत्रमें जो अवबोधन शब्द है; उसका यहाँ घंचनरूप अर्थ लियागया है" इसलिये उन मंदबुद्धियोंको धोखा देनेके अर्थ मिथ्या ही "सूत्रमें जो किल शब्द है; वह सत्य, झूठ, संभावना और निश्चय इन चार अर्थों में वर्त्तता है; इस कारण यहाँ झूठरूप अर्थका ग्रहण कियागया है" दिगम्बरमतके अग्रेसर नय चक्रग्रन्थके बनानेवाले देवसेनजीने श्रीवीतरागके सिद्धान्तसे रहित इस पूर्वोक्त प्रपंचन अ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशाखमालायाम् र्थात् नयके विस्तारको किया तात्पर्य यह कि-देवसेनजोने अपनी बुद्धिसे सर्वज्ञमतके विरुद्ध असंभावितको रचकर लोकमें ग्रन्थका गौरव दिखाया है ।। २६ ॥ इत्थं नयानां बहभङ्गजालैरेकं पदार्थं च त्रिधा परोक्ष्य । अर्हत्क्रमाम्भोजयुगोपयोगि चेतः कुरुष्वात्मसुखं लभस्व ॥ २७ ॥ भावार्थ:-हे भव्य ! इस प्रकार नैगम संग्रहआदि नयोंके अनेक भेद समूहोंके द्वारा एक पदार्थको द्रव्य, गुण पर्यायरूप निश्चय करके श्रीजिनेन्द्र के चरणकमलयुगल में लीन चित्तको कर और आत्मसुख प्राप्त हो ॥ २७॥ व्याख्या । इत्थं अमुना प्रकारेण श्रीजिनदेवमापितसूत्रप्रक्रमेण नयानां नैगमादीनां सप्तानां तथापि पञ्चानां बहुभङ्गजालेः बहवोऽनेके मङ्गा भेदास्तेषां जाल: समूहै: एक कमपि स्वेपित पदार्थ जीवासिदार्य त्रिधा द्रव्यगुणपर्यायरूपं परीक्ष्य निचित्य अहंक्रमाम्भोजयुगोपयोगि अहंतां वीतरागाणां क्रमाश्चरणास्त एवाम्भोजानि कमलानि तेषू उपयोगि लीनं एतादृशं चेत: चित्तं कुरुष्व मोमव्य ! त्वमित्यध्याहारादित्यवन्यः पुनर्मो भव्यप्राणिन् ? त्वमात्मसुखमात्मनो जीवस्य सुखं निराबाधानुभवं लमस्व प्राप्नुहि । नयज्ञानाजोवादीपरीक्ष्य कर्मभ्य आत्मानं वियोज्यानन्तसूखमाग्मवेत्यर्थः ।। २७॥ इति श्रीकृतिमोजसागरनिर्मितायां द्रव्यानुयोगतर्कणायामष्टमोऽध्यायः ॥८॥ व्याख्यार्थः-इस प्रकार श्रीजिनदेवभाषित सूत्रोंके क्रमसे नैगमआदि सप्त नय अथवा पंच नयोंके भेद समूहोंसे इच्छानुसार किसी भी एक जोवआदिक पदार्थको द्रव्य, गुण तथा पर्यायरूप निश्चित करके श्रीधोतरागों के चरण कमलों में आसत ऐसे चित्तको कर "हेभव्य ? तू यह अध्याहारसे लगा लेना चाहिये" और हेभव्य जोव ? तू जीवका जो बाधारहित अनुभस्वरूप सुख है, उसको प्राप्त हो। तात्पर्य यह है, कि-भोभत्य ? नयोंके ज्ञानसे जीवआदि पदार्थका निश्चय कर कर्मोंसे आत्माको भिन्न कर अनंत सुखका भागी हो ।। २७ ॥ इति श्रीआचार्योपाधिधारिद्विवेदिपण्डितठाकुरप्रसादविरचितमाषाटीकासमलङ्कृत द्रव्यानुयोगतर्कणायामष्टमोऽध्यायः ॥८॥ अथ नवमाध्याये द्रव्यगुणपर्यायाणामेकं स्वरूपं कथयन्नाह । अब नवम अध्याय में द्रव्य, गुग तथा पर्यायोंकी एकरूपता कहतेहुये यह सूत्र कहते हैं। लक्षणेत्रिभिरेकोऽर्थः सहितः कथ्यते जिनः । यथार्थाथमन्विच्छन्प्राप्नोति सकलेप्सितम् ॥१॥ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ १३५ भावार्थ:-जैसे श्रीजिनभगवान् एक पदार्थको तीन लक्षणोंसे युक्त कहते हैं; उसी रीतिसे पदार्थको चाहताहुआ भव्य सब अभिलषित वस्तुको प्राप्त होता है ॥१॥ व्याख्या । एकोऽद्वितीयोऽर्थो जीवपुद्गलादिर्घटपटादिर्वा यथा येन प्रकारेण त्रिभिल्लक्षणरुत्पादव्ययध्रौव्याख्यः सहितो युक्तः श्रीजिनः परमेश्वरैः कथ्यते भण्यते वाक्यप्रबन्धेन । यतः-"उत्पन्ने इवा १ धुवे इवा २ विगमे इवा ३' इति त्रिपदीमूलात्पदार्थः सर्वोऽपि त्रिविध इत्यर्थः । तथेति उक्तप्रकारेण अर्थ पदार्थमन्विच्छन् वाञ्छन् धारयन् सकलेप्सितं सर्ववाञ्छितं सम्यक्त्वादिसिद्धिपर्यन्तं कामं प्राप्नोति भव्य इति पद्यार्थः । भावार्थस्तत्वयम-एतस्यां त्रिपद्यां सवेषामर्थानां व्यापकत्वमवधारणीयम् । जिनमते केचित्पदार्था नित्याः, केचिदनित्या इत्थं नैयायिकादयः कथयन्ति तद्वन्नास्ति । नित्यकान्तानित्यैकान्तपक्षयोरपि लोकयुक्त्यापि विरोधो दृश्यते । ततो दीपादारभ्याकाशपर्यन्तमुत्पादव्यय ध्रौव्यलक्षणं प्रमाणयितव्यम् । तदुक्त श्रीहेमाचार्य:"आदीपमाव्योम समस्वभावं स्याद्वादमुद्रानतिभेदिवस्तु । तन्नित्यमेवैकमनित्यमन्यदिति त्वदाज्ञाद्विषतां प्रलापः" ॥१॥ व्याख्यार्थः-एक अर्थात् दूसरेसे रहित केवल एक जीव पुद्गलआदि तथा घट पटआदि पदार्थ जिस रीतिसे उत्पत्ति, नाश और ध्रौव्यरूप तीनों लक्षणोंसे संयुक्त श्रीजिन परमेश्वर वाक्यप्रबंधसे कहते हैं; अर्थात् कथंचित् उत्पन्न होता है; कथंचित् नष्ट होता है; और कथंचित् ध्रौव्य है; इस प्रकार जो तीन पदोंका मूलसूत्र है; उससे सब पदार्थ तीन प्रकारका है । उसी श्रीजिनेन्द्रके कहे हुए प्रकारसे पदार्थको चाहता हुआ अर्थात् अन्तःकरणमें धारण करता हुआ भव्यप्राणी संपूर्ण अभीष्टको अर्थात् सम्यग्दर्शनको आदि ले मुक्तिपर्यन्त कामनाको प्राप्त होता है; बस यही श्लोकका अर्थ है । आशय तो यह है; कि-इस त्रिपदीमें संपूर्ण पदार्थों की व्यापकताका निश्चय करना चाहिये । क्योंकि-कोई पदार्थ नित्य है; कोई पदार्थ अनित्य है; ऐसा जो नैयायिकआदि कहते हैं; उसके समान जिन मतमें कोई पदार्थ नहीं है । और नैयायिकआदिके अभिमत जो एकान्त नित्य तथा एकान्त अनित्य पक्ष हैं; इन दोनोंमें ही लोकयुक्तिसे भी विरोध देखा जाता है । इसलिये दीपसे लेकर आकाशपर्यन्त संपूर्ण पदार्थ पूर्वोक्त उत्पाद, व्यय तथा ध्रौव्यरूप विविध लक्षणसहित प्रमाणभूत करना चाहिये । वही विषय श्रीहेमाचार्यजीने कहा है; कि-दीपकसे लेकर आकाशपर्यन्त समस्त पदार्थ एक स्वभावके धारक हैं; और स्याद्वादमुद्राका उल्लंघन नहीं करते हैं; इसलिये उनमें एक नित्य ही है, दूसरा अनित्य ही है, इस प्रकार जो कथन है सो आपकी आज्ञासे विरोध रखनेवालोंका प्रलाप है ॥१॥ अथैनमेवार्थ विवृत्य कथयन्नाह । अब इसी त्रिविधलक्षणतारूप अर्थका विवरण करके निरूपण करते हैं। उत्पादध्र वनिर्णाशः परिणामः क्षणे क्षणे। द्रव्याणामविरोधाच्च प्रत्यक्षादिह दृश्यते ॥२॥ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् भावार्थः-उत्पाद ध्रौव्य तथा नाशरूप त्रिविध लक्षणोंसे द्रव्योंका परिणाम क्षण क्षणमें परस्पर विरोधरहितपनेसे ओर प्रत्यक्षसे दीख पड़ता है ॥२॥ व्याख्या । उत्पादव्ययनिर्णाशैर्लक्षणस्त्रिभिद्रं व्यस्य क्षणे क्षणे समये समये परिणामोऽस्ति । अत्र कश्चिदाह । यत्रोत्पादव्ययौ भवतस्तत्र ध्रौव्यं नास्ति यत्र च धोव्यं तत्रोत्पादव्ययौ न स्यातामिति विरोधस्तिष्ठति तदा एकत्र लक्षणत्रयं कथं संभवेत् । यथा-छायातपावेकत्र न स्यातां तद्वदेतावेकत्र न भवेतां चेति । तत्रोत्तरं -यथोष्णाशीतस्पशौं क्रमेणानलजलयोः परस्परपरिहारेण दृष्टी तयोरेकत्र स्थान उपसंहारेण विरोधोऽप्यस्ति । परमत्र तु सर्वलक्षणान्येकत्र प्रत्यक्षं विलोक्यन्ते । परस्परपरिहारेण कुत्रापि प्रत्यक्षसिद्धत्वं नास्ति । तदा कथमेतद्विरोधस्थानं भवेत् । अनादिकालीनकान्तवासनया मोहिताः प्राणिन एतेषां विरोध पश्यन्ति, परंतु परमार्थतो विचार्यमाणो विरोधो न ह्यस्ति । समयनैयत्येन प्रत्यय एव विरोधनाशहेतुरिति ॥२॥ व्याख्यार्थः-उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीनों लक्षणोंसे संसारके द्रव्योंका परिणाम (परिवत न) क्षण क्षण ( समय २) में होता है। अब यहांपर कोई कहता है; कि-जहाँपर उत्पाद तथा नाश है; वहांपर ध्रौव्य नहीं है, और इसी प्रकार जहाँपर ध्रौव्य है; वहां उत्पत्ति तथा नाश नहीं रह सकते । इस प्रकार विरोध रहता है; तब एक वस्तुमें उत्पाद व्यय ध्रौव्यरूप तीनों लक्षण कैसे संभव होते हैं। जैसे छाया और आतप ( धूप ) यह दोनों एक जगह नहीं रह सकते वैसे ही उत्पाद व्यय ओर धोव्य यह दोनों भी एक पदार्थमें नहीं रह सकते हैं ? अब इस शंकाका उत्तर कहते हैं; कि-जैसे उष्ण और शीत स्पर्श परस्परके परिहारसे क्रमसे अग्नि तथा जलमें दृष्ट हैं; अर्थात् परस्परके परिहारसे उष्णस्पर्श अग्निमें और शीतस्पर्श जलमें देखाजाता है; और उन दोनों स्पर्शीका किसी एक स्थानमें अर्थात् केवल अग्नि अथवा जलमें उपसंहार (ग्रहण )करो तो विरोध भी है; परन्तु यहां तो सब लक्षण ( उत्पाद व्यय ध्रौव्यरूप तीनों लक्षण ) एक वस्तुमें प्रत्यक्ष रूपसे देख पड़ते हैं; और परस्परके परिहारसे अर्थात् एक दूसरेको दूर करके ( उत्पादके विना व्यय, व्ययके बिना उत्पाद ) कहीं भी प्रत्यक्षसे सिद्ध नहीं हैं; अर्थात् किसी एक भी पदार्थ में केवल उत्पाद व्यय अथवा ध्रौव्य प्रत्यक्ष प्रमाणसे नहीं देखा जाता है; तब यह विरोधका स्थान कैसे है ? अनादि काल की जो एकान्तकी वासना है; उससे मोहित होकर प्राणी इनके परस्परविरोध देखते हैं; परन्तु परमार्थसे विचार किया जावे तो कोई विरोध नहीं है; क्योंकि-समयकी नियततासे जो विश्वास हुआ वही विरोधके नाश करनेमें कारण है ॥२॥ पुनस्तदेव कथयन्नाह । पुनः उसी प्रस्तुत त्रिविध लक्षण का विस्तार करते हैं। Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुम्भमौलिसुवर्णेषु व्ययोत्पत्तिस्थिरात्मसु । दुःखहर्षोपयुक्तेषु मत्वं निश्चलं त्रिषु ॥ ३ ॥ भावार्थः—नाश, उत्पत्ति तथा स्थिरतायुक्त और दुःख तथा हर्षसे उपयुक्त सुवर्णमयघट सुवर्णमय मुकुट तथा सुवर्ण इन तीनों में सुवर्णरूपता स्थिरतासे है ॥३॥ [ १३७ व्याख्या | कुम्मो घटो हेमघटहेममौलिमसु नाशोत्पत्ति वरूपेषु दुःखहर्षाभ्यामुपयुक्तेषु हेमत्वं सुवर्णत्वं तिष्ठति । द्रव्ये चैकस्मिन्नव घटाकारनाशान्मुकुटाका रोपत्तिः, पुनर्हेमाकारेण स्थिरत्वमित्येतल्ल - क्षणत्रयं प्रकटाकारेण दृश्यते । तस्माद्ध मघटं मंङक्त्वा हेममुकुटं निष्पाद्यते उभयत्र हेमत्वं स्थिरम् । हेमघटार्थी दुःखवान् भवति घटाकार हेमव्ययसत्त्वात् । हेममुकुटार्थी हर्षवानस्ति हेममुकुटाकारेण सत्यत्वात् । पुनर्हेममात्रार्थस्तु तदा दुःखवानपि सुखवानपि न, स्थितिपरिणामेन विद्यमानत्वात् भवत्वाच्च । तस्माद्धमसामान्यस्थितिः सत्या इति । एवं सर्वत्रोत्पादव्यय प्रोव्यपर्याया द्रव्यरूपेण ज्ञेया: । अत्रोत्पादव्ययभाग् भिन्नं द्रव्यं तथा स्थितिमाक् द्रव्यं भिन्नं किमपि न दृश्यते ततो घटमुकुटाद्याकारस्परिहेमैव केवलं द्रव्यम् । न हि युद्धवं भवेत् ध ुवत्वस्य प्रतीतिरप्यस्ति " तद्भावाव्ययं नित्यं" इति लक्षणेन परिणामेन च ध्रुवमपरमधुवमपि । सर्वमपीत्थं भावनीयम् ॥३॥ ततश्च व्याख्यार्थः— नाश उत्पत्ति तथा ध्रुवतारूप लक्षणसंयुक्त और दुःख तथा हर्षसे उपयुक्त सुवर्णके घट; सुवर्णके मुकुट सुवर्ण इन तीनों में सुवर्णपना स्थिर है; अर्थात् सुबर्णत्व सबमें है; जैसे एक ही सुवर्णरूप द्रव्य में घटके आकारका नाश मुकुटके आकारकी उत्पत्ति और सुवर्णरूप आकारकी स्थिति है । और सुवर्णरूप द्रव्यमें घटके आकार के नाशसे मुकुटके आकार की उत्पत्ति होती है; और सुवर्ण आकारसे उसमें स्थिरता ( धौव्य ) है; इस प्रकार यह तीनों लक्षण एक ही द्रव्यमें प्रकटता से दीखते हैं । इस कारण सुवर्णके घटको तोडकर सुवर्णका मुकुट बनाया जाता है । और सुवर्णपना घट तथा मुकुट इन दोनोंमें स्थिर है । अब जिस समय सुवर्णघटको तोड़कर उसका मुकुट बनता है; तब सुवर्णके घटको चाहनेवाला पुरुष दुःखी होता है; क्योंकि - घटके आकारका जो सुवर्ण था उसका व्यय ( नाश) होता है; ओर जो पुरुष हेमके मुकुटको चाहनेवाला है; वह प्रसन्न है; क्योंकि वह सुवर्ण हेम मुकुटके आकारसे विद्यमान है; और जो केवल सुवर्णको ही चाहनेवाला है; वह उस समय में न दुःखी है; और न सुखो है; क्योंकि — स्थितिरूप परिणामसे जो सुवर्ण घटमें था वही मुकुटमें भी विद्यमान है; और नित्य है । इसलिये सुत्रकी सामान्यस्थिति सत्य है । इस प्रकार सर्वत्र उत्पाद व्यय तथा धौव्य पर्याय द्रव्यरूपसे जानने चाहियें। यहांपर उत्पाद और व्ययको धारण करनेवाला द्रव्य भिन्न है; तथा स्थिति (नित्यता) का भागी द्रव्य भिन्न है; ऐसा कुछ भी नहीं दीख पड़ता है; अर्थात् उत्पाद व्यय और स्थितिका धारक एक ही द्रव्य है । इस कारण घट १८ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् इत्यादि आकारको धारण करनेवाला सुवर्ण ही केवल द्रव्य है । और वह केवल ध्रुव ही है; किन्तु उसमें ध्रुवताकी प्रतीति भी है; इसीलिये “उसके भावका जो नाश न होना सो नित्य है" इस प्रकारके लक्षणसे द्रव्यरूप ध्रुव है; और अन्य सब पर्यायआदि अध्रुव हैं । इसी प्रकार सब ही विचारने चाहिये अर्थात् सर्वत्र ऐसा ही विचार करना चाहिये ॥३॥ अथोत्पादव्ययध्रौव्यानामभेदसंबद्ध भेदं च दर्शयन्नाह । अब उत्पाद व्यय तथा ध्रौव्य इन तीनोंका अभेद संबद्ध भेदको भी दिखाते हुये सूत्र कहते हैं। घटव्ययो हि सोत्पत्तिमौलेधौव्यं च भर्मणः। इत्येकस्मिन्दलेऽनेका युगपत्कार्यशक्तयः ॥४॥ भावार्थ:-घटका जो नाश है; वही मुकुटकी उत्पत्ति है; और सुवर्णकी नित्यता है; इसी प्रकार एक पदार्थमें एक ही कालमें अनेक कार्योंकी शक्तियें हैं ॥४॥ व्याख्या। यो हि हेमघटव्ययः सा च मौलेम कूटस्योत्पत्तिः, एककारणजन्यत्वात् । यतो यदद्रव्यं यद्रव्यध्वंसजन्यं तत्तदुपादानोपादेयमिति । ततो विभागपर्यायोत्पत्तिसन्तानादेव घटनाशव्यवहारोऽपि संभवेत, उत्तरपर्यायोत्पत्तेश्च पूर्वपर्यायनाशोऽपि संभाव्यश्च । काञ्चनस्य ध्रौव्यमपि तथैव भाबनीयम प्रतीत्य पर्यायोत्पादेनकसन्तानत्वं तदेव द्रव्यस्य लक्षणतो ध्रौव्यमस्ति । इत्येकस्मिन्निति-लक्षणत्रयात्मके एकस्मिन् दले एतल्लक्षणत्रयमेकदा यद्यपि वर्तते तथापि शोकप्रमोदमाध्यस्थरूपा अनेकाः कार्यशक्तयो दृश्यन्त इत्यनेकत्वेन च मिन्नत्वमपि ज्ञेयम् । सामान्यरूपेण ध्रौव्यं विशेषरूपेणोत्पादयो चेत्यं प्रमाणयतां विरोधोऽपि नास्ति । व्यवहारतः सर्वत्र स्यादर्थानुप्रवेशेनैव स्यात्, विशेषपरतापि व्यत्पत्तिविशेषेण स्यात् । अत एव स्यादुत्पद्यते, स्यान्नश्यति, स्याद् ध्रुवम् , इत्यमेव वाक्यप्रयोगोऽपि । "उप्पन्न इ वा" इत्यादी वा शब्दो व्यवस्थायां स च स्याच्छब्दसमानार्थः । अत एव "कृष्णः सर्पः” एतल्लौकिकवाक्यमपि स्याच्छब्दं गृहीत्वैवास्ति । ततः सर्पस्य पृष्ठावच्छेदेन श्यामत्वं वर्तते परन्तु उदरावच्छेदेन नास्ति । तथैव सर्पमात्रेणापि कृष्णत्वं न दृश्यते शेषाख्यो नागः शुक्ल एवास्ति । तस्माद्विशेषणविशेष्यनियमार्थो यदि स्याच्छब्दप्रयोगोऽस्ति तदा त्रिपदीमहावाक्यमपि स्यात्कारमजनया संभवेदिति ॥ ४ ॥ व्याख्यार्थः-जो सुवर्णघटका व्यय है; वही सुवर्णमुकुट की उत्पत्ति है; क्योंकि-घटका नाश और मुकुटकी उत्पत्ति यह दोनों कार्य एक ही कारणसे जन्य हैं। कारण किन्यायका सिद्धान्त है; कि-जो द्रव्य जिस द्रव्यके नाशसे उत्पन्न होता है; वह उसी (नश्यमान ) द्रव्यके उपादान कारणसे उपादेय है; भावार्थ-जैसे यहां सुवर्णघटके नाशसे मुकुट उत्पन्न हुआ है; तो घटद्रव्य नाशका जो उपादान कारण सुवर्ण है; वही मुकुटका भी उपादान कारण है; इस रीतिसे घटका नाश तथा मुकुटकी उत्पत्ति एक ही सुवर्णेरूप कारणसे जन्य (पैदा हुई ) है। और इसीसे विभाग पर्याय (मुकुट पर्याय )की Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ १३९ उत्पत्तिके संतानसे ही घटके नाशरूप व्यवहारकी संभावना होती है । और उत्तर पर्याय जो यहांपर मुकुटरूप पर्याय है, उसकी उत्पत्तिसे पूर्व घटरूप पर्यायका नाश भी विचारने योग्य है । और उसी प्रकारसे सुवर्णका ध्रौव्य भी विचारना चाहिये क्योंकि-जिसको निमित्त मानकर पूर्वपर्यायका नाश और उत्तरपर्यायकी उत्पत्ति है उसका निरवच्छिन्न एक संतानत्व (सुवर्णका स्थिरत्व) जो है; वही द्रव्यके लक्षणसे उसका ध्रौव्य है । इस प्रकार त्रिविधलक्षणसहित एक दल ( वस्तु ) में यद्यपि तीनों ही लक्षण एक समयमें हैं; तथापि शोक, प्रमोद और माध्यस्थरूप अनेक कार्योंको शक्तिये दीख पडती हैं; इस रीतिसे अनेकत्व होनेसे भिन्नता भी समझनी चाहिये । इस प्रकार सामान्यरूपसे तो ध्रौव्य तथा विशेषरूपसे उत्पाद और व्ययको प्रत्येक वस्तुमें , प्रमाणोभूत न करनेवालोंके कोई विरोध भी नहीं है; क्योंकि-व्यवहारसे सर्वत्र स्यात् (कथंचित् ) इस अर्थके अनुप्रवेशसे सामान्यपरता भी है; और व्युत्पत्तिविशेषसे विशेषपरता भी है । इसी कारणसे स्यात् उत्पन्न होता है; स्यात् नष्ट होता है; स्यात् (कथंचित्) ध्रुव है; ऐसे वाक्यका प्रयोग भी होता है । और उप्पन्नेइ वा इत्यादिक मूलपाठमें जो वा शब्द है; वह व्यवस्था अर्थमें है; और वह अर्थ स्यात् इस शब्दके समान है । इसी कारण 'कृष्णसर्प' (काला सांप) यह लौकिकवाक्य भी 'स्यात्' इस शब्दको गृहण करके ही वर्त्तता है; क्योंकि-सपके पृष्ठ (पीठ) देशमें श्यामता (कालापन) है; परन्तु उसके उदर देशमें (पेट में) नहीं है । और वैसे ही सर्पमात्रमें भी श्यामता नहीं है; क्योंकि 'शेष'-इस नामका धारक जो नाग है; वह शुक्ल ( सफेद ) ही है । इसलिये विशेषण विशेष्यके नियमार्थ 'स्यात्' शब्दका प्रयोग है; तो त्रिपदीमहावाक्य भी स्यात्कारका भागी हो सकता है ॥४॥ द्रव्यस्वभाव आख्यातो बहुकार्यककारणः । तदा ऋते हेतुभेदात्कार्यभेदः कथं भवेत् ॥५॥ भावार्थः-पूर्व प्रसंगमें “एक कारणरूप अनेक कार्योंका जनक द्रव्य है" यह द्रव्यका स्वभाव वर्णन किया है; तब हेतु ( कारण ) के भेदके विना कार्योंका भेद कैसे हो सकता है ॥५॥ व्याख्या । अष यद्य वं कथ्यते द्रव्यस्वभावो बहुकार्यककारणोऽस्ति । यथा हेमद्रव्यमेवाविकृतमस्ति विकारो मिथ्यास्ति । शोकादिकार्यत्रय जननैकशक्तिस्वमावं यत्तदेव द्रव्यं ततो द्रव्याच्छोकादिकार्यवयं जायते तदा कारणभेद विना कार्यस्य भेद: कथं भवेत् । श्रेयः साधनं यत्तत्प्रमोदजनकम, अनिष्टसाधनं यत्तच्छोकजनकम, तद्भयाभिन्न माध्यस्थजनकमित्येतशिविघं कार्यमेकस्मादेकरूपात्कथं भवेत. । शक्तिरपि दृष्टान्तान. सरिण्येव कल्पनीया । न चेदेवं ता रिमसामीप्याज्जलं दाहजनकस्वभावमित्यादिक प्रकल्पनमप्यनिवार्यम् । तस्माच्छक्तिभेदः कारणं भेद: कार्यभेदानुसारेणावश्यमनुसतव्यः । अनेकजननकशक्तिः शब्द एव एकत्वानेकस्वस्याद्वादं सूचयतीत्यर्थः ॥ ५ ॥ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् व्याख्यार्थः-अब यदि ऐसा कहते हो कि-एक कारणरूप अनेक कार्योंका जनक यही द्रव्यका स्वभाव है । जैसे सुवर्णद्रव्य एक ही अविकृतरूप है; मुकुटआदि जो उसका विकार है; वह मिथ्या है। शोक, प्रमोद और माध्यस्थरूप तीन कार्योंको उत्पन्न करनेवाला जो शक्तिस्वभाव है; वही द्रव्य है; उस द्रव्यसे शोकआदिरूप तीन कार्य होते हैं; तब कारणके भेदके बिना कार्यभेद कैसे हो सकता है । क्योंकि-जो कल्याणका साधन है; वह प्रमोदका जनक है, जो अनिष्टका साधन है वह शोक (खेद) को उत्पन्न करनेवाला है, और दोनोंसे भिन्न अर्थात् श्रेयस्त्व तथा अनिष्टतासे भिन्न जो साधन है; वह न हर्षको उत्पन्न करता है; और न खेदको, इसलिये यह तीन प्रकारके कार्य एकरूप कारणद्रव्यसे कैसे उत्पन्न होते हैं; कार्यगत दृष्टान्तके अनुसार ही कारणगत शक्तिकी भी कल्पना करनी चाहिये । यदि ऐसा न मानो तो “अग्निकी समीपता से जल है; सो दाहको उत्पन्न करनेवाले स्वभावका धारक है" इत्यादि कल्पना भी अनिर्वारणीय होगी । इसलिये शक्तिभेदरूप जो कारण है; उसका भेद कार्यभेदके अनुसार अवश्य अनुसरण करना चाहिये अर्थात् कार्यभेद होनेपर कारणका भेद अवश्य मानना पड़ेगा । और अनेक कार्योंको उत्पन्न करनेवाली शक्ति हैं; यह शब्द ही एकत्व अनेकत्वरूप स्याद्वादको सूचित करता है। यह श्लोकका अर्थ है ॥५॥ अथ बौद्धमतमाह । अब इस विषयमें बौद्धका मत कहते हैं । शोकादिजननं लोकवासनाभेदतो भवेत् । वस्तुभेदो नेति बौद्धो निनिमित्तोऽशुचिः स्मयो ॥६॥ भावार्थः-द्रव्यमें शोकादिका जो उत्पाद है; वह लोकवासनाके भेदसे होता है और शोकादिके जननमें कोई वस्तुका भेद नहीं है । ऐसा कहनेवाला बौद्ध निमित्त शून्य है; और अपवित्र तथा स्मयी है ॥६॥ व्याख्या । यत्त लानमनोन्नमनवदुत्पादव्ययावेकदा भवतः क्षणिकस्वलक्षणस्य ध्रौव्यं नास्त्येव तच्छोकादिकार्यजननमपि मिन्नमिन्नलोकवासनातो भित्रमित्रभेदोपकारकमस्ति । यत एकं किमपि वस्तु वासनाभेदात् कस्यापीष्टं कस्याप्यनिष्टं स्यात्, यथेषु मनुष्याणामिष्टम; करमाणामनिष्टम, परन्तु तत्रेशुभेदो नास्त्येव । सदविहापि बोध्यमिति वदन् बौद्धो निनिमित्तो निमित्तभेदं बिना वासनारूपमनस्कारस्य भिन्नत्वं कथं जहाति । अत एवाशुचिः कलुषचित्तः पुनः स्वीकारेण स्मयीति । वस्तुतस्तु शोकादिकानामुपादानं यथा भिग्नं तथा निमित्तमपि भिन्नमवश्यं मंतव्यम । एकस्य वस्तुनः प्रमातृभेदेनेष्टानिष्टत्वमस्ति तथाप्येकस्य द्रव्यस्येष्टानिष्टज्ञानजननशक्तिरूपाः पर्यायभेदा अप्यनुसरणीया एवेति ॥६॥ व्याख्यार्थः-जैसे तुला (राजू) एक कालमें ऊंची नीची हो जाती है, उसी Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ १४१ प्रकार वस्तुके उत्पाद तथा नाश एक कालमें ही होते हैं। क्योंकि-क्षणिकस्वरूप अपने लक्षणको धारण करनेवाला जो पदार्थ है; उसके ध्रुवता (नित्यपना) है; ही नहीं। इसलिये शोकआदिका उत्पाद है; सो भी भिन्न भिन्न लोककी वासनासे होता है; और भिन्न भिन्न भेदका उपकार करता है। क्योंकि-एक ही कोई भी वस्तु वासनाके भेदसे किसीको इष्ट है और किसीको अनिष्ट है जैसे-इक्षु (ऊख वा ईख अथवा गन्ना) मनुष्योंको इष्ट (प्यारा) है; और ऊंटोंको अनिष्ट है; परन्तु यहांपर ईखका भेद नहीं है; अर्थात् वही इक्षु है । परंतु मनुष्योंके इष्ट और ऊंटोंके अनिष्ट है। ऐसे ही यहां घट मुकुट आदिमें भी जानना चाहिये ऐसा कहताहुआ बौद्ध निमित्त (कारण) के भेदके विना वासनारूप मनस्कार (मनके व्यापार)से जो चित्तकी सुखादि परकतारूप भेद है, उसको कैसे छोड़ता है । इसी कथनसे अशुचि अर्थात मलिनचित्त है, पुनः इस मतके स्वीकारसे गर्वयुक्त भी है। यथार्थमें तो जैसे शोकआदिके उपादान भिन्न भिन्न हैं; वैसे ही उनके निमित्त भी अवश्य ही भिन्न भिन्न मानने चाहिये। जहाँ प्रमाता ( इष्ट अनिष्टको अनुभव करनेवाले )के भेदसे एक पदार्थके इष्टता तथा अनिष्टता है; वहां भी एक द्रव्यका इष्ट तथा अनिष्ट ज्ञानको पैदा करनेमें शक्तिरूप ऐसे पर्याय भेदोंका ही अनुसरण करना चाहिये अर्थात् उस पदार्थमें ऐसे शक्तिभेद हैं; कि-जो किसीके इष्ट ज्ञानजनक हैं; और किसीके अनिष्ट ज्ञानके जनक हैं ॥६॥ चेन्निमित्त विना ज्ञानाच्छक्तिंसंकल्पकल्पना। तदा बहिर्वस्तुलोपाद् घटते न घटादिकम् ॥ ७ ॥ भावार्थ:-यदि निमित्तके विना ही वासनाविशेषरूप ज्ञानसे शक्तिरूप संकल्पको कल्पना होती है; तो बाह्य वस्तुके लोपसे घटआदि आकारकी कल्पना केवल वासनासे क्यों नहीं होती ॥७॥ ___ व्याख्या । अथ चेद्यदि निमित्तं निमितभेदं विना ज्ञानात् वासनाविशेषजनितज्ञानस्वभावाच्छक्तिसंकल्लकल्पना भवति । शोकप्रमोदादिकसंकल्पविकल्पना जायते तदा बहिवंस्तुलोपाद्वासनाविशेषेण घटपटादिनिमित्तं विनैव वासनाविशेषेण घटपटाद्याकारज्ञानं मवेत् । बाह्यवस्तु सर्व विलुप्यत इत्यर्थः । अथ च निष्कारणं तत्तदाकारज्ञानमपि न संमवेत्, अन्तर्बहिराकारविरोधेन बाह्याकारो मिथ्याप्रजल्पमानचित्रवस्तुविषयनीलपीताद्याकारज्ञानमपि मिथ्यैव जायते। तथा उषाद्याकारनीलाद्याकारावपि विरुद्धावेव भवतः । तदा सर्वशून्यवादिनो माध्यमिकत्रौद्धस्य मतमायाति । उक्त च-किं स्यात्सा चेन्न तैः कि स्यान्न स्यात्त-- स्मान्मतावपि । यदिदं स्वयमर्थानां रोचते तत्र के वयम् ॥१॥ शून्यवादोऽपि प्रमाणसिद्धयसिद्धिम्यां व्याहतोऽस्ति । ततः सर्वे नया: शुद्धस्याद्वादवीतरागप्रणोता आदर्तव्याः ॥ ७ ॥ व्याख्यार्थः-अब यदि निमित्त (कारण) भेदके विना ही वासनाविशेषसे उत्पन्न Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ ] श्रीमद्रराजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् जो ज्ञान स्वभाव है; उससे शक्ति अर्थात् शोक प्रमोदआदिके संकल्पकी कल्पना होती है; ऐसा कहो तो बाह्य वस्तुका नाश हो जाने से घट पटआदि निमित्त विना केवल वासनाविशेषसे घट पटआदि आकाररूप परिणाम नहीं उत्पन्न होता है; और घट पटादि निमित्त विना ही वासनाविशेषसे घटपटादिके आकारका ज्ञान होवे तो समस्त बाह्य वस्तुका नाश हो जायगा । यह तात्पर्य है; और कारणके विना घटपटादिके आकारका ज्ञान भी नहीं हो सकता । तथा आन्तरंगिक और बाह्य आकार के विरोधसे बाह्य आकारको मिथ्या कहनेवाले बौद्धके मतसे चित्र ( चित्राम ) के पदार्थ ( तसवीर वगैरह ) में रहनेवाला नील, पीत (पीला) आदि वर्णोंके आकारका ज्ञान भी मिथ्या ही होता है । एवं उषा ( दिन ) आदि आकार तथा नीलआदिका आकार भी विरुद्ध ही होता है । तब अर्थात् वासनाके ही विशेषसे आकारका परिणाम तथा आकारका ज्ञान होता है; बाह्य निमित्तकी उसमें कोई आवश्यकता नहीं है; ऐसा मानने से सबको शून्य कहनेवाला जो माध्यमिक बौद्ध है; उसका मत आता है; क्षणिकवादीका मत नहीं रहता । और कहा है; कि यदि वासना है; तो क्या नहीं होगा अर्थात् सब कुछ हो जायगा और जो बाह्य पदार्थ तो है; और वासना नहीं है; तो उन बाह्य पदार्थोंसे क्या हो सकता है; अर्थात् कुछ भी नहीं हो सकता । क्योंकि — वासनाके विना वह बाह्य पदार्थ बुद्धिमें ही नहीं आसकते हैं; इसलिये जो वासना पदार्थोंको स्वयं रुच रही है; उसको दूर करनेवाले हम कौन हैं ॥ १ ॥ और शून्यवाद भी प्रमाणकी सिद्धि तथा असिद्धिरूप जो दो पक्ष हैं; उनसे खंडित है । इस कारण सर्वज्ञवीतरागप्रणीत शुद्धस्याद्वाद के धारक संपूर्ण नयोंका आदर करना चाहिये ॥ ७ ॥ पुनस्तदेव कारणमिति । पुनः “कारणं" इत्यादि सूत्रसे उसी विषयको कहते हैं । कारणं घटनाशस्य मौल्युत्पत्त र्घटः स्वयम् । एकान्तवासनां तत्र दत्ते नैयायिकः कथम् ॥ ८ ॥ भावार्थ:-- घटके नाश तथा मुकुटकी उत्पत्ति में स्वयम् घट ही कारण हैं, जब ऐसा है; तब नाश तथा उत्पत्ति में एकान्त ( सर्वथा ) भेदकी वासना नैयायिक कैसे देता है; अर्थात् उत्पत्ति और नाशका सर्वथा भेद क्यों मानता है ॥ ८ ॥ व्याख्या । एवं शोकादिकार्यत्रयस्य भेदेनोत्पादव्ययधीव्याणि साषितानि, अत एव घटमाशस्य हेमघटनाशस्य हेममुकुटोत्पत्तेश्च कारणं हेतुरेकः स्वयं घट एव 1 हेमघटना शामिहेममुकुटोत्पत्तिविषये हेमघटावयवविभागादिको हेतुरेव । अत " खण्डपटे एव महापटनाशा मिन्नखण्डहेतुतात्र पटोत्पत्तिविषयेऽप्येका दितन्तुसंयोगापगमहेतु रेवास्ति I महापटनाशस्य Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [१४३ कल्पना महागौरवाय स्यात्" इत्थं जानन्नपि लाघवप्रियो नैयायिको नाशोत्पत्तिकस्यैकान्तभेदवासनां कथं दत्ते। तथा च तन्मतम् -“कल्पनागौरवं यत्र तं पक्षं न सहामहे । कल्पनालाघवं यत्र तं पक्षं तु सहामहे १ ॥८॥ व्याख्यार्थः-इस प्रकार शोकादि कार्यत्रयके भेदसे उत्पाद व्यय तथा ध्रौव्य लक्षण सिद्ध कियेगये, इसीसे ( लक्षणत्रययुक्त होनेसे ) सुवर्णघटके नाशका तथा सुवर्णके मुकुटकी उत्पत्तिका कारण केवल स्वयं घट द्रव्य ही है। क्योंकि-सुवर्णघटके नाशसे अभिन्नरूप सुवर्णमुकुट की उत्पत्तिके विषयमें सुवर्णघटके अवयवोंके विभागआदि हेतु ही हैं। इसी कारणसे महापटके नाशसे अभिन्न खण्डपट ( बड़े शानसे छोटे टुकड़े टुकड़े होने )की उत्पत्तिके विषयमें भी एक दो आदि तन्तुओंके संयोगका नाश ही कारण है; और खंडपटकी उत्पत्तिके विषयमें महापटका नाश कारण है; यह कल्पना तो अति गौरवकेलिये होगी इस प्रकार जानताहुआ भी लाघवप्रिय नैयायिक एकको आदि लेकर जितने तन्तुओंके संयोगके नाशके वह खंडपट उत्पन्न है; उन सब तंतुवोंके नाश और उत्पत्तिके सर्वथा भेदवासना कैसे देता है। क्योंकि उस नैयायिक मतका यह वचन है कि “जिस पक्षमें कल्पनाका गौरव है; उसको हम नहीं सहन करते (मानते ) और जिस पक्षमें कल्पनाका लाघव है; उसको सहन करते हैं ॥८॥ पुनस्तदेव कथयन्नाह । पुनः उसी विषयका प्रतिपादन करते हैं। पयोव्रतो न दध्यद्यान्न व दुग्धं दधिवतः । अगोरसवतो नोभे तेन स्याल्लक्षणत्रयम् ॥६॥ भावार्थ:-केवल दुग्धको खानेवाला दही नहीं खा सकता और दहीमात्रको खानेवाला दूध नहीं पीता तथा जो गोरसमात्रका त्यागी है; वह दुग्ध तथा दही इन दोनोंको नहीं खाता है; इस रीतिसे भी उत्पत्तिआदि त्रिविधलक्षणयुक्त वस्तु सिद्ध होता है ॥८॥ व्याख्या । पयोव्रतो दुग्धास्वादी दुग्धमेव व्रतनीयं भोक्तव्यमिति प्रतिज्ञापरः स पयोव्रत उच्यते । तत: पयोव्रतो दधि नाद्याधि न भुङ्क्त, दधिव्रतः पुनढुंग्छ नाद्यात, तस्य दधिमक्षण एवं प्रतिज्ञारूपो धर्म एवास्ति । वस्तुतस्तु "दुग्धपरिणाम्येव दध्यस्ति" इत्थं यद्यभेदकता कथ्यते तदा तु पयोव्रतस्य दध्यदनेऽपि व्रतमङ्गो न जातः पुनश्च दुग्धं दधि न भवति परिणामिद्रव्यत्त्वाद्भिन्नद्रव्यमेव । अभेदविवक्षया दुग्धमास्वादयतः दधिव्रतमङ्गो न जायते, दधि भुञानस्य दुग्धव्रतभङ्गोऽपि नैव संपद्यत इति । अथ गौरवसत्वेन द्वयोरप्यभेदोऽस्ति । अत्र दधित्वेनोत्पत्तिः दुग्धत्वेन नाशो गोरसत्वेन ध्रुवत्वं च प्रत्यक्षम् । एतदृष्टान्तेन सर्वजगतिमावानां लक्षणत्रययुक्तत्वं कथनीयम् । उक्त च "क्योवतो न दव्यत्ति न पयोऽत्ति Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् दधिवतः । अगोरसवतो नोभे तस्माद्वस्तुत्रयात्मकम् ॥१॥ अन्वयव्यतिरेकाभ्यां द्रव्यपर्यायौ सिद्धान्ताविरोधिनी सर्वत्रावतारणीयाविति । लक्षणत्रयं कथनीयम् । केचन भावा अन्वयिनः, केचन भावा व्यतिरेकिण:, एवमन्यदर्शनिनः कथयन्ति, तत्र त्वन्येषामपि भावानां निदर्शनं स्याद्वादव्युपत्त्या समञ्जसं स्यादिति । अन्यच्च वस्तुतः सत्ता विलक्षणरूपैवास्ति "उत्पादव्ययप्रौपयुक्त सत्" इति तत्त्वार्यसूत्रवचनात् । ततः सत्ता प्रत्यक्षं तदेव त्रिसक्षणं साक्षादस्ति । तथारूपेण सन्यवहारसाध्यानुमानादिकप्रमाणान्यप्यनुष्ठीयन्ते ॥९॥ व्याख्यार्थः-दूध ही सेवन करना चाहिये इस प्रकारकी प्रतिज्ञामें जो तत्पर हो उसे पयोव्रत कहते हैं; वह पयोत्रत अर्थात् दूधको खानेवाला पुरुष दही नहीं खाता है; और जो दहीको ही सेवन करनेवाला है; वह दुग्ध नहीं पीता है क्योंकि-उसको दहीका खाना ही प्रतिज्ञारूप धर्म है। अब यहां “परमार्थमें तो दूधका परिणामरूप ही दही है" इस प्रकार यदि दुग्ध दधिका अभेद कहते हो अर्थात् दूध दही एक ही है; ऐसा मानते हो तब तो दूध पीनेवालेके दहीके खानेसे भी व्रतका भंग नहीं होगा। और यदि परिणामी द्रव्य होनेसे दही दूध नहीं हो सकता ऐसा कहो तो इस भेद विवक्षासे दही दूधसे भिन्न द्रव्य है। भावार्थ-अभेदविवक्षासे दूध पीतेहुयेके दहोके व्रतका भंग नहीं होता है; और दही खातेहुये मनुष्यके दुग्धके व्रतका नाश भी नहीं होता है । और गोरसपनेसे दूध और दही इन दोनोंमें अभेद हो है; इसलिये जिसके गोरसका त्याग है; वह दूध और दही दोनोंका सेवन नहीं करता है । यहाँपर दहीपनेसे उत्पत्ति ( उत्पाद ) है; और दुग्धत्वरूपसे नाश है; तथा गोरसत्वरूपसे ध्रुवत्व प्रत्यक्षसे सिद्ध है । इसी प्रकार इस दृष्टान्तसे संपूर्ण संसारके पदार्थों में उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यस्वरूप त्रिलक्षण सहितता कहनी चाहिये। ऐसा कहा भी है; “पयोव्रत दधिका भोजन नहीं करता, दधिव्रत दुग्धका भोजन नहीं करता और गोरसका त्यागी दुग्ध दधि इन दोनोंको नहीं खाता इसलिये समस्त वस्तु तीन लक्षणोंका धारक है ॥१॥ और अन्वय तथा व्यतिरेकसे सिद्धान्तके अविरोधी द्रव्य तथा पर्यायकी अवतारण सर्वत्र करनी चाहिये इसलिये जहां द्रव्य पर्याय है; वहां उत्पत्तिआदि तीनों लक्षण कहने चाहिये। कितने ही पदार्थ अन्वयी हैं; और कितने ही पदार्थ व्यतिरेकके धारक हैं; ऐसा अन्य दर्शनवाले कहते हैं। और इस सिद्धान्तमें तो अन्य भी पदार्थोंका दृष्टान्त स्याद्वादकी व्युत्पत्तिसे ठीक हो सकता है। और वस्तुकी सत्ता भी विलक्षण रूप ही है; क्योंकि-उत्पाद व्यय तथा ध्रौव्यसे सहित जो होय सो सत् है; ऐसा तत्त्वार्थसूत्रका वचन है; इसलिये जो सत्ताका प्रत्यक्ष है; वही साक्षात् उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूप त्रिलक्षण है। ऐसी दशामें सद् इस व्यवहारसे साध्य अनुमानआदिक प्रमाणोंका भी अनुष्ठान किया जाता है ॥९॥ .. Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १४५ द्रव्यानुयोगतर्कणा उत्पन्नकलशे स्वार्थस्योत्पत्तिविगमौ कथम् । शृण्वाद्यौ मिश्रितौ ध्रौव्ये शक्त्या चानुगमाख्यया ॥१०॥ भावार्थः-उत्पन्न घटमें निजद्रव्यसंबन्धकी उत्पत्ति तथा नाश कैसे हो सकते हैं ? इस प्रश्नका उत्तर सुनो कि-उत्पत्ति तथा नाश यह दोनों एकतारूपशक्तिसे ध्रौव्यमें मिले हैं ॥ १०॥ व्याख्या। उत्पत्तिर्जाता यस्येत्युत्पन्नो घटस्तस्मिन्न त्पन्नघटे द्वितीयादिक्षणे स्वार्थस्य स्वद्रव्यसंबद्धज्योत्पत्तिनाशो कथं भवतो यतो हेतोः प्रथमक्षणसंबन्धरूपोतरपर्यायोत्पत्तिरस्ति सैव पूर्वपर्यायनाशता इत्थं युष्माभिः पुरा स्थापितमस्ति ? इत्येतत्प्रश्नः शिष्येण कृतस्तदा गुरुः कथयति । हे शिष्य ? शृणु। तद्यथाप्रथमक्षणे जातावुत्पत्तिविनाशो ध्रौव्ये मिश्रितो मिलितावनुगमाख्यया शक्त्यैकतालक्षणया शक्त्या नित्यो स्तः । असत्यप्याद्य क्षण उपलक्षणीभूय आगामिनि क्षणे द्रव्यरूपेण तत्संबन्धतामनुभवतः । उत्पन्नो घटो नष्टो घट इति सर्वप्रयोगात् । अथ चेदानीमुत्पन्नो नष्ट इत्येवं प्रतिपाद्यते तदा त्वेतत्क्षणविशिष्टता उत्पत्तिनाशयोरेवास्ति तच्च द्वितीयादिक्षणे नास्ति । अतो द्वितीयादिक्षण इदमुत्पन्न मित्यादिप्रयोगोऽपि न स्यात् । घट इति शब्देनेह द्रव्यार्थादेशेन मृदव्यं ग्राह्यम् । तत उत्पत्तिनाशाधारता सामान्यरूपेण तत्प्रतियोगिता विशेषरूपेण च कथनीयेति भावः ॥१०॥ व्याख्यार्थः-जिसकी उत्पत्ति होगई है; ऐसा जो घट है; उस उत्पन्न घटमें उत्पत्ति के द्वितीयआदि क्षणमें स्वार्थ के अर्थात् निजघटरूप द्रव्य के संबन्धके उत्पत्ति नाश कैसे होते हैं; क्योंकि-प्रथमक्षणसंबन्धरूप उत्तर पर्यायकी जो उत्पत्ति है; वही पूर्वपर्यायकी नाशता है; ऐसा आप पूर्व प्रसंगमें स्थापित कर चुके हैं ? ऐसा प्रश्न शिष्यने किया उसपर गुरु उत्तर देते हैं; कि-हे शिष्य ? उत्तर सुनो-वह उत्तर इस प्रकार है; कि-प्रथम क्षगमें जो उत्पत्ति विनाश हुये हैं; वह अनुगमानामिका अर्थात् एकतास्वरूप शक्तिसे धोव्यमें मिले हुये हैं; और नित्य हैं, तथा प्रथम क्षणके न होनेपर भी उत्पत्ति और नाश दोको उपलक्षणीभूत होकर आगामी क्षणमें द्रव्यरूपसे उसकी संबन्धताका अनुभव करते हैं। क्योंकि"उत्पन्नो घटः, नष्टो घटः" "घट उत्पन्न हुआ, घट नष्ट हुआ" इत्यादि प्रयोग सवत्र देखा हैं। और यदि ऐसा कहते हो कि-'इस समय घट उत्पन्न हुआ, इस समय नष्ट हुआ तब तो उत्पत्ति और नाशके इस (प्रथम) क्षणकी विशिष्टता ही होगई क्योंकि-वह उत्पत्ति नाशकी विशिष्टता द्वितीयआदि झगमें नहीं है; इसलिये द्वितीयआदि क्षणमें "यह उत्पन्न हुआ" इत्यादि प्रयोग भी न होगा. तथा घट इस शब्दसे यहांपर द्रव्यार्थके आदेशसे मृत्तिकारूप द्रव्यका ग्रहण करना योग्य है। इससे मृत्तिका सामान्यरूपसे घटकी उत्पत्ति तथा नाशका आधार है; और विशेष (घट )रूपसे उत्पन्न हुआ तथा नष्ट हुआ ऐसा प्रयोग भी होता है; ऐसा कथन करना योग्य है ॥ १०॥ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ ] ___ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् उत्पत्तेरपि नाशस्यानुगमे पर्ययार्थतः । भूतादिप्रत्ययोद्धानं घटते समयप्रमम् ॥ ११॥ भावार्थ-उत्पत्ति तथा नाशकी ऋजुसूत्रादि पर्यायार्थिकनयसे एकता माननेपर भूतआदि प्रत्ययका भान समयप्रमाण निश्चयनयसे घटित होता है ॥ ११ ॥ व्याख्या । उत्पत्तेरपि पुनर्नाशस्य चानुगमे एकतायां पर्ययार्थतः ऋजुसूत्रादेः सकाशाद् भूतादिप्रत्ययोद्भानं समयप्रमं घटत इति यतो निश्चयनयात् “कजमाणे कडे” एतद्वचनमनुसृत्योत्पद्यमान उत्पन्न एवं यदि कथ्यते परन्तु व्यवहारनयादुत्पद्यते, उत्पन्नः, उत्पत्स्यते, नश्यति, नष्टं, नङ्क्षयति । एतद्विभक्त्या कालत्रयप्रयोगोऽस्ति । स प्रतिक्षणपर्यायोत्पत्तिनाशनयवादी ऋजुसूत्रनयस्तेनानुगृहीतो यो व्यवहारनयस्तमनुगृह्य कथ्यते । कथं तहजुसूत्रनयस्तु समयप्रमाणं वस्तु मनुते तत्र यो पर्यायस्य वर्तमानावुत्पत्तिनाशी विवक्षिती तावेव गृहीत्वोत्पद्यते नश्यतीति कथनीयम । वर्तमाने यदतीतत्वं तद्गृहीत्वोत्पन्ननष्ट इति कथ्यते । अत्रैव तदतीतं तदनागतमिव विचिन्त्योत्पत्स्यते नश्यत्येवं कथ्यते । इतीयमनागते व्यवस्था सर्वापि स्याच्छब्दप्रयोगेण संभवेदिति ॥ ११ ॥ व्याख्यार्थः-उत्पत्ति तथा नाश इन दोनोंकी एकतामें पर्यायार्थिक जो ऋजुसूत्र आदि नय हैं; उनसे भूतआदि प्रतीतिका ज्ञान समयप्रमाण घटता है; क्योंकि-निश्चयनयसे "कज्जमाणे कड़े" ( जो भविष्यत्में कट अर्थात् चटाई बनेगी उसमें ) इस वचनका अनुसरण करके उत्पन्न होनेवाले घटमें उत्पन्न हुआ ऐसा यद्यपि कहा जाता है; परन्तु व्यवहारनयसे "उत्पन्न होता है; उत्पन्न हुआ और उत्पन्न होगा तथा नष्ट होता है, नष्ट हुआ और नष्ट होगा इस विभक्तिसे जो कालत्रय( तीनकाल)का प्रयोग है; वह प्रयोग प्रतिक्षणमें पर्यायोंकी उत्पत्ति तथा नाशरूप मतको कहनेवाला जो ऋजुसूत्र नय है; उससे अनुगृहीत ( प्राप्त ) जो व्यवहार है; उस व्यवहारनयको ग्रहण करके कहा जाता है; यह कैसे कि-ऋजुसूत्रनय तो समय प्रमाण वस्तुको मानता है; उसमें जो पर्यायके वर्तमान उत्पत्ति तथा नाश विवक्षित हैं; उन्हींको लेके उत्पन्न होता है; नष्ट होता है; ऐसा कथन करना योग्य है । और वर्तमान पर्यायमें जो भूतत्व है; उसको लेकर उत्पन्न हुआ नष्ट हुआ ऐसा कथन होता है; और उसीमें जो भूतत्व है; उसको अनागत ( भविष्य )की तरह विचार कर उत्पन्न होगा नष्ट होगा ऐसा कथन किया जाता है; तात्पर्य यह कि वर्तमानकाल ही भूतकी अपेक्षासे भविष्य है; आगामी कालकी अपेक्षासे वही भूत है; और वर्तमान तो वह स्वयं है; एवं एक कालमें ही सर्वत्र तीनों कालका भी व्यवहार हो सकता है । इसी प्रकारसे अनागत कालमें भी यह सब व्यवस्था स्यात् शब्दके प्रयोगसे संभवती है; अर्थात् कथंचित् ( किसी अपेक्षासे ) भूतकाल इत्यादि कथन युक्त है; क्योंकि सभी कालमें सब कालका व्यवहार हो सकता है ॥ ११ ॥ . Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा त्पत्तिविशिष्टस्य व्यवहारो व्ययस्य चेत् । नाशनिष्ठोद्भवं तत्र व्यवहारेऽप्युरीकुरु ॥१२॥ भावार्थ:-यदि उत्पत्तिसहित नाशका व्यवहार होता है; तो उस व्यवहार में नाशनिष्ठ उत्पत्ति होती है; ऐसा मानो ॥ १२ ॥ [ १४७ व्याख्या । यद्यु ुत्पत्तिविशिष्टस्य व्ययस्य व्यवहारोऽस्ति चेत्तदा व्यवहारेऽपि तत्र नाशनिष्ठोद्भवमसद्विशिष्टमुत्पत्तित्वमुरीकुरु इति । भावार्थस्त्वयं यद्य त्पत्तिधारानाशविषये भूतादिप्रत्ययो न कथ्यते अथ च नश्धातोरर्थे नाशोत्पत्तिद्वयं गृहीत्वा तदुत्पत्तिकालत्रयस्यान्वयसंमवश्व कथ्यते । एवं च कथयतां नश्यत्समयेन नष्ट इत्ययं प्रयोगो नो जायते तत्कथं तस्मिन्काले नाशोत्पत्त्योरतीतत्वं नास्तीत्येवं समर्थता व्यवहारस्य यदि क्रियते भवद्भिस्तदा व्यवहार उत्पत्तिक्षणसंबंधमात्रमेव कथयत । तत्र प्रागभावध्वं मता कालत्रयरूपात् कालत्रय - स्यान्वयसमर्थेनं कुरुत । अथ च यद्य ेवं विचारयिष्यथ घटस्य वर्त्तमानत्वादिकेऽपि नाशवर्तमानत्वादिकेऽपि नाशवर्त्तमानादि व्यवहारो न जायते । किञ्च कियानिष्ठापरिणामरूपवर्त्तमानत्वमतीतं गृहीत्वा नश्यति नष्ट उत्पन्न एतद्विभक्तिव्यवहारसमर्थनं करणीयम् । अतएव क्रियाकालयोगपद्यविवक्षया उत्पद्यमान उत्पन्नः विगच्छद्विगतमित्यनया दिशा सैद्धान्तिक प्रयोगः संभवेत् । परमते त्विदानीं ध्वस्तो घट इति आद्यक्षणो व्यवहारः सर्वथा न घटमाटीकते, नयभेदे तु संभवेत, यथात्रास्मकं संमतिः । स्वाधिकरण क्षण त्वव्यापकस्वाशिकरणक्षण ध्वं साधिकरणादिकत्वमनुत्पन्नत्वम्, "उपजमाणकालं उपरणंति विगयं विगच्छं । भेदवियं पनवंतो तिकालविसयं विसेसेइ ॥ १२ ॥ व्याख्यार्थः– यदि उत्पत्तिसहित नाशका व्यवहार होता है; तो उसी व्यवहार में नाशनिष्ठ जो उद्भव ( उत्पत्ति ) है; अर्थात् असद्विशिष्ट जो उत्पत्ति है; उसको स्वीकार करो । भावार्थ यह है; कि - उत्पत्ति धारारूप नाशविषय में भूतकालादि प्रत्यय ( अनुभव ) नहीं कहते हो और नश धातुके अर्थ में नाश तथा उत्पत्ति दोनोंका ग्रहण करके उस नाकी उत्पत्ति कालत्रयके साथ अन्वय ( सत्व ) का संभव कहते हो तब ऐसा कहनेवालोंको नाश होते हुये समयके साथ नष्ट हुआ ऐसा प्रयोग नहीं होता । क्योंकि - उस काल में नाश तथा उत्पत्तिकी अतीतकालता नहीं है; ऐसी समर्थता यदि आप व्यवहारकी करते हो तो व्यवहार में उत्पत्ति क्षणकी संबन्धमात्रा ही कहो | तब वहांपर प्रागभावध्वंसता कालत्रयरूपसे कालत्रयके अन्वय ( सत्व ) का समर्थन करते हो । और यदि ऐसा विचार करते हो कि घटके वर्त्तमानत्वादिमें नाशके वर्त्तमानत्वादिका व्यवहार नहीं होता किन्तु क्रियानिष्ठ जो अपरिणामरूप वर्त्तमानत्व तथा तत्व है उसको लेकर नष्ट होता है, नष्ट हुआ, तथा उत्पन्न होता है; उत्पन्न हुआ इस रीति से इस नश धातुके आगे वर्त्तमानके तथा भूत कालके प्रत्ययोंको व्यवहारका समर्थन करना चाहिये । इसीसे अर्थात् एक कालमें दूसरे कालकी अपेक्षासे भूत कालादि मान कर Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ही क्रियामें कालके एक ही समयमें विवक्षासे उत्पन्न हो रहा है, उत्पन्न हुआ, नष्ट हो रहा है; तथा नष्ट हुआ इत्यादि व्यवहार है; इसी पूर्वोक्त रीतिसे सिद्धान्त मतमें भूतकालादि प्रयोगकी संभावना हो सकती है। और अन्यके मतमें तो इस समय यह घट नष्ट हुआ यह व्यवहार प्रथम क्षणमें सर्वथा नहीं हो सकता क्योंकि-अभी (प्रथम क्षणमें ) नश्यमान क्रिया हो रही है, तब उस नाशानुकूल क्रियाका भूतकाल कैसे बोधित हो सकता है । और नयका भेद माननेसे तो हो सकता है; अर्थात् भविष्य कालकी अपेक्षासे उसीमें भूतत्वके आरोपसे नश धातुके भूतकालके प्रयोगमें कोई अनुपपत्ति नहीं है। यहांपर हमारी संमति ऐसी है, कि-स्वकीय अधिकरणीभूत जो क्षण उस क्षणका व्यापक तथा स्वके अधिकरणमें जो ध्वंसक्षणकी अधिकरणता तादृश अधिकरणत्वरूप ही अनुत्पन्नत्व है। यहांपर स्वशब्दसे नश्यमानानुकूल क्रियाका ग्रहण है; अतः जिस समयमें नश्यमानरूप क्रिया हो रही है; उस क्षणकी तो अनुत्पत्तिव्यापिका है; और उसी क्रियाका अधिकरणीभूत जो ध्वंस है; उसके अधिकरणका भी क्षण है; क्योंकि-उसी क्षणमें ध्वंसानुकूल क्रिया भी हो रही है; अत एव स्वाधिकरणक्षणत्वव्यापक तथा स्वाधिकरणीभूत ध्वंसाधिकरणत्व स्वरूपता अनुत्पन्नत्वमें चली गई। यही विषय इस गाथामें कहा है; जैसे उत्पद्यमान काल में उत्पन्न होता है; उत्पन्न हुआ नष्ट होता है; ऐसे दो भेद कहे हुये त्रिकाल विषयको विशेषित करते हैं ॥१२॥ उत्पत्तिर्न भवेदने तदोत्पन्नं च तद्भवेत् । यथा नाशं विना नष्टं प्रथमं किं न रोचते ॥ १३ ॥ भावार्थ:-प्रथम द्वितीयआदि क्षणमें उत्पत्ति नहीं हुई और उत्पन्न हुआ ऐसा व्यवहार यदि तुम भविष्यकी अपेक्षासे मानते हो तो नाशके विना भी नष्ट हुआ यह व्यवहार तुमको क्यों नहीं रुचता ॥ १३ ॥ व्याख्या। उत्पत्तीति-यदा अग्रे द्वितीयादिक्षणे उत्पत्तिर्न भवेत्तदा तबटादिकं द्वितीयादिक्षणेऽनुत्पन्नत्वं भवेत् । यथा च प्रथमध्वंसेन नाशेन विना अनष्टमविनष्ट यदि कथ्यते। इत्ययं तर्कस्तव किं न रोचते । यस्मात्प्रतिक्षणोत्पादनाशी परिणामद्वारा माननीयौ। अथ च द्रव्यार्थादेशेन द्वितीयादिक्षणे या त्पत्तिव्यवहारः कथ्यते तदा नाशव्यवहारोऽपि तथा भवितु युज्यते। तथा च क्षणान्तर्भावेन द्वितीयादिक्षण उत्पत्तिरपि प्रापयितु युक्ता भवेत्, अकल्पिता अनुत्पन्नता न भवेत् । तथापि प्रतिक्षणमुत्पत्ति विना परमार्थतोऽनुत्पन्नतार्थता युज्यत इत्यर्थः ॥ १३ ॥ ___व्याख्यार्थः--यदि द्वितीयादि क्षणमें उत्पत्ति नहीं होती तो वह घटआदि उस द्वितीयआदि क्षणमें अनुत्पन्न होते हैं; और जैसे नाशके विना अनष्ट हुआ ऐसा यदि कहा जाय तो यह तर्क तुमको क्यों नहीं रुचता। क्योंकि--प्रतिक्षगमें उत्पाद नाश परि Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ १४९ णामके द्वारा मानने योग्य हैं । और यदि द्वितीयआदि क्षणमें द्रव्यार्थादेशकी अपेक्षासे उत्पत्ति के विना ही उत्पत्तिका व्यवहार तुम कहते हो तब नाशके विना नाश व्यवहार भी होना योग्य है; और उसी रीतिसे क्षणके अन्तर्भावसे द्वितीयआदि क्षण में उत्पत्ति भी प्राप्त करने योग्य है; और कल्पनारहित अनुत्पन्नता भी नहीं हो सकती । यद्यपि यह कल्पनासे अनुत्पत्तिदशा में भी क्षणकी अपेक्षासे उत्पन्नता मानी है । तथापि प्रतिक्षण उत्पत्तिके विना परमार्थ में तो अनुत्पन्नता ही युक्त है ॥ १३ ॥ संमतौ संहननादि भवभावाच्च केवलम् । प्रयाति सिद्धयतो ज्ञानं मोक्षसंप्राप्तिजे क्षणे ॥१४॥ भावार्थ:-संमति ग्रन्थमें भी यही उपदेश है; कि संहनन आदिभवस्थ भावसे अष्ट कमका नाश करते हुए जीवके मोक्ष प्राप्त होने के समयमें केवलज्ञान चला जाता है; अर्थात् भवस्थ केवलपर्यायसे केवलका नाश हो जाता है ॥ १४ ॥ व्याख्या । एवं परिणामतः सर्वद्रव्याणां त्रिलक्षणयोगः समर्थित इत्यनेनैवाभिप्रायेण संमति ग्रन्थमध्येऽयं भाव उपदिष्टः, यतः संहननादिभवभावात सिद्धयतः कर्माष्टकं क्षपयतो जन्तोर्मोक्षसमये केवलज्ञानं प्रयाति भवस्थ केवल पर्यायेण केवलस्य नाशः स्यात् । अयमर्थे मानस्तस्मिन् सिद्धत्वे सिद्ध केवलज्ञानत्व उत्पद्यते सैव केवलज्ञानत्वे ध्रुवोऽस्ति भाव: । यतो मोक्षगमनसमयेऽपि ये व्ययोत्पत्ती जायेते तत्परिणतसिद्धद्रव्यानुगमतः शिवेऽपि लक्षणत्रयमाविर्भवति । तथा च तस्य भावस्य भावार्थज्ञानाय गाथामाह । "तेसं धपणाईया भवच्छ केवल विशेशपज्जाया । ते सिज्जमाणसमयेण होइ विगयंतउ होइ । १ । सिद्धत्तणेणय पुणो उप्पण्णा एस अत्थपज्जाओ । केवलभावं तु पडुच्चकेवलदाइयं सुत्ते । २ ।" एतद्भावापेक्षयैव "केवलनाणे पुवि दे पन्नत्ते भवच्छकेवलनाणेय सिद्धकेवलनाणेय" इत्यादिसूत्र उपदेशोऽस्ति । इत्थं च स्थूलव्यवहारनयेन सिद्धविषयेऽप्यागतम्, परन्तु सूक्ष्मनयेन नागतं यतः कारणात् सूक्ष्मनया ऋजुसूत्रादयः समयं समयमुत्पादव्ययशालिनः सन्ति ततस्तान, गृहीत्वा तथा द्रव्यार्थादेशस्यानुगमं च गृहीत्वा यत्सिद्धकेवलज्ञानमध्ये गैलक्षण्यं समस्ति तदेव सूक्ष्मं ज्ञेयमित्येवं विचायं पक्षान्तरं द्योतयति किं तर्हि मोक्षे त्रिलक्षणता भवति या सा सिद्धद्रव्यानुगमात्, यत्कैवल्यं पुरा भवस्थभावेस्थितं तदेव सिद्धत्वे कैवल्यमस्ति भवस्थपर्यायव्ययस्तत्सन्निधानाम्मोक्ष संज्ञोत्पत्तिरुभयत्र कर्मवियोगजन्यं केवलं ध्रुवम्, एतल्लक्षणत्रयं मोक्षेऽपि ज्ञेयमिति । भावार्थस्त्वयम् ये च संहननादयो भवस्थकेवल विशेषपर्यायास्ते च पर्यायाः सिद्धघतो भगवतस्तत्समये सिद्धयमानसमये न भवन्त्यतस्तेषां विगमे व्ययो भवति । तथा पुनः सिद्धत्वेन यो मोक्षलक्षणोऽर्थ पर्याय उत्पन्नोऽतस्तदुत्पत्तौ सत्यामुत्पत्तिर्भवति । पुनश्च केवलभावं प्रतीत्योभयत्र ध्रुवत्वमत्र्याहतम् । कथं तद्भवस्यजन्तोः घातिकर्मापगमे केवलज्ञानमुत्पन्नं तस्मिश्च सति सिद्धयतः संहननादि विगतं तदपेक्षो व्ययः, सिद्धत्वमुत्पन्नं तदपेक्षोत्पत्तिः पूर्वप्रसूत केवलपर्यायस्य ध्रुवत्वाद् ध्रौव्यम् । इत्थं लक्षणत्रयं मोक्षेऽपि समस्तीति ॥ १४ ॥ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् व्याख्यार्थः--इस प्रकार प्रतिक्षणके परिणामसे संपूर्ण द्रव्यों में त्रिविध लक्षणका योग सिद्ध किया गया; इसी अभिप्रायसे संमति ग्रंथमें भी इसी भावका उपदेश किया गया है। क्योंकि-संहननआदि भवके भावसे सिद्ध होते हुए अर्थात् अष्टविध कर्मोंका क्षय करते हुये जीवके मोक्षसमयमें केवल ( केवलज्ञान ) जाता है; अर्थात् भवस्थ जो केवल पर्याय है; उससे केवलज्ञानका नाश होता है; यह अर्थ मान अर्थात् प्रमाण है; इसके सिद्ध होनेपर सिद्ध केवलज्ञान उत्पन्न होता है; और केवलज्ञानपनेमें वही ध्रुवभाव अर्थात् नित्यपना है। क्योंकि-मोक्ष जानेके समय में भी व्यय तथा उत्पाद होते हैं; और उस असिद्ध द्रव्यसे परिणत सिद्ध द्रव्यका जो अनुगम ( ज्ञान ) होता है; इससे मोक्षमें भी तीन लक्षण प्रकट होते हैं । और इसी भावके भावार्थ बोधनकेलिये गाथाको कहते हैं। जैसे “जो संहननआदि भवस्थ केवल विशेषके पर्याय हैं; वह सिद्धदशाको प्राप्त होते हुये जीवके नहीं होते इसलिये उसका व्यय होता है; और सिद्धत्वसे जो यह अर्थ पर्याय उत्पन्न हुआ है; उससे सिद्ध केवलज्ञानकी उत्पत्ति है; क्योंकि-सूत्रमें कहा है; कि-केवल भाव तो नष्ट होकर बदले में केवलज्ञानको ही देता है; अर्थात् उत्पन्न करता है ॥ २ ॥" और इसी भावकी अपेक्षासे “केवलज्ञान दो प्रकारके जानने एक भवस्थ केवलज्ञान और एक सिद्ध केवलज्ञान" इत्यादि सूत्रमें उपदेश है । और इस प्रकार स्थूलव्यवहारनयसे सिद्धोंमें भी त्रिविधलक्षणयुक्तता का आगमन हुआ परन्तु सूक्ष्म नयसे सिद्ध पर्यायमें त्रैलक्षण्य नहीं आया क्योंकि-ऋजुसूत्रआदि जो सूक्ष्मनय हैं; वह समय समयमें उत्पाद तथा व्ययको धारण करते हैं; इसलिये उन प्रतिक्षणके उत्पादादिको लेकर तथा द्रव्यार्थिकनयसे पूर्वोत्तर पर्याय में द्रव्यत्वरूपसे उत्पत्ति तथा नाशकी एकताको ग्रहण करके जो सिद्ध पर्यायके साथ केवलज्ञान है; उसमें त्रिविध लक्षणकी संगति भले प्रकार होती है और इसीको सूक्ष्मता जाननो चाहिये ऐसा विचारकर अब दूसरे पक्षको प्रकट करते हैं, वह क्या है, सो निरूपण करते हैं, कि-मोक्ष में जो उत्पत्तिआदि त्रिविध लक्षणता होती है, वह सिद्ध द्रव्यकी एकताके अनुगमसे होती है; जो कैवल्य पहले भवस्थ भावमें स्थित था वही सिद्धत्वदशामें कैवल्य है, भवस्थ पर्यायका तो नाश होता है, और उस भवस्थ पर्यायके नाशके सन्निधानसे मोक्षसंज्ञक पर्यायकी उत्पत्ति होती है, और पूर्व भवस्थपर्याय तया उत्तर सिद्ध पर्याय इन दोनों दशाओंमें कर्मोंके वियोगसे उत्पन्न जो केवलज्ञान है, वह ध्रुव है, इस कारण यह तीनों लक्षण मोक्षमें भी जानने चाहिये । भावार्थ तो यह है, कि-जो संहननादि भवस्थ केवल विशेषके पर्याय हैं, वह पर्याय सिद्ध दशाको प्राप्त होते हुए जो भगवान् हैं, उनके सिद्धयमान समयमें नहीं होते हैं, इसलिये उनके चले जानेसे तो व्यय होता है, और सिद्धत्वरूपसे जो मोक्षलक्षण अर्थ पर्याय उत्पन्न हुआ है, इस कारण उसकी उत्पत्ति होनेपर सिद्धत्वपर्यायकी उत्पत्ति होती Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ १५१ है; और दोनों दशामें केवलज्ञानपना प्रतीत होता है; इसलिये ध्रुवत्व अव्याहत है । वह किस प्रकार से ? कि - मोक्षके पूर्वभवस्थ जीवके चार घातिया कर्मोंका नाश होनेपर जो केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है; उससे उत्पन्न होनेपर सिद्ध दशाको प्राप्त हुये जीवके संहननादिका अभाव होगया उसकी अपेक्षा तो व्यय है; और सिद्धत्व उत्पन्न हुआ उसकी अपेक्षासे उत्पाद है; तथा पूर्व संसारदशा में उत्पन्न जो केवल पर्याय है; उसका नाश न होने से धौव्य है । इस प्रकार उत्पाद, व्यय, और धौव्यस्वरूप तीनों लक्षण मोक्षदशामें भी पूर्णतया हैं ॥ १४ ॥ तदुपरि श्लोकमाह । इसी विषयको आगे के श्लोकसे सिद्ध करते हैं । तत्सिद्धत्वे पुनश्चेति कैवल्यं यत्पुरास्थितम् । व्ययोत्पत्यैकतो नित्यं पक्षे स्याल्लक्षणत्रयम् ॥ १५ ॥ भावार्थ:- पूर्व भवमें जो कैवल्य स्थित था वह पूर्वभवस्थ पर्यायकी अपेक्षासे सिद्ध अवस्था में भी होता है; इसलिये व्यय तथा उत्पाद है; और व्ययोत्पत्तिकी एकतासे नित्य है; ऐसे मोक्षमें तीन लक्षण होते हैं ।। १५ ।। व्याख्या । यत्पुरास्थितं कैवल्यं मवस्थपर्यायापेक्षि तत्सिद्धत्वेऽपि सिद्धावस्थायामपि । क्षीणे भवस्थ उत्पन्ने सिद्धत्वे व्ययोत्पत्ती स्याताम् । पुनर्नित्यं धौव्यं कुतो व्ययोत्पत्त्यैकतो व्ययश्चोत्पत्तिश्च व्ययोत्पत्ती तयोरैक्यं ध्रौव्यं तस्मान्द्ययोत्पत्त्यैकतो नित्यं ध्रौव्यं केवलम् । एवं मोक्षे लक्षणत्रयं स्यात्काल्पनिकमेवेदं भावानां विमर्शना बहुप्रकारा । अत एव " उप्पन्न वा विगमे वा ध्रुवे वा इति योजना ।। १५ । व्याख्यार्थः – जो भवस्थपर्यायकी अपेक्षाका धारक केवलज्ञान पहले भवस्थ दशामें स्थित था वह सिद्धावस्थामें भी होता है । यहां भवस्थके क्षीण होनेपर तथा सिद्धत्वके उत्पन्न होनेपर व्यय तथा उत्पाद होता है । और नित्य अर्थात् ध्रुवपना कहांसे हुआ ? इसका उत्तर यह है; कि-व्यय और उत्पत्ति इन दोनोंकी जो एकता है; उससे केवल ज्ञान ध्रुव है; इस रीति से मोक्षमें लक्षणत्रय संगत होते हैं; परन्तु यह लक्षणत्रय काल्पनिक ही हैं; क्योंकि — पदार्थोंके विचार करने के अनेक प्रकार हैं। इसी कारण "उप्पन्ने वा, विगमे वा ध्रुवे वा " कथंचित् उत्पन्न होता है, कथंचित् नष्ट होता है, और कथंचित् ध्रुव है; इत्यादि वाक्योंकी योजना होती है; अर्थात् यह उत्पादआदि किसी अपेक्षासे निरूपित होते हैं ।। १५ ।। ज्ञानाद्या निजपर्याया ज्ञेयाकारेण ये स्थिताः । व्यतिरेकेण ते चैवं सिद्धस्य स्युस्त्रिलक्षणाः ॥ १६ ॥ ज्ञेयके केवलदर्शन आदि निजपर्याय भावार्थ:- जो केवलज्ञान आकारसे Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशाखमालायाम् स्थित हैं, वह प्रतिक्षण सिद्धके अन्य अन्य होते रहते हैं, इस हेतुसे तीन लक्षणों के धारक हैं ।। १६ ।। व्याख्या । ज्ञानाद्याः केवलज्ञानकेवलदर्शनादयो निजपर्याया ज्ञेयाकारेण वर्तमानादिविषयाकारेण स्थिताः परिणताः सन्ति । ते च निजपर्याया व्यतिरेकेग प्रतिक्षणमन्योन्यत्वेन सिद्धस्य मुक्तस्य एवमनया दिशापि त्रिलक्षणा लक्षण त्रयवन्तः स्युर्भवन्ति । तद्यथा प्रथमादिसमयेषु वर्तमानाकारेण सन्ति ये पर्यायास्तेषाँ पुनद्वितीयादिसमयेषु नाशः पुनरतीताकारेणोत्पादाकारमावो भवेदिति । पुनः केवलजानदर्शनमावेनाथवा केवलमात्रमावेन ध्रुवत्वमित्थं भाव त्रयमावना कर्तव्या । इत्थमेव ज्ञेयदृश्याकारसंबन्धेन केवलस्थ लक्षण्यं कथितम् ।। १६॥ व्याख्यार्थः-जो केवलज्ञान केवलदर्शन आदि निजपर्याय ज्ञेयाकारसे अर्थात् वर्तमानआदि विषयों के आकारसे परिणत हैं; वह निजपर्याय व्यतिरेकसे अर्थात् प्रतिक्षण में अन्य २ पनेसे सिद्ध अर्थात् मुक्त जीवके हैं। इस प्रकारसे भी वह ज्ञानादि पर्याय तीन लक्षणोंके धारक हैं; वह इस प्रकार कि प्रथमआदि क्षणमें जो पर्याय वर्तमान आकारसे स्थित हैं; उनका फिर द्वितीयआदि क्षणोंमें नाश होगा और भूत आकारसे उत्पादका आकारत्व होगा । और केवलज्ञान तथा केवलदर्शनरूपसे अथवा केवलमात्र भाव से उनमें ध्रुवत्व है, इस प्रकार केवलज्ञानादि पर्यायोंमें उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य इन तीनों भावोंका विचार करना चाहिये। ऐसे ज्ञेय (जानने योग्य पदार्थ) और दृश्य (देखने योग्य पदार्थ) के आकारके संबंधसे केवलके त्रिलक्षणताका कथन किया है ॥ १६ ॥ तथा सिद्धादिशुद्धद्रव्यस्य कालसंबंधात्रलक्षण्यं कथयन्नाह । अब इसी प्रकार सिद्धआदि शुद्ध द्रव्यके भी कालके संबन्धसे त्रिविधलक्षणता दर्शाते हुए यह सूत्र कहते हैं । एवं ये क्षणसंबन्धे वर्त्तयन्ति पदार्थकाः । तेभ्यस्त्रिलक्षणत्वं च, अन्यथा स्युरभावकाः ॥१७॥ भावार्थ:-ऐसे ही जो पदार्थ क्षणके संबंधसे पर्यायोंको प्रवर्तित करते हैं, वह उन्हीं भावोंसे त्रिविधलक्षणयुक्त हैं, यदि ऐसा न माना जाय तो वह अभावरूप ही होंगे ॥ १७॥ व्याख्या। एवं ये पदार्थका मावा: क्षणसंबन्धेऽपि पर्यायतो वर्त्तयन्ति परिणामयन्ति । तेभ्यो भावेम्यस्त्रिलक्षणत्वं संभवेत् । अन्यथा वैपरोत्येन अमावका अभावाः स्युरित्यर्थः । यथा हि द्वितीयक्षणे इति भावे इति । आद्यक्षणे संबंधपरिणामनाशो प्राप्तः, द्वितीयक्षणसंबन्धेन परिणामादुत्पन्नः, क्षणसंबन्धमाशेण ध्र वस्ततः कालसंबन्धाशैलक्षण्यासंमव उक्तः । न चेदेवं तर्हि वस्तु अवस्तु भवेत् । उत्पादव्ययध्रौव्ययोगजमावलक्षणमस्ति तदाहित्ये शशविषाणादिवदभावरूपतामासादयेत ॥ १७॥ . Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ १५३ व्याख्यार्थः-इस प्रकारसे जो पदार्थ अर्थात् भाव क्षणके संबन्धमें भी पर्यायसे परिणमनको प्राप्त होते हैं; वह उन्हीं भावोंसे त्रिविधलक्षणसहित संभवे हैं । और यदि इसके विपरीत मानो अर्थात् उक्त सिद्धादि भावोंको त्रिविधलक्षणसंपन्न न मानो तो वह अभावस्वरूप ही हो जायेंगे । यह श्लोकका अक्षरार्थ है। अब इसका विशेष निरूपण इस प्रकार है; जैसे श्लोकमें क्षण यह जो पद है; उससे द्वितीयआदि क्षणका ग्रहण है । प्रथम क्षणमें भावोंके साथ संबन्धसे परिणामका नाश प्राप्त हुआ और द्वितीय क्षणके संबन्धसे परिणाम उत्पन्न हुआ और दोनों क्षणके संबंधमात्रसे ध्रुवत्व है। इस प्रकार कालके संबंधसे त्रिविधलक्षणका संभव कहा गया । और यदि ऐसा न हो तो वस्तु (पदार्थ ) अवस्तु हो जायगा; क्योंकि-उत्पाद व्यय और धौव्य संबन्धजन्यता ही भाव (पदार्थ )का लक्षण है; और उस त्रिविधलक्षण संबंधके अभावमें तो पदार्थ शशविषाण (खरगोशके सींग )आदिके समान अभावरूपताको प्राप्त होगा ॥ १७ ॥ एकदा निजपर्याये बहुसंबंधरूपता । उत्पत्तिनाशयोरेवं संभवेनियता ध्रुवे ॥ १८ ॥ भावार्थः-एक कालमें निजपर्यायमें उत्पत्ति, नाश तथा ध्रुवके विषयमें अनेक संबन्धाकारता निश्चित रूपसे संभवती है ॥ १८॥ व्याख्या । एकस्मिन्काल एवमनया दिशा निजपर्याये जीवपुद्गलयोस्तथा परपर्याये आकाशधर्मास्तिकायाधर्मास्तिकायानामेतेषां द्रव्याणामुत्पत्तिनाशयोध्रुवे बहुसंबन्धरूपता अनेकयोगाकारता नियता निश्चिता संभवेत् । यतश्च यावन्तो जिनपर्यायाः स्वपर्यायास्तावन्त उत्पत्तिनाशाश्च जायन्ते । ततश्च नियता नियामकता ध्रुवे ध्रौव्यस्वरूपे यावन्तो ध्रुवस्वमावास्तावन्तो नियताकाराः सन्ति । तथा च पूर्वापरपर्यायानुगत आधारांशस्तावन्मात्र एव भवेत् । तस्मादत्र संमतिः। तथा च तद्गाथा -एगसमयंमि एगो दवियस्स. बहयावि होंति उप्पायाः उप्पापसम विगमा ठिइयउस्सुगाओ नियमा । १। एकस्मिन्समये एकैकस्य द्रव्यस्य बहवोऽनेके उत्पादा उत्पत्तयो भवन्ति । तथा पुनरुत्पादसमानास्तत्त ल्यानाशपर्याया अपि ज्ञेयाः । इति व्यवहारमार्गः । उत्सर्गतो विशेषमावतः स्थिति: स्थिय नियता निश्चिता अस्ति। ध्रवत्वं नियतमित्यर्थः । उन्मजननिमजनभावशालिनो जलकल्लोला बहवो भवन्ति जलं तु तावम्मिताकारस्थित्या परिणमति । तत एव तेषां संभवादाविर्भावतिरोमावता भवतीति ज्ञेयम् ॥ १८ ॥ व्याख्यार्थः-एक कालमें इसी पूर्वोक्त मार्गसे निजपर्याय अर्थात् जीव पुद्गलके तथा परपर्याय अर्थात् आकाश, धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय इनके ऐसे इन पांचों द्रव्योंके उत्पत्ति नाश तथा ध्रौव्यके विषयमें अनेक प्रकारके संबंधके आकार निश्चित रूपसे संभवते हैं । क्योंकि जितने अपने पर्याय हैं; उतने ही उत्पत्ति तथा नाश भी होते २० Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशाखमालायाम् हैं; और उत्पत्ति विनाशमें अनेकाकार होनेसे धौव्यमें भी वही नियत है; अर्थात् जितने ध्रुव स्वभाव हैं; उतने ही उनके आकार नियत हैं । और पूर्वपरपर्यायों में अनुगत जो आधाश है; वह भी उतना ही होगा जितने कि -- उत्पत्ति तथा नाश हैं । इसीलिये यहांपर संमतिग्रंथका प्रमाण है । और ग्रंथकी गाथा यह है; गाथार्थ - एक समय में एक एक द्रव्यके अनेक उत्पाद होते हैं; और उत्पादके तुल्य ही उनके नाश पर्याय भी जानने चाहियें यह कथन व्यवहारमार्ग से है । और उत्सर्गमार्ग अर्थात् विशेषतासे स्थिरता निश्चित है; अर्थात् ध्रुवत्व नियत है । भावार्थ - - उन्मज्जन निमज्जन भावशाली ( क्षण क्षण में ) विनाश तथा उत्पत्तियुक्त जलके कल्लोल (तरंग ) अनेक होते हैं; और जल उसी अपने परिमित आकारकी स्थिति परिणत है । उसीसे उन ( जलकल्लोलों ) के संभवसे उनकी प्रकटता तथा अप्रकटता होती रहती है; ऐसा जानना चाहिये || १८ || अथोत्पादस्य भेदान्कथयन्नाह । अब उत्पादके भेदोंका कथन करते हुये कहते हैं । प्रयोगविश्रसाभ्यां स्यादुत्पादो द्विविधस्तयोः । आद्योऽविशुद्धो नियमात्समुदायविवादजः ॥ १६ ॥ भावार्थ:--नैमित्तिक तथा स्वाभाविक भेदसे उत्पाद दो प्रकारका होता है; उनमें से प्रथम प्रयोगजनित नैमित्तिक उत्पाद अविशुद्ध होता है; क्योंकि -- नियमसे वह समुदाय विवादसे उत्पन्न होता है ।। १९ ।। व्याख्या । उत्पादो द्विविधो द्विप्रकारोऽस्ति, काभ्यां द्विविधः प्रयोगविश्रसाभ्यां एकः प्रयोगजनित उत्पाद: । १ । अपरो विश्रसाजनित उत्पाद: । २ । पुनस्तयोद्वयोमंध्ये आद्योऽविशुद्धो व्यवहारोत्पन्नत्वात् । स च निर्धारणनियमात्समुदायवादजनितो यत्नेन कृत्वा अवयवसंयोगेन सिद्धः कथितः । संमतिगाथा - उप्पाओ दुवियप्पो पओगजणिओ य वीससाचेव । तत्ययपओगजणिओ समुदयवाओ अपरिसुद्धो । १ । उत्पादो द्विविकल्पो द्विविषस्तत्राद्यः प्रयोगजनितोऽपरो विश्रमाजनितस्तत्र च प्रयोगजनितः समुदायवादादपरिशुद्धः कथितो व्यावहारिकत्वात् ॥ १९ ॥ तथा चात्र व्याख्यार्थ:-- उत्पाद दो प्रकारका है; किनसे दो प्रकारका है ? प्रयोग और विश्रसासे अर्थात् एक तो प्रयोग ( निमित्त ) जनित उत्पाद है; और दूसरा ( विश्रसा) स्वभाव जति उत्पाद है; और उन दोनोंके मध्य में प्रथम प्रयोगजनित उत्पाद व्यवहारसे उत्पन्न होनेसे अविशुद्ध है; तथा वह निर्धारित नियमसे समुदायके विवाद से उत्पन्न होता है; अतएव यत्नसे अवयवोंके संयोगसे सिद्ध कहा गया है । और इस विषय में संमतिग्रंथकी गाथा भी है; गाथार्थ - " उत्पादके दो विकल्प अर्थात् दो भेद हैं, एक प्रयोगजनित Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ १५५ दूसरा विश्रसाजनित उनमेंसे प्रयोगजनित उत्पाद समुदायवादसे व्यावहारिक होनेसे अपरिशुद्ध कहा गया है ॥१॥" ॥ १९ ॥ अथोत्पादस्य द्वितीयभेदं कथयन्नाह । विश्रसा हि विना यत्नं जायते द्विविधः स च । तत्राद्यचेतनस्कंधजन्यः समुदयोऽग्रिमः ॥ २० ॥ भावार्थ:-विश्रसाजनित उत्पाद वह है; जो विना यत्न उत्पन्न होता है, वह विश्रसाजनित उत्पाद भी दो प्रकारका है; उनमें से प्रथम अचेतन स्कंधसे उत्पन्न समुदय नामसे कहा गया है ।। २० ॥ व्याख्या । विश्रसाख्यो द्वितीय उत्पादः, विश्रसाशब्स्य कोऽर्थः, सहजं विना यत्नमुत्पद्यते यः स विश्रसोत्पादः सोऽपि पुनद्विविधो द्विप्रकारः, एकस्तत्र समुदय जनितः, द्वितीय एकत्विकः । उक्त च साहाविओवि समुदयकउन्नणुणत्ति ओत्थहोजाहि । तत्रापि तयो योर्मध्य आद्यः समुत्य जनितो विश्रसोत्पादः अचेतनस्कंधजन्यः समुदयः कथितः । अभ्रदीना समुदयपुद्गलानां यथोत्पादः ॥ २० ॥ व्याख्यार्थः-विश्रसानामक द्वितीय उत्पादका भेद है। “विश्रसा" इस शब्दका अर्थ क्या है ? जो विना यत्नके सहज स्वभावसे उत्पन्न हो वह विश्रसाउत्पाद है। वह भी दो प्रकारका है; एक समुदयजनित है; द्वितीय एकत्विक है । ऐसा ही गाथामें कहा है; कि-"विश्रसाउत्पाद भी समुदय तथा एकत्विक भेदसे दो प्रकारका है" उन दोनों में से अचेतन स्कंधसे उत्पन्न समुदयज प्रथम विश्रसाउत्पाद है । जैसे अचेतन मेघादिके समुद य पुद्गलोंका उत्पाद होता है ॥२०॥ सचित्तमिश्रजश्चान्यः स्यादेकत्वप्रकारकः । शरीराणां च वर्णादिसुनिर्धारो भवत्यतः ॥ २१ ॥ भावार्थः-सचित्त मिश्रसे उत्पन्न, दूसरा एकत्विक विश्रसोत्पाद है । शरीरके वर्णादिकोंका सुनिर्धार इसीसे होता है ।। २१ ॥ व्याख्या । तथा पुनद्वितीय: सचित्तमिश्रजः शरीरवर्णादिकानां निर्धारो ज्ञेयः । सचित्ताः पुद्गला वर्णादीनां तथा तथाकारवर्णादिपुद्गलानां परिणत्या परिणतानामेकत्वप्रकारक एकतारूपेण परिणतः अनेकेषां वर्णादीनां संगतानां परस्पर मुत्पादधारया पिण्डीभूतानामववानामवयविधर्मत्वेन देहश्या कारभूतानामणूनां कारीरादिसनिर्धारो भवति । देहादिपिण्डानां "सु" अतिशयेन निर्धारो वपुरूषावस्थत्वं सायो । तथा च प्रज्ञापनायां स्यानाङ्गे च-तिविहा पुद्गलापन्नता, तं जहा पतोगपरिणता १ मोपपापरिणता २ वीससापरिणता ३ तत्र च प्रथमं प्रयोगपरिणताः पुद्गला ये भवन्ति ते जीवप्रयोगेग संयुक्ताः शरीरादयः Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् सचित्ताः १ तथा मिश्रपरिणताश्च ते ये जीवेन पुद्गला मुक्ताः कलेवरादयः २ पुनश्च विश्रसापरिणताः स्वभावेन परिणताः । यथाभ्रन्द्रधनुरादयः ३ एवं च सत्यत्र विश्रसाख्यस्य भेदस्य स्वभावजनितस्य द्वविध्यं प्रदर्शितम । अचेतनस्कन्धजन्यसमुदायाख्यः प्रथमस्तत्र सचित्तमिश्रजन्यैकत्वप्रकारकशरीरादिवर्णादिसुनिर्धारसंज्ञो द्वितीयः । अत्रायं विशेषः स्वाभाविके परिणमनेऽचित्तपुद्गलैरेवायत्नसाध्यव्यवहार उपदिष्ट इह तु द्वयमपि ॥२१॥ व्याख्यार्थः-दूसरा सचित्तमिश्रसे उत्पन्न हुआ विश्रसाउत्पाद है; शरीरवर्णादिका निर्धार इसीसे समझना चाहिये । वर्णादिकोंके जो पुद्गल हैं; वह सचित्त हैं । परिणतिसे परिणमनको प्राप्त हुए उन उन आकारके वर्णादिरूप पुद्गलोंका एकत्व प्रकार अर्थात् एकतारूपसहित सुनिर्धार होता है; अर्थात् अनेक प्रकारके वर्णआदिरूप मिले हुए तथा उत्पादकी धारासे परस्पर पिण्डरूप हुए अवयव स्वरूप और अवयवीके धर्मसे देह रूप देखनेमें आने योग्य आकारके धारक परमाणवोंके, जो शरीरआदि पिण्डोंका अतिशयरूपसे निर्धार अर्थात् शरीरके रूपकी अवस्था होती है; सो सचित्तमिश्रसे उत्पन्न एकत्व प्रकारक दूसरा विश्रसाउत्पाद है । यही विषय प्रज्ञापना और स्थानाङ्ग शास्त्रमें कहा गया है; वह पुद्गल तीन प्रकारसे परिणत हैं; जैसे-प्रयोगपरिणत १ बिश्रपरिणत २ विश्रसापरिणत ३ इन तीनोंमें प्रथम जो प्रयोगपरिणत पुद्गल हैं; वह जीवके प्रयोगसे अर्थात् जीवके व्यापारसे संयुक्त शरीरादि सचित्त हैं । मिश्रपरिणत वह हैं; कि-जो पुद्गल जीवसे मुक्त हैं; जैसे कलेवरआदि । और विश्रसा परिणत पुद्गल वह हैं; जो स्वभावसे ही परिणत हैं; जैसे इन्द्रके धनुषआदि । इस प्रकारका सिद्धान्त होनेसे यहांपर स्वभावसे उत्पन्न होनेवाला जो विश्रसानामक भेद है; उसके दो प्रकार दिखाये । उनमें अचेतन स्कंध(अचेतन पुद्गलोंके समुदाय )से उत्पन्न समुदयनामक तो प्रथम भेद है; और सचित्तमिश्रसे उत्पन्न अर्थात् चेतनसहित पुद्गलोंसे मिलेहुए पुद्गलोंसे उत्पन्न एकत्व प्रकारका धारक शरीरआदिके वर्णआदिका निर्धारसंज्ञक द्वितीय भेद है । इन दोनोंमें यह विशेषता है; कि-स्वाभाविक परिणमनमें अचित्त (चेतनरहित) पुद्गलोंसे ही अयत्नसाध्य व्यवहारका उपदेश किया गया है, और एकत्विक विश्रसोत्पादमें सचित्त अचित्त दोनों प्रकारके पुद्गलोंसे साध्य व्यवहारका उपदेश है ॥२१॥ पुनर्भेदं दर्शयन्नाह । फिर भी उत्पादके ही भेदको दिखाते हुए अग्रिम सूत्र कहते हैं । यत्संयोगं विनैकत्वन्तद्रव्यांशेन सिद्धता । यथा स्कन्धविभागाणोः सिद्धस्यावरणक्षये ॥ २२ ॥ भावार्थ:-जो संयोगके विना ही विसाउत्पाद है; वह एकत्व है; और उसीको द्रव्यांशसे उत्पाद जानना चाहिये । जैसे द्विप्रदेशस्कंध के विभागसे अणुका उत्पाद होता है; और कर्मोंके विभागसे जीवके सिद्धता उत्पन्न होती है ।। २२ ।। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतकणा [ १५७ व्याख्या । संयोगं विना विश्रसोत्पादो यद्भधेत्तदेकत्वं ज्ञेयम् । तदेवैकत्वं द्रव्यांशेन द्रव्यविमागेन सिद्धता नाम उत्पन्नत्वं ज्ञेयम । यथा द्विप्रदेशादिस्कन्धविमागेनाणोः परमाणोद्रं व्यस्योत्पादः, तथा आवरणक्षये कर्मविभागे जाते सति सिद्धस्य सिद्धपर्यायस्योत्पाद इति । “अवयवसंयोगेनैव द्रव्यस्योत्पत्तिर्भवति परन्तु विभागेन द्रव्यस्योत्पत्तिर्न भवति" इत्यमेकेनैयायिकादयः कथयन्ति । तेषां मत एकतन्त्वादिविभागेन खण्डपटोत्पत्तिः कथं जाघटीति प्रतिबन्धककालमावस्यावस्थितावयवसंयोगस्य हेतुताकल्पने महागौरवात् । तस्मात् कुत्रचित्संयोगात् कुत्रचिद्विभागाद्रव्योत्पादकता मन्तव्या । तदा विभागजपरमाणूत्पादोऽप्यर्थतः सिद्धः स्यात् । संमतिशास्त्र इत्थं सूचितमस्ति । तदुक्तम् “दब्बंतरसंयोगादि केईदवियस्यबिति उप्पायत्था । कुशलविभागजायण इच्छंति अणुहुणुएहिं दब्बे आ ।१। द्वत्ति अणुयत्ति दविए मोततो असुणविभत्तो । तं पिहु विभागजाणिओ अणुत्तिजाओ अणू होइ ।२।" आभ्यांगाथाम्यां भावार्थोऽवधार्यः । यथा परमाणोरुत्पाद एकत्वजन्यस्तथा येन संयोगेन स्कन्धो न निष्पद्यते एतादृशो धर्मास्तिकायादीनां जीवपुद्गलयोस्संयोगस्तद्वारा यश्च संयुक्तद्रव्योत्पादोऽसंयुक्तावस्थविनाशपूर्वकः, तथा ऋजुसूत्रनयाभिमतो यश्च क्षणिकपर्यायप्रथमद्वितीयसमयादिव्यवहारहेतुस्तद्वारा यश्चोत्पादश्च तत्सर्वमेकत्वं ज्ञेयम् ॥ २२ ॥ व्याख्यार्थः-संयोगके विना जो विश्रसानामक उत्पाद है; वही एकत्व है । और उसी एकत्वको द्रव्यांशसे अर्थात् द्रव्यके विभागसे सिद्धता अर्थात् उत्पन्नत्व जानना चाहिये । जैसे दो प्रदेशआदि स्कंधके विभागसे परमाणु द्रव्यका उत्पाद है; तथा आवरणक्षय अर्थात् कर्मोंका विभाग ( नाश ) हो जानेपर सिद्ध पर्यायका उत्पाद है । अवयवोंके संयोगसे ही द्रव्यकी उत्पत्ति होती है; परन्तु विभागसे उत्पत्ति नहीं होती" इस प्रकार कोई कोई नैयायिकआदि कहते हैं । उनके मतमें एक तंतुआदिके विभागसे खंडपटकी उत्पत्ति कैसे घटित हो सकती है। प्रतिबंधक काल भावको अथवा शेष अवस्थित अवयवसंयोगको कारणता माननेसे अतिगौरव है। इसलिये कहीं संयोगको कहीं विभागको द्रव्यकी उत्पत्तिमें कारणता माननी चाहिये । इससे विभागसे परमाणुकी उत्पत्ति भी अर्थसे सिद्ध हो गई । और संमतिशास्त्र में भी इसी प्रकार सूचित किया है; जैसे “कोई कोई द्रव्यान्तरके संयोगसे ही द्रव्यकी उत्पत्ति मानते हैं; और तर्कमें कुशल विद्वान् तो विभागसे भी द्रव्यकी उत्पत्ति चाहते हैं ।१॥ क्योंकि-अणु तथा द्वयणुक द्रव्योंसे भी अणु द्रव्योंमें उत्पत्ति मानी गई है। अतएव द्विप्रदेश अणु स्कंधके विभागसे अणुपरिमाण द्रव्यकी उत्पत्ति होनेसे अणुजन्य अणु होता है । २ ।” इन दोनों गाथाओंसे यह भावार्थे मनमें धारण करना योग्य है; कि-जैसे परमाणुकी उत्पत्ति एकत्व अर्थात् द्विप्रदेश स्कंधके विभागसे जन्य है; वैसे ही जिस संयोगसे स्कंध नहीं सिद्ध होता है; ऐसा जो धर्मास्तिकायादिकोंका और जीव तथा पुद्गलका संयोग है; और उसके द्वारा जो संयुक्त द्रव्यको उत्पत्ति है; वह असंयुक्त अवस्थाके विनाशपूर्वक है; तथा ऋजुसूत्र Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५.] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् नयके अभिमत जो क्षणिक पर्याय प्रथम द्वितीय समयआदिके व्यवहारका कारण है; उसके द्वारा जो उत्पाद है; वह सब एकत्वउत्पाद समझना चाहिये ॥२२॥ अत्र न. किंचिद्विवादस्तत्र श्लोकमाह । यहां कुछ विवाद नहीं है; इस विषयमें श्लोक कहते हैं। स्कन्धहेतु विना योगः परयोगेण चोद्भवः । क्षणे क्षणे च पर्यायाधस्तदैकत्वमुच्यते ॥२३॥ भावार्थः-स्कंध हेतुके विना जो संयोगे है, परके योगसे जो उत्पत्ति है; तथा क्षणिक पर्यायसे जो उत्पाद है; वह सब एकत्व उत्पाद है ॥ २३ ॥ व्याख्या । स्कन्धहेतुं विना यः संयोगः, परयोगेन धर्मास्तिकायादिना यश्चोत्पादः, तथा च क्षणिकपर्याये प्रथमद्वितीयादिद्रव्यव्यवहारहेतवस्तद्वारा य उत्पादः, तत्सर्वमेकत्वं कथ्यते तत्र न कोऽपि विसंवाद इति ॥ २३ ॥ व्याख्यार्थः-स्कंधकी हेतुताके बिना जो संयोग है, परयोग जो धर्मास्तिकाय आदिक हैं; उनसे जो उत्पाद है, तथा प्रथम द्वितीयआदि द्रव्य व्यवहारके कारण जो क्षणिक पर्याय हैं; उनके द्वारा जो उत्पाद है; वह सब विनसाका भेदरूप एकत्वउत्पाद कहा जाता है । इसमें किसी प्रकारका विवाद नहीं है ॥ २३ ॥ पुनर्भेदं कथयन्नाह । फिर उत्पादके ही भेदको कहते हुए अग्रिम सूत्र कहते हैं । उत्पादो ननु धर्मादेः परप्रत्ययतो भवेत् । निजप्रत्ययतो वापि ज्ञात्वान्तर्नययोजनाम् ॥२४॥ भावार्थ:-धर्मास्तिकायआदिकी उत्पत्ति परप्रत्ययसे होती है; अथवा आन्तरिक नययोजनाको जानके निजप्रत्ययसे भी होती है ॥२४॥ व्याख्या। ननु धर्मादेरुत्पादः परप्रत्ययो भवेत्, अपि पुनर्निजप्रत्ययाद्भवेदन्तर्नययोजनां ज्ञात्वा इति । भावार्थस्त्वयम् -धर्मास्तिकायादीनामुपादो नियमेन परप्रत्ययः स्वोमटम्यगत्यादिपरिणत जीवपुदगलादिनिमित्त उक्तः । य उमयजनितस्स चैकजनितोऽपि भवेत् । ततस्तस्य निजप्रत्ययतापि कथयितु युक्ता निश्चयव्यवहारावधारणात् । अयमर्थः “आगासाइयाणं तिण्हं परपचओ नियया" इति संमतिगाथायामकारप्रश्लेषणया वचनान्तरेण कुतोऽस्ति वृत्तिकारेण तमर्थमनुस्मृन्येहापि लिखितोऽस्ति । तस्माद्धर्मास्तिकायादीनामूत्पादो नियमात्परप्रत्यय एव । सोऽपि स्वोपष्टम्यगत्यादिपरिणतजीवपुद्गलादिनिमित्तः, उभय जनितोऽप्येकजनितोऽपि स्यात् । तस्य च निजप्रत्ययताप्यन्तर्नयवादेनाक्तास्ति भावना चेत्थं ज्ञेया ॥२४॥ व्याख्यार्थः-धर्मास्तिकायआदिकी उत्पत्ति परप्रत्ययसे होती है; और आभ्यन्तरिक (अन्दरूनी) नय योजनाको समझके निज प्रत्ययसे होती है । भावार्थ यह है; कि-धर्मा - Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ १५९ स्तिकाय (धर्मद्रव्य) आदिकी उत्पत्ति नियमसे परप्रत्ययसे अर्थात् धर्मास्तिकाय आदिके आधारभूत गमन आदिमें परिणत जो जीव पुद्गल हैं, उनके निमित्तसे होती है ऐसा कथन किया गया है, और जो उभय (स्वप्रत्यय तथा परप्रत्यय) से जन्य होता है, वह एक जन्य भी होता है, इस वाक्यसे उस धर्मास्तिकायादिके उत्पादके निजप्रत्ययसे जन्यता भी कहनी योग्य है, क्योंकि - निश्चय तथा व्यवहारनयसे यह निश्चय होता है । "आकाशास्तिकाय, धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय इन तीनोंके नियमसे परप्रत्ययजन्य उत्पाद है" इस संमतिग्रंथकी गाथामें वृत्तिकारने यह पूर्वोक्त अर्थ आकार प्रश्लेषण करके वचनान्तरसे किया है । उस अर्थका ही अनुसरण करके यहां भी लिखा गया है । इसलिये धर्मास्तिकाय आदिका उत्पाद नियमसे परप्रत्यय जन्य ही है । और बह भी अपने आधारभूत गति आदि में परिणत जीव पुद्गलआदिके निमित्तसे है । और जो उभयजनित है, वह एकजनित भी होता है। और इसके जो निजप्रत्ययता कही है, वह अन्तर्नयवादसे कही है। ऐसी भावना समझनी चाहिये ॥ २४ ॥ अथ नाशस्वरूपमाह । अब नाश (व्यय) का स्वरूप कहते हैं । नाशोऽपि द्विविधो ज्ञेयो रूपान्तरविगोचरः । अर्थान्तर गतिश्चैव द्वितीयः परिकीर्तितः ॥ २५ ॥ भावार्थ:--उत्पादके समान नाश भी दो प्रकारका है, उनमें एक रूपान्तर विगोचर और दूसरा अर्थान्तरगति नामसे कहा गया है ।। २५ ।। व्याख्या | नाशोऽपि द्विविधो ज्ञातव्यः । एकस्तत्र रूपान्तरविगोचरः रूपान्तरपरिणामः । द्वितीयस्तु अर्थान्तरगतिरर्थान्तरमा वगमनं चेति । भावार्थस्त्वयम, "परिणामो ह्यर्थान्तर, गमनं न च सर्वथा व्यवस्थानं न च सर्वथा विनाशः, परिणामस्तद्विदामिष्ट: । १ । सत्पर्यायेण विनाशः, प्रादुर्भावोऽसता च पर्ययतः । द्रव्याणां परिणामः प्रोक्तः खलु पर्ययनयस्य । २ । एतद्वचनं संमतिप्रज्ञापनावृत्तिविषयी । कथंचित्सद्र पान्तरं प्राप्नोति सर्वथा न विनश्यति यत्तद्द्रव्यार्थिकनयस्य परिणामत्वं कथितम् । पूर्वं सत्पर्यायेण विनश्यति, उत्तरात्पर्यायेणोत्पद्यते यत्तत्पर्यायार्थिकनयस्य परिणामत्वं कथितम् । एतदभिप्रायं विचारयतामेकरूपान्तरपरिणामविनाश:, एकश्र्वार्थान्तरगमनविनाशः इत्थं विनाशस्यापि भेदद्वयं संपन्नम् ||२५|| " व्याख्यार्थः - नाश भी दो प्रकारका जानना चाहिये। उनमेंसे प्रथम रूपान्तर विगोचर अर्थात् एक रूपसे रूपान्तर ( दूसरे रूपमें ) परिणाम है, और द्वितीय अर्थान्तरगति अर्थात् एक पदार्थसे दूसरा पदार्थ हो जाता है । भावार्थ यह है । एक पदासे अन्य पदार्थता में गमन हो जाता है, सो परिणाम है, और सर्वथा विद्यमानता अथवा Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० ] श्रीमद्रराजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् नाश होना यह परिणामका स्वरूप परिणामके जाननेवालोंके इष्ट नहीं है ॥१॥ और सत् (विद्यमान) पर्यायसे नाश तथा अविद्यमान पर्यायसे उत्पाद जो है; सो पर्यायार्थिकनयकी विवक्षासे द्रव्योंका परिणाम कहा गया है । २ । यह वचन संमतिप्रज्ञापना वृत्तिमेंका है; उसका अभिप्राय यह है; कि-जो सत् ( विद्यमान ) पर्याय कथंचित् रूपान्तरको प्राप्त होता है; और सर्वथा नष्ट नहीं होता वह द्रव्यार्थिकनयका परिणाम कहा गया है । और पूर्व सत् पर्यायसे तो नष्ट हो और उत्तर जो अविद्यमान पर्याय है; उससे उत्पन्न होता हो वह पर्यायार्थिकनयका परिणाम कहा गया है । इस अभिप्रायको विचारनेवालोंके मतमें एक तो रूपान्तर परिणाम विनाश है; और एक अर्थान्तर गमन विनाश है; ऐसे विनाशके भी दो भेद सिद्ध हुए ॥२५ ।। पुनराह। पुनः दो प्रकारके नाशोंका स्वरूप दिखाते हैं । तत्रान्धतमसस्तेजो, रूपान्तरस्य संक्रमः । अणोरण्वन्तरापातो ह्यर्थान्तरगमश्च सः ॥२६॥ भावार्थः-इन दोनोंमेंसे अतिघनीभूत अंधकारका प्रकाशरूपमें जो संक्रमण है; वह परिणामरूप नाश है । और अणुसे जो अन्य अणुके साथ संयोग होता है; अर्थात् अणुसे जो द्वणुक स्कन्धरूप प्राप्ति है, वह अर्थान्तरगमनरूप नाश है ।। २६ ।। व्याख्या । तत्र नाशेऽन्धतमसोऽधकारस्य तेजोरूपान्तरस्य संक्रम उद्योततावस्थितद्वव्यस्य रूपान्तरपरिणामरूपनाशो ज्ञेयः । च पुनरणोः परमाणोरण्वन्तरापादोणोरण्वन्तरसंक्रमो द्विप्रदेशादिमावमनुमवन् पूर्वपरमाणुत्वं विगतमित्यनेनार्थातरगमः स्कंधपर्याय उत्पन्नस्तेन कृत्वार्थान्तरगतिरूपनाशस्य स्थितिमवति । निष्कर्षस्त्वयम्-यत्राकारस्तत्रापि तदाकारपरमाणुप्रचययोनिरन्धतमः समस्ति तशैव पुनरुद्योतपरमाणुप्रचयसंचारनिरस्तान्धकारपरमाणुत्वतत्स्थानतत्तत्परमाणुसंक्रमिततेजः परमाणुत्वलक्षणः रूपान्तरसंक्रमो जातःयथा अवयवानां परमाणुनामवयविस्कन्धत्वसंक्रमेणार्थान्तरत्वोभावन यार्थान्तरगति लक्षणो नाशः समुत्पन्न इति ॥२६॥ व्याख्यार्थः-उस नाशमें अंधकाररूप द्रव्यका तेजोरूपमें जो संक्रमण ( मिलता ) है, अर्थात् अन्धकारसे प्रकाशरूप द्रव्यमें जो परिवर्तन ( बदलना ) है, उसको रूपांतर परिणामरूप नाश जानना चाहिये और अणु ( परमाणु ) का दूसरे परमाणुके साथ जो संयोग है, अर्थात् द्विप्रदेशादिभावको अनुभव करते हुए पूर्व परमाणुत्वरूपका नाश हो जाता है, इस कारणसे अर्थान्तरगमन हुआ अर्थात् अणुपर्यायसे स्कंधपर्याय उत्पन्न हुआ इससे अर्थान्तरगतिरूप नाशका स्थिरत्व (ठहराव ) होता है । भावार्थ तो यह है, कि-जहां आकार ( काला रंग ) है, वहां भी उस आकारके धारक परमाणवोंके समूहसे . Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ १६१ उत्पन्न हुआ अन्धतम (गहरा अंधेरा) है; और फिर वहां ही (जहांपर अंधकार था उसी जगह ) प्रकाशके परमाणवोंके समूहका संचार हुआ तब अंधकारके परमाणु तथा उन परमाणवोंका स्थान दूर हुआ और वह अंधकारके परमाणु उन तेज(प्रकाश )के परमाणवोंमें मिलगये बस यही रूपान्तरसंक्रम ( अंधकारके परमाणवोंका तेजके परमाणुवोंमें मिलजाना) है; इसीको रूपान्तर विगोचरनाश कहते हैं । और अवयवरूप परमाणुओंका अवयवी स्कंधरूपमें जो संक्रम है; उससे जो अर्थान्तरका उद्भाव है; उसीसे अर्थान्तरगतिरूप नाशका द्वितीय भेद सिद्ध होता है ॥२६॥ पुनराह । पुनः उसी विषयको कहते हैं। रूपान्तराणुसंबन्धात्स्कन्धत्वं यद्यणोरपि । तत्संयोगविभागाभ्यामपि भेदप्रबन्धता ॥ २७ ॥ भावार्थः-रूपान्तर अणुके संबन्धसे यद्यपि स्कंधता होती है; तथापि संयोग और विभागसे ही भेदकी प्रबंधता होती है ॥२७ ।। व्याख्या । यद्यप्यणो रूपान्तरपरमाणुसंबन्धात्स्कन्वत्वमणुसंबन्धस्करवतास्ति । तदिति तथापि संयोगविभागाम्यां कृत्वा द्रव्योत्पादनाशाभ्यां द्विप्रकाराभ्यामेव भेदप्रवन्वता द्रव्यविनाशद्वविध्यमेव ज्ञेयम, एतदुपलक्षणं ज्ञेयम् । यतो द्रव्योत्पादविमागेन यथा पर्यायोत्पादविमागस्तथा द्रव्यनाशविमागेनैव पर्यायनाशविभागो भवेदिति । ततः समुदयविमागस्तथान्तिरगम चेति द्वयमेव पहिले । तत्र प्रथमस्तन्तुपर्यन्तपटनाशः, द्वितीयो घटोत्पत्तिपर्यन्तमृत्तिण्डादिनाशश्च ज्ञेयः । उक्त च संमतौ-विगमस्सविएसविहा समुदयजणि मिसोउ दुविपय्यो । समुदयविभागमित्तं अत्यंतरभावगमणं च । १।" इत्यादिगाथया ज्ञेयम ॥ २७ ॥ व्याख्यार्थः यद्यपि एक परमाणुके, अन्य परमाणुके संबंध से अगुसंबंधस्कन्धता है; तथापि संयोग और विभागसे अर्थात् द्रव्यके उत्पाद ओर नाशप जो दो प्रकार हैं; इनसे ही भेदप्रबंधता अर्थात् द्रव्य के नाशके दो प्रकार समझने चाहिये । यह उपलशगसे जानना चाहिये क्योंकि-द्रव्यके उत्पादरूप विभागसे जैसे पर्यायका उत्पादरूप विभाग होता है; वैसे ही द्रव्यके नाशरूप विभाग( भेद )से पर्यायका नाशरूप विभाग होगा। इसी हेतुसे समुदयविभाग तथा अर्थान्तरगमन ऐसे दो ही व्यवहार में लाये जाते हैं । उनमें तन्तुपर्यायके अन्ततक जो पटका नाश है; वह प्रथम समुदयविभाग है; तथा घटकी उत्पत्तितक जो मृत्तिकापिंडआदिका नाश होता है; वह द्वितीय अर्थान्तरगमन है । और संमितिमें कहा भी है । इसी प्रकार नाश भी समुदय जनित तथा मिश्र ऐसे दो प्रकारका है। इससे समुदयविभाग तथा अर्थान्तरगमन ऐसे दो प्रकारका नाश २१ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् (व्यय ) होता है। इत्यादि गाथासे संयोग विभाग इन दोनोंसे भेदकी कल्पना समझनी चाहिये ॥२७॥ ध्रौव्यं स्थूलर्जु सूत्रस्य पर्यायः समयादिकः । संग्रहस्य निजद्रव्यजात्या कालत्रयात्मकः ॥ २८ ॥ भावार्थः-स्थूलजुसूत्रनयका ध्रुवभाव समयआदिक ( समय प्रमाण ) पर्याय है । और संग्रहनयका निजद्रव्यजातिसे त्रिकालात्मक ध्रुवत्व है ॥२८॥ व्याख्या । ध्रौव्यं ध्रुवस्वभावोऽपि स्थूलर्जु सूत्रस्य ऋजुसूशं द्विधा स्थूलसूक्ष्मभेदात्तत्र स्थूल सूत्रस्य पर्यायो मनुष्यादिकः समयप्रमाणोऽस्ति । प्रथमः स्थूल ऋजुसूत्रनयस्तदनुसारेण मनुष्यादिपर्यायाणां समयमानं ज्ञेयमिति भावः । पुनर्द्वितीयः संग्रहनयस्य सम्मतो निजद्रव्याजात्या जीवपुद्गलादिकनिजद्रव्यजात्या कालत्रयात्मकस्त्रिकालव्यापको ज्ञेय इति । किं च आत्मद्रव्येण गुणपर्याययोरात्मद्रव्यं समानाधिकरणत्वेन अन्वयानुगम एव ध्रौव्यमिति । पुद्गलद्रव्येण गुणपर्याययोः पुद्गलद्रव्यानुगम एव ध्रौव्यमिति । एवं निजनिजजात्या निर्धारो ज्ञेय इति ॥ २८ ॥ व्याख्यार्थः-स्थूल और सूक्ष्म इन भेदोंसे ऋजुसूत्रनय दो प्रकारका है; उनमें स्थूल ऋजुसूत्रके मतमें समयप्रमाण जो मनुष्यआदिक पर्याय है; सो ध्रुवस्वभाव है; भावार्थ यह है; कि-प्रथम जो स्थूल ऋजुसूत्रनय है; उसके अनुसार मनुष्यआदि पर्यायका जो समय है; उस प्रमाण ( उतना) ध्रौव्य है; जैसे कोई जीव मनुष्यपर्यायमें पचास वर्ष रहा तो स्थूल ऋजुसूत्रके मतमें मनुष्यपर्यायके पचास वर्ष ही ध्रौव्य है । और दूसरा संग्रहनयके संमत निजद्रव्यजातिसे अर्थात् जीवपुद्गलआदि निजद्रव्यकी जातिसे त्रिकालमें व्यापक ध्रौव्य जानना चाहिये । तथा आत्मद्रव्यसे गुण और पर्यायमें आत्मद्रव्यसमानाधिकरणताका जो अन्वयानुगम है; सो ही ध्रौव्य है। पुद्गलद्रव्यसे गुण और पर्यायमें पुद्गलद्रव्यका अनुगम है; वही ध्रौव्य है। इस प्रकार अपनी अपनी जातिसे ध्रौव्यका निर्धार ( निश्चय ) समझना चाहिये अर्थात् आत्मद्रव्यके गुणपर्यायोंमें आत्मद्रव्यकी और पुद्गलद्रव्यके गुण पर्यायोंमें पुद्गलद्रव्यका धौन्य रहेगा और इनकी अनन्तर जातिमें भी यही व्यवस्था समझनी चाहिये जैसे मृत्तिकाके गुणपर्यायों ( घटादिक ) में मृत्तिका द्रव्यका ध्रौव्य रहता है ॥२८॥ अर्थाः समर्थाः समये निरुक्ता इत्थं विधालक्षणवन्त आप्तः । सम्यग्धिया तान्परिभाव्य भव्या अर्हत्क्रमाम्भोजयुगं श्रयन्ताम् ॥ २६ ॥ भावार्थ:-हे भव्य जीवो ! इस पूर्वोक्त रीतिसे यथार्थ तत्त्वको जाननेवाले तीर्थकरोंने शास्त्रमें शक्तिके धारक धर्म अधर्म आदि षट् द्रव्य तीन प्रकार के लक्षणोंसहित Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ १६३ निरूपित किये हैं। उनको बुद्धिसे भली भांति विचारके श्रीअर्हन देवके चरणकमलोंका आश्रय ग्रहण करो ॥ २९ ॥ व्याख्या। अर्थाः षट पदार्थाः धर्माधर्माकाशपुद्गलकालजीवा: समर्थाः शाश्वतपरिणाममाजः शक्तियुक्ताः समये सिद्धान्ते निरुक्ताः कथिता आप्तयथार्थतत्त्ववेदिभिस्तीर्थकृद्धिः । ते कीदृशा इत्थं पूर्वोक्तवर्णनरूपेण विधालक्षणवन्तो लक्षणत्रयविराजमानाः। भावार्थस्त्वयम --सिद्धान्ते सर्वेऽर्थाः विविधप्रकारेण त्रिलक्षणा: कथ्यन्ते । लक्षणत्रयं तूत्पादव्ययध्रौव्यात्मकं तच्छीलं तत्स्वभावं च माषितमिति । भव्या भवाय अरे भव्यास्तान् अर्थान् षडपि लक्षणत्रयभावनया सम्यग्बुद्धया परिभाव्य पर्यालोच्याहत्क्रमाम्भोजयुगं जिनचरणपङ्कजद्वयं श्रयन्तामाद्रियन्तामिति । तज्ज्ञाने सति तच्चरणमुक्त्युत्पत्तिफलं लक्ष्यीकृतम् । मोजेति श्लेषेण ग्रन्थकत्त नाम सङ्केतश्चेति । यथा च ये पुरुषास्त्रिलक्षणभावनया विस्ताररुचिविशेषेण सम्यक्त्वमवगाह्मान्तरङ्गसुखानुभवाभिलाषपरा भवन्तु । पुनस्तथैव सम्यक्त्वपूर्वकमुक्तिप्राप्तिः सुलभेति ध्येयम् ॥ २६॥ इति श्रीकृतिमोजसागरविनिर्मितायां द्रव्यानुयोगतर्कणायां सप्तनयमितषड्व्याणां त्रिलक्षणवर्णनास्यो नवमोऽध्यायः परिकल्पितः ॥६॥ व्याख्यार्थः-धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव यह षट् पदार्थ जो कि निरन्तर परिणामके भागी तथा शक्तियुक्त हैं; उनको यथार्थ तत्त्वोंके वेत्ता ( जाननेवाले) तीर्थंकरोंने सिद्धान्तमें पूर्वोक्त उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यस्वरूप तीन लक्षणोंसे विराजमान वर्णन किये हैं। भावार्थ यह कि-जैनसिद्धांतमें संपूर्ण पदार्थ अनेक प्रकारसे त्रिविध लक्षणसहित कहे जाते हैं; और लक्षणत्रय यह है; जैसे उत्पाद, व्यय और धौव्य अर्थात् संपूर्ण पदार्थ उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यरूप शील अथवा स्वभावके धारक हैं; ऐसा कहा गया है। इस हेतुसे हे भवके योग्य जीवो ! उन षट् पदार्थोंको लक्षणत्रयकी भावनासे सम्यक् प्रकार बुद्धिद्वारा जानकर अर्थात् पूर्णरीतिसे विचार करके श्रीअर्हत् भगवान्के चरण कमलयुगलका सेवन करो अर्थात् आदर करो । तात्पर्य यह कि-षट् पदार्थोंका ज्ञान होनेपर श्री जिनदेवके चरणोंमें भक्तिका उत्पन्न होना यही मुख्य फल है । और श्लोकमें जो "क्रमांभोज" यह पद है; उसमें श्लेषसे "भोज" इस प्रकार ग्रंथकर्ताके नामका भी संकेत है और जो भव्य जीव हैं; वह इस प्रकार पदार्थमें विलक्षणताके विचारसे उत्पन्न हुई जो विस्ताररुचि उससे सम्यक्त्वका अवगाहन करके अंतरंगसुख(मोक्षसुख )के अनुभवकी अभिलाषामें तत्पर होवें और उनको इसी प्रकारसे पहले सम्यक्त्व होकर तत्पश्चात् मुक्तिकी प्राप्ति सुगम होगी ऐसा विचार करना चाहिये ॥ २९ ॥ इति श्रीआचार्योपाधिधारक पं० ठाकुरप्रसादविरचितमाषाटीकासमलङ्कृतायां द्रव्यानुयोगतर्कणाव्याख्यायां नवमोऽध्यायः ॥९॥ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् अथ दशमाध्याये द्रव्यगुणपर्यायाणां भेदान् वितत्य विवृणोति । अब इस दशम (१०) अध्याय में द्रव्य गुण तथा पर्यायोंके भेदोंको पृथक पृथक करके fraरण करते हैं । १६४ ] भिन्नाभिनत्रिधाद्यर्थं निरूप्याथ स्वरूपतः । द्रव्यादीनां प्रवक्ष्यामि भेदानागमसंमतान् ॥ १ ॥ भावार्थ:- कथंचित् भिन्न, कथंचित् अभिन्न तथा त्रिविध लक्षणयुक्त द्रव्यगुण पर्याय आदि अर्थका निरूपण करके अनन्तर सिद्धान्तके संमत द्रव्यादिके भेदोंको इस दशम (१०) अध्याय में कहूंगा ॥ १ ॥ व्याख्या । द्रव्यं गुणा: पर्याया भिन्नाः पुनरभिन्नाः पुनस्त्रिविधाः पुनस्त्रिलक्षणवन्तः अर्थाः । मित्रान्यभिन्नानि च त्रिधा च त्रिलक्षणानि चेति द्वन्द्वः | आदिशब्दाद् भवभावादीनि तेषामर्थः प्रतिपादनं तद्भिन्नाभिन्नत्रिधाद्यर्थं निरूप्य कथयित्वा । अथेति । पुनः स्वरूपतः स्वरसात् द्रव्यादीनां भेदानागमसंमतासिद्धान्तोक्तान्प्रवक्ष्यामि कथयिष्ये ॥ १ ॥ व्याख्यार्थः- द्रव्य गुण तथा पर्याय भिन्न भी हैं; और अभिन्न भी हैं; और त्रिविध लक्षणयुक्त हैं । भिन्न अभिन्न और त्रिधा इनका यहां द्वंद्व समास है, और " त्रिधाआदि" यहां आदि शब्दसे भव, भावआदिका ग्रहण हैं, उनका जो अर्थ अर्थात् प्रतिपादन सो भिन्नाभिन्न त्रिधाद्यर्थ है, उसको अर्थात् भिन्न अभिन्न तथा त्रिधालक्षणयुक्त द्रव्यगुण, पर्याय, भव और भावादिके अर्थको वर्णन करके तदनन्तर शास्त्र में कहे हुए जो स्वभावसे द्रव्यआदिके भेद हैं, उनको कहूँगा ॥ १ ॥ सम्यक्त्वं हि दयादानक्रियामूलं प्रकीर्तितम् । विना तत्संचरन्धर्मे जात्यन्ध इव खिद्यति ॥ २ ॥ भावार्थ::- इन द्रव्यादिके ज्ञानसे जो सम्यक्त्व होता है; वह दया दान और क्रिया इन सबका मूल कारण कहा गया है । इस सम्यग्दर्शन के विना धर्मरूप मार्ग में प्रवृत्त हुआ पुरुष जन्मांधके सदृश दुःखको पाता है ॥ २॥ व्याख्या । अथैतेषां विज्ञानान्निश्चितं सम्यक्त्वं प्रकीतितम् । कीदृशं दया जीवरक्षा, दानममयादि पञ्चधा, क्रिया कर्त्तव्यानि एता मूलं यस्य तत् । यदुक्त-जीवाइ नवपइत्थे जो जाणइ तस्य होइ सम्मतं " पुनर्विशिकायां "दाणाइआ ओ एअं मि चेवसहलाओहुंति किरियाओ । एयाओ विहु जम्हा मोक्खफलाओ पराओ अण ॥ १ ॥ इति वचनात् । तत्सम्यक्त्वं विना धर्मे धर्ममार्गे संचरन् प्रवर्त्तमानः खिद्यति क्लिश्यति क इव जात्यन्ध इव । यथा जात्यन्धो जन्मान्धः पुमान्मार्गे पथि संचरन् खिद्यति गर्त्तापातादिदुःखमनुभवति तथैव सम्यक्त्वहीनोऽपि भवकूपनिपाती स्यात् । ततः सम्यक्त्वं विना येऽगीतार्थास्तथाऽगीतार्थनिश्रिताः स्वस्वामिनिवेशेन हठमार्गे पतिता: सन्तः सर्वं एते जात्यन्धप्राया ज्ञातव्याः । भव्यं ज्ञात्वा Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ १६५ कुर्वन्ति तदपि तेषां निष्फलमेव भवेत् । उक्त च "सुन्दर बुद्धी इकयं बहुयं पिण सुन्दरं होई” ततो द्रव्यगुणपर्यायभेदपरिज्ञानाच्छुद्ध सम्यक्त्वं यदर्तव्यम् ॥ २ ॥ व्याख्यार्थ :- इन द्रव्य आदि के ज्ञानसे निश्चित सम्यक्त्व कहागया है; वह सम्यक्त्व कैसा है; सो कहते हैं; समस्त जीवोंकी रक्षारूप दया, अभय आदि भेदसे पांच प्रकारका दान, और क्रिया अर्थात शास्त्रोक्त कर्त्तव्य यह जिसके मूल हैं । इस विषय में अन्यत्र कहा भी है; कि- " जो जीवआदि नव २ पदार्थों को जानता है; उसीके सम्यदर्शन होता है । पुनः विंशिकानामक ग्रन्थ में ऐसा वचन है; कि – एक सम्यक्त्वके होनेपर दानादिक समस्त क्रिया सफल होती हैं; और इसीसे यह मोक्षफला अर्थात् मोक्षरूप फलको देनेवाली हैं; और सम्यक्त्वके विना जो क्रिया हैं; वह मोक्षरूप फलको देनेवाली नहीं हैं । इसलिये सम्यक्त्व के विना धर्मरूप मार्ग में प्रवृत्त हुआ मनुष्य ऐसे दुःखों को पाता है; जैसे मार्ग में चलता हुआ जन्मान्ध । तात्पर्य यह कि—जैसे जन्मसे ही अंधा जीव मार्ग में चलताहुआ खड्ड में गिरनेआदिरूप दुःखका अनुभव करता है; वैसे ही सम्यक्त्वसे जो हीन है; वह भी संसाररूपी कूपमें गिरनेवाला होता है । इस हेतुसे सम्यक्त्व के विना जो अगीतार्थ हैं; अथवा अगीतार्थनिश्रित हैं; वह सब अपने अपने दुराग्रहके वसे हठरूप मार्ग में गिरे हुए हैं, इसलिये इन सर्वोको जन्मान्धोंके सदृश समझना चाहिये । और वह लोग जिस धर्म कर्मको अच्छा समझकर करते हैं, वह भी उनके निष्फल ही होता है । ऐसा कहा भी है "सुन्दर बुद्धिसे अर्थात् उत्तम परिणामोंसे किया हुआ उत्तम काम भी सम्यक्त्वके विना सुन्दर नहीं होता" इसलिये द्रव्यगुण तथा पर्यायों के जानने से जो शुद्ध सम्यक्त्व होता है, उसका आदर करना चाहिये अर्थात् द्रव्यादिके ज्ञानसे सम्यक्त्वको शुद्ध करके उसका ग्रहण करना चाहिये ||२|| अथ नामतः षण्णां द्रव्याणां कीर्त्तनमाह । अब नामसे स्वमाननीय षट् द्रव्योंका कथन करते हैं । धर्माधर्मो नभःकालौ पुद्गलो जोव इत्यमी । अर्थाः षट् समये ख्याता जिनैराद्यन्तवर्जिताः ॥३॥ भावार्थ:- धर्म, अधमें, आकाश, काल, पुद्गल और जीव इस प्रकार इन आदि अन्तवर्जित छह द्रव्योंको श्रीजिनेन्द्रोंने जिनागममें कहा है ॥ ३॥ व्याख्या afaraiva धर्माधर्मौ धर्मास्तिकायाधर्मास्तिकायौ । तथा नभःकाली नभश्च कालश्च नमः कालावाकाशास्तिकाय कालौ 1 पुद्गलः पुद्गलद्रव्यम, जीवो जीवद्रव्यम, इत्यमी षट् । न न्यूना नाधिकाः । अर्थाः पदार्थाः समये श्रीजिनप्रणीतागमे ख्याताः कथिताः श्रीजिनः श्रीवीतरागः । कीदृशा आद्यन्तवजिता अनाद्यनिधना इत्यर्थः । एतेषां षण्णां कालं वर्जयित्वा पञ्चास्तिकायाः अस्तयः प्रदेशास्तैः कायन्ते शब्दायन्त इति पचा 1 Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशाखमालाबाम् स्तिकायाः । कालस्यास्तिकायत्वं कथं नास्ति तत्राह । “अपएसिए काले" कालद्रव्यस्य प्रदेशसंघातो न विद्यते यतः-एकः समयोऽन्यस्मात्समयान्न प्रश्लिष्यत एवमन्येषामपि । तथा हि “धर्माधर्माकाशादावेकैकमतः परं त्रिकमनन्तम । कालं विनास्तिकाया जीवमृते चाप्यकतणि ॥१॥ इत्यादि साधम्यंवैधादिभेदपरिज्ञापनाय प्रशमरत्यादिग्रन्था विलोकनीयाः । पुनरेतेषां भेदाः परिणामजीवमुत्ता सपएसाएयखित्तकिरियाय । निच्च कारणकत्ता सब्बगदइयर अपवेशा ॥१॥ ३ ॥ व्याख्यार्थः-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, · आकाशास्तिकाय, काल, पुद्गलद्रव्य और जीवद्रव्य यह षट् पदार्थ न इनसे न्यून ( कम ) और न अधिक श्रीवीतरागदेवने अथवा आचार्योंने श्रीजिनविरचित आगममें कहे हैं । कैसे हैं; यह छह पदार्थ ? कि-आदि अन्त शून्य हैं; अर्थात् न तो कभी इनको आदि हुई और न कभी इनका अन्त होगा । इन छहों पदार्थोंमेंसे कालको छोड़कर वाकीके पांच अस्तिकाय हैं। अस्ति प्रदेशका नाम है; अतः प्रदेशोंसे जो कायन्ते “कहे जाय" वह अस्तिकाय कहलाते हैं। अब कालके अस्तिकायता क्यों नहीं है। इस विषयमें कहते हैं; कि-काल अप्रदेशी है; अर्थात् कालद्रव्यके प्रदेशोंका संघात नहीं है; क्योंकि-एक समय दूसरे समयसे भेदको प्राप्त नहीं होता है । इस प्रकार अन्य घटिकाआदिका भी भेद नहीं हो सकता है । और धर्म, अधर्म, तथा आकाश यह तीनों एक एक हैं; और इनके आगेके तीन अर्थात् काल पुद्गल और जीव ये तीनों द्रव्य अनन्त हैं । तथा कालको छोड़के सब अस्तिकाय हैं; और जीवके सिवाय सब अकर्ता हैं । इत्यादि साधर्म्य, वैधर्म्यआदि भेदोंके जानने के लिये प्रशमरतिआदि ग्रन्थ देखने चाहिये । और इन छहों द्रव्योंके समस्त भेद यह हैं परिणामित्व, जीवत्त्व, मूर्त्तत्व, सप्रदेशत्व, एकत्व, क्षेत्रत्व क्रियावत्व नित्यत्व कारणवत्व कर्तृत्व सर्वगतत्व असर्वतत्व और प्रदेशत्व । इन भेदोंसे साधर्म्य वैधयका ज्ञान करना चाहिये अर्थात् जो धर्म जीवमें और पुद्गलमें दोनोंमें एकसे हों उनमें तो जीव पुद्गलके साधर्म्य है; और जो भिन्न २ हों उनमें वैधर्म्य है; ऐसे सबमें समझना ॥३॥ अथ धर्मास्तिकायस्य लक्षणमाह । अब धर्मास्तिकायका लक्षण कहते हैं । परिणामी गतेधर्मो भवेत्पुद्गलजीवयोः । अपेक्षाकारणाल्लोके मीनस्येव जलं सदा ॥४॥ भावार्थ:-लोकमें अपेक्षा कारण होनेसे पुद्गल तथा जीवके गमनका परिणामी धर्मास्तिकाय है; जैसे मीनके सदा गतिपरिणामी जल है ॥४॥ व्याख्या । गतेर्गमनस्य परिणामी अर्थाग्दतिपरिणामी पुद्गल जीवयोध मो धर्मास्तिकायो भवेत् । कस्माल्लोके चतुर्दशरज्ज्वात्मकाकाशखण्डे अपेक्षाकारणात् परिणामव्यापाररहितात, अधिकरणरूपौदासीन्यहेतोश्च तत्र दृष्टान्तमाय । मीनस्येव जलं सदेति सदा निर . Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [१६७ म्तरं जलं यथा मीनस्य मत्स्यस्य गतिपरिणामि अस्ति अपेक्षाकारणात् । गमनागमनादिक्रियापरिणतस्य मत्स्यस्य जलं अपेक्षाकारणमस्ति तथैव धर्मद्रव्यमपि ज्ञेयम । निष्कर्षस्त्वयम स्थले झषक्रियाव्याकुलतया चेष्टा हेविच्छाभावादेव न भवति । न तु जलामावादिति गत्यपेक्षाकारणे मानाभाव इति चेन्न । अन्वयव्यतिरेकाभ्यां लोकसिद्धव्यवहारादेव तद्धे तुत्वसिद्धरण्यथान्त्यकारणेनेतराखिलकारणासिद्धिप्रसंगादिति दिक् ॥४॥ व्याख्यार्थः-जीव तथा पुद्गलके गति अर्थात गमनमें परिणामी धर्मास्तिकाय द्रव्य होता है; क्योंकि-वह धर्म द्रव्य लोकमें अर्थात् चतुर्दश (चोदह १४) रज्जुप्रमाण जो आकाशखंड है; उसमें यह धर्मद्रव्य अपेक्षा कारण है; और गमनरूप अथवा गमनकरानेरूप व्यापारसे रहित अधिकरणस्वरूप उदासीन कारण है। इस विषयमें दृष्टान्त कहते हैं। जैसे जल मीन (मत्स्य) की गतिमें सदा परिणामी है क्योंकी-वह जल अपेक्षा कारण है । अर्थात् गमन तथा आगमनआदि क्रियामें परिणत मत्स्यके जल अपेक्षाकारण है । उसी प्रकार गमनमें परिणत जीव पुद्गलके धर्मद्रव्य भी अपेक्षा है; ऐसा जानना चाहिये । भावार्थ तो यह है; कि-वह मीन स्थलमें अपनी गमनक्रियामें व्याकुलित होता है; और उसव्याकुलतासे जो गमनकी चेष्टाकी कारणभूत इच्छा है; वह इच्छा ही नहीं होती इसीसे वह मीन स्थलमें गमन नहीं करता है। वहाँ कोई शंका करता है; कि-मीनस्थलमें जो गमन नहीं करता है; सो जलके अभावसे नहीं करता है; और तुम जो जलको गतिमें अपेक्षा कारण मानते हो इसमें कोई प्रमाण नहीं है ? उसका समाधान यह है; कि-यह ठीक नहीं क्योंकि-अन्वय और व्यतिरेकसे जो लोकमें प्रसिद्ध व्यवहार है; उसीसे उस जलमें गमनकी कारणता सिद्ध होती है; अर्थात् जिसके होनेपर कार्य हो और न होनेपर न हो यही अन्वयव्यतिरेक है; और जिसमें अन्वयव्यतिरेक घट जाय वही लोकमें कारण माना जाता है; इस प्रसिद्ध व्यवहारसे जल भी मीनकी गतिमें कारण है; क्योंकि-जलके होनेपर मीन गमन करता है; और जलके अभावमें नहीं इसलिये जल गमनमें कारण है । यदि ऐसा न मानोगे तो अन्तके कारणसे अन्य सब कारणोंकी असिद्धिका प्रसंग होगा । यह संक्षेपसे धर्मद्रव्यका लक्षण हुआ ॥४॥ अथाधर्मास्तिकायस्य लक्षणं कथयन्त्रह। अब अधर्मास्तिकायका लक्षण कहते हैं। स्थितिहेतुरधर्मः स्यात्परिणामी तयोः स्थितेः । सर्वसाधारणो धर्मो गत्यादि व्ययो योः ॥५॥ भावार्थ:-जीव तथा पुद्गलकी स्थितिका परिणामी और स्थितिका हेतु अधर्मद्रव्य है; और यह गति तथा स्थितिरूप अखिल साधारण धर्म इन धर्म अधर्मरूप दो ही द्रव्योंमें है ॥५॥ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् व्याख्या। तयोः पुद्गलजीवयोः स्थितिपरिणामी अपेक्षाकारणं स्थितिहेतुश्चाधर्मास्तिकायद्रव्यं भवेत् । गतिस्थितिपरिणतो गत्यादिरुच्यते । ईदृशोऽखिलसाधारणो धर्मों द्वयोद्रव्ययोरेव नान्येषां धर्माधमौ विहाय गतिस्थिती क्वापि न जायते । तथा च गतिस्थितिपरिणतानां सर्वेषां द्रव्याणां यदेकै कदम्पलावन कारण सिद्धयति तत्कारणमेतयोरेव द्वयोव्ययोरित्यर्थः । तेनच झवादिगत्यपेक्षाकारणं जलादिद्रव्येषु वर्तते । तत्र धर्मास्तिकायादिद्रव्यलक्षणस्य नातिव्याप्तिर्भवतीति निष्टङ्कः ॥५॥ व्याख्यार्थः-जीव तथा पुद्गलके स्थितिपरिणामी अर्थात् अपेक्षाकारण और स्थितिका हेतु अधर्मद्रव्य है । गति और स्थितिमें परिणत जो धर्म सो गत्यादि कहलाता है । ऐसा समस्त में साधारण धर्म दो ही द्रव्योंमें है, अन्य द्रव्योंमें नहीं अर्थात् धर्मद्रव्यको छोड़कर अन्य किसी द्रव्यमें गति नहीं है, और अधर्मद्रव्य के सिवाय अन्य किसी द्रव्यमें स्थिति नहीं है । और इससे यह सिद्ध हुआ कि-गति तथा स्थिति में परिणत जो सर्व द्रव्य हैं, उनमें एक एक द्रव्यके लाघवसे जो कारणता सिद्ध होती है, वह कारणता इन्हीं दोनों द्रव्योंमें है। इससे मत्स्यादिके गमनकी जो अपेक्षा कारणता जल आदि द्रव्योंमें है, वहां धर्मास्तिकायादिद्रव्यके लनगकी अतिव्याप्ति नहीं हुई क्योंकि वहां भी धर्मद्रव्यादि ही गतिआदिमें कारण हैं, यह तात्पर्य है ।५।। अथ धर्मास्तिकायदव्यस्य विषयिप्रमाणं प्रतिदिशन्नाह । अब धर्मास्तिकाय द्रव्यकी सत्ताके विषयमें प्रमाणका उपदेश कहते हुए आगेका श्लोक कहते हैं। सहजोर्ध्वगमुक्तस्य धर्मस्य नियमं बिना । कदापि गगनेऽनन्ते भ्रमण न निवर्त्तते ॥६॥ भावार्थ:-स्वभावसे ऊर्ध्वगमन करनेवाले मुक्त जीवके धर्म द्रव्यके नियम विना अनन्त आकाशमें परिभ्रमण जो है, वह कभी भी नहीं निवृत्त होगा । व्याख्या । सहजोवंगमुक्तस्य निसर्गोर्ध्वगामिसिद्धजीवस्य धर्मास्तिकायप्रतिबन्धं विना अनन्ते अतटे गगने लोकालोकव्यापिनि भ्रमणं गतिर्न निवर्त्तते न व्याहन्यत इति । किं च यदि गत्यां धर्मास्तिकायद्रव्यस्य प्रतिबन्धकत्वं न स्यात्तदा सहजोर्ध्वगामिसिद्धानामेकस्मिन्समये लोकाग्रयायिनां तथैवालोकेऽनन्ते प्रसपंतामद्यापि गमनस्योर्ध्वप्रवृत्तिलक्षणस्य निवृत्तिरपि न स्यात् । कथं तत् अनन्तलोकांशप्रमाणमलोकाकाशमस्ति । लोकाकाशस्य गति हेतुत्वं चास्ति ततोऽलोके सिद्धगतिर्नास्ति इत्थं च कथयितुन शक्यते । यतो धर्मास्तिकायं विना लोकाकाशस्य व्यवस्थैव न संपद्यते । धर्मास्तिकायविशिष्टाकाश एव हि लोकाकाशस्तस्य च प्रतिहेतुत्वे घटावावपि दण्डविशिष्टाकाशत्वेनैव हेतुतास्यादिति न किञ्चिदेतत् । अन्यच्च अभ्यस्वभावत्वेन कल्पिताकाशस्वभावान्तकल्पना चायुक्ता । तस्माग्दतिनिबन्धनोधर्मास्तिकायोऽवश्यमेव प्रमाणयितव्यः । तदुक्तं “चलणसहाथो धम्मो पुग्गलजीवाण" इत्यादि समयप्रमाणमप्यत्र ध्येयम ॥६॥ . Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा व्याख्यार्थः-स्वभावसे ऊर्ध्वगामी सिद्ध जीवका यदि धर्मास्तिकाय द्रव्य के प्रतिबन्ध विना अनन्त अर्थात् अतट ( अपार ) तथा लोक और अलोक दोनोंमें व्याप्त ऐसे आकाशमें परिभ्रमण जो है; सो नहीं रुक सकता है। और यदि गमनमें धर्मास्तिकायद्रव्यका प्रतिबन्धकत्व न हो तो एक समयमें लोकके अग्रभागमें जानेवाले और जैसे लोकमें गमन किया उसी प्रकार अलोक में गमन करनेवाले तथा स्वभावसे ऊर्ध्वगमनकारक ऐसे सिद्धोंके ऊर्ध्वगमनरूप जो गमन है; उसकी निवृत्ति ( रहितता) अबतक भी न हो क्योंकि-अनन्तलोकांशप्रमाण अलोकाकाश है, अर्थात् लोकसे अनन्त गुणा अलोक है । "लोकाकाश गतिमें हेतु है; इसलिये अलोकमें सिद्धोंका गमन नहीं है" ऐसा नहीं कह सकते क्योंकि-धर्मास्तिकायके विना लोकाकाशकी व्यवस्था ही नहीं हो सकती है । क्योंकि-धर्मास्तिकाय विशिष्ट ( सहित ) जो आकाश है; वह ही लोकाकाश है; और उस लोकाकाशको ही यदि गमनका कारण माने तो घट आदिमें भी दण्डविशिष्ट जो आकाश है; वह हेतु हो जावे । इसलिये लोकाकाशको गतिमें कारण मानना यह पक्ष अकिंचित्कर (अयुक्त) है । और भी अन्यस्वभावयुक्तत्वरूपसे जो कल्पित आकाश है; उसके अन्य स्वभावकी कल्पना करना यह . भी अयुक्त है; अर्थात् गतिहेतुता धर्मद्रव्यका स्वभाव है; उस गतिहेतुतासे युक्त जो आकाश उसकी लोकाकाश यह कल्पना की गई है; तब उस कल्पित लोकाकाशमें धर्मद्रव्यके स्वभावकी कल्पना अयोग्य ही है । इसलिये धर्मास्तिकायको गतिका हेतु अवश्य प्रमाणमें लाना चाहिये अर्थात् मानना चाहिये । और "धर्मद्रव्य पुद्गल और जीवोंको गमन करानेरूप स्वभावका धारक है" इत्यादि कहा हुआ जो सिद्धान्तका प्रमाण है; उसका भी यहां विचार करना चाहिये ॥६॥ अथ धर्मास्तिकाये प्रमाणमाह । अब अधर्मास्तिकायद्रव्य के विषय में प्रमाण कहते हैं । स्थितिहेतुर्यदा धर्मो नोच्यते क्वापि चेवयोः । तदा नित्या स्थितिः स्थाने कुत्रापि न गतिर्भवेत् ॥७॥ भावार्थ:-अब यदि जीव पुद्गलकी कही भी स्थितिका हेतुभूत अधर्म द्रव्य नहीं कहोगे तो पुद्गल और जीवकी नित्य स्थिति ही होगो कहीं भी उनकी गति नहीं हो सकेगी ॥७॥ व्याख्या। यदा द्वयोः पुद्गलजीवयोः क्वापि स्थितिहेतुरवस्थानकारणमधर्मास्तिकायो नोच्यते तदा स्थाने सर्वत्र स्थाने नियता नियामिका स्थितिरेव स्यात्, न कुत्रापि गतिर्मवे. दिति । यदि च सर्वजीवपुद्गळसाधारणस्थितिहेतुत्वमधर्मद्रव्यं न कथ्यते किन्तु धर्मा २२ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् स्तिकायाभावप्रयुक्तगत्यमावेनालोके स्थित्यभाव एवं निगदतामलोकाकाशेऽपि कस्मिश्चिदपि स्थानके गति विना पुद्गलजीवद्रव्ययोनित्यस्थितिः प्रापयितव्या स्यात् । इत्थमिव द्वितीयं गतिस्थितिस्वातन्त्र्यपर्यायरूपं चास्ति । यथा गुरुत्वलघुत्वयोरेकस्यकामावरूपाद्विशेषग्राहकप्रमाणात् । तस्मात्तथेति । ततः कार्यभेदेऽपेक्षाकारण द्रव्यभेदोऽवश्यं मन्तव्यः । धर्मास्तिकायामावप्रयुक्तस्थित्यमावेन गति भावकथनाद्धर्मास्तिकायस्याप्यपलापो भवेत्, निरन्तरगतिस्वमावेन वा द्रव्यमकतुं वा शक्यं तर्हि निरन्तरस्थितिस्वभावेनापि कथं क्रियते । तस्माच्छीजिनवाणीनिष्कर्षमासाद्य धर्मास्तिकायाधर्मास्तिकायेति द्रव्यद्वयमसंकीर्णस्वभावेन भावनीयमिति ॥७॥ व्याख्यार्थः-यदि जीव तथा पुद्गलद्रव्यकी कहीं भी स्थितिका कारण अधर्म द्रव्य नहीं मानोगे तो सब जगह नियतरूपसे जीव पुद्गलकी स्थिति ही सिद्ध होगी कहीं भी गति न होगी तात्पर्य यह कि-यदि सब जीव तथा पुद्गलके प्रति साधारण रूपसे स्थितिका हेतुभूत अधर्मद्रव्यको नहीं कहते हो किन्तु धर्मास्तिकायके अभावप्रयुक्त जो गतिका अभाव है; उसीसे अलोकमें स्थितिका अभाव है; ऐसा कहते हो तो इस प्रकार कहनेवाले तुम्हारे मतमें अलोकाकाशमें भी किसी भी स्थानमें गतिके विना पुद्गल और जीवद्रव्यकी नित्य स्थिति प्राप्त करनी होगी यदि अलोकमें धर्म द्रव्य के न होनेसे गति नहीं होती ऐसा कहो तब तो अन्वय व्यतिरेकसे जैसे धर्मद्रव्यको गतिमें कारणता है; ऐसे ही स्थितिमें अधर्मद्रव्यको कारण मानना पड़ेगा इस प्रकार गतिकी स्थिति एक स्वतन्त्र पर्याय है; और उसका कारण अधर्मद्रव्य है; न किगतिका अभाव स्थिति और धर्मका अभाव अधर्म है; जैसे विशेषसत्ताग्राहक प्रमाण होनेसे गुरुत्व लघुत्वमें एकका एक अभावरूप है; ऐसे ही धर्म अधर्म भी भावरूप हैं; क्योंकि-एक( धर्म ) का कार्य गति; और दूसरे ( अधर्म ) का कार्य स्थिति है; तब कार्यके भेदसे अपेक्षाकारण द्रव्यका भी भेद अवश्य मंतव्य है; और धर्मास्तिकायके अभावप्रयुक्तस्थितिके अभावसे गतिभावका कथन होनेसे धर्मास्तिकाय द्रव्यका भी अपलाप ( अभाव ) हो जायगा यदि यह कहो कि-निरन्तर गतिस्वभावसे द्रव्य (द्वथणुकादिद्रव्य ) कि सिद्धि कैसे कर सकते हैं; तो निरन्तर स्थितिशीलतासे भी द्रव्यको सिद्धि कैसे कर सकते हैं। क्योंकि-जीव पुद्गलोंमें गति क्रिया बिना कुछ भी नहीं होसकता इस कारणसे श्रीजिनदेवकी वाणीसे तत्त्वको ग्रहण करके धर्मास्तिकाय तथा अधर्मास्तिकाय यह दोनों द्रव्य असंकीर्ण (भिन्नभिन्न) स्वभाव हैं; ऐसी भावना अवश्य करनी चाहिये ।।७॥ अथाकाशद्रव्यस्य लक्षणमाविष्करोति । अब आकाशद्रव्य के लक्षणको प्रकट करते हैं । यो दत्ते सर्वद्रव्याणां साधारणावगाहनम् । लोकालोकप्रकारेण द्रव्याकाशः स उच्यते ॥८॥ .. Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतकणा [ १७५ भावार्थ:-जो साधारणरूपसे सब द्रव्योंको अवगाहन अर्थात् रहनेको देता है; वह आकाशद्रव्य है; और लोक तथा अलोक इन दो प्रकारोंसे कहा जाता है ।। ८॥ व्याख्या । य आकाशास्तिकायः सर्वद्रव्याणां सावारणावगाहनं सामान्यावकाश दत्ते स द्रव्याकाशो लोकालोकप्रकारेणोच्यत इति । यतः सर्वद्रव्याणां यः सर्वदा साधारणावकाशदाता सोऽनुगत एक आकाशास्तिकायः कथितः सर्वाधार इति । यथा पक्षिणां गगनमिवेति व्यवहारनयदेशभेदेन भवेत् । तद्देशीयानुगत आकाश एव पर्यवसन्नः स्यात् । तथा च तत शोर्ध्वमागावच्छिन्नमूर्तामावादिना तव्यवहारोपपत्तिरिति वर्धमानाद्यक्त नानवद्यम् । तस्यामावादिनिष्ठत्वेनानुभूपमानद्रव्याधारांशापलापप्रसगात्, तावदानसंधानेऽपि लोकव्यवहारेणाकाशदेशप्रतिसंधयोक्तव्यवहाराच । आकाशस्तु लोकाकाशादिभेदेन द्विधोक्तः । यतः सूत्रम "दुविहे आगासे पणत्ते लोयागासेय अलोयागासेय" एतम्देशयम ॥८॥ व्याख्यार्थः-जो सब द्रव्योंको साधारण( सामान्य रूपसे अवकाश देता है; वह आकाशास्तिकाय लोक और अलोक इन भेदोंसे आकाशद्रव्य कहलाता है। क्योंकिजो सब द्रव्योंको सदा अवकाश देनेवाला है; वह अवकाशदातृतारूप एक ही आकाशास्तिकाय सर्वाधार कहा गया है । जैसे कि--पक्षियोंका आधार गगन ( आकाश ) है; यद्यपि यह व्यवहार नयदेशभेदसे होता है; परन्तु उन उन देशों में अनुगत जो एक आकाश है; उसीकी इस व्यवहारसे सिद्धि होती है । और उन उन प्रदेशों में ऊद्धर्वदेशावच्छेदसे मूर्तिमत्ताके अभावआदिसे अवकाशदातृत्वरूपसे आकाशके व्यवहारकी उपपत्ति होती है। ऐसा जो वर्धमानआदिका कथन है; सो अयुक्त वा दुष्ट नहीं है । क्योंकिआकाश अभाव (शून्य) रूपताकी प्रतीति है; तथा सर्वदा अनुभूयमान जो संपूर्ण द्रव्योंकी आधारताका अंश है; उसके अपलाप ( नाश ) होनेका प्रसंग है; और जहांतक गतिका संधान है; वहातक भी लोकव्यवहारसे आकाशदेशप्रतिसंधयोक्त व्यवहार है । और यह आकाश लोकाफाश, और अलोकाकाश इन भेदोंसे दो प्रकारका कहा गया है क्योंकि-"आकाश दो प्रकारके कहे गये हैं; एक लोकाकाश और दूसरा अलोकाकाश" ऐसा सूत्र है ॥८॥ अर्थनमेवार्थ मीमांसयन्नाह । अब इसी अर्थका विचार करते हुये कहते हैं । धर्मादिसंयुतो लोकोऽलोकस्तेषां वियोगतः । निरवधिः स्वयं तस्यावधित्वं तु निरर्थकम् ॥६॥ भावार्थः-धर्मादि द्रव्योंसहित जो आकाश है; वह लोकाकाश है; और जो धर्मआदि द्रव्योंसे शून्य है; वह अलोकाकाश है । और वह स्वयं अवधिरहित है; रमको अवधिका मानना निरर्थक ही है ॥९॥ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ ] व्याख्या | धर्मास्तिकायादिसंयुक्त आकाशो लोकास्तदितरस्त्वलोकः । स च पुनर्निरवधिरपारोऽलोकस्तस्या लोकस्य स्वयमात्मना अवधित्वमन्तर्गडु इति । कश्चिदाहात्र यथा लोकस्य पार्श्वेऽलोकस्यापि पारोऽस्ति तथैवाग्रेऽपि द्वितीयतटे पारो भविष्यतीति ब्रुवाणमुत्तरयति । लोकस्तु भावरूपोऽस्ति तस्यावधित्वं घटते परन्त्वग्रेऽलोकस्य केवलमभावात्मकस्यावधित्वं कथं कल्पते शशशृङ्गवत् । यथा असदविद्यमानं शशशृङ्ग न कुत्रापि निरीक्ष्यमाणं विद्यमानवदाभाति, तथैव तस्याव्यलोकस्य अविद्यमानस्यावधित्वं न घटामाटीकते । अथ च भावरूपात्मकत्वमङ्गीक्रियते तदा तु षडतिरिक्तमन्यद्रव्यं नास्तीति व्यवहारादाकाशदेशरूपस्य तु तदन्तत्वं कथयतां बुद्धयाघातो जायते । तस्मादलोकाकाशस्त्वनन्तएव मन्तव्य इति । आकाशो सान्तः शंसितो धर्माधर्मानुभावात् तस्य भावस्तरभावात्तदभावः । अलोकाकाशोऽपि सान्तो धर्माधर्मानुभावी भवन्नतिरिक्तद्रव्यत्वमापत्स्यते । तस्माद्यथोक्तमेव न्याय्यम् । यावता आकाशेन धर्माधम व्याप्य स्थिती तावता तत्परिणामशालिना आकाशेनापि भवितव्यम् । तयोरभावात्तस्याप्यभावः सुपरिशीलनीय इति ॥ ९ ॥ यशा श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् व्याख्यार्थः--धर्मास्तिकायआदि द्रव्योंसे संयुक्त जो आकाश है; वह लोकाकाश है; और उन द्रव्योंसे जो असंयुक्त है; वह अलोकाकाश है, और वह अलोक निरवधि अर्थात् अपार ( अन्तरहित ) है; क्योंकि उस अलोकके अपने स्वरूपसे अवधित्व कहना यह निरर्थक है; अर्थात् अलोकाकाश अवधिसहित है; यह कहना व्यर्थ है । अब यहाँ कोई शंका करता है; कि - " जैसे लोकाकाशके पास में अलोकाकाशका पार होता है; ऐसे ही आगे भी अर्थात् दूसरे तटमें भी उसका पार अवश्य होगा" ? इस प्रकारकी शंका करनेवालेको उत्तर देते हुऐ कहते हैं; कि - लोकाकाश तो धर्मादिद्रव्योंका अधिकरण होनेसे भावरूप है; इसवास्ते उसका तो अन्त घटित होता है; परन्तु उसके आगे धर्मादि द्रव्योंसे शून्य केवल अभावस्वरूप जो सुस्सेके सींगके समान अलोकाकाश है; उसके अवधिसहितता कैसे कल्पित हो सकती है। जैसे अविद्यमान जो सुस्सेका सींग है; उसको देखो तो वह कहीं भी विद्यमान पदार्थके समान देखनेमें नहीं आता है; ऐसे ही विद्यमान जो अलोक है; इसके भी मर्यादाका कथन करना है; सो संगत नहीं है । और यदि इस अलोकाकाशको भावस्वरूप अङ्गीकार करो तो छह द्रव्यसे अतिरिक्त (सिवाय ) कोई अन्य द्रव्य नहीं है; इस व्यवहारसे आकाशदेशस्वरूप जो अलोकाकाश है; उसके सान्तता कहनेवालोंकी बुद्धिका घात होता है । इसलिये अलोकाकाशको तो अनन्त (अपार) ही मानना चाहिये । आकाश अर्थात् लोकाकाशको जो सान्त कहा है; सो धर्म और अधर्मद्रव्यकी सामर्थ्य से कहा गया है; और इसीसे वह भावरूप है; और धर्मादिके अभाव से अलोकाकाश अभावरूप है। यदि अलोकाकाशको भी सान्त मानोगे तो वह अलोकाकाश धर्म अधर्मका अनुभावी ( सामर्थ्ययुक्त) होता हुआ छह द्रव्योंसे भिन्न द्रव्यताको प्राप्त हो जायगा | इसलिये Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ १७३ अलोकाकाशके विषय में पूर्वकथित जो अवधिरहितता ( अनन्तपना ) है; सो ही युक्तियुक्त है । पर्य यह है कि जितने आकाशदेश में धर्म अधर्म व्याप्त होकर स्थित हैं; उतने ही परिमाणसहित आकाशको भी होना चाहिये और जहां धर्म अधर्म इन दोनोंका अभाव है; वहां आकाशका भी अभाव ही समझना चाहिये अर्थात् अलोकाकाश अनन्त है; न कि सान्त ॥ ९ ॥ अथ कालभेदानाह । अब कालके भेदोंको कहते हैं । वर्त्तनालक्षणः कालः पर्यवद्रव्यमिष्यते । द्रव्यभेदात्तदानन्त्यं सूत्रे ख्यातं सविस्तरम् ॥१०॥ भावार्थ:- वर्त्तनालक्षण जो काल हैं; वह पर्यवद्रव्य माना गया है; और द्रव्यके भेदसे उस कालका अनन्तपना उत्तराध्ययनसूत्र में विस्तार से कहा गया है ||१०|| व्याख्या । कालस्तु परमार्थतो द्रव्यं नास्तीति शङ्कमानं निराकुरुते । वर्त्तनेति - सर्वेषां द्रव्याणां वर्त्तनालक्षणो नवीनजीकरणलक्षणः कालः पर्यायद्रव्यं इष्यते । तत्कालपर्यायेष्वनादिकालीन द्रव्योपचारमनुसृत्य कालद्रव्यमुच्यते । अत एव पर्यायेण द्रव्यभेदात्तस्य कालद्रव्यस्यानन्त्यम् । अनन्तकालद्रव्यभावनं सूत्रे उत्तराध्ययने सविस्तरं ख्यातम्, तथा च तत्सूत्रम् - "धम्मो अधम्मो आगासं दब्बमिक्किक्कमाहियं । अाणि यदब्बणि कालो पुग्गल जंतवो” । १ । एतदुपजीव्यान्यत्राप्युक्तम् । धर्माधर्माकाशादेकैकमतः परं त्रिकमन्तन्तमिति । ततो जीवद्रव्यमप्यनन्तं तस्य च वर्त्तमानपर्यायस्यार्थं कालद्रव्यमथा नन्तमित्युक्तमागमे । विस्तरस्तु ततोऽवधारणीयः ॥ १० ॥ व्याख्यार्थः — परमार्थ में कालद्रव्य नहीं है ? ऐसी शंका करनेवालेको " वर्त्तना" इत्यादि सूत्रसे निराकृत करते हैं । सब द्रव्योंका वर्त्तनालक्षण काल है; अर्थात् द्रव्योंको नवीन ( नये) और जीर्ण ( पुराने ) करनेवाला जो है; वही काल है; और यह पर्यायद्रव्य माना गया है । उन कालके पर्यायोंमें अनादि कालसे द्रव्यके औपचरिक व्यवहारका अनुसरण करके "कालद्रव्य" यह कहा जाता है । इसीलिये पर्यायके द्वारा द्रव्यका भेद होनेसे उस कालद्रव्यकी भी अनन्तता है । कालद्रव्य अनन्त है; इसकी सिद्धि उत्तराध्ययनसूत्रमें विस्तारसहित कही गई है । और उस उत्तराध्ययनका सूत्र यह है; "धर्म, अधर्म, तथा आकाश यह एक एक कहे गये हैं; और काल पुद्गल तथा जीव यह अन्तके तीनों द्रव्य अनन्त हैं ।। १ ।।" इसी सूत्रके आधारसे अन्यत्र भी कहा है; कि-धर्म, अधर्म, तथा आकाश यह तीनों एक एक हैं; और इनसे आगेके तीनों द्रव्य अर्थात् काल, पुद्गल और जीव यह अनन्त हैं । इस हेतुसे जीवद्रव्य भी अनन्त है; और उस अनन्त जीव द्रव्यके वर्त्तमान जो अनन्त पर्याय हैं; उनके लिये कालद्रव्य भी अनन्त है; ऐसा आगम में Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् कहा है । और इस कालद्रव्यका विस्तारसे वर्णन भी उन्हीं आगमोंसे अवधारण करना चाहिये ॥१०॥ अथ कण्ठतोऽपि सूत्र जीवाजीवाभ्यामतीतकालः कथितोऽतस्तमेव तथैव सूत्रयन्नाह । अब कंठसे भी सूत्रमें जीव और अजीवसे अतीत काल कहागया है; इसलिये उस कालको उसी प्रकार सूत्रित करते हुये कहते हैं । जीवाजीवमयः कालः समये न पृथक्कृतः । इत्येके संगिरन्तेऽत्र धारयन्तः शुभां मतिम् ॥११॥ भावार्थ:-कितने ही शुभ बुद्धिको धारण करते हुये आचार्य इस विषयमें यह कहते हैं; कि-सिद्धान्तमें कालको जीव, अजीवरूप ही माना गया है; जुदा नहीं किया गया ॥ ११ ॥ व्याख्या । “समये सिद्धान्ते जीवाजीवमयो जीवाजीवरूपः कालः कथितः पृथग मिन्नस्ताभ्यां न कृतस्ततो भिन्नः कथं कथ्यते" इति पूर्वोक्तमेक आवार्याः संगिरन्ते भाषन्ते अत्र । किं कुर्वन्तः शुमा विशुद्धां मति बुद्धि धारयन्तः शुद्धबुद्धिमतां सुधीराणां यथोक्तश्रीजिनप्रणीत तत्ववेत्त णां प्राणिनां सम्यक्त्वाबाप्तिः सुलमः भवतीति ध्येयम । तथा च गौतमेन भद्रकपरिणामशालिना भगवान पृष्टः । तदाहेति भगवन किमयं कालो जीवस्तथा जीवश्चेति प्रश्ने भगवानाह । गौतम जीवोऽपि काल:, अजीवोऽपि काल: तदुभयं काल एव जीवाजीवयोः कालेनोपजीव्योपजीवकभावसंबन्धः संतिष्ठत इति ॥११॥ व्याख्यार्थः-समय अर्थात् जिनसिद्धान्तमें जीव तथा अजीवमय अर्थात् जीव और अजीवरूप काल कहागया है; तात्पर्य यह कि-कालको जीव और अजीव इन दोनोंसे भिन्न नहीं किया इस कारण इस कालद्रव्यको तुम जीव अजीवसे भिन्न कैसे करते हो अर्थात् जीव अजीवसे जुदा कालद्रव्य क्यों मानते हो। इस प्रकार यह पूर्वोक्त सिद्धान्त विशुद्ध बुद्धिके धारक एक आचार्य कहते हैं । इस कथनसे शुद्ध बुद्धिके धारक उत्तम धारणावाले और श्रीजिनेन्द्र देवने जैसे कहे वैसे ही तत्वोंके ज्ञाता भव्यजीवोंके सम्यक्त्वकी प्रापि मुलभ होती है; यह विचार करना चाहिये । सो हो दिखाते हैं कि-भद्र परिणामोंके धारक गौतमस्वामीने एक समय श्रीमहावीरस्वामोसे पूछा कि-हेभगवन् ! यह काल जीव है; वा अजीव है ? इस प्रकार प्रश्न करनेसर श्रीभगवान बोले कि-हे गौतम! जीव भी काल है; और अजीव भी काल है है; इसलिये जीव तथा अजीव दोनों काल ही हैं। क्योंकि-जीव तथा अजीवका काल के साथ उपजीव्य अजीवकभाव सम्बन्ध पूर्णरूपसे स्थित है । ऐसा भगवान्का वचन है; इसलिये यह काल जीव अजीवरूप ही है, इनसे भिन्न नहीं ॥ ११ ॥ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा पुनस्तदेवाह । पुनः उसी कालद्रव्य के विषय में कहते हैं । आहुरन्ये भचक्रस्य विश्वेचारेण या स्थितिः । कालोsपेक्षाकारणं च द्रव्यमित्यपि पञ्चमे ॥ १२ ॥ भावार्थ:- और अन्य आचार्य कहते हैं; कि—संसारमें ज्योतिश्चक्र के संचार से जो स्थिति है; वह काल है, और कितने ही कालको अपेक्षाकारण करते हैं, तथा कितने ही कालको द्रव्य कहते हैं ॥ १२ ॥ व्याख्या । अन्ये आचार्या एवं कथितवन्तो भचक्रस्य ज्योतिश्चक्रस्य चारेण या विश्वे स्थितिरवस्थाविशेषः स काल इत्यभिधीयते । तथा च वर्तुलाकारं ज्योतिश्वक तस्य चारेण परत्वापरत्वनवपुराणादिभावस्थितिहेतुः तस्यापेक्षाकारणं मनुष्यलोके ह्यर्थस्य सूर्य क्रियोपनायक द्रव्य चारक्षेत्र प्रमाणमेवोपकल्पनं घटते । तत एतादृशं कालद्रव्यं कथ्यते । तत एव भगवत्यङ्ग "कईणं भंते दब्बा पन्नत्ता । गोयमाद्दब्बं पण्णत्ता । वं जहा धर्माच्छिकाए जाव अद्धासमये ।" एतद्वचनमस्ति तस्य निरुपचरितव्याख्यानं घटते । तथा च वर्त्तनापर्यायस्य साधारणापेक्षा न कथ्यते तदा तु गतिस्थित्यवगाह्नापेक्षा साधारणकारणत्वेन धर्माधर्मास्तिकाय सिद्धी बाती तत्राप्यनाश्वास आयाति । अथ च “अर्थयुक्त्या ग्राह्यमस्ति तस्मात्केवलमाज्ञयैव ग्राह्यस्ति परन्तु कथं संतोषघृती भवेताम् ॥ १२ ॥ [ १७५ व्याख्यार्थः- - अन्य आचार्योंने इस प्रकार निरूपण किया है, कि -ज्योतिश्चक्र के संचारसे जो संसारमें स्थिति अर्थात् अवस्थाविशेष है, वही काल इस प्रकार कहा जाता है । सोही स्पष्ट करके दिखाते हैं, कि गोलाकार जो ज्योतिश्चक्र है, उसके संचारसे परत्व अपरत्व तथा नवीन पुराणआदिरूप जो पदार्थों की स्थिति है, उसका हेतु अर्थात् अपेक्षा कारण काल है । क्योंकि - मनुष्यलोक में सूर्यकी जो गतिरूपा क्रिया है, वही पदार्थोंकी नायिका है, अर्थात् उन २ पर्यायोंमें पदार्थोंको प्राप्त करनेवाली सूर्यकी क्रिया है, और यह कल्पना जहाँतक द्रव्योंका संचार क्षेत्र है, अर्थात् जहांतक द्रव्योंका संचरण होता है, asiaक कालद्रव्यकी कल्पना घटित होती है । अतएव श्रीभगवत्यंगसूत्रमें भी यह वचन है । " कईणं भंते दब्बापन्नत्ता गोयमाद्ददब्बं पणत्ता तं जहा धमत्थिकाए जाव अद्धासमये" अर्थात् हे भगवन् ! द्रव्य के हैं, तब स्वामीने कहा कि - हे गौतम! ६ द्रव्य हैं, वह जैसे धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश, जीव, पुद्गल और काल । उसका यह निरुपचरित व्याख्यान संगत होता है । और यदि वर्त्तनापर्यायके साधारण अपेक्षा न कहें तो गति और स्थितिके अवगाहन में अपेक्षारूप साधारण कारणतासे धर्मास्तिकाय तथा अधर्मास्तिकाय सिद्ध होजांय अविश्वाम होता है, और यह बात अर्थयुक्त ग्राह्य है। उससे केवल योग्य है, परन्तु संतोष और धैर्य कैसे होवं ॥ १२ ॥ करने परन्तु वहां भी आज्ञासे ही ग्रहण Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् एतन्मतद्वयं धर्मसंग्रहिण्यां च भाष्यके । अनपेक्षितद्रव्याथिकमते तस्य योजना ॥१३॥ भावार्थः-कालके विषयमें यह दोनों मत धर्मसंग्रहणी में तथा भाष्य में प्रतिपादित हैं; और अनपेक्षित द्रव्यार्थिकनयके मतमें इसकी योजना होती है ।। १३ ।। व्याख्या । एतन्मतद्वयं धर्मसंग्रहिण्या श्रीहरिमद्रसूरिणा व्याख्यातम । तथा च तग्दाथा "जं वत्तणाई रूवो कालो दब्बस्स चेव पज्जाओ। मो चेतवो धम्मो कालमव जस्म जोण लोएत्ति ।१।" एवमेतन्मतद्वयमलं श्रीहरिमद्रसुरिसंमतधर्मसहिनीसूत्रोक्त ज्ञेयम । तया च एतन्मतद्वयं भाष्यके श्रीतत्त्वार्थभाष्येऽपि वाचकैस्तथैव प्रणीतमस्ति । तथा च तद्ग्रन्य:- कालश्वेके' इति वचनाहितीयमतं श्रीतत्वार्थव्याख्याने समथितम् । पुनस्तस्य कालस्यानपेक्षितद्रव्यायिकनयना योजना युक्तिश्च भवति । तथा हि स्थूललोकव्यवहारसिद्धोऽयं कालोऽपेक्षारहितश्च ज्ञेयः । अन्यथा वर्तनापेक्षाकारणत्वेन यत्कालद्रव्यं साधितं तत्पूर्वापरादिव्यवहारविलक्षणपरत्वापरत्वादिनियामकत्वेन दिग्द्रव्यमपि सिद्ध स्यादिति । अथ च “आकाशमवगाहाय तदनन्या दिगन्यथा । तावप्येवमनुच्छेझत्ताभ्यां चान्यदुदाहृतम् १" इति सिद्धसेनदिवाकरकुतनिश्चयद्वात्रिंशिकायं विमृश्याकाशादेव दिक्कार्य प्रसिद्धयतीति । इत्यङ्गीकुर्वता कालद्रव्यं कार्यमपि कथंचित्तत एवोपपत्तिः स्यात् । तस्मात्कालश्चेत्येके इति सूत्रमनपेक्षितद्रव्यापिकतने वेति सूक्ष्मदृष्टया विभावतीयम् ॥१३॥ व्याख्यार्थः-यह दोनों मत श्रीहरिभद्रसूरीके मान्य जो धर्मसंग्रहणी सूत्र है; उसमें कहे हुवे जानने । उस धर्मसंग्रहणीसूत्रकी गाथा यह है; "ज' वत्तणाई रूवो कालो दब्बस्स चेव पज्जाओ । सो चेव तवो धम्मो कालस्सव जस्स जोण लोएत्ति । १ । और यह ही दोनों मत श्रीतत्त्वार्थाधिगमभाध्यमें श्रीसिद्धसेनजोने भी इसी प्रकार कहे हैं । और तत्त्वार्थसूत्र यह है "कालश्चेत्येके" (काल भी द्रव्य है; ऐसा एक आचार्य कहते हैं ) इस सूत्रमें एके इस पदमें दूसरा मत इस सूत्रके व्याख्यानमें समर्थित कियागया है । और उस कालकी योजना अनपेक्षित द्रव्यार्थिकनयके मतमें होती है। सो ही दिखाते हैं; कि-यह काल स्थूल ( माटा ) जो लोकयवहार है; उससे सिद्ध है; और अपेक्षारहित है। यदि ऐसा न हो तो जैसे वर्तनाका अपेक्षारूप कारण होनेसे काल द्रव्यको सिद्ध किया उसी प्रकार काल जिस पूर्वापरको साधता है; उससे विलक्षण (भिन्न) परत्व अपरत्वआदि व्यवहारका नियामक होनेसे दिशानामक द्रव्य भी सिद्ध हो जाय । और "आकाश अवगाहन होनेके लिये है; और दिशा उस आकाशसे भिन्न नहीं है; यदि ऐसा न हो और काल तथा आकाशसे भिन्न दिशारूप द्रव्यका उदाहरण दें तो काल और आकाश इन दोनोंके अनुच्छेदसे अर्थात् काल भी रहेगा आकाश भी रहेगा और यह दिशा एक और हो जायगी ऐसे पृथक् द्रव्य सिद्ध होगा । इस (१) इस गाथाका भावार्थ समझमें नहीं आया । Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ १७७ प्रकार सिद्धसेनजीकृत निश्चयद्वात्रिंशिका के अर्थको विचारके आकाशसे ही दिशाका काम सिद्ध होता है; ऐसा जानना । और इस प्रकारके सिद्धान्तको स्वीकार करनेवालोंके कालद्रव्य कथंचित् कार्य ही है; अर्थात् मानना ही चाहिये ऐसा विचार होगा और इसीसे परत्व अपरत्वकी सिद्धि होगी । इसलिये "कालश्वेत्येके" यह सूत्र अनपेक्षित द्रव्यार्थिक नयसे ही कहा गया है; इस प्रकार सूक्ष्म दृष्टिसे विचारलेना चाहिये ।। १३ ।। अथ कालद्रव्याधिकारं दिगम्बरप्रक्रिययोपन्यसन्नाह । अब कालद्रव्यका अधिकार दिगंबरमतकी प्रक्रियासे उपन्यसित करते हुये कहते हैं । मन्दगत्या प्यणुर्यावत्प्रदेशे नभसः स्थितौ । याति तत्समयस्यैव स्थानं कालाणुरुच्यते ॥१४॥ भावार्थ:- आकाशके प्रदेशके स्थान में मंदगतिसे परमाणु जितने समय में गमन करता है; उस समय अर्थात् उस समयप्रमाण जो काल है; उसके स्थान में कालाणु यह व्यवहार होता है ।। १४ ।। व्याख्या | मन्दगत्या मन्दगमनेनाणुः परमाणुर्नमम आकाशस्य प्रदेशे स्थिती स्थाने यावदिति यावता कालेन गच्छति तत्समयस्य तत्कालपरिमितस्य कालस्य स्थानं कालाणुरिति व्यवहारे जायत इति । एकस्य नभसः स्थाने मन्दगतिरणुर्यावता कालेन सञ्चरति तत्पर्यायेण समय उच्यते तदनुरूपश्च यः स कालः पर्यायसमयस्य भाजनं कालाणुरिति । स चैकस्मिन्नाकाशप्रदेश एकैक एवं कुर्वतां समस्त लोकाकाशप्रदेशप्रमाणाः कालावो जायन्त इति । इत्थं कश्चिदपरो वदन् जैनामासो दिगम्बर एवास्ति । उक्तं च द्रव्यसंग्रहे “रयणाणं रासी इव ते कालाणु असंखदब्बाणि" इति ॥ १४ ॥ व्याख्यार्थः–आकाशके प्रदेश स्थानमें जितने कालमें मन्दगति से परमाणु जाता है; उतने समयपरिमाण जो काल है; उस कालके स्थान में "कालाणु" यह व्यवहार होता है । और एक आकाशके स्थानमें मन्दगमनका धारक परमाणु जितने कालमें जाता है; कालको पर्यायरूप से समय कहते हैं । और समयरूप जो काल है; वह पर्यायरूप समयका भाजन कालागु है । और वह कालाणु एक आकाशके प्रदेशमें एक है; एक आकाश प्रदेशमें एक है; इस प्रकार जब करते हैं; तब लोकाकाश के समस्त प्रदेशों के समान कालाणु होते हैं । अर्थात् लोकाकाशके असंख्यात प्रदेश हैं; और एक एक प्रदेशमें एक एक काला है; इस प्रकार असंख्यात ही कालाणु होते हैं । सो ही द्रव्य संग्रह में कहा हैं; कि - "रत्नोंकी राशिकी तरह वह कालाणु असंख्यात द्रव्य हैं ||१४|| इति दिगम्बरमतमनुसृत्य योगशास्त्राभ्यासनापरोऽपि कचिदेतद्वचनमुदाजहार । इस दिगम्बरमतका अनुसरण करके योगशास्त्र के अभ्यास से अन्य किसीने भी यह अग्रिम सूत्रोक्तवाक्यका उदाहरण दिया है । २३ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् योगशास्त्रान्तरश्लोके मतमेतदपि श्रुतम् । लोकप्रदेशेऽप्यणवो भिन्ना भिन्नास्तदग्रता ॥ १५ ॥ भावार्थ:-योगशास्त्रके अन्तर्गत श्लोकमें हमने यह भी सुना है; कि-लोकाकाश प्रदेशमें जो भिन्न भिन्न कालाणु स्थित हैं; वह भिन्न स्थिति कालद्रव्यकी प्रधानता है ॥१५॥ ____ व्याख्या । योगशास्त्रान्तरश्लोक एतदपि मतं श्रुतं दिगम्बरमतेऽपि अन्तरश्लोकव्याख्यानमपीष्टमस्ति । यतो-लोकप्रदेशेऽपि अणवः भिन्ना भिन्ना: अणवस्तन्मूख्यत्वमापादयन्ति । लोकप्रदेशे भिन्ना मिन्ना: कालाण. वस्त एवं मुख्यकाल इति व्यवहारः । तथा च तत्पाठ: "कोकाकाशप्रदेशस्थाः भिन्नाः कालाणवस्तु ये । भावानां परिवर्ताय मुख्यः कालः स उच्यते । १। इति" अस्य मावार्थ:-लोकाकाशे यावन्तः प्रदेशास्तेषु तिष्ठन्तीति लोकाकाशप्रदेशस्था भिन्नाः पृथक पृथक् एकनभोदेशे एक इत्थं सर्वत्र सर्वे ये कालाणवः सन्ति त एव तावन्तः कालाणव इति । तु पुनर्भावनां परिवर्ताय "नूतनं कृत्वा जीणं करोति जीणं कृत्वा नूतनं करोति" एवं भावनां परिवर्ताय वर्तते स एव मुख्यः सर्वप्रधानपदार्थः काल उच्यत इत्यर्थः ॥ १५ ॥ व्याख्यार्थः-योगशास्त्रके अन्तर्गत श्लोकमें यह भी मत सुना है; और दिगम्बरमतमें इस योगशास्त्रान्तरश्लोकका व्याख्यान भी इष्ट है; क्योंकि-योगशास्त्र में यह श्रवण किया कि-लोकाकाशके प्रदेशमें जो पृथक् ( भिन्न भिन्न ) कालाणु स्थित हैं; वह कालाणु कालद्रव्यकी मुख्यताका प्रतिपादन करते हैं; अर्थात् लोकप्रदेशमें जो भिन्न भिन्न कालाणु हैं; वह ही मुख्यकाल हैं; ऐसा व्यवहार है। सो ही उस योगशास्त्रका पाठ है; कि-"लोकाकाश प्रदेशस्था भिन्नाः कालाणवस्तु ये । भावनां परिवर्ताय मुख्यः कालः स उच्यते । १।" भावार्थ इसका यह है; कि-लोकाकाशके जितने प्रदेश हैं; उन सब प्रदेशोंमें जो रहते हैं; उनको लोकाकाशप्रदेशस्थ रहते हैं; लोकाकाशप्रदेशस्थ जो भिन्न भिन्न अर्थात् एक आकाशके प्रदेशमें एक इस प्रकार सब लोकाकाशके प्रदेशोंमें जो सब कालाणु हैं; वह उतने ही हैं; जितने कि-आकाशके प्रदेश हैं । और जो भावों( पदार्थों )के परिवर्तनके लिये अर्थात् पदार्थको नूतन (नया) करके जीर्ण (पुराना) करता है; और जीर्ण करके नूतन करता है" इस प्रकारका जो पदार्थाका परिवर्तन है; उसकेलिये जो वर्तना है; वही मुख्य अर्थात् सर्वप्रधान पदार्थ काल कहागया है । इस प्रकार अर्थ है ॥ १५ ॥ पुनस्तदेव चर्चयन्नाह । फिर उसी कालकी चर्चा करते हुए कहते हैं । प्रचयोर्ध्वत्वमेतस्य द्वयोः पर्याययोर्भवेत् । तिर्यक्प्रचयता नास्य प्रदेशत्वं विना क्वचित् ॥ १६ ॥ भावार्थ:-इस कालद्रव्य के पूर्वापर दो पर्यायोंमें ऊर्वताप्रवय होता है; और प्रदेशरहितपनेसे तिर्यक्प्रचय कहीं भी नहीं होता ॥ १६ ॥ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ १७९ व्याख्या । एतस्य कालाणुद्रव्यस्य प्रयोर्ध्वत्वमूवंतापचयो द्वयोः पर्याययोः पूर्वापरयोर्भवेत् । यतो यथा मृद्रव्यस्य स्थासकोशकुशूलादिपूर्वापरपर्यायाः सन्ति तथैतस्य कालस्य समयावलीमुहूर्तादय: पूर्वापरपर्याया, वर्तन्ते । परन्तु स्कंधस्य प्रदेशसमुदायः कालस्य नास्ति तस्माद्धर्मास्तिकायादीनामिव तिर्यक्प्रचयता न संमवति, एतावता तिर्यक्प्रचयत्वं नास्ति । तेनैव कालद्रव्यमस्तिकाय इति नोच्यते । परमाणुपुद्गलस्येव पुनस्तिर्यक्प्रचयता नास्ति । तस्मादुपचारेणापि कालद्रव्यस्यास्तिकायता न कथनीया इति ॥१६॥ व्याख्यार्थः-इस कालद्रव्यके पूर्वापर दो पर्यायोंका ऊर्ध्वताप्रचय होता है; क्योंकिजैसे मृत्तिकारूप द्रव्यके स्थास कोश कुशूलआदि पूर्व अपर पर्याय होते हैं। ऐसे ही इसकालद्रव्यके भी समय, आवली, और मुहूर्त आदि पूर्व अपर पर्याय विद्यमान हैं। परन्तु स्कन्धका प्रदेश समुदाय कालके नहीं है इसलिये धर्मास्तिकायआदिके समान तिर्यक्प्रचयताका संभव नहीं है; अर्थात् कालके तिर्यक्प्रचयपना नहीं है। इसी कारणसे इस कालद्रव्यको अस्तिकाय नहीं कहते हैं । और परमाणु पुद्गलके तुल्य भी इसकी तिर्यक्प्रचयता नहीं है; इसलिये उपचारसे भी कालद्रव्यके तिर्यक्प्रचयता नहीं कहने योग्य है ।। १६ ।। अर्थतद्दिगम्बरमतं वादेन दूषयन्नाह । अब इस दिगम्बर मतको बादसे दूषित करते हुए कहते हैं। एवमणुगतेात्वा हेतु धर्माणवस्तदा । साधारणत्वमेकस्य समयस्कन्धतापि च ॥ १७ ॥ भावार्थः-इस प्रकार कालाणुके माननेसे परमाणुके गमनका हेतु मानकर धर्मद्रव्यके भी अणुसिद्ध हो जायेगे और तब एक पदार्थको साधारणताको ग्रहण करनेसे समयस्कन्धता भी सिद्ध हो जायगी ॥ १७ ॥ व्याख्या । एवमनया रीत्या यद्यणुगतेः परमाणुगमनस्य हेतुमिति हेतुत्वं लास्वा गृहीत्वा धर्माणवो धर्मद्रव्याणवो भवन्ति । तदैकस्य कस्यचित्सदार्थस्य साधारणत्वं गृहीत्व। समयस्कंधता स्यादिति । अथ योजना-एवं यदि मन्दाणुगतिकार्यहेतुपर्यायसमयमाजनं द्रव्यसमयाणुः कल्पते तदा मन्दाणूगतिहेतुतारूपगणभाजनं धर्मास्तिकायोऽपि सिद्धयति । एवमधर्मास्तिकायस्याप्यणुप्रसङ्गता स्यात् । अथ च सर्वसाधारणगतिहेततादिकं गहीत्वा धर्मास्तिकायाद्य कस्कन्धरूपं द्रव्यं कल्लते तदा देशप्रदेशादिकलनापि तस्य व्यवहारानुरोधेन पक्षाकर्त्तव्या स्यात् । यदि च सर्वजीवाजीवद्रव्यसाधारणवर्तनाहेतुतागुणं गृहीत्वा कालद्रव्यमपि लोकप्रमाणं कल्पयितुं युज्यते । धर्मास्तिकायादीनामधिकारेण साधारणगतिहेतुतायु पस्थितिरेवास्ति । अस्याः कल्पनायास्वभिनिवेशं विना द्वितीयं किमपि कारणं नास्ति ॥१७॥ व्याख्यार्थः-इस रीतिसे परमाणुके गमनरूप हेतुताके ग्रहणसे धर्मद्रव्यके भी अणु होसकते हैं। तब एक किसी पदार्थकी साधारणताके ग्रहणसे समयस्कंधता भी सिद्ध हो जायगी । अब इस श्लोककी योजना इस भांति है; कि-इस प्रकार यदि मन्द अगुगतिका. Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् . र्यका अर्थात् अणुवोंका मन्द गमनरूप जो कार्य है; उसका हेतु जो पर्यायसमयभाजन है; उसको द्रव्य समयाणु कल्पन करते हो तो मन्द अणुगतिमें हेतुतारूप गुणका धारक धर्मास्तिकाय द्रव्य भी सिद्ध होता है। और इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय द्रव्यको भी अणुका प्रसंग होय । अब कदाचित् यह कहो कि-सर्वसाधारणगति हेतुताआदिका ग्रहण कर धर्मास्तिकायआदि एक स्कंधरूप द्रव्यकी कल्पना करते हैं, तो देश प्रदेशआदिकी कल्पना भी उस स्कंधके व्यवहारके अनुरोधसे पीछे करनी पड़ेगी । और जो सब जीव अजीव द्रव्योंमें साधारण ऐसा जो वर्त्तना हेतुरूप गुण है उस गुणको ग्रहण करके कालद्रव्यकी भी लोकप्रमाण कल्पना करना युक्त है, ऐसा कहो तो धर्मास्तिकायआदि द्रव्यके अधिकारसे साधारणगति हेतुता ( साधारण गतिरूप कार्यकी कारणता ) आदिकी उपस्थिति है, उसीको कल्पना हो सकती है । और इसपर भी कालद्रव्यकी कल्पना करनेवाले मतमें मन्द अणुकी वर्त्तनारूप हेतुकी ही उपस्थित है। और इस कल्पनाका आग्रह के सिवाय दूसरा कोई भी कारण नहीं है ॥ १७ ॥ अथ पुनस्तदेव । अब फिर भी उसीका वर्णन करते हैं । अप्रदेशत्वमासूत्र्य यदि कालाणवस्तदा । पर्यायवचनोद्य क्तं सर्वमेवौपचारिकम् ॥१८॥ भावार्थः–यदि कालको अप्रदेशी सूत्रित करके और उस कालके अणु कहते हो तब यह सब उपचारसे पर्यायवचनमें योजित होता है ॥१८॥ व्याख्या । अप्रदेशत्वं प्रदेशरहितत्वं यद्यासूत्र्य प्रकल्प्य तस्य कालस्य अणवः कथ्यन्तते तदा पर्यायवचनेन योजितं क्रियते सर्वमप्युपचारेणेदमिति । तथा च यदैवं कथयत सूत्रे कालोप्रदेशी कथितस्तस्यानुसारेण कालाणव: कथ्यन्ते तदा तु सर्वमपि जीवाजीवपर्यायरूपमेव काल इति कथितमस्ति तत्र विरोधो नास्ति द्रव्यकालोऽपि कथं कथ्यते । ततस्तदनुमारेण कालस्यापि द्रव्यत्ववचनम् । तथा लोकाकाशप्रदेशप्रमाणानुवचनादीनि सर्वाण्युपचारेण योज्यानि । मुख्यवृत्त्या स पर्यायरूपः काल एव सुत्रसंमतोऽस्ति । अत एव "कालश्च त्येके" अत्रैकवचनेत सर्वसंमतत्वाभावः एचयामासेति । तेनाप्यत्राप्रदेशत्वं प्रदेशाभावं सूत्रणानुसृत्य तस्य कालस्याणुः कथ्यते तदा पर्वमप्येतदुपचारेण पर्यायवचनादिकेभ्यो युज्यमानं चारिमाणमश्चतीति । अथ च परमाणुमयो विभागोऽवयवस्तदितरस्तु प्रदेश इति वचनाव्द्योमाद्यारिमाण जतया सप्रदेशं स्थान तु सावयवमित्याचक्षीयास्तयापि “दोषोल्लासवशप्रसृत्वरतमकाण्डे तिदेदीपया, मासेनोऽदयवप्रदेशविषयो भेदस्त्वया दीपकः । अम्माभिः परमागुता प्रकटनामानेष्यमाणं पुरो दुरिव्यमिमारदीर्घरसनं निध्याय विध्वंसिनः ।। ननु पुर्व तावदम्बराभागा: परमाणुमया एव सन्ति न खलु कज्जलचूर्ग पूर्णसमुदकवन्निरन्तरपुद्गनपूरिते लोके स कश्चिन्नमसो विमागोस्ति यो निर्भरं न बिमरांवभूमिस्तरकथं न हेरेष ध्यमिचरिष्णुरिति ॥१८॥ . Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा . [ १८१ व्याख्यार्थः-यदि कालको प्रदेशरहित निरूपण करके उस कल्पित कालके अणु कहते हो तब यह सब उपचारसे पर्याय वचनमें योजित किया जाता है । इसका स्पष्टीकरण करते हैं, कि-यदि आप यह कहो कि-सूत्रमें काल प्रदेशरहित कहा गया है, उसके अनुसार हम कालाणु कहते हैं, तब तो संपूर्ण जीव अजीव पर्यायरूप ही काल है ऐसा कहा हुआ है, उसमें विरोध नहीं है । कालद्रव्य कैसे कहा जाता है ? इस शंकाका समाधान यह है, कि-उसीके अनुसार कालको भी द्रव्य कहा गया है । और लोकाकाश प्रदेशोंके प्रमाण काल है, ऐसे जो वचन हैं, वह भी सब उपचारसे युक्त करने योग्य हैं। मुख्यवृत्तिसे अर्थात् मुख्य शक्तिसे तो वह पर्यायरूप काल है, सो ही सूत्रसंमत है । अत एव "कालश्वेत्येके” ( काल भी द्रव्य है, ऐसा एक आचार्य कहते हैं ) इस सूत्रमें “एके” इस पदसे यही सूचित किया है, कि-काल सर्वसंमत द्रव्य नहीं है । इससे भी प्रदेशका अभाव सूत्रके अनुसार मानकर जो कालके अणुपनेका कथन करते हो तब भी यह सब उपचारसे पर्याय वचनआदिके साथ नियुज्यमान ( युक्त हुआ ) ही चारुता (रमणीयता) को प्राप्त होता है । यदि "परमाणुमयरूप जो विभाग है, सो अवयव है, और इससे भिन्न अर्थात् जो परमाणुरूप विभाग नहीं है, वह प्रदेश है" इस वचनसे आकाशादिक अपरिमाणज होनेसे सप्रदेश हैं, सावयव नहीं ऐसा कहो तो भी "दोषोंकी अधिकताके वशसे फैलते हुये अंधकारके समूहमें जो तुमने हमारे आगे अवयव और प्रदेशमें भेद है" इस कथनस्वरूप दीपक जाज्वल्यमान किया उस दीपकका हमने परमाणुताको प्रकट में लाकर दुःखसे निवारण करने योग्य व्यभिचार दोषरूपी सर्पको आगे रखके बुझा डाला अर्थात् परमाणुताकी सिद्धिसे यह भेद न ठहरेगा ? पहले तो आकाशआदिके विभाग भी परमाणुरूप ही हैं, क्योंकिकाजलके चूर्णसे पूर्ण पिटारीके समान निरन्तर पुद्गलोंसे भरे हुए जगत्में वह कोई भी आकाशका प्रदेश नहीं है, जो परमाणुवोंसे खूब न भरा हुआ हो इस कारण यह जो तुमने हेतु दिया है, वह व्यभिचारी कैसे नहीं ? अर्थात् है, ही ॥१८॥ अथोपचारप्रकारमेव दर्शयन्नाह । अब उपचारका प्रकार ही दिखाते हुए यह सूत्र कहते हैं। पर्यायेण च द्रव्यस्य ा पचारो यथोदितः । अप्रदेशत्वयोगेन तथाणूनां विगोचरः ॥१९॥ भावार्थः-जैसे पर्यायरूपसे कालद्रव्यकी पर्यायरूपता उपचारसे कही है, ऐसे ही अप्रदेशत्वके योगसे कालको अगुताके विषय में उपचार ही शरण है ॥ १२ ॥ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशानमालायाम् व्याख्या। षडेव द्रव्याणीति संख्यापूरणार्थ यथा पर्यायेण पर्यायरूपेण द्रव्यस्य कालद्रव्यस्य एतावता पर्यायल्पकाल द्रव्यविषये हि निश्चतं द्रव्यस्योपचारो यथा उदितः द्रव्यत्वोपचारकल्पना विहिता भगवत्यादिसूत्रविषये कृता तथैव सूत्रे कालद्रव्यस्थाप्यप्रदेशत्वयोगेन कालाणूनां विगोचरो विषयता ज्ञेया । एतावता सुशे कालस्यात्र प्रदेशता सूत्रिता तयैव कालाणुतापि सूत्रितास्ति तद्योजनया लोकाकाश प्रदेशस्थपुद्गलाणून विषय एव योगशास्त्रान्तरश्लोकेषु कालाणूनामुपचारो विहितः । मुख्य काल इत्यस्य चानादिकालीनाप्रदेशत्व. व्यवहारनियामकोपचारविषय इत्यर्थ अत एव मनुष्यक्षेत्रमात्रवृत्तिकालद्रव्यं ये वर्णयन्ति तेषामपि मनुष्यक्षेत्रावच्छिन्नाकाशादी कालद्रव्योपचार एव शरणमिति दिङ्मात्रमेतत् ॥ १६ ॥ व्याख्यार्थः-जिनसिद्धान्तमें षट् (६) ही द्रव्य हैं; इस संख्याकी पूर्ति के लिये जैसे पर्यायरूपसे कालद्रव्यका अर्थात् पर्यायरूप कालद्रव्यके विषयमें द्रव्यत्वके उपचारकी कल्पना भगवतीआदि सूत्रमें की गई है; उसी प्रकार सूत्रमें कालद्रव्यके जो अप्रदेशताका योग है; उससे कालाणुके विषयमें भी उपचार जानना । तात्पर्य यह कि-सूत्र में कालको प्रदेशरहित कहा है; उसी प्रकार कालाणुता भी सूत्रित की है; उसकी योजनासे लोकाकाशके प्रदेशमें स्थित पुद्गल परमाणुवोंके विषयमें ही योगशास्त्रान्तर श्लोकोमें कालागुवाका उपचार किया गया है। और "लोकाकाशप्रदेशस्था" इत्यादि श्लोकोंमें जो कालके विषयमें "मुख्यः कालः स उच्यते” इस प्रकार मुख्य कालरूपसे व्यवहार किया है; इसका यह अभिप्राय है; कि-अनादि कालसे अप्रदेशत्व व्यवहारका नियामक उपचारको विषयतासे वह काल मुख्य है। इसी कारणसे जो मनुष्य क्षेत्रमात्रवृत्ति अर्थात् मनुष्य क्षेत्रमात्रमें रहनेवाला कालद्रव्य है; ऐसा जो कहते हैं; उनको भी मनुष्यक्षेत्रावच्छिन्न जो आकाशादि हैं; उनमें कालद्रव्यका उपचार ही शरण है । यह दिग्दर्शनमात्र हमने कथन किया है ॥१९॥ अथ पुद्गलजीवयोः संक्षेपेण स्वरूपमाह। अब पुद्गल तथा जीवद्रव्यका स्वरूप संक्षेपसे कहते हैं । वर्णादिकगुण दो ज्ञायते पुद्गलस्य च । निसर्गचेतनायुक्तो जीवोरूपी ह्यवेदकः ॥२०॥ भावार्थः-वर्ण गंध तथा रसादि गुणोंसे पुद्गलद्रव्यका धर्मास्तिकाय आदिसे भेद जाना जाता है । और स्वाभाविक चेतनाका धारक, रूपरहित तथा वेदरहित जीव पदार्थ है ॥२०॥ व्याख्या । वर्णगन्धरसस्पर्णादिकगुणः पुद्गलद्रव्यस्याग्येभ्यो धर्मादिद्रव्येभ्यो भेदो ज्ञायते । वर्णाः पञ्च शुक्लपीतहरितरक्तकृष्णभेदात्, गन्धो द्वौ सुरम्यसुरभी चेति, रसाः षट् तिक्तकटककषायाम्लभधुरलवणभेदात, स्पर्शा अष्टी शीतोष्णे, खरमृदू, लमहती स्निग्धपुरुष चेति । सर्वमप्येतत्पुद्गलभेदाद्भिद्यते । च: पुनरर्थे निसर्गा सहजा या चेतना तया युक्तो . Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ १८३ निसर्गचेतनायुक्तः सर्वेभ्योऽचेतनेम्यो मिनो जीवो व्यवहारनयेन रूपवेदसहितोऽपि नियनयेन रूपरहितो रूपात्यन्तामावयुक्तः, वेदरहितो वेदात्यन्तामाववान्, सत्तामात्र निर्गुणो निर्विकारो जीव: । उक्त च-अरसमस्वमगंधं अवण्णं चेयणागुणमसद्द । जावअलिंगग्गहणं जीवमणिदिसंठाणं ।११ इत्युक्तेः जीवविशेषणानि शियानि ॥२०॥ व्याख्यार्थः-वर्ण, गंध, रस तथा स्पर्शआदि गुणोंसे युक्त होनेसे पुद्गलद्रन्यका अन्य धर्मास्तिकायआदि द्रव्योंसे भेद जाना जाता है। शुक्ल (सफेद) पीत (पीला) हरित (हरा) रक्त (लाल) तथा कृष्ण (काला) इन भेदोंसे वर्ण (रूप) पांच हैं । सुगंध, दुर्गन्ध, भेदसे गंध दो प्रकारका है । तिक्त, ( तीखा ) कटुक (कड़वा ) कषाय (कसापला) आम्ल (खट्टा) मधुर (मीठा) और लवण (खारा) इन भेदोंसे रस छह (६) प्रकारका है । शीत (ठंडा) उष्ण (गरम) खर (कठोर) मृदु (कोमल) लघु ( हलका ) महत् ( भारी ) स्निग्ध चिकना परुष (रूखा) इन भेदोंसे स्पर्श आठ प्रकारका है । यह सब पुद्गलके भेदसे भेदको प्राप्त होते हैं । सूत्रमें जो “च" शब्द है; सो पुनः के अर्थ में है, अतः और निसर्ग अर्थात् स्वभावसे उत्पन्न जो चेतना उस करिके युक्त होनेसे सब अचेतन द्रव्योंसे जीव भिन्न है । और व्यवहारनयसे रूप तथा वेदका धारक है; तो भी निश्चयनयसे जीव रूपरहित अर्थात् रूपके अत्यंत अभावसे युक्त और वेदरहित अर्थात् वेदके अत्यंताभावसे संयुक्त है; क्योंकि यह जीव सत्तामात्र, निर्गुण तथा विकाररहित है। ऐसा अन्यत्र कहा भी है । "रूपरहित, रसरहित, गंधरहित, वर्णरहित, चेतनायुक्त, शब्दरहित लिंगग्रहणसे रहित और अनिर्दिष्ट संस्थान ऐसा जीव जानना" इत्यादि कथनसे यह रूपरहित आदि सब जीवके विशेषण हैं; ऐसा जानो ॥२०॥ अथाध्यायपरिसमाप्तिकाम आह । अब अध्यायको समाप्त करनेकी इच्छासे अग्रिम काव्य कहते हैं । एवं समासेन षडेव भेदान्द्रव्यस्य विस्तारतयागमेभ्यः । श्रुत्वा समभ्यस्य च भव्यलोका अर्हत्क्रमाम्भोजयुगं श्रयन्तु ॥२१॥ भावार्थ:-हे भव्य जीवो ? इस प्रकार संक्षेपसे द्रव्यके छह ६ ही भेद हैं; उनको विस्तारसे शात्रोंसे श्रवण करके तथा पूर्णरूपसे अभ्यस्त करके श्रीजिनदेवके चरणकमलोंके । युगलका सेवन करो ॥२१॥ ___ व्याख्या । एवं पूर्वोक्तप्रकारेण समासेन संक्षेपेण च षडेव षट् संख्यावते जीवधर्माधकाशकालपुद्गलभेदान्द्रश्यस्य पदार्थस्य षण्णामपि द्रव्यशब्दः पृथग्युक्तः सन् पदव्यत्वमापादयति । अतो द्रव्यस्य षडेव भेदान्सूत्रोक्तान त्वा विस्तारतया विस्तारयुक्त्या आगमेभ्यः स्याद्वादिसमुपदिष्टेम्य आकण्यं श्रवणविषयीकरणं श्रवणं तत्र विस्तारेणैव श्रुतानामवगमो Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ ] श्रीमद्रराजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् जायतेऽतो विस्तारतया श्रुत्वा च पुनः समभ्यस्य वाचा उद्घोषणद्वारा कण्ठे कृत्वा मनसि निदिध्यास्य भो भव्यलोकाः सम्यक्त्विप्राणिनः ? अहंक्रमाम्भोजयुगं श्रीजिनचरणमजनस्थैर्य भजन्तु । श्रुत्वा स्मृत्वा च श्रीप्रभुस्मृतिरेव साधीयसी तस्कृत्वा तत्करणं श्रेयोनिबन्धनमिति । तथा भोजेति सङ्केतेन सन्दर्भकतु मनिदर्शनमिति । अत्राध्याये सम्यक्त्वदायि सर्वभेदाख्यानमिति प्रयोजनं चेति ॥२१॥ इति श्रीकृतिभोजसागरविनिर्मितायां द्रव्यानुयोगतर्कणाव्याख्यायां दशमोऽध्यायः । व्याख्यार्थः-इस पूर्वकथित रीतिसे संक्षेपसे द्रव्यके सूत्रमें कहे हुए छह ६ संख्याके धारक जीव, धर्म, अधर्म आकाश, काल और पुद्गल इन भेदोंको अर्थात् यहांपर जीव आदि छहोंके साथ जुदा २ द्रव्यशब्द लगानेसे षड्य ता सिद्ध होती है; इस कारण द्रव्यके छ हों ही भेदोंको स्याद्वादियोंसे उपदिष्ट ऐसे आगमोंसे अर्थात् जैनशास्त्रोंसे विस्तारपूर्वक अनेक युक्तियों द्वारा श्रवण करके “कणके विषयमें प्राप्त जो करना है; सो श्रवण है; उसमें विस्तारसे सुने हुए पदार्थांका ही ज्ञान होता है; इसलिये विस्तारसे श्रवण करके" और वचनसे घोषणद्वारा कण्ठ करके और मनमें धारण करके भो भव्य जीवो ? अर्थात् सिद्ध होने योग्य प्राणिवगों ? श्री जिनेन्द्रके चरणोंकी सेवामें स्थिरताको धारण करो। इस द्रव्योंके स्वरूपको सुनकर तथा स्मरण करके श्रीजिनेन्द्रकी भक्ति ही साधने योग्य है; इसलिये द्रव्यके स्वरूपका सुनना और धारण करना कल्याणका कारण है । यहांपर भोज इस संकेतसे टीकाकारने अपना नाम भी दिखाया है । और इस अध्यायमें सम्यक्त्वको पुष्ट (दृढ) करने के लिये सब द्रव्योंके भेदोंका कथन करना है; सो ही प्रयोजन है ॥२१॥ इति श्री पं० ठाकुरप्रसादशास्त्रिविरचित माषाटीकासमलतायां द्रव्यानयोगतर्कणांयां दशमोऽध्यायः ॥ अर्थकादशाध्याये गुणभेदान् व्याचिख्यासुराह । अब इस एकादश अध्यायमें गुणके भेदोंके वर्णनकी इच्छासे यह सूत्र कहते हैं । श्रीनाभेयजिनं नत्वा गुणदेष्टगुरुं तथा गुणभेदानहं वक्ष्ये क्रमप्राप्तान्यथामति ॥१॥ भावार्थः-मैं श्रीनाभिराजके पुत्र श्रीऋषभदेवजी तीर्थंकरको तथा वाणीके गुणोंके उपदेशक गुरुजीको नमस्कार करके अब क्रमप्राप्त गुणोंके भेदोंको इस एकादशवें अध्यायमें निजमतिके अनुसार कहूँगा ॥१॥ __ व्याख्या । नाभेरपत्यं नाभेयः श्रीयुक्तो नाभेयः स चासो जिनश्च श्रीनाभेयजिनस्त श्रीनाभेयजिनं श्रीऋषभनाथं नत्वा नमस्कृत्य तथा तेनैव प्रकारेण गुणदेष्ट गुरु गुणा वीणीगुणास्तान् दिशतीति गुणदेष्टा स चासौ गुरुश्च गुणदेष्ट गुरुस्तं नत्वा नमस्कृत्येति । निर्विघ्नसमाप्तिकामाय मङ्गलमिति । अहं गुणभेदान् क्रमप्राप्तान् द्रव्यव्यावर्णनानन्तरं .. Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ १८५ प्रस्तुतान् यथामति यथा स्यात्तथा पूर्वप्रणेतृणां विस्तारदुर्बोधत्वेन स्वमतिविषयी यथा स्यात्तथा वक्ष्ये कीर्तयिष्यामीति ॥१॥ व्याख्यार्थः-नाभिराजाके जो पुत्र हैं उनको नाभेय कहते हैं; अनेक प्रकारकी लक्ष्मीसे जो युक्त हों उनको श्रीनाभेय कहते हैं; श्रीनाभेय ऐसे जो जिन, सो श्रीनाभेय जिन हैं; उनको अर्थात् श्रीऋषभनाथ तीर्थंकरजीको नमस्कार करके तथा गुण जो वाणोके गुण उनका उपदेश करनेवाले जो श्रीगुरु हैं; उनको नमस्कार करके अर्थात् निर्विघ्न समाप्तिको इच्छासे इष्ट देव तथा गुरुको प्रणामरूप मंगलाचरण करके मैं द्रव्योंके विवरणके पश्चात् प्रस्तुत ऐसे गुणोंके भेदोंको निजबुद्धिके अनुसार अर्थात् पूर्वाचार्यप्रणीत ग्रन्थों में विस्तारसे वर्णन है; तथा कष्टसे उनका ज्ञान होता है; इस कारण अपनी बुद्धि के गोचर जैसे हो तैसे कहूँगा ।। १ ॥ अथात्र गुणभेदान्समानतंत्रप्रक्रियया प्रतिपादयन्नाह । अब यहां समानतंत्रप्रक्रियासे गुणके भेदोंका प्रतिपादन करते हुए कहते हैं । तत्रास्तित्वं परिज्ञेयं सद्भूतत्वगुणं पुनः । वस्तुत्वं च तथा जातिव्यक्तिरूपत्वमुच्यते ॥२॥ भावार्थः-उनमें सद्भूतत्व जो गुण है; उसको अस्तित्व जानना चाहिये और जाति (सामान्य) व्यक्ति (विशेष) रूप जो है; उसको दूसरा वस्तुत्व गुण कहते हैं ॥२॥ ___व्याख्या । अस्तित्वं । तोदं परिज्ञेयं सत्तातो यो गुणो भवति तस्मात्सद्भूतताया व्यवहारो जायते स चास्तित्वगुणः ।। वस्तुत्वं च जातिव्यक्तिरूपत्वम् । जातिः सामान्यं यथा-घटे घटत्वं । व्यक्तिविशेषो यथा-घट: सौवर्णः, पाटलिपुत्रः, वासन्तिक, कम्बुग्रीव इत्यादि । अत एवावग्रहेण सर्वत्र सामान्यरूपं भासते, अपा (वा) येन विशेषरूपामासो जायते । पूर्णोपयोगेन संपूर्णवस्तुग्रहो जायते, इत्थं वस्तुत्वं द्वितीयो गुणः ।। २ ।। ___ व्याख्यार्थः-उनमें सत्तासे जो गुण होता है; और जिससे लोक में सद्भूतताका व्यवहार होता है; वह अस्तित्व प्रथम गुण है; इसीको अस्तित्व जानना चाहिये । और जातिव्यक्तिरूप जो हो सो वस्तुत्व है। जाति सामान्यको कहते हैं; जैसे घटमें घटत्व, व्यक्ति विशेषका नाम है; जैसे यह घट द्रव्यसे सुवर्णका है, क्षेत्रसे पटना नगरका है, कालसे वसन्त ऋतुमें उत्पन्न हुआ है, और कंबुग्रीवआदि आकारका धारक है; इत्यादि । इसी कारणसे अवग्रहनामक मतिज्ञानके प्रथम भेदरूप ज्ञानसे सब स्थानों में सामान्यरूपका ही भान होता है; और मतिज्ञानका तृतीय भेद जो अपाय अथवा अवाय है; उसके द्वारा विशेषरूपका ज्ञान होता है। तथा परिपूर्ण ज्ञानसे सामान्य तथा विशेष दोनों रूप वस्तुका ग्रहण होता है । ऐसे वस्तुत्वनामक दूसरा गुण है ॥२॥ द्रव्यत्वं द्रव्यभावत्वं पर्यायाधारतोन्नयः । प्रमाणेन परिच्छेद्य प्रमेयं प्रणिगद्यते ॥३॥ . Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् भावार्थः-पर्यायके आधारसे जाननेमें आता हुआ जो द्रव्यभाव है; उसको द्रव्यत्वनामा तृतीय गुण कहते हैं। और जो प्रमाणसे जानने में आता है; वह प्रमेयत्व नामक चतुर्थ गुण है ॥३॥ ____ व्याख्या । द्रव्यं द्रवति तांस्तान्पर्यायान्गच्छतीति द्रव्यं तस्य मावस्तत्त्वम् । द्रव्यमावो हि पर्यायाधारताऽभिव्यङ्गयजातिविशेषः । "द्रव्यत्वं जातिरूपत्वाद् गुणो न भवति" ईदृग् नैयायिकादिवासनया आशङ्का न कर्त्तव्या । यतः सहभाविनो गुणाः क्रमभुवः पर्यायाः, ईदृश्येव जैनशासने व्यवस्थास्तीति । द्रव्यत्वं चेद्गुणः स्याद्रू पादिवदुत्कर्षापकर्षभागि स्यादिति तु कुचोद्यमेकत्वादिसंख्यायाः परमतेऽपि व्यभिचारेण तथा व्याप्त्यमावादेव निरसनीयम । ३ । प्रमाणेन प्रत्यक्षादिना परिच्छेद्य यद पं प्रमाणविषयत्वं प्रमेयत्वं तदित्युच्यते । तदपि कथंचिदनुगतसर्वसाधारणं गुणोऽस्ति । परम्परासंबन्धेन प्रमात्वज्ञानेनापि प्रमेयव्यवहारो जायते । तत: प्रमेयत्वं गुणस्वरूपादनुगतमस्तीति ॥ ४ । ३ ।। ____ व्याख्यार्थः-जो उन उन पर्यायोंको प्राप्त हो उसे द्रव्य कहते हैं; और उस द्रव्यका जो भाव है; उसको द्रव्यत्व कहते हैं । तथा द्रव्यका जो भाव है; वह पर्यायरूप आधारतासे अभिव्यंग्य (जानने योग्य ) जातिविशेष है। " द्रव्यत्व यह जातिरूप है; इसलिये गुण नहीं होता है" इस प्रकारकी आशंका नैयायिकोंकी वासनासे न करनी चाहिये । क्योंकि सहभावी गुण हैं और क्रमसे भावी ( होनेवाले ) पर्याय हैं; ऐसी ही व्यवस्था जैनशास्त्रमें कीगई है । और द्रव्यत्वमें जो गुण मानोगे तो रूपादिके समान उत्कर्ष तथा अपकर्षका भागी द्रव्यत्व होगा अर्थात् द्रव्यत्व जब गुण होगा तब रूपआदि गुणोंमें जैसे हीनता अधिकता रहती है। वैसे द्रव्यत्वमें भी रहेगी इत्यादि कुचोद्यका तो "परमतमें जो एकत्वआदि संख्याको गुण माना है; इसलिये व्यभिचारसे और नित्य परमाणुआदिगत एकत्वको नित्य माना है; इसलिये जहां गुणत्व है वहां उत्कर्ष (अधिक) अपकर्ष( हीन )की भागिता है; ऐसी व्याप्तिका अभाव होनेसे ही तिरस्कार करना चाहिये ॥३॥ प्रत्यक्ष आदिरूप प्रमाणसे जो परिच्छेद्य ( जाना जाय) ऐसा जो प्रमाणका विषय उसको प्रमेयत्व गुण कहते हैं । वह प्रमेयत्व भी कथंचित् सर्व प्रमेयोंमें अनुगत गुण है। और परम्परासंबंधसे प्रमात्वरूप ज्ञानसे भी प्रमेयका व्यवहार होता है। इसलिये प्रमेयत्वगुण स्वरूपसे अनुगत है। ऐसे प्रमेयत्वनामक चतुर्थ गुण है । ४ । ॥३॥ अगुरुलघुता सूक्ष्मा वाग्गोचरविज्जिता । प्रदेशत्वमविभागी पुद्गलः स्वाश्रयावधि ॥ ४ ॥ भावार्थः-वाणीका अविषय तथा सूक्ष्म अगुरुलघुता नाम पंचम गुग है। तथा विभागरहित पुद्गलके अधिकरण मात्र अवधिसहित प्रदेशत्व यह प गुग है ॥४॥ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ १८७ व्याख्या । अगुरुलघुता अगुरुल घुर्नाम गुणः सा कीदृशी सूक्ष्मा आज्ञाग्राह्यत्वात्, यतः “सूक्ष्म जिनोदितं सत्त्वं हेतुभिर्नेव हन्यते । आज्ञा सिद्ध तु तग्राह्य नान्यथावादिनो जिनाः ।।" पुनः कीदृशी वाग्गोचरविजिता वचनद्वारा वक्त मशक्या । यतः-"अगुरुलघुपर्याया सूक्ष्मा अवाग्गोचराः" इति अगुरुलघुनाम्ना पञ्चमो गुणोऽगुरुलधुत्वमिति ध्येयम् । अथ "प्रदेशत्वमविभागी पुद्गल: स्वाश्रयावधि" इति । अविमागी पुद्गल इति यावत् क्षेत्रे तिष्ठतीति तावत् क्षेत्रव्यापिष्णुत्वं प्रदेशत्वगुणः । यस्य विमागो न जायते विमक्तव्यवहारता न स्यात् पुनर्यावत् क्षेत्रमास्थाय तिष्ठति स्थिती तावत्क्षेत्रावगाहित्वं प्रदेशत्वम् । पुनः कोदृशं स्वाथ स्वशब्देनात्मा पुद्गलात्मककस्तस्य य आधारः आश्रयः स एववाधिमर्यादा यस्य तत्स्वाश्रयावधि । एतावता तदेवार्थत्वं स्वेन यावत्क्षेत्र स्थितं तावति क्षेत्र आश्रयाववित्वमप्यस्तीति ज्ञेयम । इति षष्ठो गुणः । ६। ॥ ४॥ व्याख्यार्थः-अगुरुलघुता अगुरुलघुनामा गुण है; वह अतिसूक्ष्म है; अतएव जिनशास्त्रकी आज्ञासे ग्रहण करने योग्य है। क्योंकि-"जिन भगवानसे कहाहुआ जो सूक्ष्म तत्त्व है; वह हेतुओंसे खण्डित नहीं होता अतः सूक्ष्मतत्त्वोंको उनकी आज्ञासे ही मानलेना चाहिये क्योंकि-जिनेन्द्र देव मिथ्यावादी नहीं हैं। १ ।” ऐसा कहा है। पुनः वह अगुरुलघुतारूप गुण कैसा है; कि-वाणीकी गोचरतासे वर्जित है; अर्थात् उसका कथन वाणीसे नहीं हो सकता क्योंकि-"अगुरुलघुपर्याय सूक्ष्म हैं; वचन के अगोचर हैं" ऐसा वचन है । ऐसे अगुरुलघु नामसे जो पंचम गुण है; उसको अगुरुलघुत्व समझना चाहिये । ५ । अब “प्रदेशत्वमविभागो पुद्गलः स्वाश्रयावधि" इस उत्ताका व्याख्यान करते हैं । विभागरहित पुद्गल जितने क्षेत्रमें स्थित रहता है; उस क्षेत्रमें व्यापनशील प्रदेशत्व गुण है । तात्पर्य यह कि जिस पुद्गलका विभाग नहीं होता अर्थात् विभक्तव्यवहारता नहीं हो सकती और ऐसा वह अविभाग पुद्गल परमाणु जितने क्षेत्र में रहे उसने ही क्षेत्रका अपनी स्थितिमें अवगाहन करनेवाला जो है, वह प्रदेशत्व है। पुनः वह प्रदेशत्व कैसा है; कि-स्वाश्रयावधि है। यहां स्वशब्दसे अपना ग्रहण है इससे अविभागी पुद्गलात्मक अपना आधार ( अधिकरण ) ही जिसकी मर्यादा है; इससे यह सिद्ध हुआ कि वह जितने क्षेत्रमें स्थित है; उतने ही क्षेत्रमें आश्रयावधित्व भी है ऐसा जानना । यह प्रदेशत्वनामक षष्ठ गुण है । ६ । ॥ ४ ॥ चेतनत्वमनुभूतिरचेतनमजीवता । रूपादियुक्त्वमूर्त्तत्वममूर्तत्वं विपर्ययात् ॥ ६ ॥ भावार्थ:-आत्माका जो अनुभव है वह चेतनत्व सप्तम गुण है। जीवरहितता स्वरूप अचेतनत्व अष्टम गुण है। रूपआदिसहित मूर्त्तत्वनामक नवम गुण है। इसके विपर्ययसे अर्थात् रूपआदिसहित अमूर्त्तत्वनामा दशम गुण है ॥५॥ व्याख्या । चेतनत्वमात्मनोऽनुभूतिरित्यनुभवरूपगुणः कथ्यते । योऽहं सुखदुःखादि | Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् चेतये, अहं सुखी, अहं दुःखी इति चेतनाव्यवहारः । ततो जातिवृद्धिभग्नक्षतसंरोहणादिजीवनधर्मा भवन्तीति चैतन्यं सप्तमो गुणः ।७। एतस्माद्विपरीतमचैतन्यमजीवमात्रमजीवता जडत्वाच्चेतनावैकल्यमित्यचेतनत्वं गुणः 1८1 रूपादियुक् मूर्तत्वं मूर्त्तता गुणः । रूपादिसन्निवेशाभिव्यङ्गयपुद्गलद्रव्यमात्रवृत्तित्वम ।९। अमूर्त्तत्वं गुणो मूर्त्तत्वामावसमनियतत्वमिति । १० । इति-दर्शव । अत्राचेतनत्वामूर्तत्वयोश्चेतनत्वमूर्त्तत्वाभावरूपत्वान्न गुणत्वमिति नाशनीयम । अचेतनामर्शद्रव्यं वृत्तिकार्यजनकतावच्छेदकत्वेन व्यवहारविशेषनियाम तयोरपि पृथग् गुणत्वात् तन्न पर्यु दासार्थकत्वात्तत्र गर्भपदवाच्यताश्चानुष्णाशीतस्पर्श इत्यादौ व्यभिचारेण परेषामप्यभावत्वानियामकत्वाद्मावान्तरम् । अभावोऽहि कयाचित्त व्यपेक्षया इति नयाश्रयणेन दोषामावाच्चेति ॥ ५॥ व्याख्यार्थः-आत्माका जो अनुभवरूप गुण है; वह चेतनत्व है। अर्थात् यह मैं सुख तथा दुःखआदिका अनुभव करता हूं, अथवा मैं सुखी हूं मैं दुखी हूं यह जो व्यवहार होता है; सो चेतनत्वगुणसे ही होता है; और इस चेतनत्वसे ही उत्पन्न होके बड़ा होना, छिदे हुए कटे हुएका उत्पन्न होना व उगनाआदि जीवनधर्म होते हैं। इस लिये चेतनत्व यह सप्तम गुण है। और इस चैतन्यसे विपरीत अचेतनत्व गुण है; वह अजीवमात्रमें है; यह जड़ है इसलिये चेतनासे रहित है । ऐसे अचेतनत्वनामक अष्टम गुण है । रूपआदिका धारक मूर्त्तत्वनामक नवम गुण है । यह मूर्त्तत्व गुणरूप रस आदिकी स्थितिसे जानने योग्य है; और पुद्गल द्रव्यमें ही रहता है । और मूर्त्तत्वके अभावके साथ समनियत अमूर्त्तत्वनामा दशम गुण है। ऐसे ये सब मिलके दश गुण हुए । यहाँपर अचेतनत्व तथा अमूर्त्तत्व ये दोनो चेतनत्व तथा मूर्तत्वके अभावरूप है; अर्थात् चेतनत्वका अभाव अचेतनत्व है; और मूर्त्तत्वका अभाव अमूर्त्तत्व है; इसलिये अचेतनत्व तथा अमूर्त्तत्व पृथक् गुण नहीं हैं; ऐसी शंका न करनी चाहिये; क्योंकि-अचेतन (चेतनधर्मरहित जड पदार्थ) तथा अमूर्त (धर्म जीवआदि ) द्रव्यवृत्ति जो कार्य उस कार्यके जनकतावच्छेदकत्वरूपसे विशेष व्यवहार अर्थात् अचेतन तथा अमूर्तरूप व्यवहारविशेषके नियामक कारणतावच्छेदक होनेसे अचेतनत्व और अमूर्त्तत्वको भी पृथक् गुणत्व है; और अचेतनत्व तथा अमूर्तत्व इन दोनो पदोंमें नञ् समास जो है सो पर्युदासार्थमें है; इसलिये यहां अचेतनका अर्थ “चेतनसे भिन्न चेतनसदृश कोई द्रव्य और अमूर्तका अर्थ मूर्तसे भिन्न मूर्तसदृश द्रव्य" है । उन अचेतन तथा अमूर्त द्रव्यों में रहनेवाला जो धर्म वही अचेतनत्व तथा अमूर्तत्व है । क्योंकि-चेतनभिन्न नथा चेतनसदृश अचेतनत्वमें समासगर्भ वाच्यताका ही अंगीकार है। और अनुष्णाशीतस्पर्श (१) नन् दो प्रकारका है; एक पयुंदाप और दूसरा प्रसज्य, इनमें पयुंदाप तो मशका ग्राही होता है। जैसे अब्राह्मणको लाओ" यहां ब्राह्मगमित ब्रह्मगसदृश किसी मनुष्यको लाओ ऐसा तारार्य है। और प्रसज्य निषेधक है; जैसे "अद्रव्य" से द्रव्याभावका ग्रहण होता है। Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ १८९ अर्थात् शीत तथा उष्ण से भिन्न स्पर्श इत्यादि पदोंमें व्यभिचार होनेसे नैयायिकको भी नको अभाव नियामकता सर्वत्र नहीं है; इसलिये अमूर्त्त इससे मूर्तके अभावका नहीं किन्तु मूर्त्तसे भिन्न भावका ग्रहण करना चाहिये । अभाव तो किसी अपेक्षासे है । और इस नयके आश्रयसे कोई दोष नहीं ॥ ५ ॥ 1 समान्येन समाख्याता गुणा दश समुच्चिताः । परस्परपरीहारात् प्रत्येकमष्ट चाष्ट च ॥ ६॥ भावार्थ:- सामान्य रूप से दश गुण संपूर्ण द्रव्योंको मिलाके कहे गये हैं; इनमें परस्पर के परिहार से अर्थात् परस्परविरोधी चेतनत्व अचेतनत्वआदिको छोड़के शेष प्रत्येक द्रव्यमें आठ आठ गुण रहते हैं ॥ ६ ॥ व्याख्या । एते दश गुणाः सामान्यगुणाः समुचितः सर्वेषां द्रव्याणां समुच्चयेन कथिताः । तत्र मूर्त्तत्वममूर्त्तत्वम् चेतनत्वमचेतनत्वं चेति चत्वारो गुणाः परस्परपरिहारेण तिष्ठन्ति । तत एकैकस्मिन्द्रव्ये प्रत्येकं प्रत्येकमष्टी प्राप्यंते । तत्कथं यत्र चेतनत्वं तत्राचेतनत्वं नास्ति, यत्र च मूर्त्तत्वं तत्र चामूर्त्तत्वं नास्ति, एवं द्वयोरप सरणाच्छेषमष्टकमेव तिष्ठति । तेन प्रतिद्रव्यमष्टव गुणाः सामान्याः सन्तीति ध्येयम् ॥ ६ ॥ व्याख्यार्थः- ये पूर्वोक्त दश गुण सामान्यरूपसे सब द्रव्योंके मिलाके कहे गये हैं । इनमें से मूर्त्तत्व, अमूर्त्तत्व, चेतनत्व, तथा अचेतनत्व ये चार गुण परस्परके परिहारसे द्रव्यमें रहते हैं । इससे यह सिद्ध हुआ कि - एक एक द्रव्यमें आठ आठ गुण होते हैं. यह इस प्रकारसे है; कि - जहां चेतनत्व है; वहां अचेतनत्व नहीं है, ऐसे ही जहां मूर्त्तत्व है; वहां अमूर्त्तत्व नहीं रहता है । इस रीति से दोनोंके निकाललेनेसे शेष आठ गुण प्रत्येक द्रव्यमें रहते हैं, इस कारण से प्रत्येक द्रव्यमें आठ ही सामान्य गुण हैं; ऐसा जानना चाहिये ॥ ६ ॥ अथ विशेषगुणान् व्याचिख्यासुराह । अब विशेषगुणोंका वर्णन करनेकी इच्छासे कहते हैं । ज्ञानं दृष्टिः सुखं वीयं स्पशंगन्धौ रसेक्षणे । गतिस्थित्यवगाहत्ववर्त्तना हेतुतापराः ॥ ७ ॥ भावार्थ:- ज्ञान, दर्शन, सुख, तथा वीर्य ये चार आत्माके विशेष गुण हैं; तथा रस, गन्ध, स्पर्श तथा वर्ण ये चार पुद्गलके विशेष गुण हैं; तथा गति, स्थिति, अवगाहन और वर्त्तना ये धर्मादि क्रयोंके हेतुतापरक गुण हैं ॥ ७ ॥ सुखमिति स्पर्शगन्धौ सुखगुणः, स्पर्शगुणः व्याख्या । ज्ञानगुण:, दृष्टिदर्शन गुणः, चत्वार आत्मनो विशेषगुणाः । पुनः वीर्यमिति, वीर्यगुणः, एते रसेक्षणे रसगुण: गन्त्रगुणः, Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० ] श्रीमद्रराजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् ईक्षणं वर्णगुणः, एते चत्वार: पुद्गलस्य विशेषगुणाः शुद्धद्रव्ये अविकृतरूपा एतेऽविशिष्टास्तिष्ठन्ति तत एते गुणाः कथिताः, विकृतस्वरूपास्ते पर्यायेषु मिलन्ति इत्येवं विशेषोऽत्र ज्ञेयः । तथा पुनः गत्यादयो गुणा हेतुतारा एतावता गतिहेतुता, स्थितिहेतुता, अवगाहहेतुता वर्त्तनाहेतुता, एते चत्वारो गुणाः प्रत्येकं धर्मास्तिकायार्मास्तिकाया काश। स्तिकायकालद्रव्याणां क्रमेण सन्ति विशेषगुणाश्चत्वारः ||७|| व्याख्यार्थः – ज्ञानगुण १ दर्शनगुण २ सुखगुण ३ तथा वीर्यगुण ४ ये चारों आत्मा विशेष गुण हैं । और स्पर्शगुण १ गन्धगुण २ रसगुण ३ तथा वर्णगुण ४ ये चारों पुद्गल के विशेष गुण हैं । ये गुण शुद्ध द्रव्यमें अविकृतरूपसे रहते हैं । और विकृत (विकारसहित ) होने से वे पर्यायोंमें मिलते हैं; यह विशेषता जाननी चाहिये । और गति आदि गुण हेतुतापरक हैं; इससे यह सिद्ध हुआ कि गतिहेतुता, स्थितिहेतुता, अवगाहहेतुता, तथा वर्त्तनाहेतुना ये चारों गुण एक एक धर्मास्तिकाय आदिके हैं, अर्थात् गतिहेतुता धर्मास्तिकायका स्थितिहेतुता अधर्मास्तिकायका, अवगाहनहेतुता आकाशास्तिकायका, तथा वर्त्तनाहेतुता कालका, विशेषगुण है । इस प्रकार ये गतिहेतुताआदि चारों धर्मास्तिकायआदि चारों द्रव्योंके क्रमसे विशेष गुण हैं ॥ ७ ॥ चैतन्यादिचतुभिस्तु युक्ताः षोडशसंख्यया । विशेषेण गुणास्तत्राप्यात्मनः पुद्गलस्य षट् ॥८॥ भावार्थ:- चैतन्यआदि चारों गुणोंके साथ पूर्वोक्त द्वादश गुण मिलके सोलह गुण होते हैं; उनमेंसे आत्मा तथा पुद्गलके छः छः गुण होते हैं ॥ ८ ॥ व्याख्या । अथैतेषां द्वादशगुणानां चैतन्यादिचतुभियुक्ताश्चेतनत्वा चेतनत्वमूर्त्तत्वादिभिश्चतुभिः सहिताः सन्तः षोडश गुगा भवन्ति । तेषु गुगेषु पुद्गलद्रव्यस्य वर्णगन्धरसस्पर्शमूर्त्तत्वाचे तनत्वानि षट् सन्ति । आत्मद्रव्यस्य ज्ञानदर्शन सुखवीर्या मूर्त्तत्व चेतनत्वा नीति षट् गुणा भवन्ति । अथान्येषां द्रयाणां समुदायेन त्रय एव गुणा भवन्ति, एको निजगुणः, अचेतनत्वम् अमूर्त्तत्वम् इति विमृश्य धार्यम् ॥८॥ व्याख्याथैः– अब इन द्वादश गुणों के जत्र चेतनत्व आदि चारों गुणोंका योग होता है; अर्थात ये पूर्वा द्वादश गुण जब चेतनत्व, अचेनतत्व, मूर्त्तत्व, और अमूर्तत्व इन चारों गुणोंसहित होजाते हैं; तब सोलह विशेष गुण हो जाते हैं । उन सोलह गुणोंमेंसे पुद्गलद्रव्य के वर्ण, गन्ध, रस, स्पो, मुर्तत्व और अचेतनत्व ये छह विशेषगुण होते हैं । और आत्म (जीव) द्रव्यके ज्ञान दर्शन, सुख, वीय, अमूर्तत्व तथा चेतनत्व ये षट् विशेष गुण है | और अन्य द्रव्यके समुदायसे तोन ही गुण होते हैं । उनमें से एक निजगुण तथा 1 अचेतनत्व और अमृतत्व ऐसे दो ये, इस प्रकार विचारके निश्चय करना चाहिये ||८|| Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा अन्येषाँ चैव द्रव्याणां त्रीणि त्रीणि पृथक् पृथक् । स्वजात्या चेतनत्वाद्याश्चत्वारोऽनुगता गुणाः ॥६॥ :- अन्य द्रव्यों के पृथक् पृथकू तीन तीन गुण होते हैं । और निज जातिकी भावार्थ:अपेक्षासे चेतनत्वआदि चार गुण अनुगत हैं ॥ ९ ॥ व्याख्या । अन्येषां द्रव्याणां पृथक् पृथक् त्रयः २ गुणाः । यथा धर्मास्तिकायस्य गतिहेनुतागुणः, अचेतनत्वगुणः, अमूर्त्तत्वगुणः । एवं श्रयोऽधर्मास्तिकायस्य स्थितिहेतुत्वा चेतनत्वा मूर्त्तत्वादयः । आकाशास्तिकायस्यावगाह हेतुताचेतनत्वा मूर्त्तत्वादयः । कालस्य वर्त्तनाहेतुत्वा चेतनत्वा मूर्त्तत्वादयः । इत्यादि ज्ञेयम् । अथ चेतनाचाश्चात्वारः सामान्यगुणाः । चेतनत्वाचेतनत्वमूर्त्तत्वानि सामान्यगुणेष्वपि सन्ति विशेषगुणेषु च सन्ति । तत्र किं कारणं चेतनत्वाद्याश्चत्वारः सामाभ्यगुणाः स्वजात्यपेक्षया अनुगतव्यवहारकर्त्तारः सन्ति तस्मात्सामान्यगुणाः कथ्यन्ते ॥६॥ व्याख्यार्थःयः - अन्य अर्थात् पुद्गल तथा जीवसे भिन्न द्रव्योंके पृथक् २ तीन २ विशेष गुण हैं । जैसे धर्मास्तिकाय के गतिहेतुता, अचेतनत्व और अमूर्त्तत्व ये तीन विशेषगुण हैं, ऐसे ही अधर्मास्तिकायके स्थितिहेतुता, अचेतनत्व तथा अमूर्तत्व ये तीन विशेषगुण हैं । आकाशास्तिकाय के अवगाहनत्व, अचेतनत्व, और अमूर्त्तत्व ये तीन विशेषगुण हैं । कालके बर्त्तनाहेतुत्व, अचेतनत्व तथा अमूर्त्तत्व ये तीन विशेषगुण हैं । इत्यादि जानना चाहिये । और चेतनत्वआदि अर्थात् चेतनत्व, अचेतनत्व, मूर्त्तत्व, और अमूर्तत्व ये चार सामान्यगुण हैं । चेतनत्व, अचेतनत्व, मूर्तत्व तथा अमूर्त्तत्व ये चार सामान्यगुणों में भी हैं; और विशेषगुणोंमें भी हैं; इसमें क्या कारण है ? ऐसा पूछो तो उत्तर यह है; कि चेतनत्वआदि चार सामान्यगुण निज आश्रयीभूत जातिकी अपेक्षा से अनुगत व्यवहारके करनेवाले हैं, इसलिये ये सामान्यगुण कहे जाते है ||९|| [ १९१ एत एव विशेषेण गुणा अपि जिनेश्वरः । परजातेरपेक्षया ग्रहणेन परस्परम् ॥१०॥ भावार्थ:- और परजातिकी अपेक्षासे परस्पर ग्रहण करनेसे इन्हीं चारों गुणोंको श्री जिनेश्वरोंने विशेषगुण भी कहा है ।। १० ।। व्याख्या । परजात्यपेक्षया चेतनत्वादयोऽचेतनत्वादिकेभ्यः स्वाश्रयव्यावृत्तिकराः सन्ति ततो विशेषगुणाः परापरसामान्यवत्सामान्यविशेषगुणत्वमेषामिति भावः । एत एव विशेषेणेति स्पष्टम् ॥१०॥ व्याख्यार्थः - चेतनकी अपेक्षा अचेतन पर है; इस परजातिकी अपेक्षा से चेतनत्व आदि अचेतनत्व आदिकसे निज आश्रय में व्यावृत्तिकर हैं; इस लिये विशेषगुण हैं । Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ ] श्रीमद्रराजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् भावार्थ-जैसे द्रव्यत्व सामान्य पृथिवीत्वआदिकी अपेक्षासे पर है; और द्रव्य, गुण, तथा कर्मके ऊपर रहनेवाली सत्ता जातिकी अपेक्षासे ऊपर भी है; ऐसे परापर सामान्यकी भांति चेतनत्वआदि गुणोंके सामान्यगुणता तथा विशेषगुणता ये दोनों हैं । 'एत एव विशेषेण' इत्यादि पूर्वार्द्धका अर्थ तो स्पष्ट ही है, इसलिये व्याख्या नहीं की ॥ १० ।। विशेषेण गुणाः सन्ति बहुस्वभावकाश्रयाः । अर्थेन ते कथं गुण्याः स्थूलव्यवहृतिस्त्वियम् ॥११॥ भावार्थ:-अनेक स्वभावयुक्त पदार्थों में रहनेवाले विशेषगुण अनन्त हैं । उन सबकी पदार्थके साथ कैसे गुणना हो सकती है; इसलिये पुद्गलके विशेषगुण हैं; इत्यादि जो पूर्व कथन किया है; सो स्थूल व्यवहारसे जानना चाहिये ।। ११ ॥ व्याख्या । ज्ञानदर्शनसुखवीर्या एत आत्मनो विशेषगुणाः, सरसगन्धवर्णा एने पुद्गलस्य विशेषगुणाः, इत्येतद्यत्कथितं तदियं स्थूलव्यवहृतिः स्थूलव्यवहारः । यतश्चाष्टी मिद्धगुणाः, एकत्रिशसिद्धगुणाः, एकगुणकालकादयः, पुद्गला अनन्ता, इत्यादिविचारणया विशेषगुणानामानन्स्योत्पत्तिः । मा च छद्मस्थज्ञानगोचरा नास्ति । अतोऽर्थेन ते कथं गुण्यास्तस्माद्धर्मास्तिकायादीनां गतिस्थित्यवगाहनावर्तनाहेतुत्वोपयोगग्रहणाख्याः षडेवास्तित्वादयः । सामान्यगुणास्तु विवक्षया अपरिमिता इत्येवं न्याय्यम् । षण्णां लक्षणवतां लक्षणानि षडेवेति हि को न श्रद्दधाति । गाथा 'नाणं च दंपणं चे चरितं च तवो तहा । वोरियं उव ओगोय एवं जीवस्म लक्खणं । १ । सद्दधकार उज्जोया पमा छायातहेव य । वण्णरसगंधफासा पुग्गलाणं तु लक्खणं ।२।' इत्यादि तु स्वभावविमावलक्षणयोरन्योरयेनान्तरीयकत्वप्रतिपादनायेत्यादि पण्डितैविचारणीयम् ॥ ११ ॥ ___ व्याख्यार्थः-ज्ञान, दर्शन, सुख तथा वीर्य ये आत्माके विशेषगुण हैं; तथा स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण ये पुद्गलके विशेषगुण हैं; इस प्रकार जो कथन किया गया है; सो स्थूल व्यवहारसे है; ऐसा समझना चाहिये। क्योंकि-सिद्धों के आठ गुण हैं, पुनः प्रकारान्तरसे सिद्धोंके ३१ इकतीस गुण हैं, कालआदि एक गुणके धारक हैं, पुद्गल अनन्त हैं; इसलिये उनके गुण भी अनन्त हैं; इत्यादि विचारके करनेसे विशेषगुणोंके अनन्तताकी उत्पत्ति होती है; और वह छद्मस्थ ज्ञानके गोचर नहीं है । इस कारणसे पदार्थके साथ उन सब विशेषगुणोंकी गणना कैसे हो सकती है; अर्थात् अल्पज्ञानावस्थामें उन सब विशेषगुणोंका जानना तथा उनकी गणना करना दोनों ही असंभव हैं इस कारणसे धर्मास्तिकायआदिके गति, स्थिति, अवगाहन, वर्त्तनाहेतुता, उपयोग तथा ग्रहणरूप षट् प्रकारके ही गुण समझने चाहिये । और अस्तित्वआदि सामान्यगुण तो विवक्षासे अपरिमित ( अपरिमाण ) हैं; यही न्याय है; क्योंकि-षट् लक्षणवालोंके अर्थात् द्रव्योंके लक्षण भी ६ ही हैं; इस विषयमें कौन नहीं श्रद्धान करेगा और "ज्ञान, दर्शन, चारित्र, Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ १९३ तप, वीर्य, तथा उपयोग ये षट् जीवके लक्षण हैं । १ । शब्द, अंधकार, उद्योत, प्रभा, छाया, वर्ण, रस, गंध, तथा स्पर्श ये पुद्गलोंके लक्षण हैं ॥ २ ॥ इत्यादि जो कथन है; सो तो स्वभाव तथा विभाव लक्षणोंसे परस्परके भेदको प्रतिपादन करनेके लिये है; ऐसा पंडितों को विचार लेना चाहिये ॥ ११ ॥ स्वभावगुणतो भिन्ना धर्ममात्रविवक्षया । स्वस्वरूपस्य मुख्यत्वं गृहीत्वा समुदाहृताः ॥ १२ ॥ भावार्थ:-स्वभावगुणसे तथा धर्ममात्र विवक्षासे ये भिन्न हैं; परन्तु निज निज स्वरूपकी मुख्यताका ग्रहण करके ये गुण कहे गये हैं ॥ १२ ॥ व्याख्या | स्वभावगुणतो निजत्वव्यवहारेण धर्ममात्रविवक्षया अनुवृत्तिसंबन्धेन चैते भिन्ना: पृथक् २ सन्ति न कोऽपि कश्विन्मिश्रीभवति । परन्तु स्वस्वरूपस्य निज निजरूपस्य मुख्यत्वं प्राधान्यं गृहीत्वा अनुवृत्तिसंबन्धमात्रमनुसृत्य समुदाहृताः ये स्वभावाः सन्ति त एव गुणीकृत्य दर्शिताः । तत इदमत्र बोध्यम् - धर्मापेक्षया अत्रेते गुणात्मका: पदार्थाः पृथक्स्वभावगुणतो भिन्ना उक्तास्तत्त निजकीयनिजकीयरूपमुख्यतां गृहीत्वैव स्वभावगुणीकृत्योपदिष्टा इत्यर्थः । तस्मादत्र गुणविभागं कथयित्वा अग्रे प्रतिपाद्यमानपद्य स्वभावविभावयोः कथनमुदा हरिष्यतीति ध्येयम् ॥ १२ ॥ व्याख्यार्थः – स्वभावगुणसे अर्थात् निजत्व वा आत्मोयत्व व्यवहारसे और धर्ममात्रकी विवक्षासे अर्थात् अनुवृत्तिसंबन्धसे ये सब गुण पृथकू २ हैं; कोई किसीसे नहीं मिलता । परन्तु अपने अपने स्वरूपकी मुख्यता ( प्रधानता ) को ग्रहण करके अर्थात् अनुवृत्ति संबन्धमात्रका अनुसरण करके जो स्वभाव हैं, वे ही भिन्न करके दर्शाये हैं; इसलिये यहां पर ऐसा जानना चाहिये कि - धर्मकी अपेक्षासे जो ये गुणरूप पदार्थ पृथक् पृथक् स्वभाववाले गुणसे भिन्न भिन्न कहे गये हैं; वे निज निज रूपकी मुख्यताको ग्रहण क ही उस प्रकारके स्वभाव के गुण करके उपदेश किये गये हैं, यह तात्पर्य है । इसलिये sive प्रथम गुणका विभाग कहकर, आगे कहे जानेवाले श्लोक में स्वभाव तथा विभाव के कथनका उदाहरण दिया जायगा ऐसा समझना चाहिये ॥ १२ ॥ अस्तिस्वभाव ऐषोऽत्र स्वरूपेणार्थरूपता । स्वभावपरभावाभ्यामस्तिनास्तित्वकीर्त्तनात् ॥ १३ ॥ भावार्थः——यहांवर पदार्थके निजस्वरूपसे जो अर्थरूपता है; वह अस्तिस्वभाव है । क्योंकि—स्व (अपने ) भाव से अस्तित्व और परभावसे नास्तित्वका कथन होता है ॥ १३ ॥ व्याख्या । अत्रेति गुणप्रस्तावनायां प्रथममस्तिस्वमावस्तु एषः स्वरूपेण निज कीयरूपेणारूपता द्रव्ययाथात्म्यं स्वद्रव्यस्वक्षेत्रस्वकालस्वभावैश्व भावरूपतेव ज्ञेया । कस्मात्स्वभावपरभावाभ्यामस्ति नास्तित्वकीर्त्तनात् । यथा स्वभावेनास्तित्वं स्वभावोsस्ति तथैव परभावेन नास्तित्वं स्वभावोऽप्यस्ति । ततोऽत्रास्तिस्वभावः कारणी वर्त्तते कथं तदस्तिस्वभावो हि तत्र २५ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् निजरूपेण भावरूपतास्ति । यथा परस्वभावेन नास्तिस्वभावानुभवनं तथा निजभावेन स्वभावानुभव नमपि जायते । अत उभयत्र कार्यरूपोऽस्तिस्वभाव इति ॥ १३ ॥ व्याख्यार्थः - यहाँ अर्थात् गुणके प्रस्ताव (प्रसंग ) में प्रथम अस्तिस्वभाव यह है; कि-वस्तु में स्वरूपसे अर्थात् अपने रूपसे जो अर्थरूपता अर्थात् द्रव्यकी यथार्थता है; वही स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल, और स्वभाव से भावरूपता है; ऐसा जानना चाहिये । क्योंकिस्वभावसे अस्तित्व तथा परभावसे नास्तित्वका कथन है । भावार्थ- जैसे अपने भावसे अस्तित्व स्वभाव है; ऐसे ही परके भावसे नास्तित्वस्वभाव भी वस्तुमें है । इसलिये यहां अस्तिस्वभाव कारणीभूत है । वह किस प्रकार से है; कि - स्वभाव ही वहाँ निजरूप से भावरूपता है । जैसे परके भावसे नास्तिस्वभावका अनुभव होता है, वैसे ही निजभावसे स्वभावका भी अनुभवन होता है; इस हेतुसे अस्तित्व तथा नास्तित्व इन दोनोंमें कार्यरूप अस्ति स्वभाव है ॥ १३ ॥ न चेदित्थं तदा शून्यं सर्वमेव भवेदिदम् । परभावेन सत्त्वे तु सर्वमेकमयं भवेत् ॥ १४ ॥ भावार्थ:- यदि ऐसा न हो अर्थात् अपने भावसे अस्तित्व न माना जावे तो यह संपूर्ण जगत् शून्य होजाय, और परभावसे यदि सत्त्व अङ्गीकार करें तो सब एकमय अर्थात् एकरूप ही होजाय ॥ १४ ॥ व्याख्या । चेद्यदि अस्तिस्वभावो नाङ्गीक्रियते परभावापेक्षया यथा नास्तित्वं तथा स्वभावापेक्षयापि नास्तित्वावलम्बने सति सर्वं जगदिदं प्रपंचमानव्यतिकरमपि शून्यं भवेत् । तस्मात्स्वद्रव्यापेक्षया अस्तिस्वभावः सर्वथैवाङ्गीकरणीयः । परभावेन परद्रव्याद्यपेक्षयापि नास्तित्वस्वभावोऽप्यवश्य मङ्गीकत्तव्य इत्यर्थः । तथा च परमावेनापि सत्तामस्तिस्वभावमङ्गीकुर्वतां सर्वस्वरूपेणास्तित्वे जायमाने च जगदेकरूपं भवेत् । तत्त सकलशास्त्रव्यवहारविरुद्धमस्ति । तस्मात्परापेक्षया नास्तिस्वभाव एव समस्ति । अथ सत्ता तु स्वाभावेन वस्तुविषयं ज्ञापयति, अतः सत्तेति सत्यमस्ति । असत्ता तु स्वज्ञानेन परमुखनिरीक्षणं कुरुते ततः कल्पनया ज्ञानविषयत्वेन च असत्तो त्यसत्यमस्ति । इत्थं बौद्धानां मतं वर्त्तते ॥ १४ ॥ व्याख्यार्थः-- यदि अस्तिस्वभावको नहीं कहते हो तो जैसे परभावकी अपेक्षा से नास्तित्व है; वैसे ही स्वभावकी अपेक्षासे नास्तित्वका ग्रहण होजानेसे यह सब जगत् अर्थात् प्रपंच्यमान व्यतिकर भी शून्य हो जायगा । इस कारण से स्वकीय द्रव्य, क्षेत्रआदिकी अपेक्षा से अस्तिस्वभावको अवश्यमेव मानना चाहिये, और इसी प्रकार परभावसे अर्थात् परद्रव्यआदिकी अपेक्षासे नास्तिस्वभाव भी अवश्य स्वीकृत करना चाहिये यह तात्पर्य है । और परभावसे अर्थात् अन्यके द्रव्य क्षेत्रआदिको अपेक्षासे अस्तिस्वभावको स्वीकार करनेवालोके मत से सर्व स्वभावसे अस्तित्व सिद्ध होजानेपर संपूर्ण जगत् एकरूप ही होजायगा, और सर्वथा समस्त जगत्का एकरूप हो जाना सब शास्त्रोंसे विरुद्ध है, इसलिये परकी अपेक्षासे Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ १९५ नास्तिस्वभाव ही समीचीन है। "अब सत्ता तो अपने अस्तिस्वभावसे वस्तुविषयताको ज्ञापित करती है; अर्थात् वस्तुको जताती है; इसलिये सत्ता यह सत्य है, और असत्ता अपने असत्विषयक ज्ञानसे केवल परके मुखकी ओर ताकती है; इसलिये केवल कल्पनासे ज्ञानका विषय होनेसे अर्थात् कल्पनामात्रसे ज्ञानमें भासनेसे असत्ता असत्य ( मिथ्या ) है" ऐसा बौद्धोंका मत है ।। १४ ।। तदेव खण्डयनोह । अब इसी असत्ताको मिथ्या कहनेवाले बौद्धोंके मतका खंडन करते हुए कहते हैं । यत्सत्तावदसत्ता तु न स्फुरेद् व्यञ्जकं विना । तत्सत् शरावगन्धोऽपि विना नोरं न संभवेत् ॥ १५॥ भावार्थ:-जैसे सत्ता तत्क्षण स्फुरायमान होती है; वैसे जो असत्ता नहीं स्फुरायमान होती है; तो इसमें व्यंजकका नहीं मिलना कारण है, क्योंकि-शराबमें विद्यमान शराबका गंध भी जलके विना नहीं जाना जाता है ।। १५ ॥ व्याख्या । यत्सत्तावत् तत्क्षणमेवासत्ता तु न स्फुरेत्, तत्त, व्यञ्जकं विना व्यं जास्यामिलनवशतः । परन्तु शून्यत्वेन, अथ च तुच्छत्येन नह्यास्त । तत्र दृष्टान्तमाह । तदिति उदाहरणंसन् विद्यमानः शरावे वर्तमानः शरावगन्धोऽपि नीरं विना नीरस्पर्शनमन्तरेण न संभवेत् न ज्ञायते । एतावता गन्यापेक्षा असत्या नास्ति किन्तु केषांचिद्वस्तूनां गुणाः स्वमावेनानुभूयन्ते, केषांचिच्च प्रतिनियतव्यञ्जकव्यङ्गया एव सन्तीत्येतद्वस्तुवैचित्रमस्ति । परन्तस्यैव कस्यचिद्वर्मस्य न्यूनत्वकथने बहुव्यवहारविलुप्ति यते । उक्त च श्रीमद्यशोविजयोपाध्याय षारहस्यप्रकरणे "ते हुंति परावेक्खा वंजयमुहदंसिणोऽवि जयतुच्छा । विठुमिणं वेचित्तं सरावकप्पूरगंधाणं" ॥ १५ ॥ व्याख्यार्थ:-जो सत्ताकी भांति असत्ता उसी क्षण स्फुरित (प्रकट ) नहीं होती है सो व्यंजकके बिना अर्थात् व्यंजकके न मिलनेसे तत्काल स्फुरित नहीं होती। परन्तु असत्ता शून्य है अथवा तुच्छ है, इसवास्ते स्फुरित नहीं होती यह बात नहीं है। इस विषयमें दृष्टान्त कहते हैं । सूत्रमें तत् शब्द जो है सो उदाहरणका प्रदर्शन करता है इस लिये उदाहरण यह है कि शराब अर्थात् सरवा ( मृत्तिकाका बना हुआ कोरा पात्र ) जो है उसमें विद्यमान जो उस शराबका गंध है वह भी जलके स्पशविना नहीं जाना जाता । इससे तात्पर्य यह है कि शराबमें विद्यमान गंध असत्य नहीं है किन्तु सत्य ही है। परन्तु वह जो जलस्पर्शके विना नहीं जाना जाता है इसमें वस्तुकी विचित्रताही कारण है। कितनेही पदार्थोके गुण स्वभावसेही अनुभूत होते हैं और कितनेही पदार्थोके गुण प्रतिनियत जो व्यंजक हैं उनसेही जाने जाते हैं यह वस्तुस्वभावकी विचित्रता है। परन्तु वस्तु में तनक्षण वह धर्म स्फुरित न हो तो उसकी न्यूनता (कमी) कह देनेसे बहुतसे . व्यवहारोंको लोप हो जाता है । और इस विषयमें श्रीयशोविजयजी उपाध्यायने "भाषा Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ ] श्रीमद्रराजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् रहस्यप्रकरण में कहा भी है कि "नास्तिस्वभाव परकी अपेक्षा रखते हैं और तुच्छनयके विषय हैं और व्यंजकका मुख देखा करते हैं । यह वस्तुका वैचित्र्य शराब तथा कपूरके गंधमें देखा हुआ है अर्थात् जैसे शराब तथा कपूरका गंध व्यंजक विना प्रकट नहीं होता वैसे नास्तिस्वभाव भी व्यंजककी अपेक्षा रखता है ॥ १५ ॥ __ यत्स्वस्वानेकपर्यायभिन्नं द्रव्यं तदेव हि । नित्यानित्यस्वभावेन पर्यायपरिणामता ॥ १६ ॥ भावार्थ:-जो निज निज अनेक पर्यायोंसे भिन्न अर्थात् भेदक द्रव्य है वही नित्य तथा अनित्य स्वभावसे पर्यायकी परिणामता है ॥ १६ ॥ व्याख्या । यत्स्वस्वानेकपर्यायनिजनिजक्रममाविमिः श्यामत्वरक्तत्वादिभिन्निन्नं भेदक द्रव्यं वर्तते परन्तु तदेव हि निश्चितं द्रव्यं तदेव यत्पूर्वमनुभूतमभविष्यदित्येतत्तत्त्वज्ञानं यस्माजायते तन्नित्यस्वभावत्वं कथ्यते "तद्भावाव्ययं नित्यमिति" सूत्रम् । प्रध्वंसाप्रतियोगित्वं नित्यत्वमित्यस्याप्यौव पर्यवसानं केनचिद्रू पेणैव तल्लक्षणव्यवस्थितेः । अनित्यस्वभावपर्यायपरिणतिर्येन प्राप्यते, येन च रूपेणोत्पादव्ययौ स्तः, तेन रूपेणानित्यस्वभावोऽस्ति । ततो नित्यानित्यस्वभावेन पर्यायपरिणामता ज्ञेया ॥१६॥ __ व्याख्यार्थः-जो अपने अपने क्रमभावी श्यामत्व तथा रक्तत्व आदि पर्यायोंसे भिन्न अर्थात् भेदक द्रव्य है परन्तु निश्चय करके वही द्रव्य है जो पहले अनुभवमें आया हुआ है और आगे अनुभवमें आवेगा, ऐसा तत्त्वज्ञान जिसके द्वारा होता है उसको नित्यस्वभाव कहते हैं । क्योंकि "तद्भावाव्ययं नित्यम्" “जिसके स्वभावका नाश न हो वही नित्य है" ऐसा सूत्र है । और 'जो ध्वंसाभावका अप्रतियोगी है वह नित्य है, इस लक्षणका भी यहां ही समावेश है; क्योंकि चाहे जैसा लक्षण करो अविनाशीस्वरूपकी स्थितिमें तात्पर्य है । और अनित्य स्वभावरूप पर्यायोंका परिणाम जिसके द्वारा प्राप्त होता है तथा जिस रूपसे उत्पत्ति और नाश होता है उस रूपसे अनित्यस्वभाव है। इस कारणसे नित्य और अनित्य स्वभावसे पर्यायोंका परिणाम जानना चाहिये ॥ १६ ॥ सद्वस्तु नाशयन् रूपान्तरेणाभाति यद्विधा । सत्सामान्यविशेषाभ्यां स्थूलार्थान्तरनाशता ॥१७॥ भावार्थ:-विद्यमान वस्तुको रूपान्तरसे नष्ट करता हुआ जो द्रव्य दो प्रकारका भासता है सो सत् सामान्य और विशेषसे स्थूल अर्थान्तरकी नाशता होती है ॥ १७ ॥ व्याख्या । सद्वस्तु विद्यमानं वस्तु रूपान्तरेण पर्यायविशेषेण नाशयन्नवस्थान्तरमापादयन् यदव्यं द्विधा द्विभेदमेतद्र पेण नित्यमेतद् पेणानित्यं पेति वैचित्र्यमामाति । यथा च सत्सामान्य. विशेषाभ्यां स्थूलार्थान्तरनाशतेति विशेषस्य सामान्यरूपत्वादनित्यत्वं, यथा घटनाशेऽपि Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतकणा [ १९७ मृव्यानुवृत्तः। तथा पुनः सामान्यस्यापि स्थूलार्थान्त रघटादिनाशेऽनित्यत्वं, घटनाशे मृन्न घट इति प्रतीतेः ॥१७॥ व्याख्यार्थः-विद्यमानवस्तुको रूपान्तरसे अर्थात् पर्यायविशेषसे एक अवस्थासे दूसरी अवस्थामें प्राप्त करते हुए जो द्रव्य दो भेदयुक्त अर्थात् इस रूपसे नित्य है और इस रूपसे अनित्य है इस प्रकार विचित्रतासे भासता है; वहाँ सत्सामान्य तथा विशेपसे स्थूल अर्थान्तरकी नाशता है जैसे-विशेषके सामान्यरूपसे अनित्यता है । दृष्टान्त-जैसे घटके नाश होनेपर भी मृत्तिकारूपकी अनुवृत्ति अन्य पर्यायोंमें होती है वैसे सामान्यके भी स्थूल पदार्थांतर घट आदिका नाश होनेपर अनित्यता है । क्योंकि घटरूपसे जो मृत्तिका है वह घट नहीं है ऐसी प्रतीति होती है ॥१७॥ नित्यत्वं नास्ति चेत्तत्र कार्य नैवान्वयं विना। कार्यकालेऽप्यसन हेतुः परिणति विगोपयेत् ॥१८॥ भावार्थः-यदि पदार्थकी नित्यता नहीं मानोगे तो अन्वयके विना कार्यकी उत्पत्तिही न होगी । और कार्यकालमें भी अविद्यमान हेतु परिणामको नहीं होने देगा ॥ १८ ॥ व्याख्या । चेद्यदि नित्यत्वं नास्त्यथ चैकान्तक्षणिकमेव स्वलक्षणमस्ति । तत्र त्वस्वयं विना कार्य नो निष्पद्यते । यतः कारणक्षणं कार्यक्षणोत्पत्तिकाले च निर्हेतुकनाशमनुभवन्नसम्नेवास्ति । तच्च कार्यक्षणपरिणति कथं कुर्यात्, असत्कारणक्षण: कार्यक्षणं करोति तदा विनष्टकारणादथवानुत्पन्नकारणात्कार्य निष्पन्नं युज्यते, तदा तु कार्यकारणभावस्य विडम्बना जायते । अवहित एव यः कारणक्षणः कार्यक्षणं च कुरुत एवं यदोच्यते तदापि रूपालोकमनस्कारादिक्षणरूपादीनां विषय उपादानालोकादिकविषये च निश्चितमिति व्यवस्था कथं घटते । यतोऽन्वयं विना शक्तिमात्रविषय उपादाननिमित्तविषयेऽपि कथयितुर्व्यवहारो न स्यात्, तस्मादुपादानमित्यम्वयित्वेन मन्तव्यम् । अथान्वयित्वं च तदेव निस्यस्वभावत्वं मन्तव्यमित्यर्थः ॥१८॥ ___ व्याख्यार्थः-यदि पदार्थकी नित्यता नहीं है किन्तु सर्वथा क्षणिक रूपही पदार्थका लक्षण है ऐसा मानते हो तो इस माननेमें कारणके अन्वय अर्थात् किसी स्वभावकी अनुवृत्ति विना कार्य नहीं सिद्ध हो सकता। क्योंकि कारणका क्षण कार्यक्षणके उत्पत्तिकालमें भी हेतुरहित होकर नाशका अनुभव करता हुआ असत्रूप ही है और वह असत् कारणक्षण कार्यक्षणका परिणाम कैसे करेगा ? क्योंकि जब असत् कारणक्षण ही कार्यक्षणकी उत्पत्तिको करेगा तब विनष्ट कारणसे कार्य उत्पन्न होता है अथवा अनुत्पन्न (नहीं पैदा हुए) कारणसे कार्य उत्पन्न होता है ऐसा कथन करना ठीक होता है । और नष्ट हुए तथा अनुत्पन्न कारणसे कार्य सिद्ध होता है ऐसा कथन करोगे तो कार्यकारणभावका मानना यह विडम्बनाही है । भावार्थ-नष्ट तथा अनुत्पन्न कारण कार्यको कैसे कर Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ ] आमद्राजचन्द्रनशाजैनमालायाम् सकता है ? अपि तु नहीं कर सकता । अब यदि यह कहो कि अवहित जो कारणक्षण है वही कार्यक्षणको भी करता है तब भी रूपका देखना तथा मनका व्यापार करना इत्यादिके क्षणसहित रूपादिके विषय में तथा उपादानकारण जो आलोकादि हैं उनके विषय में कारणक्षण निश्चित है यह व्यवस्था कैसे घटित हो सकती है ? क्योंकि, अन्वयके विना शक्तिमात्रके विषयमें और उपादान निमित्तके विषयमें भी कथन करनेवालेका व्यवहार नहीं हो सकता । क्योंकि, वह उपादानता तो क्षणिक होनेसे उसी क्षणमें नष्ट होगयी फिर कार्यदशामें ( घटरूप अवस्थामें ) उपादान कारण ( मृत्तिका ) है यह व्यवहार कैसे हो सकता है ? । इसलिये उपादान कारणकी कार्यदशामें अनुवृत्ति रहती है यह वार्ता अवश्य मन्तव्य है । जो अन्वयपना है वही नित्य स्वभावत्व है ऐसा मानना चाहिये यह अर्थ है ।। १८॥ सर्वथा नित्यता नास्ति न स्यादर्थक्रिया तदा। दलस्य कार्यरूपत्वानुत्पन्नत्वं यिषीदति ॥१६॥ भावार्थ:-और सर्वथा कारणरूपकी नित्यता भी नहीं है क्योंकि सर्वथा नित्यता माननेमें अर्थक्रिया न होगी; क्योंकि कारणके सर्वथा नित्यपने में कार्यरूपसे उत्पत्ति नहीं घटित होती है ॥ १९ ॥ व्याख्या । यदि सर्वथा नित्यस्वभावो मन्तव्यः अथाप्यनित्यता अनित्यतास्वमावः सर्वथा नास्त्येवमङ्गीकारेऽर्थक्रिया न स्यादर्थक्रिया न घटते । यतो दलस्य कारणस्य कार्यरूपत्वानुत्पन्नत्वं विषीदति, कारणस्य कार्यरूपता परिणतिः कथंचिदुत्पन्नत्वमेवागतम् , सर्वथा अनुत्पन्नत्वं तु विषीदति विघटितं भवतीति । अपरं च यद्यवं कथ्यते कारणं तु नित्यमेव तद्ध त्ति कार्य त्वनित्यमेव । तदा कार्यकारणयोरभेदसंबन्धः कया युक्त्या घटते । भेदसंबन्धाङ्गीकारे तत्संबन्धान्तरादिगवेषणया अनवस्या भवेत् । ततः कथंचिदनित्यस्वभावोऽपि माननीयः । इति भावार्थः ॥ १९ ॥ व्याख्यार्थः–यदि सर्वथा (एकान्तरूपसे) नित्य स्वभावही माना जाय और अनित्य स्वभाव सर्वथा नहीं है ऐसा माना जाय तो अर्थक्रिया नहीं हो सकती । कारण कि कारणके कार्यरूप अनुत्पन्नता विघटती है अर्थात् कारणकी जो कार्यरूपमें परिणति है उससे कथंचित् उत्पन्नता हो आई और अनुत्पन्नता तो सर्वथा संगत नहीं होती है। और यदि ऐसा कहते हो कि कारण तो नित्यही है और उसमें रहनेवाला कार्य अनित्य ही है तब कार्य और कारणका जो अभेदसंबन्ध माना गया है वह किस युक्तिसे सिद्ध होगा ? क्योंकि नित्यता तथा अनित्यताका अभेदसंबन्ध नहीं हो सकता। तथा यदि कार्य और कारणका भेदसंबन्ध मानो तो वह संबन्ध किस संबन्धसे रहता है ? जो संबन्ध उसमें रहता है वह किस संबन्धसे है ? . Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १९९ द्रव्यानुयोगतर्फणा इत्यादि संबन्धोंके खोज करनेसे अनवस्था दोष हो जायगा । इसलिये कथंचित् अनित्य स्वभाव भी अवश्य माननेके योग्य है । इस प्रकार श्लोकका तात्पर्य है ॥१९॥ स्वभावकाश्रयत्वे त्वेकस्वभावविलासता । अनेकार्थप्रवाहेणानेकस्वभावसंभवः ॥२०॥ ___ भावार्थः - स्वभावोंका एकाश्रय स्वीकार करनेपर एक स्वभावकी विलासता है तथा अनेक स्वभावयुक्त पदाथके प्रवाहसे अनेक स्वभावका भी संभव है ।। २०॥ व्याख्या । स्वभावकाश्रये स्वभावो हि सहभावी धर्मस्तस्याधारत्वे स्वभावकाश्रयत्वे त्वेकस्वभावो यथा रूपरसगन्धस्पर्शानामाधारो घटादिरेकः कथ्यते । नानाधर्माधारत्व एकस्वभावता नानाक्षणानुगमनत्वे नित्यस्वभावता इत्ययं विशेषो ज्ञेयः । मृदादिद्रव्यस्य स्थासकोशकुसूलादिका अनेके द्रव्यप्रवाहाः सस्ति तेनानेकस्वभावप्रकाशे पर्यायत्वेनादिष्टं द्रव्यं क्रियते, तदा आकाशादिद्रव्येष्वपि घटाकाशादिभेदेनैतत्स्वभावदुलंमता नास्ति । एवमनेकार्थप्रवाहेणानेकस्वमावसंभव इति ॥२०॥ व्याख्यार्थः-स्वभावका अर्थ है द्रव्यके साथ होनेवाला धर्म, उसके आधारको एक माननेसे एक स्वभाव होगा। जैसे-रूप, रस, गंध तथा स्पर्शका आधार (आश्रय) घट आदि पदार्थ एक कहा जाता है । और नानाप्रकारके धर्मोंका आधार होनेपर एकस्वभावता अर्थात् नानाक्षणमें वही मृत्तिकारूप द्रव्यका जो अनुगमन ( अनुवृत्ति ) है वह नित्यस्वभावता है, यह विशेष जानना चाहिये । और मृत्तिका आदि द्रव्यके पिंड, कोश, कुसूल आदि अनेक द्रव्यप्रवाह होते रहते हैं इससे अनेकस्वभावयुक्त भी पर्याय रूपसे द्रव्य होता है । और जब ऐसा हुआ तब आकाश आदि द्रव्योंमें भी घट आकाश, मठ आकाश, आदि भेदोंसे नानारत्रभावता ( अनेक स्वभावपना ) दुर्लभ नहीं है । इस प्रकारसे नानाप्रकारके स्वभावयुक्त द्रव्यका प्रवाह होनेसे द्रव्य नानास्वभावका धारक है, यह भी पक्ष संभव है ।। २० ॥ विनैकत्वं विशेषो न सामान्याभावतो लभेत् । अनेकत्वं विना सत्ता विशेषाभावतो नहि ॥२१॥ भावार्थ:--एक स्वभावके अभावमें सामान्यके विना विशेषकी प्राप्ति नहीं होती ओर अनेक स्वभावके विना विशेषका अभाव होने से सत्ता ( सामान्य ) की प्राप्ति नहीं होती है ।। २१ ॥ व्याख्या । एकत्वं विना एकस्वमा विना सामान्यामावेन विशेषो न प्राप्यते । तथा अनेकत्वं विना अनेकस्वभावमन्तरेण सत्ता अपि न घटते । तत एकानेकेति स्वमावद्वयमङ्गीक योग्यम् । तथैव विशेषाभावतो नहीति, विशेषमन्तरा सामान्यं न, सामान्यमन्तरा विशेषो नेति । एक बिना अनेकता न, अनेक विना नैकत्वमिति ॥ २१ ॥ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशाखमालायाम् व्याख्यार्थः-एकस्वभावके विना सामान्यका अभाव हो जावेगा और सामान्यके अभावसे विशेषकी प्राप्ति नहीं होती, ऐसेही अनेक स्वभावके विना सर्ववर्तिनी सत्ता भी नहीं घटित होती। इसलिये एक तथा अनेक ये दोनों स्वभाव वस्तुके अंगीकार करने चाहिये । ऐसेही विशेषके विना सामान्यरूप नहीं । अर्थात् विशेषके विना सामान्य और सामान्यके विना विशेष नहीं है । एकके विना अनेकता नहीं है और अनेकके विना एकत्व नहीं है ॥२६॥ संज्ञासङ्घयादिभेदेन भेदस्वभावता द्वयोः । अभेदवृत्तिलक्षणं यत्तदेवाभेदभावनम् ॥२२॥ भावार्थः-संज्ञा तथा संख्या आदिके भेदसे गुण गुणी आदिके भेद स्वभाव है। और अभेदवृत्ति जो लक्षण है वही अभेद-भावना है ॥ २२ ॥ व्याख्या । द्वयोरिति गुणगुणिनोः पर्यायपर्यायिणोः कारककारकिनोः संज्ञासंख्यादिभेदेन कृत्वा भेदस्वभावता ज्ञातव्या । यदभेदवृत्तिलक्षणं भेदरहितवृत्ते लक्षणवत्त्वं तदेवाभेदस्वभावोऽभेदभावनं ज्ञेयम ॥२२॥ व्याख्यार्थः-सूत्रमें "द्वयोः" यह जो पद है इससे गुण गुणी, पर्याय पर्यायी, तथा कारक और कारकी (जिसमें कारकका व्यवहार होता है उसे कारकी कहते हैं) इन दो दो के संज्ञा, संख्या आदिके द्वारा भेद स्वभावपना जानना चाहिये । और भेदवृत्तिसे रहित जो लक्षण है उस लक्षणसहितको ही अभेदस्वभाव जानना चाहिये ॥२२॥ भेदं विनकतामीषो ततो व्यवहृतिक्षयः। अनभेदात्कथं बोधो ह्यनाधारवतो योः ॥२३॥ भावार्थ:-भेदस्वभावके बिना इन सब द्रव्य, गुण तथा पर्यायोंकी एकता हो जायगी, और सबकी एकता होनेसे व्यवहारका अभाव होगा तथा अभेदके बिना आधारशून्य दोनों गुणपर्यायोंका बोध भी कैसे होगा ।।२३॥ ___व्याख्या । भेदं विना भेदस्वभावं विना आमीषां सर्वद्रव्यगुणपर्यायाणामेकता ऐक्यं स्यात् । तेन कृत्वा इदं द्रव्यम, अयं गुणः, अयं पर्यायः, इति व्यवहारस्य विरोधो जायते । अन्यच्चाभेदस्वमावो यदि न कथ्यते तदा अनाधारवतोनिराधारयोदयोर्बोधः कथं भवेत् । आधाराधेययोरभेदं विना द्वितीयः संबन्धो न घटते । अत्र प्रवचनसारगाथा “पविमत्तपदेसत्त पुत्तमिदि सासणं हि वीरस्स । अणतमत्तमावो ण तद्भवं भवदि कधमेगं । १।" ॥ २३ ॥ व्याख्यार्थः-भेद स्वभावके विना इन सब द्रव्य, गुण तथा पर्यायोंकी एकता होजायगी और सबकी एकता होनेसे यह द्रव्य है, यह गुण है, तथा यह पर्याय है इत्यादि व्यवहारका विरोध होता है और यदि अभेद स्वभाव नहीं कहते हैं तो आधाररहित दोनोंका बोध भी कैसे होवे क्योंकि आधार तथा आधेयके अभेद विना दूसरा संबन्ध . Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ २०१ घटित नहीं होता है । इस विषयमें प्रवचनसारकी गाथा भी है। उसका भाव यह है कि प्रविभक्तप्रदेशता है वही पृथक्त्व है ऐसा श्रीवीरभगवान्का उपदेश है ओर जो अन्यत्व है वह अतद्भाव है अर्थात् उसका स्वभाव नहीं है। क्योंकि वह उसमें नहीं होता इसलिये दोनों एक नहीं है अर्थात् गुण गुणी रूपतासे एकता नहीं है ।। २३ ॥ अवस्थितात्मरूपस्याविर्भावाद्भव्यमिष्यते । सदाश्रयन्परं भावमभवनितरः स्वतः ॥ २४ ॥ भावार्थः-अवस्थित द्रव्यभावके अविर्भावसे भव्यस्वभाव है तथा सदा परभावका आश्रय करता है वह स्वभावसे इतर (भिन्न ) अर्थात् अभव्य स्वभाव है ।। २४ ॥ व्याख्या । अवस्थितात्ममावस्यानेककार्यकारणशक्तिकं यदवस्थितद्रव्यं तस्यावस्थितद्रवस्याविर्भावात्क्रमिकं विशेषान्ताविर्भावादमिव्यङ्गय मव्यं मध्यस्वभावमिष्यते । अथ सदा त्रिकालं परं भावं परद्रव्यानुगतित्वं श्रयन्परस्वभावेन परिणमन्यः स्यात्तत्स्वतः स्वमावत इतरोऽभव्यस्वभाव इति कथ्यते ।१०। 'अण्णोण्णं पविसंता दिता ओगासअण्णमण्णस्स । मेलंताविय णिच्चं सगसगमावं ण विजहंति । १।' इति भावस्वभावार्थो ज्ञेयः ॥ २४ ।। व्याख्यार्थः-अनेक कार्यकारणकी शक्तियुक्त जो अवस्थित द्रव्य है उस अवस्थित (विद्यमान ) द्रव्यके क्रमसे जो आविर्भाव उससे जानने योग्य भव्यस्वभाव माना गया है ।९। और सदा (त्रिकालमें) जो परस्वभावसे परिणमन करता है वह स्त्र (अपने ) भावसे भिन्न अर्थात् अभव्य स्वभाव कहा जाता है । १० । और परस्सर एक दूसरेके प्रदेश में प्रवेश करते हुए तथा परस्पर अवकाशको देते हुए एवं नित्य मिलते हुए भी द्रव्य अपने अपने भावको नहीं छोड़ते हैं । यह भावस्वभावका अर्थ जानना चाहिये ॥ २४ ॥ शन्यत्वं कूटकार्येण भव्यभावं विना भवेत् ।। अभव्यत्वं विना द्रव्यान्तरता द्रव्ययोगतः ॥ २५ ॥ भावार्थः-भव्यस्वभावके विना असत्यकार्यके साथ योग होनेसे शून्यवत्ता होती है । और अभव्य स्वभावके बिना द्रव्यके संयोगसे अन्य द्रव्यकी उत्पत्ति होती है ।। २५ ।। ___ व्याख्या । भव्यमावं विना मध्यस्वभावमन्तरेण कूटकार्येणासत्यकार्येण योगे शून्यत्वं शून्यवत्वं भवेत् । किन्तु परभावे भवेन्नहि स्वभावे च भवेत्तदा भव्यत्वं स्यादिति । अथ पुनरमण्यत्वं विना अमव्यस्वमावानङ्गीकारे द्रव्ययोगतः द्रव्यस्य संयोगाद्रव्यान्तरता द्रव्यान्यत्वं जायते । यस्माद्धर्माधर्मादीनां जीवपदगलयोरेकावगाहनावगाढकारणेन कार्यसंकरोऽमव्यस्वभावेनैव न भवेदिति । तत्तद्रव्याणां तत्तत्कार्यदेतताकल्पनमप्यमव्यत्वस्वभावमितमेवास्ते । आत्मादेः स्ववृत्त्यनन्तकार्यजननशक्त्या भव्यः, तत्तत्सहकारिसम. वधानेन तत्तत्कार्योपधायकताशक्तिश्च तथा भव्यतेति । तथा भव्यतयवानतिप्रसङ्ग इति तु हरिभद्राचार्यः ॥२५॥ ___ व्याख्यार्थः-भव्य स्वभाव के बिना असत्यकार्यका योग होनेसे शून्यवान्पना होवे । तात्पर्य यह कि परभावमें नहीं होवे और स्वभावमें हो तब भव्य भाव होता है। और अभव्य Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् स्वभावके न अंगीकार करनेपर द्रव्यके संयोगसे अन्यद्रव्यता होती है। इससे धर्म अधर्म आदि द्रव्योंके तथा जीव और पुद्गलके एक प्रदेशमें अवगाहना रूप अवगाढ कारणसे जो कार्यसंकरता नहीं होती है सो अभव्यस्वभावसेही नहीं होती है । और उन उन द्रव्योंके उन उन द्रव्योंके कार्योंका हेतुरूपसे जो कल्पन है वह भी इस अभव्यस्वभावमें ही गर्भित है । तात्पर्य यह कि आत्मा आदि द्रव्योंके अपनेमें रहनेवाले अनन्त कार्योंको उत्पन्न करनेकी जो शक्ति है उस शक्तिसे तो भव्यभाव है और उन उन सहकारी कारणोंके सन्निधानसे उन उन कार्योंकी उत्पादक जो शक्ति है वह अभव्य भाव है । और ऐसा माननेसे भव्यभावके साथ अतिव्याप्ति नहीं होती है । यह हरिभद्राचार्यजी कहते हैं ॥२५॥ पारिणामिकस्वभावः परमभाव आहितः । विनैनं मुख्यता द्रव्ये प्रसिद्धया दीयते कथम् ॥ २६ ॥ भावार्थः-पारिणामिकस्वभाव जो है उसको परमभाव कहते हैं। इस परमभावके विना द्रव्यमें प्रधानता प्रसिद्धरूपसे कैसे दी जावे ? ॥ २३ ॥ व्याख्या। स्वलक्षणीभूतपारिणामिक भावप्रधानतया परममाव आहितः । यथा ज्ञानस्वरूप आत्मा । परिणामे भव: पारिणामिकः स चासो स्वभावश्च पारिणामिकस्वभावः । परं प्रकृष्टं ज्ञानादि परमं तच्च भावः परमभाव इत्यनेनात्मा ध्वन्यते । यदि हि परमभावः स्वभावो न कथ्यते तदा द्रव्यविषये प्रसिद्धतया प्रसिद्धरूपं कथं दीयते । अनन्तधर्मात्मकवस्तुन एकधर्मपुरस्कारेणालाप्यते यत्तदेव परमताया लक्षणं ज्ञेयमिति । एते एकादश स्वभावा सर्वेषां द्रव्याणां धारणीयाः। एनं परमभावं विना द्रव्ये द्रब्यविषये मुख्यता प्राधान्यं प्रसिद्धया प्रसिद्धरूपेण कथं दीयत इत्येवमिति ॥ २६ ॥ व्याख्यार्थ:--अपने निजलक्षणभूत पारिणामिक भावकी प्रधानतासे परम भाव कहा गया है। जैसे-आत्मा ज्ञानस्वरूप है । परिणाममें जो हो उसे पारिणामिक कहते हैं । पारिणामिक ऐसा जो स्वभाव वह पारिणामिक स्वभाव है। उत्कृष्ट जो ज्ञान आदि सो परम हैं । परम जो भाव वह परम भाव है और इससे आत्मा ध्वनित होता है ।११। यदि परम भावको स्वभाव नहीं कहैं तो द्रव्यमें प्रसिद्धरूप कैसे दिया जावे ? क्योंकि, अनन्तधर्मवाले द्रव्यको जो एक धर्मको मुख्य करके उससे कहा जावे वही परम भावका लक्षण है, ऐसा जानना चाहिये। ये पूर्वोक्त एकादश ( ग्यारह ) स्वभाव छहों द्रव्योंके विषयमें ही धारण करने चाहिये । इस अंतिम परमभावके बिना द्रव्यके विषय में प्रधानता प्रसिद्ध रूपसे कैसे योजित कर सकते हो ? । इस रोति से अस्तित्व आदि सब भावों की आवश्यकता दर्शायी गई है ।। २७ ।। इत्थं च सामान्यतया स्वभावा, एकादशामी कथिताः श्रुतोक्ताः' । Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा आप्तोक्तिमभ्यस्य निरस्य जाड्य मर्हत्क्रमाभोजम्रता भवन्तु ॥ २७ ॥ भावार्थ:- इस प्रकार ये शास्त्रोक्त सामान्यरूपसे द्रव्योंके एकादश स्वभाव कहे गये हैं । भव्यजीवोंको उचित है कि वे इनका पूर्णरूप से अभ्यास करके और अपनी अज्ञानताको 1 दूर करके श्रीजिनदेवोंके चरणकमलों की सेवामें तत्पर होवं ॥ २७ ॥ [ २०३ । इत्थं च पूर्वोक्तप्रकारेण सामान्यतया सामान्यस्वभाव सर्वद्रव्याधारतया स्वभावाः द्रव्याणां प्रकृतयः अभी प्रत्यक्षप्रमाणविषयीकृताः कथिताः कण्ठतोऽर्थतश्रोक्ताः श्रुतोक्ताः श्रुते शास्त्र उक्ताः प्रतिपादितास्तान्स्वभावान्सम्यक् स्वबुद्धया अभ्यस्य अभ्यासीकृत्य जाड्यं मौख्यं निरस्य दूरीकृत्य हैंत्क्रमामोजरता अर्हतां तीर्थंकृतां क्रमाः पादास्त एवाम्भोजानि कमलानि तत्र रक्ता आसक्ताः सादरा भवन्तु । श्रुतबोधस्यैतन्माहात्म्यं श्रीजिनभजन सादरत्वमेवेति ध्येयम् । अत्र श्लेषेण भोजेति सन्दर्भ कत्त ुर्नामसङ्केतश्चेति । अथाग्यग्रन्थाधिकारः । अस्तित्वम् १ वस्तुत्वम् २ द्रव्यत्वम् ३ प्रमेयत्वम् ४ अगुरुलघुत्वम् ५ प्रदेशत्वम् ६ चेतनत्वम् ७ अचेतनत्वम् ८ मूर्त्तत्वम् अमूर्त्तत्वम् १० द्रव्याणां दश सामान्यगुणाः ॥ प्रत्येकमष्टावष्टौ । सर्वेषां दशसामान्यगुणानां मध्ये षट सामान्यगुणाः, चत्वारः सामान्यविशेषगुणाः, ज्ञानदर्शन सुखवीर्याणि, स्पर्शरसगन्धवर्णाः, गतिहेतुत्वम्, स्थितिहेतुत्वम्, अवगाहनाहेतुत्वम् वर्त्तनाहेतुत्वम्, चेतनत्वम्, अचेतनत्वम्, मूर्त्तत्वम्, अमूर्त्तत्वम्, द्रव्याणां षोडश विशेषगुणाः, प्रत्येकं जीवपुद्गलयोः, इतरेषां प्रत्येकं त्रयो गुणाः, अन्तस्थाश्चत्वारो गुणाः स्वजात्यपेक्षया सामान्यगुणाः, विजात्यपेक्षया त एव विशेषगुणाः । इति गुणाधिकारः ॥ २७ ॥ इति द्रव्यानुयोगतर्कणायां कृतिभोजसागरविनिर्मितायामेकादशोऽध्यायः ।। ११ ।। व्याख्यार्थः- :- भव्य जीव इस पूर्वोक्त प्रकारसे सामान्य स्वभाव संपूर्ण द्रव्योंके आधारसे प्रत्यक्ष प्रमाणके विषय में लाये हुए शास्त्र में कहे हुए द्रव्योंके एकादश ११ भेद जो कंउसे तथा अर्थसे कहे हैं, उन स्वभावोंको पूर्ण रीतिसे अभ्यासगोचर करके तथा उनके अभ्यासद्वारा मूर्खताको दूर करके श्रीतीर्थंकरोंके चरणरूपी कमलों में विनयसहित आसक्त ( तत्पर ) होवें । क्योंकि शास्त्रज्ञानका यही माहात्म्य है कि श्रीजिनेन्द्रकी सेवा आदर करै; यह समझना चाहिये । यहां श्लेषसे भोज यह ग्रन्थकार के नामका संकेत है । अब अन्य ग्रन्थका अधिकार करते हैं । अस्तित्व १ वस्तुत्व २ द्रव्यत्व ३ प्रमेयत्व ४ अगुरुलघुत्व ५ प्रदेशत्व ६ चेतनत्व ७ अचेतनत्व ८ मूर्त्तत्व ९ अमूर्त्तत्त्व १० ये दश द्रव्यों के सामान्य गुण हैं । सामान्य गुण प्रत्येक द्रव्यमें आठ आठ रहते हैं । इन सब सामान्य गुणों में छह तो सामान्य गुण हैं और अन्तके चार सामान्य ज्ञान १ दर्शन २ सुख ३ वीर्य ४ स्पर्श ५ रस स्थितिहेतुता १० अवगाहनहेतुता ११ वत्तनाहेतुना मूर्त्तत्व १५ अमूर्त्तत्व १६ ये द्रव्योंके सोलह विशेष तथा गुण भी हैं और विशेष गुण भी हैं । ६ गंध ७ वर्ण ८ गातहेतुता ९ १२ चेतनत्व १३ अचेतनत्व १४ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् गुण हैं । इन सोलह विशेष गुणोंमें जीवके छः छः गुण हैं, पुद्गलके भी छः छः गुण हैं, और अन्य धर्मादि चारों द्रव्योंमें प्रत्येकके तीन तीन गुण हैं। अंतके चेतनत्व आदि चार गुण अपनी जातिकी अपेक्षासे सामान्य गुण हैं और परजातिको अपेक्षासे विशेष गुण हैं । इस प्रकार गुणोंका अधिकार है ॥२७॥ इति श्रीआचार्योपाधिधारक-पं० ठाकरप्रसाद प्रणीत-माषाटीकासमलंकृतायां द्रव्यानुयोगतकंणाव्याख्यायामेकादशोऽध्यायः ॥ ११ ॥ अथ स्वभावाध्यायं व्याचिख्यासुराह । अब इस द्वादश ( बारहवें ) अध्यायमें स्वभावोंका निरूपण करनेकी इच्छासे यह श्लोक कहते हैं। चैतन्यं चेतना ख्याता त्वचैतन्यमचेतना । चेतनत्वं विना जन्तोः कर्माभावो भवेद्धवम् ॥ १॥ भावार्थः-चैतन्य चेतनाका नाम है और अचैतन्य अचेतनाका नाम है। इस चैतन्य नामक गुणके विना जीवके निश्चय करके कर्मोंका अभाव हो जावे ॥१॥ व्याख्या । चिती संज्ञाने चेतति चेतयते वा चेतनस्तस्य भावश्चैतन्यं चेतनाव्यवहारश्चेतनस्वभावः १ तद्विपरीतमचैतन्यमचेतनस्वभावः २ चेतनत्वं विना जन्तोर्जीवस्य कर्माभावो मवेदिति रागद्वेषरूपं कारणं चेतना ज्ञानावरणादिकर्मणोऽभावः । यतः "स्नेहाभ्यक्तशरीरस्य रेणुनाश्लिष्यते यथा गात्रम् । रागद्वेषक्लिन्नस्य कर्मबन्धो भवत्येवम । १।" एवं यदि जीवस्य सर्वथा अचेतनस्वभाव: कर्माभाव एवेति ॥ १॥ व्याख्यार्थ--'चिती' धातुका संज्ञान अर्थात् जानना अर्थ है। जो स्वयं चेतै वा दूसरोंको चितावै उसको चेतन कहते हैं। उस चेतनका जो भाव (धर्म) है उसको चैतन्य कहते हैं । और चेतनाका जो व्यवहार है सोही चेतनस्वभाव है । १ । तथा चेतनस्वभावसे जो विपरीत है वह अचैतन्य वा अचेतन स्वभाव है । २ । इनमें चेतन स्वभावके विना अर्थात् चेतनस्वभाव न माननेपर जीवके कर्मोंका अभाव होगा, क्योंकि कर्मबन्धमें जो राग तथा द्वेषरूप कारण है वह चेतना अर्थात् ज्ञानावरणादि कर्मोंका अभाव है अर्थात् चेतनासे ही कर्मों का बन्ध होता है। क्योंकि जैसे तैल आदिसे लिप्त शरीरवाले जीवका शरीर धूलसे लिप्त हो जाता है, ऐसेही राग तथा द्वेषसे आर्द्राभूत (गीले हुए) जीवके ही कर्मोंका बन्धन होता है। इस कथनके अनुसार यदि जीवके चेतन स्वभाव न मानकर, सर्वथा अवेतन स्वभावही माने तो कर्मों का अभावही होगा ॥१॥ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ 205 अचैतन्यं विना जीवे चैतन्यं केवलं यदि / ध्यानध्येयेष्टशिष्याणां का गतिर्जायते तदा // 2 // भावार्थः-यदि अचेतन स्वभावसे रहित केवल चेतन स्वभावही जीवमें मानो तो ध्यान, ध्येय (जिसका ध्यान किया जाता है उसे ध्येय कहते हैं), गुरु और शिष्य इनकी क्या गति होगी ? // 2 // व्याख्या। अचैतन्यं वर्जयित्वा केवलं चैतन्यं जीवे कथ्यते तदा अचेतनकर्मद्रव्योपश्लेषजनितचेतना- . विकाराहते शुद्धसिद्धसादृश्यं भवेदिति निश्चयः / तदा ध्यानध्येयगुरुशिष्याणां का गतिर्न कापि गतिः / ध्यानं किं ध्यायते, ध्येयश्च को मवति, को गुरुः, शिष्योऽपि क इति व्यवस्थामङ्ग स्यात्, सर्वशास्त्रव्यवहारश्चाग्यथा स्यात् / शुद्धस्याविद्याया वृत्त्यापि क उपकारो भवति / तस्मादलवणा यवागूरितिवदचेतन आत्मा इदमपि कथंचित्कथं न धर्मो जायते // 2 // व्याख्यार्थः-यदि अचेतन स्वभावको छोड़कर, केवल चेतन स्वभावही जीवमें कहा जावे तो अचेतन जो कमैद्रव्य है उसके संबन्धसे उत्पन्न जो चेतनामें विकार है उसका अभाव हो जानेसे सब जीवोंमें शुद्ध जो सिद्ध जीव हैं उनकी समानता हो जाय अर्थात् अचेतन कर्मों के अभावसे सब जीव सिद्धसमान हो जावें ऐसा निश्चय है / और सब जीवोंके सिद्धता होनेपर ध्यान, ध्येय, गुरु और शिष्य इनकी क्या गति ( व्यवस्था ) हो ? अपितु कुछ भी गति नहीं अर्थात् ध्यान किसको ध्यावे ? ध्यान करने योग्य कौन हो, गुरु कौन रहे और शिष्य भी कौन रहे ? अर्थात् कोई न रहे / क्योंकि, सब जीव समान हो गये इसलिये ध्यान, ध्येय, गुरु और शिष्यकी व्यवस्थाका नाश हो जाय और समस्त शास्त्रोंमें जो ध्यान आदिका व्यवहार होता है वह शास्त्रीय व्यवहार भी मिथ्या हो जाय / शुद्ध द्रव्यके अविद्याकी वृत्ति माननेसे भी क्या उपकार होता है ? इसलिये लवणरहित यवागू (लपसी) के सदृश अचेतन आत्मा है यह भी धर्म कथंचित् कैसे नहीं होता है ? अर्थात् होता ही है // 2 // मूर्ति दधाति मूर्त्तत्वममूर्त्तत्वं विपर्ययात् / जीवस्य यदि मूर्त्तत्वं न तदा संसृतिक्षयः // 3 // भावार्थः-मूर्तिको धारण करता है इसलिये मूर्त्तत्व गुण है और जो मूर्तिको नहीं धारण करे वह अमूर्त्तत्व गुण है / यदि जीवके मूर्त्तत्व गुण न मानो तो संसारका क्षय (नाश) हो जावे // 3 // ___ व्याख्या / मूत्तिः परसगन्धस्पर्शादिसन्निवेशता तस्या धरणस्वभावो मूर्त्तत्वं मूर्तस्वभावः / तस्माद्यद्विारीतं तदमूर्तस्वपनुरीसमावः / यदि जीवस्य कचिन्मूर्ततास्त्र पावो न भवेत्तदा शरीरादिसंबन्ध विना गत्यन्तरसंक्रमो न भवति, गत्यन्नरसंक्रमं विना संसारस्यामावो भवेदिति भावः // 3 // Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशाखमालायाम् व्याख्यार्थः-रूप, रस, गंध, स्पर्श आदिका जो एक स्थानमें सन्निवेश (स्थिति वा रचना ) है वह मूर्ति है, उस मूर्तिको धारण करनेका जो स्वभाव है वह मूर्त स्वभाव है। और मूर्तसे जो विपरीत ( विरुद्ध ) अर्थात् मूर्तिको न धारण करनेका जो स्वभाव है वह अमूर्त स्वभाव है / यदि जीवके कथंचित् मूर्त स्वभाव न हो तो संसारका अभाव हो जायगा / क्योंकि जीवके शरीर आदिके संबन्ध विना एक गतिसे दूसरी गतिमें गमन नहीं होता / और शरीर आदि मूर्त हैं। मूर्तका अभाव जोवमें माननेसे शरीर आदिके संबन्धका अभाव माना गया और शरीरादि संबन्धके अभावमें अन्य गति में गमनका अभाव हुआ और जब अन्य गतिमें गमनका अभाव हुआ तो संसारका अभाव हुआ / अर्थात् जीवके एक गतिसे दूसरी गतिमें जो जाना है वही संसार है, अतः गत्यन्तरका अभाव हुआ तो संसारका नाश हुआ ही // 3 // अमूर्तत्वं बिना मोक्षः सर्वथा घटते न हि। एकप्रदेशता चेहाखण्डबन्धनिवासता // 4 // भावार्थ:-यदि आत्माके सर्वथा मूर्त स्वभावही माना जावे तो आत्माको मोझ कदापि नहीं हो सकता / और अखन्डबन्धनिवासताको एकप्रदेशस्वभाव कहते है // 4 // व्याख्या / अथ यदि लोकदृष्टव्यवहारेण मूर्तस्वभाव एव आत्मा अङ्गीक्रियते तदा मूर्त्तत्वं हेतुसहस्ररप्यमूर्त्तत्वं न भवेत् / एवं सति मोक्षो न घटामाटीकते / तस्मारमूर्तस्वसंवलितस्य जीवस्याप्यन्तर तया अमूर्तस्वभाव एव मन्तव्य इति / अथैकप्रदेशस्वभाव एकप्रदेशता सा चेहैकत्वपरिणतिरखण्डाकारब. घस्य सन्निवेशस्तस्य निवासता भाजनत्वं ज्ञातव्यम् / निष्कर्षस्त्वयम् -अखण्डतया आकृतीनां सन्निवेश: परिणमनव्यवहारस्तस्य भाजनमाधाराधेयत्वमेकप्रदेशतोच्यत इति // 4 // व्याख्यार्थः-अब लोकके दृष्ट ( देखे हुए ) व्यवहारसे यदि आत्मा सर्वथा मूर्त स्वभावही है ऐसा मानते हो तव तो मूर्त स्वभाव के हजारों हेतुओं ( युक्तियों) से भी अमूर्त्तता नहीं होगी और जब आत्मा कभी अमूर्त न होगा तो मूर्त स्वभावके अभावके विना जीव के मोक्ष कदापि घटित नहीं हो सकता क्योंकि मूतं शरीर आदिका संबन्ध जब नित्य बना हुआ है तब मोक्ष कैसे हो सकता है ? इसलिये मूर्त स्वभावसे मिले हुए जीव के अंतरंगपनेसे अमूर्त स्वभाव भी मानना चाहिये / और ए प्रदेश स्वभाव जो है वही एक प्रदेशता है / उस एकत्व परिणतिको यहां अखंडाकार बन्धके सन्निवेशका भाजन जानना चाहिये / तात्पर्य यह कि अखंड रूपसे जो आकारोंका सन्निवेश अर्थात् परिणमन व्यवहार है उसका जो भाजन अर्थात् आधाराधेयपना है उसको एकप्रदेशता कहते है // 4 // भिन्नप्रदेशता सैवानेकप्रदेशता हि या / न चेदेकप्रदेशत्वं भेदोऽपि बहुधा भवेत् // 5 // Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ 207 भावार्थः-और जो अनेकप्रदेशता है उसीका नाम भिन्नप्रदेशता है / अब यदि एकप्रदेशता न मानो तो भेद भी अनेक प्रकारका हो जायगा // 5 // व्याख्या। भिन्न प्रदेशता संवानेकप्रदेशस्वभावता | भिन्नप्रदेशयोगेन तथा मिनप्रदेशकल्पनया अनेकप्रदेशव्यवहारकारणयोग्यत्वमुच्यते / यद्ये क प्रदेशस्वभावो न स्यात्तदा असंख्यातप्रदेशादियोगेन बहुवचनवृत्त्यकस्य धर्मास्तिकायस्यक इति व्यवहारासम्भवः स्यात्, बहुधा बहवो धर्मास्तिकाया इत्यादिव्यवहारापत्तिः स्यादिति // 5 // व्याख्यार्थः-जो भिन्न प्रदेशता है वही अनेकप्रदेशस्वभावता है / तात्पर्य यह कि भिन्न प्रदेशके योगसे तथा भिन्न प्रदेशकी कल्पनासे अनेक प्रदेशके व्यवहारकारणयोग्यता कही जाती है / अब यदि एक प्रदेश स्वभाव न हो तो असंख्यात प्रदेश आदिके योगसे बहुवचनको प्रवृत्ति होनेसे एक जो धर्मास्तिकाय द्रव्य माना गया है उसके एक इस व्यवहारकी असंभवता हो जायगी और धर्मास्तिकाय बहुत हैं इत्यादि व्यवहारकी आपत्ति होगी। भावार्थ-असंख्यात प्रदेशोंके धारक धर्मास्तिकायको जो एक द्रव्य माना है वह एकप्रदेशत्वके न माननेसे एक न रहेगा / / 5 / / निष्कम्पत्वं सकम्पत्वं विनानेकप्रदेशताम् / कथं च घटतेऽणूनां सङ्गतिः सर्वदेशजा // 6 // भावार्थः-तथा अनेक प्रदेश स्वभावके विना निष्कंपत्व और सकंपत्व व्यवहार नहीं हो सकता और आकाशादि द्रव्यके अणुओंका सर्वज तथा देशज संयोग भी किस प्रकार घट सकता है // 6 // व्याख्या / अनेकप्रदेशस्वभावो द्रव्यस्य यदि न कथ्यते तदा घटाद्यवयविनो देशतः सकम्पा देशतो निष्कम्पा दृश्यन्ते ते च कथं संभवन्ति / अथावयवकम्पेऽप्यवयवी निष्कम्प इति कथ्यते तदा चलतीति प्रयोगासंभव एव भवेत् / देशवृत्तिकम्पस्य यथा परम्परासंबन्धोऽस्ति तद्व शवृत्तिकम्पाभावस्यापि परम्परा संबन्धोऽस्ति / तस्माद्दे शतश्चलता देशतोऽचलता चेत्यस्खलितव्यवहारेणानेकप्रदेशस्वभावो मन्तव्यः / तथा चानेकप्रदेशस्वभावो नाङ्गीक्रियते तदा आकाशादिद्रव्यस्याणुसङ्गविः परमाणुसंयोगः कथं घटते / सर्वजो देशज इति // 6 // व्याख्यार्थः-अब यदि द्रव्यका अनेक प्रदेश स्वभाव नहीं कहते हो तो घट आदि अवयवी किसी देशमें कंपन ( संचलन ) सहित हैं और किसी देशमें कंपनरहित हैं ऐसे देख पड़ते हैं सो वे कंपसे सहित तथा रहित कैसे हो सकते हैं। क्योंकि यदि एकही प्रदेश है तो वह या तो सकम्प हो होगा या निष्कंप ही होगा / अब कदाचित् यह कहो कि एक प्रदेशस्वभाव अवयवके कंसहित होनेपर भी अवयवी निष्कंप है इसलिये सकर तथा निष्कर दोनों व्यवहार हो सकते हैं तो अवयवी ( घट आदि) चलता है यह जो प्रयोग है सो होहो नहीं सकेगा। क्योंकि, जैसे एकदेश अवयववृत्ति Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 208 ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् कंपनका तुम परम्परासंबन्ध मानकर, उससे अवयवीको सकंप कहते हो उसी प्रकार एकदेशवृत्ति जो निष्कंप है उसके परंपरासंबंधसे अवयवीमें निष्कंप भी कहोगे / इसलिये एकदेशसे अवयवी चलता है और एक प्रदेशसे अवयवी नहीं चलता यह जो अखंडित व्यवहार है इससे द्रव्यका अनेक प्रदेश स्वभाव है ऐसा मानना योग्य है / और यदि द्रव्यका इसी प्रकार अनेक प्रदेश स्वभाव अंगीकार नहीं करते हो तो आकाश आदि द्रव्यका सर्वज तथा देशज परमाणु संयोग कैसे बन सकता है ? / अब देशज तथा सर्वज संयोग क्या है ? इसको अग्रिम इलोकसे स्पष्ट करते हैं // 6 // देशसकलभेदाभ्यां द्विधा दृष्टा जगत्स्थितिः / प्रत्येकं दूषणं तत्र ब्रूते वृत्तिश्च संमतेः // 7 // भावार्थः- देश तथा सर्वके भेदसे जगतकी स्थिति दो प्रकारकी देखी गई है / इनमेंसे एक किसी पक्षके माननेसे संमति ग्रंथकी वृत्ति दृषण देती है / / 7 / / व्याख्या। एका वृत्तिर्देशतोऽस्ति यथा कुण्डलेनेन्द्रस्य, द्वितीया सर्वतोऽस्ति यथा समानवस्त्रद्वयस्य, तत्र प्रत्येकं दूषणं संमतिवृत्तो कथितम् / यतः परमाणोराकाशादेश्च देशवृत्तिमङ्गीकुर्वतामाकाशादिकाना प्रदेशानङ्गीकारेऽप्यागच्छति / अथ च सर्वतोवृत्तिमङ्गीकुर्वतां परमाणुराकाशादिप्रमाणत्वं लभते / उभयाभावे तु परमाणोरवृत्तित्वं भवेत् / यावद्विशेषाभावस्य सामान्याभावनियतत्वादित्यादि / / 7 / / व्याख्यार्थः--एक वृत्ति तो देशसे ( एक देशसे संबंध रखनेवाली ) है जैसे कुण्डलके साथ इन्द्रकी और दूसरी सर्व देशसे है जैसे समान आकारवाले दो वस्त्रोंके। उनमें प्रत्येक पक्षमें संमति ग्रंथकी वृत्तिमें दूषण कहा गया है ! क्योंकि परमाणु और आकाश आदिके एकदेशवृत्ति स्वीकार करनेवालोंके जो संयोग है वह यदि आकाश आदिके प्रदेश न माने जावे तो भी हो सकता है / और सर्व देशसे वृत्ति स्वीकार करनेवालोंके मतसे परमाणु आकाश आदिकी प्रमाणताको प्राप्त होता है अर्थात् जितना बड़ा आकाश है उतनाही बड़ा परमाणु भी होगा / और एकदेश तथा सर्वदेश दोनों ही वृत्तियोंको न मानें तो परमाणुकी अवृत्ति ही होगी / एकदेश व सर्वदेश कोई वृत्ति न रहनेसे सामान्यसे वृत्तिका अभाव हो जायगा / क्योंकि समस्त विशेषभाव सामान्यके अभावके समनियत है इत्यादि // 7 // स्वभावादन्यथाभावो विभावोऽपि महद्वयथा / नानादेशादिकर्मोपाधिर्यतो घटते कथम् // 8 // भावार्थ:-स्वभावसे अन्यथा भावरूप विभाव भी महाव्यथारूप है / क्योंकि इस विभाव स्वभावके विना जीवके नाना देशकाल आदिसे उत्पन्न कर्मोपाधि कैसे घटित हो सकती है ? अर्थात् नहीं घटित हो सकती // 8 // Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ 209 व्याख्या / स्वभावाद् योऽन्यथामाव: स विमावस्वभावः कथ्यते / इति तु महद्वयथारूपं लगति / एतच्च विमावस्वभावस्याङ्गीकरणं विना जीवस्य नानादेशादिकर्मोपाधिः कथं घटते / नानादेशाद्यनियतदेशकालादिविपाकिकर्मोपाधि वस्यालग्ना यूज्यते / तत उपाधिसंबन्धयोग्यानादिविभावस्वभाव इति // 8 // व्याख्यार्थः-निजस्वभावसे जो द्रव्यका अन्यथाभाव है उसको विभावस्वभाव कहते हैं / सो यह तो महाव्याधिरूप लगता है। और इस विभावस्वभावके अंगीकार न करनेसे जीवके नानादेशादि कर्मोपाधि कैसे बन सकती है ? तात्पर्य यह कि विभाव स्वभावके स्वीकार विना अनियत देश और काल आदिके संबन्धसे विपाकीभूत ( फल देने में अभिमुख ) जो कर्म हैं उन कर्मोंरूप जो उपाधि है वह जीवके साथ नहीं लग सकती। इस कारणसे उपाधिसंयोगके योग्य अनादि विभाव-स्वभाव भी मानना योग्य है // 8 // शुद्धो भावः केवलमन्यश्लोपाधिकः स्मृतः / शुद्ध विना न मुक्तिश्च विनाऽशुद्ध न लेपता // 6 // भावार्थः-केवल निजस्वरूप मात्रसे जो स्थिति है वह शुद्धभाव है और उपाधिसे उत्पन्न हुआ अशुद्ध भाव है / शुद्ध भावके विना मुक्ति नहीं होती और अशुद्ध भावके विना जीवके कर्मोंका बन्धन नहीं होता है // 9 // व्याख्या / केवलत्वं शुद्धो भावः, उपाधिभावरहितास्तविपरिणतत्वं शद्धस्वभावत्वम / अन्योऽशुद्धभाव औपाधिकः, उपाविजनितबहिर्भावपरिणमनयोग्यता गुद्वस्वभावता / यदि शुद्धभावाङ्गीकारत्वं न क्रियते तदा मुक्तिर्न घटते, पुनश्वाशुद्धभावाङ्गीकारत्वं न क्रियते तदा कर्मलेपो न घटते / अतएव शुद्धस्वभावस्य कदाप्यशुद्धता न स्यादशुद्धस्वभावस्यापि पश्चाच्छुद्धता न स्यात् / एकमेकान्तादिमतं निरस्योभयस्वभावाङ्गीकरणे न किमपि दूषण भवेत् // 9 // व्याख्यार्थः केवलपना जो है वह शुद्धभाव है अर्थात् उपाधिभावसे रहित केवल द्रव्यके अन्तर्गत भावका जो परिणाम है वह शुद्ध स्वभाव है / और इससे अन्य अशुद्ध भाव है / वह उपाधिसे उत्पन्न होता है / अर्थात् उपाधिसे उत्पन्न जो बाह्यभाव है उस बाह्य भावके परिणमनरूप जो योग्यता है वही अशुद्ध स्वभाव है। अब यदि शुद्ध भावका स्वीकार न करें तो मुक्ति नहीं हो सकती है और यदि अशुद्ध स्वभावको नहीं मानें तो जीवके कर्मोंका संबन्ध नहीं बनता है। इसी कारणसे शुद्ध स्वभावके तो कभी अशद्धता नहीं होती है और अशुद्ध स्वभावके कभी शुद्धता नहीं होती। इस प्रकार एकान्तवाद आदिका खंडन करके शुद्ध और अशुद्ध इन दोनों स्वभावोंके मानने में कोई दूषण नहीं है // 9 // 27 Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 210 ] श्रीमद्रराजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् एकत्र निश्चितो भावः परत्र चोपचर्यते / उपचरितभावः स विननं नो परज्ञता // 10 // भावार्थः-एक स्थानमें निश्चित जो भाव है वह दूसरे स्थानमें उपचारमें लाया जाता है। इसीको उपचरित भाव कहते हैं। इसके विना परका ज्ञान नहीं हो सकता // 10 // ___व्याख्या / एकत्र निश्चितो भावः नियमितकस्थानस्य मावस्य परस्थानोपचरणेनोपचरतिस्वभावता जायते / स उपचरितस्वमावो यदा नाङ्गीक्रियते तदा स्वपरव्यवसायिज्ञानवानात्मा किमु कथ्यते / ततो ज्ञानस्य स्वविषयत्वं त्वनुषचरितमेवास्ते / अथ परविषयत्वं तु परापेक्षया प्रतीयमानत्वं, तथा परनिरूपितसंबन्धत्वेनोपचरितमस्ति / इत्थमुपचरितस्वभावता द्विप्रकारास्ति // 10 // व्याख्यार्थः-जो भाव एक स्थानमें निश्चित है अर्थात् जिस स्वभावकी सत्ता एक पदार्थमें नियमसे है उस स्वभावका जब अन्य स्थानमें उपचार ( आरोप ) करते हैं तब उसको उपचरित-स्वभावता हो जाती है। उस उपचरित स्वभावको यदि नहीं स्वीकार करें तो आत्मा अपने और परके( दोनोंके ) विषयमें व्यवसायात्मक ज्ञानका धारक है यह कैसे कहा जावे ? इस कारणसे यह सिद्ध हुआ कि ज्ञानके स्वविषयत्व अर्थात् अपना जो ज्ञान है वह तो अनुपचरित (उपचाररहित ) ही है और परकी अपेक्षासे जो जानता है वह परनिरूपित संबन्धसे उपचरित है / और इस प्रकार जो उपचरित स्वभाब है वह दो प्रकारका है / यही आगेके श्लोकमें कहते हैं // 10 // कर्मजः सहजश्चतो मूर्ताचेतनभावयोः / / जन्तोराछो द्वितीयोऽपि सिद्धस्य विमलात्मनः // 11 // भावार्थ:-एक कर्मजनित उपचरितभाव है और दूसरा सहज उपचरितभाव है / ये दोनों मूर्त तथा अचेतन भावमें होते हैं / और प्रथम भेद तो संसारो जीवके होता है और दूसरा निर्मल आत्माके धारक सिद्ध जीवोंके होता है // 11 // ___ व्याख्या / कर्मज एकः सहजो द्वितीय एतौ द्वौ भेदो मूर्तीवेतनमावयोः स्तः। तत्र पुद्गलसंबद्धस्य प्राणिनो मूर्त्तत्वमस्ति / अथ चाचेतनत्वमप्यस्ति तत्त् यजीवस्य कथ्यते प्रथमं तत्र तु गौर्वाहीक इति म्यायानुसरणेनोपचरितोऽस्ति कर्मजनितत्वोत् / तस्मादत्र यत्कर्मजनितोपचरितस्वभावत्वं तजन्तोद्वितीयोऽपि सहजोपचरितस्वमावोऽपि सिद्धस्य निर्मलस्य / परजत्वं तु तत्र किमपि कर्मोपाधिजमस्ति तन्न स्यात् तदुक्तमाचारसूत्रे "अकम्मस्स ववहारो ण विजइ कम्मणा उवाहि जायत्तिति" एवमेते दश स्वभावा नियतद्रव्यवृत्तयः सन्तीति // 11 // व्याख्यार्थः-प्रथम उपचरित स्वभाव कर्मसे उत्पन्न होता है और द्वितीय उपचरितभाव सहज (स्वाभाविक ) है। ये दोनों उपचरित भावके भेद मूर्त ओर अचेतनके Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [211 विषयमें होते हैं। उनमें पुद्गलसे संबद्ध प्राणीके मूतत्व है और अचेतनत्व भी है और इसीलिये प्रथम उपचरित भाव जीवके है। और यह कर्मजनित होनेसे "गौर्वाहीकः" "यह बोझा ढोनेवाला गौ (पशु) है" इस न्यायके अनुसार उपचरित है / इसलिये यहां, जो कर्मजनित उपचरित स्वभावता है सो जीवके कही गई है / और दूसरा जो सहजोपचरित स्वभाव है वह निर्मल (कमरहित ) सिद्ध जीवके है / सिद्धोंमें परका जो जानना है वह किसी कर्मकी उपाधिसे है ऐसा जो कहो तो वह ठीक नहीं है / क्योंकि आचाराङ्ग सूत्रमें कहा है कि, “कर्मरहित जीवके व्यवहार नहीं रहता है; क्योंकि उपाधि जो है सो कमसे होती है। इस प्रकार ये दश 10 स्वभाव पूर्वोक्त चेतनत्व आदि नियत द्रव्यवृत्ति हैं // 11 // अमी दश विशेषेण स्वभावाश्चैकविंशतिः / सर्वे पुद्गलजीवानां पश्चदशाप्यनेहसः // 12 // भावार्थ:-ये दश स्वभाव और पूर्वकथित सत्तादि एकादश ये सब मिलके 21 भाव पुद्गल और जीवके हैं और कालके पन्द्रह 15 स्वभाव हैं // 12 // व्याख्या / अमी दश स्वभावा: पूर्वोक्ता एकादश स्वमावा उमये मिलिता एकविंशतिसंख्या जायन्ते / तत्र पुद्गलानां जीवानां च प्रत्येकमेकविंशतिः स्वमावा भवन्ति / तथा अनेहसः कालद्रव्यस्य पञ्चदश मावा भवन्ति / मूलत एकविंशतिभावाः सन्ति / तेभ्यः षट निष्कास्यन्ते तदा पंचदश अवशिष्यन्ते / तानेवाग्रेतनपान व्याकरोति // 12 // व्याख्यार्थ:-चेतनत्व आदि ये दश स्वभाव तथा सत्ता आदि पूर्वकथित एकादश स्वभाव, दोनों मिलके इक्कीस 21 होते हैं / इनमें पुद्गलके इक्कीस भाव हैं और जीवके भी एकविंशति 21 भाव ही हैं। और कालके पन्द्रह स्वभाव हैं। आरंभसे जो इक्कीस भाव हैं उनमेंसे छः भाव जब निकाले जाते हैं तो पन्द्रह बाकी बचते हैं। अब आगेके श्लोकमें उन्हींका निरूपण करते हैं / / 12 // प्रदेशानेकता चित्ता मूर्तता च विभावता / शुद्धताऽशुद्धता चेति षड् होनाः कालगोचराः // 13 // भावार्थ:-बहुप्रदेशत्व, चेतनत्व, मूत्तत्व, विभावत्व, शुद्धत्व और अशुद्धत्व इन छह स्वभावोंसे रहित शेष पन्द्रह स्वभाव कालके हैं // 13 // ___ व्याख्या / बहुप्रदेशस्वभाव: 1 चित्तेति चेतनस्वभावः 2 मूर्ततेति मूर्तस्वभावः 3 विभावता विमावस्वभावः 4 शुद्धता शुद्धस्वभावः 5 अशुद्धता अशुद्धस्वभावः 6 एते षडेकविंशतिम्यो निष्कास्यन्ते तदा पञ्चदश सर्वे कालस्वभावाः // 13 // __ व्याख्यार्थः-बहुप्रदेशस्वभाव, चेतनस्वभाव, मूर्तस्वभाव, विभावस्वभाव, शुद्धस्वभाव और अशुद्ध स्वभाव ये छह भाव जब इक्कोसमेंसे निकालते हैं तो पन्द्रह रहते हैं, ये सब पन्द्रह स्वभाव कालके हैं // 13 // Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 212 श्रीमद्रराजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् आदिमेन समायुक्ता धर्मादीनां तु षोडश / स्वभावाः संभवन्त्येव पूर्वोक्तानां प्रसंगतः // 14 // भावार्थः-निकाले हुए छह स्वभावोंसे प्रथम जो बहुप्रदेशस्वभाव है उस सहित धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्यके सोलह सोलह स्वभाव होते हैं, क्योंकि ऐसा पहले कह आये हैं // 14 // व्याख्या / आदिमेन बहुप्रदेशस्वमावेन समायुक्ता अन्यपञ्चवजितास्तदा षोडश स्वभावाः धर्माधर्माकाशास्तिकायानां भवन्ति / यत “एकविंशति भावा: स्युर्जीवपुद्गल योर्मता: / धर्मादीनां षोडश स्युः काले पञ्चदश स्मृताः" इत्यादि / // 14 // व्याख्यार्थः-जब भाव निकाले हुए छह भावोंमेसे प्रथम बहुप्रदेशस्वभावसे सहित और शेष पाँच भावोंसे रहित हुए तो सब सोलह स्वभाव हुए। ये सोलह सोलह स्वभाव धर्मास्तिकायके, अधर्मास्तिकायके और आकाशास्तिकायके होते हैं। क्योंकि “जीव और पुद्गल 21 भाव हैं, धर्म, अधर्म, आकाश द्रव्यके सोलह सोलह भाव हैं; कालमें पन्द्रह भाव माने गये हैं / ऐसा पूर्वपाठ है / / 14 / / / एवं प्रमाणस्य नयस्य बोधादिमान्स्वभावान्परिभाव्य चित्ते / आप्तकमाम्भोजप्रसत्तिलब्धमानन्दरूपं परमं श्रयन्ताम् // 15 // भावार्थ:-हे भव्यजीवो ! इस प्रकार प्रमाण तथा नयके ज्ञानसे इन स्वभावोंको चित्तमें विचारके श्रीजिनेन्द्र के चरणकमलोंके प्रसादसे प्राप्त जो आनन्दरूप ज्ञान है उसका आश्रय करो // 15 // व्याख्या / अनया दिशा प्रमाणस्य स्वपरव्यवसायिज्ञानस्य, नयस्य प्रमाणेन निर्णीतार्थस्यैकांशपाटकवचनं नयस्तस्य. बोधादनमवादिमान स्वभावान चित्ते मनसि परिभाध्य पोलोच्यासस्य श्रीजिनस्य क्रमी पादौ तावेवाम्भोज कमलं तस्य प्रसत्या प्रसादेन लब्धं प्राप्तमानन्दरूपं स्वानुभवरूपं परमं ज्ञानं श्रयतां सेवन्तामिति / मोजेति सन्दर्भकत र्नामापि // 15 // इति द्रव्यानुयोगतकंणाव्याख्यायां कृतिश्रीभोजसागरनिमितायां द्वादशोऽध्यायः // 12 // व्याख्यार्थः-भो भव्यजनो ! इस प्रकार अपने तथा परके व्यवसायात्मक ज्ञानरूप प्रमाणके और प्रमाणसे निश्चित अर्थके एक अंशके प्रतिपादक वचनरूप नयके अनुभवसे इन स्वभावोंको मनमें विचार कर, श्रीजिनेन्द्रके चरणरूप कमलके प्रसादसे प्राप्त जो अपने अनुभवरूप ज्ञान है उसका सेवन करो / यहाँ "भोज" यह श्लेषसे ग्रंथकारका नाम भी है // 15 // इति श्रीठाकुरप्रसादशास्त्रिविरचितमाषानुवादसमलङ्कृतायां द्रव्यानुयोग तर्कणायां द्वादशोऽध्यायः // 12 // Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [213 अथात्र स्वभावानां निदर्शनमाह / अब इस त्रयोदश अध्यायमें स्वभावोंका दृष्टान्त कहते हैं अस्तिस्वभाव आम्नातः स्वद्रव्यादिग्रहे नये / ग्राहकत्वेऽन्यद्रव्याणां नास्तिस्वभाव ईरितः // 1 // भावार्थ:-स्वद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिक नयसे अस्तिस्वभाव कहा गया है और परद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिक नयसे नास्तिस्वभाव कहा गया है // 1 // व्याख्या। स्वद्रव्यादिग्रहे नये द्रव्यार्थिकनयमते द्रव्याणामस्तिस्वभाव आम्नातः कथितः / 1 / तथा द्वितीयो नास्तिस्वभावोऽस्ति, अन्यद्रव्याणां ग्राहकत्वे परद्रव्यादिग्राहकद्रव्यथिकनये ईरितः कथितः / 2 / उक्त च "सर्वमस्तिस्वरूपेण परद्रव्येण नास्ति च" इति वचनात् // 1 // व्याख्यार्थः--अपने द्रव्य क्षेत्र आदिको ग्रहण करनेवाले द्रव्यार्थिक नयके मतमें द्रव्योंका अस्तिस्वभाव कहा गया है / 11 तथा अन्य द्रव्योंको ग्रहण करनेवाले परद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिकनयके मतसे द्रव्योंके दूसरा नास्तिस्वभाव कहा गया है / 2 / ऐसा अन्यत्र वचन भी कहा हुआ है कि "अपने रूपसे सब है और परद्रव्यसे सब नास्ति ( नहीं) उत्पादव्ययगौणत्वे नित्यः सत्तासमाश्रितः / पर्यायाथिके कोऽपि ज्ञेयोऽनित्यस्वभावकः // 2 // भावार्थः-उत्पाद और व्ययकी गौणतामें सत्ता ग्राहक द्रव्यार्थिकनयसहित नित्यस्वभाव है और उत्पाद तथा व्ययके ग्राहकपर्यायार्थिक नयमें अनित्य स्वभाव है; ऐसा जानना चाहिये // 2 // व्याख्या / तथा सत्तासमाश्रितः सत्ताग्राहकद्रव्याथिकनययुक्तो नित्यो नित्यस्वभावः कथितः / कस्मिन्सत्युत्पादव्ययगौणत्वे कश्चित्त तीयः / पर्यायाथिकनय उत्पादव्ययग्राहको भवति तन्मतेनित्यस्वभावः, कश्चित्पर्यायाथिकनय उत्पादव्ययग्राहको भवननित्यस्वभावः स्यादिति // 2 // ___ भावार्थः-और उत्पाद तथा व्ययकी गौणता होनेपर सत्ताका ग्राहक जो द्रव्यार्थिक नय है उससे युक्त नित्यस्वभाव तीसरा कहा गया है / 3 / तथा पर्यायार्थिक नय उत्पाद और व्ययका ग्राहक होता है इसलिये उसके मतमें अनित्य स्वभाव 4 है / तात्पर्य यह कि उत्पाद तथा व्ययको अप्रधानता होनेपर सत्ताग्राहक द्रव्यार्थिक नयके मतमें नित्य स्वभाव है और सत्ताग्राहक द्रव्यार्थिक नयको अप्रधानता में उत्पत्ति तथा नाशका ग्राहक जो पर्यायार्थिक नय है इसके मतसे चोथा अनित्य-स्वभाव होता है // 2 // (1) विष्वपि पुस्तकेष्वयमेव पाठः / Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 214] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् भेदसंकल्पनामुक्त एकस्वभाव आहितः। अन्वयद्रव्याथिके चानेकद्रव्यस्वभावकः // 3 // भावार्थ:-भेदकी कल्पनासे रहित द्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षासे द्रव्यका एकस्वभाव कहा गया है और अन्वय द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षासे अनेक स्वभाव माने गये हैं // 3 // व्याख्या / भेदकलनारहितशुद्धद्रव्यार्थिकनये भेदकल्पनामुक्त एकस्वमावः कथितः 5 अन्वयद्रव्यापिकनयेऽनेकद्रष्यस्वभावोऽनेकस्वभावः 6 इत्यर्थः / कालान्वये सताग्राहको देशान्वये चान्वयग्राहको नयः प्रवर्तत इति // 3 // व्याख्यार्थ:-भेदकी कल्पनासे रहित शुद्ध ( सत्तामात्रके ग्राहक ) द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षासे द्रव्यका एक स्वभाव (5) कहा गया है तथा भेदकल्पनासहित अन्वय द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षामें द्रव्यका अनेक स्वभाव (6) भी कहा गया है। तात्पर्य यह कि नहीं पदार्थमें कालका अन्वय होता है वहां तो सत्ताका ग्राहक द्रव्यार्थिक नय प्रवृत्त होता है और देशके अन्वयमें अन्वयग्राहक द्रव्यार्थिक नय प्रवृत्त होता है // 3 // सद्भुतव्यवहाराच्च गुणगुण्यादिभेदता। भेदकल्पनराहित्ये तस्याभेदः प्रकीर्तितः // 4 // भावार्थ:-सद्भूत व्यवहार नयसे गुण गुणी आदिके भेदस्वभावता होती है और भेदकल्पनाकी शून्यतादशामें गुणादिका अभेद कहा गया है // 4 // ___ व्याख्या / सद्भूतव्यवहाराच्च सद्भूतव्यवहारनयाद् गुणगुण्यादिभेदता / गुणगुणिनोः, पर्यायपर्यायिनो, कारककारकिनोभेदस्वमावः सप्तमः / भेदकल्पनराहित्ये भेदकल्पनारहितशुद्धद्रव्याथिकनयमतेऽभेदः स्वमावः प्रकीतितः / / यत्र कल्प्यमानस्यान्तर्निगीर्णत्वेन ग्रहस्तत्र कस्वभावो यथा घटोऽयमिति, यत्र विषयविषयिगोवविक्त्येन ग्रहस्तत्राभेदस्वभावो यथा नीलो घट इति / सारोपाध्यवसानयोनिरूडत्वार्थमयं प्रकारभेदः / प्रयोजनवत्यो तु ते यदृच्छानिमित्तकत्वे स्वभावभेदसाधके / इति परमार्थः // 4 // व्याख्यार्थः-सद्भूतव्यवहार नयसे गुण गुणी, पर्याय पर्यायी और कारक कारकवान्का भेद स्वभाव है और यह भेद स्वभाव सप्तम है / 7 / और भेदकल्पनारहित शुद्ध द्रव्यार्थिक नयके मतमें तो अभेद स्वभाव कहा गया है / 8 / जहाँपर कल्पनीय पदार्थ निगीर्णस्वभाव है अर्थात् जहां कल्प्यमान वस्तु नहीं भासता है, वहाँपर एक स्वभाव अर्थात् अभेद स्वभाव है। जैसे "अयं घटः" यह घड़ा है" यहां यह नहीं जनाया गया कि यह घट नील है वा पीत है; इसलिये घटपदसे हो उसका रूप विषय निगल लिया गया है / और जहांपर विषय और विषयीका पृथक् 2 भान ( ग्रहण ) होता है, वहांपर अभेद स्वभाव है / जैसे-'नीलः घटः" "नीला घट" यहाँपर सारोपा तथा साध्य - Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 269 द्रव्यानुयोगतर्कणा पसाना निरूढा लक्षणासे यह प्रकार भेद है / और प्रयोजनवती सारोपा तथा साम्यवसाना लक्षणा तो यहच्छानिमित्तसे स्वभावभेदसाधक है / यह यहांपर भावार्थ है // 4 // परमभावग्राहके तु भव्याभव्यौ च पर्ययो / शुद्धाशुद्धौ ततश्चोक्तो चैतन्यमात्मनः स्मृतम् // 5 // भावार्थ:-परमभावग्राहक नयके मतमें भव्य तथा अभव्य स्वभाव है और शुद्ध स्वभाव तथा अशुद्ध स्वभाव भी परमभाव ग्राहक नयके मतसे ही है तथा चेतन स्वभाव आत्माके माना गया है // 5 // व्याख्या / भव्यामव्यौ च स्वभावी परममावग्राहके नये मन्तव्यौ / भव्यतास्वभावो निरूपितोऽस्ति, अमव्यतास्वभाव उत्पन्नस्वभावस्य तथा परमभावस्य साधारण्यमस्ति / ततोऽत्रास्तिनास्तिस्वमावाविव स्वपरद्रव्यादिग्राहकनययोः प्रवृत्तिनं भवेत् / तथा शुद्धाशुद्धस्वभावी तुक्तो ज्ञेयो / यथा पूर्वत्र परमभावग्राहकनये तद् ज्ञेयाविति / तथा चैतन्यं चेतनस्वभाव आत्मन आत्मारामस्य स्मृतं नान्येषाम, आत्मा संसारस्था चेतन इति / 1 / 10 / 11 / 12 / 13 // 5 // व्याख्यार्थः-परमभाव ग्राहक नयकी अपेक्षा भव्य स्वभाव तथा अभव्य स्वभाव मानने योग्य हैं / भव्यता स्वभाव पूर्व प्रकरणमें कह आये हैं और अभव्यता स्वभाव उत्पन्न स्वभाव तथा परम भावकी साधारणतामें है। इसलिये यहापर अस्ति नास्ति स्वभावों के समान स्वकीय तथा परकीय द्रव्यादि प्राहक नयोंकी प्रवृत्ति नहीं होती है अर्थात् जैसे अस्ति स्वभाव स्वद्रव्यादिग्राहक नयसे और नास्तिस्वभाव परद्रव्यादिग्राहक नयकी अपेक्षासे माना गया है, यह बात यहां नहीं है। और शुद्ध तथा अशुद्ध स्वभाव जैसे पूर्व प्रकरणमें कह आये हैं वैसे यहां भी समझने चाहिये / और चेतन स्वभाव केवल जीवके ही है, भन्य द्रव्योंके नहीं / क्योंकि जो संसारी जीव है वह चेतन है / इस प्रकार इस लोकमें भव्य 9 अभन्य 10 शुद्ध 11 अशुद्ध 12 और चेतन 13 इन 5 भावोंका वर्णन किया गया है // 5 // अब चैतन्यादिस्वरूपं कथयन्नाह / अब चेतनता आदिका स्वरूप कहते हुए श्लोक पढ़ते हैं। असद्भूतव्यवहारात्कर्मनोकर्मचेतना / परमभावग्राहके तस्याचेतनधर्मता // 6 // भावार्थ:-असद्भूतव्यवहार नयसे कर्म तथा नोकर्ममें ही चेतनाका व्यवहार होता है और परमभावग्राहक नयमें उस कर्म नोकर्मजनित चेतन स्वभावके अचेतन धर्मपना है // 6 // __ व्याख्या / असद्भूतव्यवहारादसद्भूतव्यवहारनयात्कर्मनोकर्मणोः कर्माणि ज्ञानावरणादीनि नोकर्माणि मनोवचनकायात्मकानि ततो द्वन्द्वस्तयोरेव चिच्चेतनस्वभावः स्यात्, पेन Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 216 ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् नसंयोगकृत्पर्यायस्तत्रास्ति / तत इदं शरीरमावश्यकं जानामीत्यादिव्यवहारोऽत एव भवति मृतं दहतीतिवत् / पुनः परमभावग्राहकनये तस्य कर्मनोकर्मजनितचेतनस्वभावस्याचेतनधर्मता अचेतनस्वभावत्वं, यथा घृतमनूष्णमित्यादिवत् // 6 // व्याख्यार्थ:-असद्भूतव्यवहार नयसे ज्ञानावरण आदि कर्म और मन, वचन, कायरूप नोकर्म इन दोनों में चेतन स्वभाव है; क्योंकि कम और नोकमै इन दोनों में चेतनके संयोगसे किया हुआ पर्याय है। इसी कारण उस चेतनसंयोगकृत्पर्यायसे 'मृतकको भस्म करता है' इस व्यवहारकी भांति 'इस शरीरको मैं आवश्यक ( जरूरी ) जानता हूं' इत्यादि व्यवहार होता है / और परमभावग्राहक नयके मत में तो उस कर्म तथा नोकमसे उत्पन्न चेतन भावके अचेतन स्वभावपना है, जैसे 'अनुष्ण ( ठंढ़ा ) घृत इत्यादिकी भांति // 6 // असद्भूतव्यवहारे जीवाचेतनधर्मता। परमभावग्राहके मूर्तनोकर्मकर्मता // 7 // भावार्थ:-असद्भूतव्यवहार नयसे जीवमें अचेतनस्वभावता है और परमभावग्राहक नयमें नोकर्म तथा कर्म मूर्त हैं // 7 // व्याख्या / असद्भूतव्यवहारनये जीवतीति जीवस्तस्याचेतनधर्मस्तस्य भावो जीवाचेतनधर्मतास्ति / अतएव जडोऽयमचेतनोऽयमित्यादिव्यवहारोऽस्ति / एतेनानुमिनोमि जानामीति प्रतीत्या विलक्षणाज्ञानसिद्धिबैदान्तिनामपास्ता, सद्भतव्यवहारनयग्राह्यणाचेतनस्वभावेनैव तदुपपत्तेः / अथ परममावग्राहकनये मूर्ती नोकर्मकर्मता मूर्त्तनोकर्मकर्मता वर्तते / कर्मनोकर्मणोमूर्तस्वभावोऽस्तीत्यर्थः // 8 // व्याख्यार्थः-असद्भूतव्यवहार नयके मतसे जो प्राण धारण करता है वह जीव है। उसके अचेतनधर्मपना जो जीवाचेतनधर्मता वह है अर्थात् जीव अचेतन स्वभावका धारक है / इस अचेतन स्वभावके माननेसे ही यह जीव अचेतन है, जड़ है इत्यादि व्यवहार होता है / इससे "मैं अनुमान करता हूं, जानता हूँ, इत्यादि प्रतीति ( अनुभव ) से विलक्षण ( अनिर्वचनीय ) अज्ञानकी सिद्धि होती है" इस वेदान्तियोंके कथनका खंडन हुआ, क्योंकि असद्भूतव्यवहार नयसे ग्रहण करनेयोग्य जो अचेतन स्वभाव है इस अचेतन स्वभावसे ही उस अज्ञानकी सिद्धि हो जाती है / और परमभावग्राहक नयसे मूर्त ऐसी नोकर्मकर्मता वर्तती है अर्थात् कर्म तथा नोकर्मके मूर्त स्वभाव हैं // 7 // असद्भूतव्यवहारे जीवमूर्त्तत्वमिष्यते / परमे पुद्गलं हित्वा द्रव्यामूर्तत्वमाहितम् // 8 // भावार्थ:-असद्भूतव्यवहारनयके मतमें जीव मूर्त स्वभावका भी धारक है और परमभावग्राहक नयमें पुद्गलको छोड़कर सब द्रव्योंमें अमूर्तस्वभावता स्थापित की गई है // 8 // Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [217 व्याख्या / असद्भूतव्यवहारे जीवमूर्त्तत्वमपि जीवस्य मूर्त्तत्वं जीवमूर्तस्वभाव इष्यत / अतएव अयमात्मा दृश्यते, अमुमात्मानं पश्यामीति व्यवहारोऽस्ति / तथानेन स्वमावेन "रक्तौ च पद्मप्रभवासुपूज्यो" इत्यादि वचनानि सन्ति / अथ च परममावग्राहकनये पुद्गलद्रव्यं विना द्रव्याणाममूर्त्तत्वं द्रव्यामूर्त्तत्वमाहितं स्थापितम् / अभ्यानि सर्वाण्यपि द्रव्याण्यमूर्तस्वमावन्तीत्यर्थः // 8 // व्याख्यार्थः-असद्भूतव्यवहार नयके मतमें जीवका भी मूर्त स्वभाव माना गया है। इसीसे 'यह आत्मा देख पड़ता है, इस आत्माको में देखता हूँ' इत्यादि व्यवहार होता है; और "श्रीपद्मप्रभ तथा श्रीवासुपूज्य ये दोनों तीर्थकर रक्त (लाल) वर्णके धारक हैं" इत्यादि वचन हैं। तथा परमभावग्राहक नयकी अपेक्षासे पुद्गलद्रव्यके विना द्रव्योंके अमूर्तस्वभाव रक्खा गया है अर्थात् पुद्गलद्रव्यके सिवाय अन्य सब द्रव्य अमूर्त स्वभावके धारक हैं। यह अर्थ है // 8 // उपचारात्पुद्गलेऽपि नास्त्यमूर्तस्वभावता / व्यवह्रियतेऽनुगमात्तदेव चोपचर्यते // 6 // भावार्थ:-पुद्गलमें उपचारसे भी अमूर्तस्वभावता नहीं है, क्योंकि अनुगमसे जिसका व्यवहार होता है उसी भावका उपचार भी होता है // 9 // व्याख्या / उपचारात्पुद्गलद्रव्येऽमूर्तस्वभावता नास्ति / यतश्चेतनसंयोगेन देहादी यथा चेतनत्वमुपचर्यते तथैवामूर्त्तत्वं नोपर्यते / तस्मादसद्भूतव्यवहारदपि पुद्गलस्या मूर्तस्वमावे न कथनीयः / प्रत्यासत्तिदोषणामूर्तस्वं तत्र कथं नोपचरितमभिति तदेवोपनादयन्नाह / व्यवहितेनुगमाद्यदेवानुमादेबन्धदोषाद्धावत्वं व्यवहियते तदेवोपचर्यते परन्तु सर्वधर्मस्योपचारो न स्यात्तथाचारोपे सति निमित्तानुसरणमनु निमित्तमनुसृत्यारोप इति न्यायो नाश्रयणीय इति भावः // 6 // व्याख्यार्थः-उपचारद्वारा भी पुद्गल द्रव्यमें अमूर्तस्वभावता नहीं है / इसीसे चेतनके संयोगसे जैसे देह आदिमें चेतनका उपचार किया जाता है उसी प्रकार अमूर्त्तके संयोगसे देहमें अमूर्त्तका उपचार नहीं होता है / इस कारणसे असद्भूतव्यवहारनयसे भी पुद्गल द्रव्यका अमूर्त स्वभाव है ऐसा कथन नहीं करना चाहिये / अब प्रत्यासत्ति दोषसे वहांपर अमूर्त्तताका उपचार क्यों नहीं करना चाहिये इसीका उपादान करते हुए "व्यवह्रियतेऽनुगमात्" इत्यादि उत्तरार्द्धसे कहते हैं कि अनुगम अर्थात् एकसंबंधदोषसे जिस भावका व्यवहार होता है उसी भावका उपचार भी होता है परन्तु सर्वथा सर्व धर्मके अभावमें सब धर्मका उपचार नहीं होता / ओर इससे यह सिद्ध हुआ कि जहां आरोप करना हो वहाँ आरोपके निमित्तका अनुसरण करना चाहिये / और आरोप करके पश्चात् निमित्तका अनुसरण करना इस न्यायको नहीं धारण करना चाहिये / यह भाव है // 9 // 28 Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 218 श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् अशेषोऽनुगतश्चार्थः संमतौ हि प्रकाशितः / यथाम्बुपयसोर्भेदो न यावदन्त्यवैशिष्टयम् // 10 // भावार्थः—यह संपूर्ण जीव पुद्गलका अनुगत संबन्ध संमतिमें प्रकाशित है, क्योंकि जैसे दुग्ध और जलका अन्त्य विशेष विना भेद नहीं हो सकता, वैसेही इनका भी भेद नहीं हो सकता // 10 // व्याख्या / हीति निश्चितम / अयमभिप्रायः अनुगतात्यन्तसंबन्धः सर्वोऽप्यर्थः संमती प्रकाशितः / यथा स्वनुगतत्वे दृष्टान्तमाह / अम्बुपयसोः क्षीरनीरयो दो विभजना पृथक्त्वमिति तावन्नास्ति यावदन्त्यवैशिष्टयमम्त्यविशेषपर्यन्तं यावत् / अन्त्यविशेषे शूद्धपुद्गला जीवलक्षणेन पृथक क्रियन्ते / यथा औदारिकादिवर्गणांनिष्पन्नाच्छरीरादेनिघनासंख्येयप्रदेश आत्मा मिन्न इति / अत्र गाथा “अणुण्णाणुगयाणं इमवतं वनिविभयणमजुत्तं / जह दुद्धपाणियाणं जावंत विसेस पज्जाया / 1 / " इत्थं कथयतां यदि मूर्तता पुद्गलद्रव्यविभाजकान्त्यविशेषोऽस्ति तदा तस्या उपचार आत्मद्रव्येण कथं भवेत् / अथ च यद्यत्र विशेषो. नास्ति तदान्योन्यानुगमनेनामूर्त्तताया उपचारः पुद्गलद्रव्येण कथं न भवेदित्याशङ्का केषांचिद्भवति / तां शङ्का निराचिकीर्षुः प्रतिपादयन्नाह // 10 // व्याख्यार्थः-अभिप्राय यह है कि निश्चयरूपसे अनुगत अर्थात् अत्यन्त संबन्धरूप सब अर्थ संमतिमें प्रकाशित किया गया है। अब यथा इत्यादि उत्तरार्द्धसे अनुगततामें दृष्टान्त कहते हैं / जैसे मिले हुए जल और दूधका विभाग ( भेद ) जबतक अंतिम विशेष नहीं होता तबतक नहीं होता है, इसी प्रकार अन्तके विशेष में ही शुद्ध पुद्गल जीवलक्षणसे पृथक् किये जाते हैं। भाव यह है कि जैसे जलका तथा दूधका विभाग अंतिम दाह क्रियारूप विशेष अथवा पदार्थविज्ञान विशेषसे होता है, ऐसेही जीवकी मुक्तिदशारूप विशेषमें पुद्गलका जीवसे विभाग होता है / जैसे कि औदारिक आदि वर्गणाओंसे सिद्ध शरीर आदिसे ज्ञानघन असंख्यात प्रदेशोंका धारक आत्मा भिन्न है / इस विषयमें अन्यत्र गाथा कही है कि "जैसे दूध और पानीका अन्त्यविशेष पर्याय तक भेद नहीं होता उसी प्रकार परस्पर अनुगत पदार्थोंका भेद नहीं होता है, यह कहना अयुक्त है।" इस प्रकार कहनेवालोंके यदि मूर्तपना पुद्गगल द्रव्यको जुदा करनेवाला अन्तका विशेष है तो उसका उपचार आत्मद्रव्यके साथ कैसे होवे / और यदि अन्त्य विशेष नहीं है तो जीव पुद्गलका परस्पर अनुगम होनेसे जैसे मूर्तताका उपचार आत्मद्रव्य के साथ होता है ऐसे ही अमूर्त्तताका उपचार पुद्गल द्रव्यके साथ क्यों न होगा ? ऐसी आशंका किन्हींकी होती है, इसलिये उस शंकाको दूर करनेके लिये कहते हैं // 10 // मूर्तियंत्रानभिभूता नास्ति तत्राप्यमूर्तता / यत्राभिभूतामूत्तित्वं मूर्त्यनन्त्यं हि तेषु च // 11 // Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ 219 भावार्थ:-जहांपर मूर्त स्वभाव तिरोहित नहीं है, वहाँपर अमूर्त स्वभाव है ही नहीं; और जहाँ आत्मद्रव्यमें कर्म है, वहाँ अमूर्तता तिरोहित नहीं है; किन्तु, वहाँपर मूर्त्तता अन्त्यरहित अनुगमसे है // 11 // ___ व्याख्या / यत्र पुद्गलद्रव्यस्य मूर्तिमूर्तता अभिभूता नास्ति किन्तुद्भूताऽस्ति तत्रामूर्त्ततास्वभावो न भवति / अमूर्त्तता ह्यपुद्गलद्रव्यस्यान्त्यविशेषः / अथ च यत्रात्मद्रव्ये कर्म भवति न तत्रामूर्ततामिभूतास्ति / तत्र चामूर्त्तता अनन्त्यानुगमजनितसाधारणधर्मरूपा भवति / तथा चान्योन्यानुगमाविशेषेऽपि कचिदेव किञ्चित्केनचित्कथंचिदभिभूयत इति यथागमव्यवहारमाश्रयणीयम् // 11 // ___ व्याख्यार्थः-जहाँ पुद्गलद्रव्यका मूर्त स्वभाव अभिभूत (छिपा हुआ) नहीं है किन्तु उद्भूत (प्रकट ) है वहां अमूर्त्तता स्वभाव नहीं होता है। क्योंकि अमूर्तता पुद्गलसे भिन्न द्रव्यका अन्त्य विशेष है / और जहाँ आत्मद्रव्यमें कर्म होता है वहां भी अमूर्त्तता अभिभूत नहीं है / क्योंकि वहांपर अमूर्तता अन्त्यसे भिन्न अनुगमसे उत्पन्न साधारण धर्मरूप है / इस प्रकार पुद्गल तथा जीवद्रव्य के अनुगममें विशेषता न होनेपर भो कहीं कोई भाव किसीसे किसी प्रकारसे अभिभूत होता है इस प्रकार शास्त्रके व्यवहारके अनुसार अंगीकार करना चाहिये // 11 // अन्त्यो भावः पुद्गलस्यापीथमत्र विलुप्यते / असद्भूतनये तेन परोक्षोऽणुरमूर्तकः // 12 // भावार्थः-पुद्गलका अन्त्य भाव भी इसी प्रकार यहां लुप हो जाता है; इसोसे असद्भूतनयके मतमें परोक्ष परमाणु अमूर्त माना गया है // 12 // व्याख्या / उपचारेणाप्यमूर्तस्वभावः पुद्गलस्य न स्यादिति कथयता मतेऽन्त्यो भाव एकविंशतितमः स्वमावः पुद्गलस्य विलुप्तो भवति तदा पुनः “एकविंशतिभावाः स्युर्जीवपुद्गलयोर्मताः" इत्येतद्वचनव्याघातादपसिद्धान्तोऽपि जायते / अथ तच्छङ्कापनोदायाह असद्भूतव्यवहारनये तेन कारणेन यः परोक्षः पुद्गलपरमाणुरस्ति तस्यामूर्तता कथिता / व्यावहारिकप्रत्यक्षागोचरत्वममूर्तत्वं प्रमाणोपचरितं मक्त स्वीक्रियत इत्यर्थः // 12 // व्याख्यार्थः-उपचारसे भी पुद्गलके अमूर्तस्वभाव नहीं होता ऐसा कहनेवालोंके मतमें पुद्गलका अन्तका भाव अर्थात् इक्कीसवाँ स्वभाव नष्ट हो जायगा और पुद्गलका जब अमूर्तस्वभाव नहीं रहेगा तब पूर्व प्रसंगमें जो ऐसा कहा है कि “पुद्गल तथा जीव इन दोनोंमें प्रत्येकके एकविंशति 21 भाव हैं" इस वचनका व्याघात होनेसे सिद्धान्तकी भी हानि होती है / क्योंकि जब इक्कीसमेंसे एक अमूर्त स्वभाव निकल जायगा तब तो पुद्गलके बीस स्वभाव ही रहेंगे। इस प्रकारकी शंकाको दूर करनेके लिये कहते हैं कि इसी कारणसे असद्भूत व्यवहार नयमें जो परोक्ष पुद्गल परमाणु है उसके अमूर्तता कही Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 220 ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् गई है। तात्पर्य यह कि व्यवहारिक प्रत्यक्षके अगोचर रूप अमूर्तस्वभाव प्रमाणसिद्ध उपचरित भक्त ( कथंचित् ) स्वीकार किया जाता है // 12 // पुद्गलाणोश्च कालाणोरेकदेशस्वभावता / परमे परद्रव्यस्य भेदकल्पनवज्जितः // 13 // भावार्थ:-परम भाव ग्राहक नयके मतसे कालाणु तथा पुद्गल परमाणुकी एक-प्रदेश-स्वभावता है। और अन्य द्रव्यका भी भेदकल्पनावर्जित शुद्धद्रव्यार्थिक एक स्वभाव कहलाता है / / 13 // व्याख्या / पुद्गलपरमाणोस्तथा कालाणोः परमे परमभावग्राहकनय एकप्रदेशस्वमावता कथ्यते / तथा परद्रव्यस्य कालपुद्गलवजितान्यद्रव्यस्य भेदकल्पनवजितः शुद्धद्रव्यार्थिक एकप्रदेशस्वभावः कथ्यते // 13 // व्याख्यार्थः-परम भाव ग्राहक नयमें पुद्गल परमाणु तथा कालके अणुकी एकप्रदेशग्वभावता कही गई है / तथा भेदकी कल्पनासे वर्जित शुद्ध द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षासे काल और पुद्गलद्रव्यके भी एकप्रदेशस्वभाव कहा गया है // 13 // शुद्धद्रव्याथिकेऽनेकप्रदेशत्वं विनाणुकम् / पुद्गलाणोः स्वभावत्वमुपचारेण तत्पुनः // 14 // भावार्थ:-शुद्ध द्रव्यार्थिकनयसे परमाणुको छोड़कर, संपूर्ण द्रव्योंका अनेकप्रदेशस्वभाव है / और पुद्गलके अणुके तो अनेकप्रदेशस्वभावता उपचारसे है // 14 // __व्याख्या / शुद्धद्रव्याथिके भेदकल्पनासापेक्षशुद्धद्रव्याथिकनयेऽणुकं परमाणु विना सर्वेषां द्रव्याणामनेकप्रदेशत्वमनेकप्रदेशस्वभावः कथ्यते / अन्यच्च पुद्गलाणोः पुद्गलपरमाणोस्तदनेकप्रदेशस्वमावरवं भवितु योग्यतास्ति / ततः उपचारेणानेकस्वभावत्वं कथ्यते / कालाणोश्चोपचारकार ततस्तस्य सर्वथापि स्वभावो नास्ति // 14 // __ व्याख्यार्थः-भेदकल्पनासापेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिकनयसे परमाणुके सिवाय अन्य सब द्रव्योंका अनेकप्रदेशस्वभाव कहा गया है। और पुद्गलके परमाणुके उस अनेकप्रदेशस्वभाव होनेकी योग्यता है अर्थात् वह पुद्गलपरमाणु अनेकप्रदेशस्वभाव हो सकता है इस कारण उपचारसे उसके अनेकप्रदेशस्वभावताका कथन किया गया है। और कालके अणुमें कोई उपचारकारणता नहीं है इस हेतुसे उसके यह अनेकप्रदेशस्वभाव सर्वथा नहीं है // 14 // शुद्धाशुद्धाथिके विद्धि विभावाख्यस्वभावकान् / शुद्ध शुद्धस्वभावाः स्युरशुद्ध शुद्धजिताः // 15 // भावार्थ:-हे. शिष्य, शुद्धाशुद्ध द्रव्याथिकनय में विभाव नामक स्वभावोंका बोध करो / शुद्ध द्रव्यार्थिक नयमें शुद्ध स्वभावोंको ओर अशुद्ध द्रव्यार्थिक नयमें अशुद्ध स्वभावोंकी स्थिति है। Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 221 द्रव्यानुयोगतर्कणा व्याख्या / शुद्धाशुद्धाथिके नाम्नि द्रव्याथिकनये समुच्चयेन विभावादिस्वभावान् विद्धि जानीहि / शुद्ध शुद्धद्रव्याथिकनये शुद्धस्वभावान् जानीहि / अशुद्ध ऽशुद्धस्वभावान जानीहि / शुद्ध शुद्धस्वभावाः स्युरशुद्ध ऽशुद्धस्वभावा इति ज्ञेयम् // 15 // व्याख्यार्थ-शुद्धाशुद्धार्थिक नामक द्रव्यार्थिक नयमें समस्त विभाव स्वभावोंको जानो और शुद्ध द्रव्यार्थिक नयमें शुद्ध स्वभावोंको जानो तथा अशुद्ध द्रव्यार्थिक नयमें अशुद्ध स्वभावोंको जानो। भावार्थ यह है कि शुद्ध द्रव्यार्थिकमें शुद्ध भाव तथा अशुद्ध द्रव्यार्थिकमें अशुद्ध भाव होते हैं ऐसा जानना चाहिये // 15 // असद्भूतव्यवहारादुपचारस्वभावकाः / इति स्वभावविज्ञानं कर्त्तव्यं शुभमिच्छता // 16 // भावार्थ:-असद्भूत व्यवहार नयसे उपचरित स्वभाव रहते हैं / इस प्रकार कल्याणके अभिलाषी जीवको स्वभावोंका विज्ञान करना चाहिये // 16 // व्याख्या / असद्भूतव्यवहारनयादुपचारस्वभावका उपचरितस्वभावा ज्ञातव्याः / इतीति समाप्ती / स्वभावविज्ञानं स्वभावनययोजना शुभ कल्याणं हितं आयूष्यं ज्ञानं चेच्छता अभिवषता कर्त्तव्यमिति // 16 // ___व्याख्यार्थः-असद्भूतव्यवहार नयकी अपेक्षासे सब उपचरित स्वभावोंको जानना चाहिये / सूत्रमें इति शब्द अध्यायको समाप्तिका बोधक है। और यह स्वभावोंमें नयोंकी योजना जिस पुरुषको कल्याण, हित, आयुष्य तथा ज्ञानको अभिलाषा है उसको करनी चाहिये // 16 // अनुपचरिताः स्वीयभावास्ते तु गुणाः खलु / एकद्रव्याश्रिता गुणाः पर्याया उभयाश्रिताः // 17 // भावार्थ:--जो अनुपचरित अपने भाव हैं वे गुण हैं। और वे गुण एक द्रव्यके आधार रहते हैं; और पर्याय उभयके आश्रित रहते हैं // 17 // व्याख्या / अत्र दिगम्बरप्रस्तावना वर्त्तते / कुत्रापि स्वसमयेऽप्युपस्कृता वर्तते परम्त्वत्र किमपि चिन्त्यं वर्तते तेन तद्दषणं निराचिकीर्षुराह / अनुपचरिता उपचारजिता ये निजकीयस्वभावास्ते गुणाः, गुणानां हि सहमावित्वादुपचारो न विद्यते / निष्कर्षस्त्वयम् स्वभावो हि गुणपर्यायाभ्यां मिन्नो न स्यात्तस्माद्योऽनुपचरितो भावः स एव गुण इति, अथ यश्चोपचरितः स पर्यायः कथ्यते / अतएव द्रव्याश्रिता गुणाः, उमयाश्रिताः पर्यायाः / तथोक्तमुत्तराध्ययने गाथाद्वारा-“गुणाणमासवो दव्वं एण दवसिया गुणा / लक्खणं पज्जयाणं तु उमओ अस्सिआ भवेत्ति / 1 / " // 17 // ___ व्याख्यार्थः--यहाँपर दिगम्बरमतका प्रस्ताव ( प्रसंग ) है / और यह प्रसंग कहीं श्वेताम्बरसिद्धान्तमें भी है, परन्तु इस विषयमें कुछ विचारणीय हैं, इसलिये उसके दूषणको दूर करनेकी इच्छासे कहते हैं / उपचारसे रहित जो अपने स्वभाव हैं वे गुण हैं Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 222 ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् क्योंकि गुण सहभावी हैं, इसलिये उनमें उपचार नहीं होता है / तात्पर्य यह कि कोई स्वभाव गुण पर्यायोंसे भिन्न नहीं है इसलिये जो अनुपचरित भाव है वही गुण और जो उपचरित भाव है वही पर्याय कहा जाता है। और इसी कारणसे केवल द्रव्यके आश्रय जो रहें वे गुण हैं; और द्रव्य, गुण दोनोंके आश्रय जो रहें वे पर्याय हैं / इस विषयमें उत्तराध्ययनसूत्रमें गाथा द्वारा कहा है कि "गुणोंका आश्रय द्रव्य है अतएव द्रव्याश्रितत्व गुणोंका लक्षण है; और दोनोंके आश्रय रहना, यह पर्यायोंका लक्षण है " // 17 / / एवं स्वभावोपगता गुणास्तु भेदेन सम्यक्कथिताश्च योग्याः। अर्हत्नमाम्भोजसमाश्रितानां भव्यात्मनां ज्ञानगुणार्थमत्र / भावार्थः-इस प्रकार इस अध्यायमें श्रीजिनेन्द्र के चरणकमलोंके आश्रित भव्य जीवोंको ज्ञानगुणकी प्राप्तिके लिये हमने शास्त्रोक्त योग्य स्वभावसे प्राप्त गुण अच्छी रीतिसे भेद करके कहे हैं // 18 // इति द्रव्यानुयोगतकणायां त्रयोदशोऽध्यायः / व्याख्या / यदि च स्वद्रव्यादिग्राहकेणास्तिस्वभावः, परद्रव्यादिग्राहकेण नास्तिस्वभावः, इत्यादि स्वभावोपगता गुणाः स्वभावसहिता इत्युपगम्यते / तदोभयोरपि द्रव्याथिकविषयत्वात्सप्तमङ्गयामाद्यद्वितीययोर्मयोद्रव्याथिकपर्यायाथिकाश्रयेण प्रक्रिया भज्येतेत्याद्यत्र बहु विचारणीयम / एवमनया रीत्या स्वभावाः स्वभावयुक्ता गुणाश्च भेदेन प्रकारकथनेन सम्यकशास्त्रोक्तरीत्या कथिताः प्रकाशिताः / श्रीमद्वाचकमुख्ययशोविजयपाठकमतल्लिकारचितप्राकृतपाठदृष्टा लिखिता इत्यर्थः / किमर्थमत्र कस्म कार्याय कथिता इति प्रयोजनपदं ज्ञानगुणार्थं केषामहंतां वीतरागाणां क्रमाश्चरणास्तएवाम्मोजानि कमलानि तत्र समाश्रितानां शरणीभूतानां भव्यात्मनां भव्यलोकानां ज्ञानगुणार्थं मया कथिता इत्यर्थः // 18 // इति श्रीकृतिभोजसागरनिर्मितायां द्रव्यानुयोगतर्कणान्याख्यायां त्रयोदशोऽध्यायः / व्याख्यार्थः-यदि अपने द्रव्य क्षेत्र आदिका ग्राहक होनेसे अस्तिस्वभाव और परकीय द्रव्यक्षेत्रादिका ग्राहक होनेसे नास्तिस्वभाव है; इत्यादि स्वभावसे उपगत गुण हैं ऐसा स्वीकार करते हो तब तो दोनोंके द्रव्यार्थिक नयका ही विषयपना होनेसे सप्तभंगीमें प्रथमभंग (स्यादस्त्येव) कथंचित् है ही और द्वितीयभंग (स्यान्नास्त्येव) कथंचित् है ही नहीं' इन दोनों भंगोंमें द्रव्यार्थिक तथा पर्यायार्थिकके आश्रय जो प्रक्रिया है उसका भंग होगा; इत्यादि बहुत कुछ वहांपर विचारणीय है / इस पूर्वोक्त रीतिसे स्वभाव तथा स्वभावसहित गुण प्रकारोंके कथनद्वारा शास्त्रोक्त रीतिसे प्रकाशित किये हैं अर्थात् श्रीमान् वाचक मुख्य यशोविजयजी उपाध्यायद्वारा विरचित प्राकृतपाठ में देखे हुए लिखे हैं / किस . Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [223 प्रयोजनके लिये कहे हैं ? कि श्रीजिनेन्द्रके चरणरूपी कमलोंके शरणको प्राप्त जो भव्यजन हैं, उनको ज्ञानगुणकी प्राप्ति हो इसलिये मैंने कहे हैं / यह तात्पर्य है // 18 // इति श्रीपण्डितठाकुरप्रसादशर्मविरचितभाषाटीकासमलङ्कतायां द्रव्यानुयोगत ___ कणायाँ त्रयोदशोऽध्यायः // 13 // अथ पर्यायभेदानाह। अब पर्यायके भेदोंको कहते हैं। नत्वा जिनं प्रवक्ष्यामि पर्यायोत्कीर्तनं मुदा / व्यञ्जनार्थविभेदेन तद्दिभेदं समासतः // 1 // भावार्थ:-श्रीजिनेन्द्रको नमस्कार कर, आनन्दपूर्वक इस अध्यायमें पर्यायोंका वर्णन करूंगा। वह पर्यायोंका वर्णन समास ( संक्षेप) से व्यंजन और अर्थके भेदसे दो प्रकारका है // 1 // व्याख्या / जिनं वीतरागं नत्वा नमस्कृत्य पर्यायोत्कीर्तनं पर्यायाणामुत्कीर्तनं पर्यायोत्कीर्तनं मुदा हर्षेण प्रवक्ष्यामि / यदित्युत्तरापेक्षायां तत्पर्यायोत्कीर्तनं समासतः संक्षेपाद् व्यञ्जनार्थविभेदेन व्यञ्जनं चार्थश्च तयोविभेद: प्रत्येक योजना व्यञ्जनभेदेनार्थभेदेन तत्कीर्तनं पर्यायस्य द्विभेदं द्विप्रकारकमित्यर्थः // 1 // व्याख्यार्थः-श्रीवीतरागको नमस्कार करके, हर्षसे पर्यायों का उत्कीर्तन (निरूपण) इस चतुदेश 14 अध्यायमें कहूँगा / 'यत' यह आगेके कथनकी अपेक्षामें है जो पर्यायका निरूपण संक्षेपसे व्यंजन और अर्थके भेदसे अर्थात् व्यंजनके भेदसे तथा अर्थके भेदसे दो प्रकारका है // 1 // तत्र व्यञ्जनपर्यायस्त्रिकालस्पर्शनो मतः / द्वितीयश्चार्थपर्यायो वर्तमानाणुगोचरः // 2 // भावार्थ:-उन दोनों भेदोंमेंसे प्रथम व्यंजन पर्याय त्रिकालस्पर्शी कहा गया है और दूसरा अर्थ पर्याय वर्तमान सूक्ष्मकालवर्ती माना गया है // 2 // व्याख्या / तत्र तयो योरुत्कीर्तनयोर्मध्य आद्यो व्यञ्जनपर्यायस्त्रिकालस्पर्शनो मतोऽनुगतकालकलितः कथितः / यस्य हि शिकालस्पर्शनः पर्यायः स च व्यञ्जनपर्यायः / यथाहि-घटादीनां मृदादिपर्यायो व्यअनपर्यायो मृण्मयः सुवर्णादिधातुमयो वा घट: कालत्रयेऽपि मृदादिपर्यायत्वं व्यञ्जयति; तथा द्वितीयोभेदोऽर्थपर्यायः वर्तमानाणुगोचरः सूक्ष्मवर्तमानकालवर्ती अर्थपर्यायः यथाहि-घटादेस्तत्तत्क्षणवर्ती पर्याय: यस्मिन्काले वर्तमानतया स्थितस्तत्तत्कालापेक्षाकृतविद्यमानत्वेनार्थपर्याय उच्यत इत्यर्थः // 2 // व्याख्यार्थः-उन दोनो उत्कीतनोंमें प्रथम जो व्यंजन पर्याय है वह त्रिकालस्पर्शी है अर्थात् पूर्वापर अनुगत सब कालके साथ वह पर्याय स्पर्श करता है / तात्पर्य यह कि जिसका स्पर्श भूत, भविष्य तथा वत्तेमान इन तीनों कालोंमें होता है वह व्यञ्जन पर्याय है। Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 224] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् जैसे-घटादिका मृत्तिका आदि पर्याय व्यञ्जन पर्याय है अर्थात् मृन्मय अथवा सुवर्णादिमय घट तीनों कालोंमें पर्यायत्व अर्थात् मृत्तिका आदि पर्यायको प्रकाश करता है। और द्वितीय भेद अर्थपर्याय है / यह अर्थपर्याय वर्तमान अणुका विषय है . अर्थात् सूक्ष्म वर्तमान कालवर्ती अर्थ पर्याय है। जैसे घट आदिका उस उस क्षणमें रहनेवाला पर्याय जिस कालके क्षणमें वर्तमानतासे स्थित है उस उस कालकी अपेक्षासे उत्पत्तिद्वारा विद्यमान होनेसे वह अर्थपर्याय कहा जाता है / भाव यह है कि जिस क्षणमें घट विद्यमान है उसी क्षणको विद्यमानतासे वह घट अर्थपर्याय है // 2 // अथ तयोः प्रत्येकं द्वं विध्यं दर्शयन्नाह / द्रव्यतो गुणतो द्वधा शुद्धतोऽशुद्धतस्तथा / शुद्धद्रव्यव्यञ्जनाख्यश्चेतनो सिद्धता यथा // 3 // भाभार्थः-उन पर्यायोंके द्रव्यसे तथा गुणसे दो भेद हैं और शुद्ध तथा अशुद्धके द्वारा भी दो भेद हैं। शुद्ध द्रव्यव्यंजननामा शुद्ध द्रव्यव्यंजन पर्याय जैसे चेतनमें सिद्धता पर्याय है // 3 // व्याख्या / द्रव्यतो द्रव्यपर्यायो भवति तथा गुणतो गुणपर्यायोऽपि भवति, एवं द्वधा द्विप्रकार: स्यात् / तथाहि द्रव्यव्यञ्जनपर्यायो गुणव्यञ्जनपर्याय इति / तथा पुनस्तेनैव प्रकारेण शुद्धतः शुद्धद्रव्यव्यञ्जनपर्यायः, अशुद्धतोऽशुद्धद्रव्यव्यञ्जनपर्यायश्च द्विप्रकारः / तत्र तेषु भेदेषु शुद्धद्रव्यव्यञ्जनाख्यः शुद्धद्रव्यव्यञ्जनपर्यायः कस्मिन्मवति चेतने यथा सिद्धता चेतनद्रव्यस्य यथा सिद्धपर्यायः / अयं हि केवल भावाज्ज्ञेयः // 3 // व्याख्यार्थः-द्रव्यसे तो द्रव्यपर्याय होता है और गुणसे गुण पर्याय होता है, इस प्रकार दो भेद होते हैं / जैसे द्रव्यव्यंजन पर्याय तथा गुणव्यंजन पर्याय होता है / और उसी प्रकारसे शुद्धसे शुद्ध द्रव्यव्यंजन पर्याय होता है तथा अशुद्धसे अशुद्ध द्रव्यव्यंजन पर्याय होता है ऐसे दो भेद हैं / अब उन भेदोंमेंसे शुद्ध द्रव्यव्यंजन नामक शुद्ध द्रव्यव्यंजन पर्याय किसमें होता है, जैसे चेतनमें सिद्धता अर्थात् चेतनद्रव्यका सिद्ध पर्याय है। यह शुद्ध द्रव्यव्यंजन पर्याय केवल भावसे जानना चाहिये / / 3 / / पुनर्भेदोपदेशमाह। फिर भेदका उपदेश करते हैं। अशुद्धद्रव्यव्यञ्जनो नरादिर्बहुधामतः।। गुणतोऽपोत्थमेवात्र कैवल्यमतिचिन्मुखः // 4 // भावार्थ:-अशुद्ध द्रव्यव्यंजन पर्याय मनुष्य देव आदि अनेक प्रकारका माना गया है और इसी प्रकार गुणसे भी जानने अर्थात् शुद्ध गुणव्यंजन पर्याय तथा अशुद्ध गुणव्यंजन पर्याय ये दो भेद गुणसे हैं। इनमें प्रथम भेदमें केवलज्ञान आदि और दूसरे भेदमें मतिज्ञानादि पर्याय हैं // 4 // .. Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतकणा [225 व्याख्या। अशुद्धद्रव्यव्यञ्जनपर्यायोऽशुद्धद्रव्यव्यञ्जनो नरादिरादिशब्दावनारकतिर्यगादयो बहुधा मतास्तदपेक्षया नरादिबहुधा मतः / अत्र हि द्रव्यभेदः पुद्गलसंयोगजनितोऽस्ति / मनूष्यादिभेदेनैवं भेदः / गुणतोऽपीत्थमेव / गुणव्यञ्जनपर्यायो द्विप्रकारः / तत्र प्रथमं शुद्धगुणव्यञ्जनपर्याय: कैवल्यं केवलज्ञानादिरूपः, द्वितीयोऽप्यशुद्धगुणव्यञ्जनपर्यायो मतिचिन्मुखः / मतिश्र तावधिमनःपर्ययरूप इति // 4 // व्याख्यार्थः-अशुद्ध द्रव्यव्यंजन पर्याय मनुष्य, देव, नारक और तिर्यश्च आदि रूपसे अनेक प्रकारका माना गया है, इसीको अपेक्षासे "नरादिर्बहुधः मतः" यह सूत्रमें पाठ है। यहांपर द्रव्यका भेद पुद्गल संयोगसे उत्पन्न है, अतः मनुष्य आदिके भेदसे यह भेद होता है / गुणसे भी इसी प्रकार है अर्थात् गुणव्यंजन पर्याय भी दो प्रकारका है। उनमें प्रथम शुद्ध गुणव्यंजन पर्याय जो है, वह तो केवलज्ञान आदिरूप पर्याय है / और दूसरा अशुद्ध गुण व्यंजन पर्याय मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान तथा मनःपर्यय ज्ञान आदि स्वरूप है॥४॥ पुनः कथयति / फिर भी पर्यायका भेद कहते हैं / ऋजुसूत्रमतेनार्थपर्यायः क्षणवृत्तिमान् / आभ्यन्तरः शुद्ध इति तदन्योऽशुद्ध ईरितः // 5 // भावार्थः-ऋजुसूत्र नयके मतसे अर्थपर्याय क्षणवृत्तिवाला है। आभ्यन्तर तो शुद्ध अर्थपर्याय है और उससे अन्य अशुद्ध अर्थपर्याय कहा गया है / / 5 // व्याख्या / जुसूत्रमतेनर्जुसूत्रादेशेनार्थपर्यायः, आम्यसरः शुद्धार्थपर्यायः क्षणवृत्तिमान क्षणपरिणतः / तदन्यस्तदतिरिक्तोऽशुद्ध ईरितः / यो यस्मादल्पकालवर्ती पर्यायः स च तस्मादल्पत्वविवक्षया अशुद्धार्थपर्यायः कथ्यते // 5 // ___ व्याख्यार्थः-ऋजुसूत्रनयके आदेशसे आभ्यन्तर ( अन्तरंग )का जो है वह शुद्ध अर्थपर्याय है और क्षणमात्रवृत्ति है अर्थात् शुद्वार्थपर्याय झगझगमें परिणामको प्राप्त होता है। और उससे अन्य अशुद्ध अर्थपर्याय कहा गया है / तात्पर्य यह कि जो जिस पर्यायसे अल्पकालवर्ती पर्याय है वह पर्याय उस अधिक कालवी पर्यायसे अल्पत्वको अपेक्षासे अशुद्ध अर्थपर्याय कहा जाता है / / 5 // अत्र वृद्धवचनसंमति दर्शयति / इस विषय में वृद्धों के वचनरूप संमति दर्शाते हैं। नरो हि नरशब्दस्य यथा व्यञ्जनपर्ययः / बालादिकोऽर्थपर्यायः संमतौ भणितस्त्वयम् // 6 // भावार्थ:-जैसे नर शब्दका नर पर्याय व्यंजनपर्याय कहा गया है, वैसेही संमति प्रन्थमें बाल आदि अर्थपर्याय कहा गया है // 6 // 29 Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 226 ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशाखमालायाम् व्याख्या / नरो हि नरशब्दस्य यथा व्यञ्जनपर्यय इति / यथा पुरुषवाच्यजन्ममरणकालपर्यन्त एकोऽनुगतनरत्वपर्यायः स च पुरुषस्य व्यञ्जनपर्यायोऽस्ति, संमतिविषये बालादिकस्तु पुनरर्थपर्यायः कथितः / अयमिति इदमः प्रत्यक्षत्वे साक्षात्संमतिदृष्ट इति / अत्र गाथा “पुरिसंमि पुरिससद्दो जम्माइ मरणकाफपज्जतो / तस्सओ बालाईया पजवभेया बहु विगप्पा // 1 // 6 // व्याख्यार्थः-जैसे नरशब्दका नर व्यंजनपर्याय है, तात्पर्य यह कि पुरुष शब्दसे वाच्य पुरुषपर्याय जन्मसे आदि लेकर मरणकालपर्यन्त एक अनुगत रूपसे नरत्व पर्याय है और वह पुरुषका व्यंजन पर्याय है और बाल आदिक अर्थपर्याय हैं ऐसा संमति ग्रंथमें कहा है, अर्थात् यह विषय साक्षात् संमतिमें देखा हुआ है। यहां संमतिकी गाथा है कि "जैसे पुरुषमें पुरुष यह शब्द जन्मसे मरणतक रहता है यह व्यंजन पर्याय है और उस पुरुषमें बाल, युवा, इत्यादि जो भेद हैं ये सब अर्थपर्याय हैं // 6 // ___ अथ केवलज्ञानादिकः शुद्धगुणव्यञ्जनपर्याय एव भवति, तत्रार्थपर्यायो नास्तीत्येतादृशी कस्यचिद्दिक्पटामासस्याशङ्कास्ति तां निराकरोति / __ अब “केवल ज्ञान आदि शुद्ध गुणव्यञ्जन पर्याय ही हैं, उनमें अर्थपर्याय नहीं है," ऐसी किसी दिगम्बराभासकी शंका है, उसको दूर करते हैं। षड्गुणहानिवृद्विभ्यां यथाऽगुरुलघुस्तथा / पर्यायः क्षणभेदाच्च केवलाख्योऽपि संमतः // 7 // भावार्थ:-जैसे षड्गुणी हानिवृद्धिसे अगुरुलघु पर्याय माना है, उसी प्रकार क्षणके भेदसे केवलाख्य गुण पर्यायके भी अर्थ पर्याय माना गया है।॥ 7 // ___ व्याख्या / षड्गुणहानिवृद्धिभ्यामगुरुलघुपर्याया यथा कथिताः षङ्गुणहानिवृद्धिलक्षणा अगुरुलघुपर्यायाः सूक्ष्मार्थपर्याया इतिवत्पर्यायः क्षणभेदात्केवलाख्योऽपि संमतः क्षणभेदात्केवलज्ञानपर्यायोऽपि मिन्नो मिन्न एव दर्शितः / यतः "पढमसमये योगभवत्थकेवलनाणे" अपढमसमये सजोगिभवत्थकेवलनाणे" इत्यादिवचनात्तहजुसूत्रादेशेन शुद्धगुणस्याप्यर्थपर्याया मन्तव्याः // 7 // ___व्याख्यार्थः-जैसे षड्गुणी हानि वृद्धिसे अगुरुलघु पर्याय कहे हैं अर्थात् जैसे षड्गुणी हानि वृद्धिलक्षण अगुरुलघु पर्याय अर्थात् सूक्ष्मार्थ पर्याय हैं ऐसेही क्षणके भेदसे केवल ज्ञान नामक पर्याय भी भिन्न भिन्न ही देखा गया है, क्योंकि, प्रथम समयमें योगभवस्थ केवलज्ञानमें, द्वितीयसमय सयोगी भवस्थ केवलज्ञान में" इत्यादि वचन हैं, इसलिये ऋजुसूत्रनयके आदेशसे शुद्ध गुणके भी अर्थपर्याय मानने चाहिये / / 7 / / सद्व्यव्यञ्जनोऽणुश्चाशुद्धपुद्गलपर्यवः / द्वयणुकाद्या गुणाः स्वोयगुणपर्यायसंयुताः // 8 // Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ 227 भावार्थ:-शुद्ध द्रव्यव्यंजन परमाणु जो है वह शुद्ध पुद्गल पर्याय है और द्वथणुकादि अशुद्ध द्रव्य व्यंजन पर्याय हैं / ये अपने 2 गुण पर्यायों सहित हैं // 8 // व्याख्या / सद्व्यव्यञ्जनोऽणुः शुद्धद्रव्यव्यञ्जनपरमाणुः शुद्धपुद्गलपर्यवस्तस्य नाशो नास्ति / तथा वपणुकादिका अशुद्धद्रव्यव्यञ्जनपर्यायाः संयोगजनितस्वात् / कीदृशाः स्वीयगुणपर्यायसंयुताः पुद्गलद्रव्यस्य शुद्धगुणव्यञ्जनपर्यायाः अशुदगुणग्यञ्जनपर्यायास्ते निज 2 गुणाश्रिता मन्तव्याः / यतः परमाणुगुणो यः स च शुद्धगुणव्यञ्जनपर्यायस्तथा द्विप्रदेशादिगुणो यः स चाशुद्धगुणव्यञ्जनपर्यायः // 8 // व्याख्यार्थः-शुद्ध द्रव्यव्यंजन परमाणु जो है वह शुद्ध पुद्गल पर्याय है। क्योंकि ससका नाश नहीं होता है / और व्याणुक आदि अशुद्ध द्रव्यव्यंजन पर्याय हैं। क्योंकि, संयोगसे उत्पन्न होनेके कारण नाशवान हैं। ये कैसे हैं कि अपने गुण तथा पर्याय करके सहित हैं / अर्थात् पुद्गल द्रव्यके जो शुद्ध गुणव्यंजन पर्याय और अशुद्ध गुणव्यंजन पर्याय हैं, वे अपने अपने गुणके आश्रित मानने चाहिये / क्योंकि, जो परमाणुका गुण है वह तो शुद्ध गुणव्यंजन पर्याय है; और जो द्विप्रदेश आदिका गुण है वह अशुद्ध गुणव्यंजन पर्याय है // 8 // सूक्ष्मार्थपर्यवाः सन्ति धर्मादीनामितीव ये / कथयन्ति न कि तेऽमुंजानन्त्यात्मपरार्थतः // 6 // भावार्थः-धर्मादि व्यके सूक्ष्म अर्थपर्याय हैं ऐसा जो दिगम्बर कहते हैं सो क्या वे स्वपरबोधसे इस क्षणपरिणामरूप अर्थपर्यायको नहीं जानते // 9 // व्याख्या। धर्मादीनां धर्मास्तिकायादीनां सूक्ष्मार्थपर्यवाः शुद्धद्रव्यव्यंजनपर्यायाः सन्ति, इसीव ये कथयन्त्येतादृशहठं कुर्वन्ति ते जना हठं त्यक्त्वा आत्मपरायंत. निजपरप्रत्ययादृजुसूत्रादेशेन चामु क्षणपरिणतिरूपं पूर्वोक्तमर्थपर्यायमपि केवलज्ञानादिवन कि किमिति कथं न जानन्ति हठं त्यक्त्वा कथं नाङ्गीकर्वन्ति। किं च तेषु धर्मास्तिकायादिष्वपेक्षया अशुद्धपर्यायोऽपि भवति न चेत्तदा परमाणुपर्यन्तविश्रामः पुद्गलद्रव्येऽपि म भवति, इत्यभिप्रायेण कथयन्नाह // 9 // व्याख्यार्थः-धर्मास्तिकाय आदि द्रव्योंके सूक्ष्म अर्थ पर्याय अर्थात् शुद्ध द्रव्यव्यंजन पर्याय हैं, ऐसा जो हठ करते हैं, वे हठ करनेवाले मनुष्य हठको छोड़कर; अपने, प्रत्ययसे अथवा परके प्रत्ययसे और ऋजुसूत्रनयके आदेशसे इस क्षणपरिणाम रूप पूर्वकथित अर्थपर्यायको भी केवल ज्ञान आदिकी भाँति क्यों नहीं जानते ? अर्थात् अपने हठको छोड़कर क्यों नहीं स्वीकार करते / यह आक्षेप है / और भी, उन धर्मास्तिकाय आदिमें अपेक्षासे अशुद्ध पर्याय भी होता है, यदि ऐसा न हो तो पुद्गल द्रव्यमें भी परमाणु तक विश्राम नहीं होता है। इस अभिप्रायसे श्लोक कहते हैं // 9 // Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 228 ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालाचाम् यथाऽकृतिश्च धर्मादेः शुद्धो व्यंजनपर्यवः / लोकस्य द्रव्यसंयोगादशुद्धोऽपि तथा भवेत् // 10 // भावार्थ:-जैसे धर्म आदि द्रव्यके लोकाकाश प्रमाणसे शुद्ध व्यंजन पर्याय है, ऐसेही लोकमें रहनेवाले द्रव्योंके संयोगसे अशुद्ध व्यंजन पर्याय क्यों न हो ? अर्थात् होनाही चाहिये // 10 // व्याख्या / धर्मास्तिकायादेराकृतिर्लोकाकाशमानसंस्थानरूपा यथा वर्तते तथा शुद्धो व्यंजनपर्यवः शुद्धद्रव्यव्यंजनपर्यायः कथ्यते परनिरपेक्षत्वेनेति / तथा लोकस्य द्रव्यसंयोगाल्लोकवर्ती द्रव्यसंयोगरूपोऽशुद्धद्रव्यव्यंजनपर्यायोऽपि तस्य लोकस्य द्रव्यसंयोगान्निरपेक्षत्वं कथयन्विरोध नोत्पादयति / विरोधः कोऽपि नास्तीत्यर्थः // 10 // व्याख्यार्थ:-जैसे धर्मास्तिकाय आदि द्रव्यका आकार लोकाकाश प्रमाण स्थितिरूप है, इसलिये परद्रव्यकी निरपेक्षासे वह शुद्ध द्रव्यव्यंजन पर्याय है ऐसा कथन होता है; ऐसेही लोकके द्रव्योंके संयोगसे अर्थात् लोकमें रहनेवाले जो द्रव्य हैं उन द्रव्योंका धर्मादि द्रव्यके साथ संयोगरूप अशुद्ध द्रव्यव्यंजन पर्याय भी है; और उस लोकके द्रव्य संयोगसे निरपेक्षक होनेसे किसी विरोधको भी नहीं उत्पन्न करता; अर्थात् कोई विरोध नहीं है // 10 // ___अथाकृतिः पर्यायो भविष्यति, संयोगः पर्यायो न भविष्यतीत्याशङ्का परिहरनाह / अब आकृति पर्याय हो सकती है और संयोग नहीं इस आशंकाको दूर करते हुए कहते हैं। आकृतेरिव संयोगः पर्यवः कथ्यते यतः / उत्तराध्ययनेऽप्युक्तं पर्यायस्य हि लक्षणम् // 11 // भावार्थ:-आकृतिके समान संयोग भी पर्याय कहलाता है / क्योंकि, उत्तराध्ययन सूत्रमें भी पर्यायका लक्षण कहा है // 11 / / व्याख्या / संयोगोऽप्याकृतेरिवाकृतिवत्पर्यायः कथ्यते / यतो हेतोः पर्यायस्य लक्षणं हीति निश्चितमुत्तराध्ययनेऽप्युक्त कथितम् / ततोऽस्य लक्षणं सभेदमपि श्रीउत्तराध्ययनादेवावसेयमिति // 11 // व्याख्यार्थः-संयोग भी आकृति (आकार ) के समान पर्याय कहा जाता है / क्योंकि, निश्चय रूपसे पर्यायका लक्षण उत्तराध्ययन सूत्रमें भी कहा है। इसलिये भेदसहित पर्यायका लक्षण श्रीउत्तराध्ययनसूत्रसे ही जानना चाहिये // 11 // पुनस्तदेवाह / फिर पर्यायके विषयमें ही कहते हैं। Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ 229 एकत्वं च पृथक्त्वं च संख्या संस्थानमेव च / संयोगश्च विभागश्चेतीत्थं मनसि चिन्तय // 12 // भावार्थः-एकत्व, पृथक्त्व, संख्या, संस्थान, संयोग तथा विभाग इन सबको पर्याय रूपसे मनमें विचारो // 12 // व्याख्या / एकत्वं 1 पृथक्त्वम् 2 एतद्द्वयं तथा पुनः संख्या 1 संस्थानम् 2 एतद्द्वयं च पुनः संयोगः 1 विभाग: 2 एतद्वयं चेत्यादि षटकं द्वित्वपरिणतं मनसि चिन्तय / स्वचेतोगोचरीकुरुष्वेत्यर्थः / तथा च तत्र गाथा-"एगत्तं च पुत्तं च संख्या संठाणमेव च / संयोगो य विभागो य पज्जवाणं तु लक्खणं / 1 / " इत्येतग्दाथोक्त पर्यायभेदभावना भावयितव्या // 12 // ___व्याख्यार्थः-एकत्व 1 पृथक्त्व 2 ये दोनों, संख्या 1 संस्थान 2 (आकृति वा अवयवरचना) ये दोनों, पुनः संयोग 1 तथा विभाग 2 ये दोनों, इन तीन द्वन्द्व अर्थात् छहको मनमें पर्याय रूप विचारो / अर्थात् अपने चित्तमें इनको पर्यायके भेद समझो / ऐसी ही यहांपर उत्तराध्ययनकी गाथा है-"एकत्व 1 पृथक्त्व 2 संख्या 3 संस्थान 4 संयोग 5 और विभाग 6 ये पर्यायके लक्षण हैं / इस गाथामें जो (एकत्व आदि) कहे हैं, उनमें पर्यायके भेदकी भावना करनी चाहिये / भावार्थ-उत्तराध्ययनमें संयोगको भी पर्याय माना है // 12 // पुनः प्रकृतमेवार्थमाह / फिर उसी पर्याय विषयको कहते हैं / उपचारी न वाऽशुद्धो यद्यप्यन्याश्रितो भवेत् / असद्भूता मनुष्याद्यास्तदा नाशुद्धयोगकाः // 13 // भावार्थ:-जो उपचरित है वह यद्यपि परद्रव्याश्रित हो परन्तु अशुद्ध नहीं हो सकता। यदि ऐसा मानते हो, तब तो असद्भूत मनुष्य आदि भी अशुद्धपर्याययोगी नहीं होंगे // 13 / / व्याख्या / उपचारी न भवत्यशुद्धो यद्यप्यन्याश्रितो भवेत्परद्रव्यसंयोगी स्यात्तथाप्युपचारी अशुद्धता नाप्नोति / अथ च यद्येवं कथयिष्यथ यद्यदि च धर्मास्तिकायादीनां परद्रव्यसंयोगोऽस्ति तदुपचरितपर्याय इति कथ्यते, परन्त्वशुद्धपर्याय इति न कथ्यते, द्रव्यातथात्वहेतुष्वेवाशुद्धत्वव्यवहारोऽस्तीति, तत्तस्माद् मनुष्यादिपर्यायोऽप्यशुद्ध इति न कथयत, असद्भूतव्यवहारनयग्राह्यत्वेनासद्भूत इति कथयत / तद्धि तन्त्वादिपर्यायवदेकद्रव्यजनकावयवसंघातस्यवाशुद्धद्रव्यव्यंजनपर्यायत्वं च कथयतां चतुरस्र लगेदिति / तस्मादपेक्षानपेक्षाभ्यां शुद्धाशुद्धानेकान्तव्यापकत्वमेव श्रेय इति / तदेवाग्रेतने पये प्रतिपादयिष्यति / पुनरक्षरार्थस्त्वेवम / असद्भूता मनुष्याद्यास्तदा अशुद्धयोगका नेति // 13 // व्याख्यार्थः-उपचारवान् यद्यपि परद्रव्यका संयोगी होवै तथापि वह अशुद्धताको नहीं प्राप्त होता है / अब यदि ऐसा कहते हो कि, धर्मास्तिकाय आदि द्रव्योंका परद्रव्यके Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 230] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशाखमालायाम् साथ संयोग है; इसीसे उनको उपचरित पर्याय कहते हैं परन्तु अशुद्ध पर्याय नहीं कहते / क्योंकि द्रव्यके अतथाभावके (अन्यपने के) हेतुओंमें ही अशुद्धताका व्यवहार है, इस कारण, मनुष्य आदि पर्याय भी अशुद्ध है; ऐसा न कहो। किन्तु असद्भूत व्यवहार नयसे ग्राह्य होनेसे असद्भूत है, ऐसा कहो। क्योंकि वह तन्तु आदि पर्यायको तरह एकद्रव्यजनक जो अवयवसंघात ( अवयवोंका समूह ) उसोको अशुद्ध द्रव्यव्यंजनपर्यायता कहनेवालोंके चतुरस्र लगेगा / इसलिये अपेक्षासे शुद्ध और अपेक्षारहिततासे अशुद्ध इस प्रकार अनेकान्त व्यापकता ही श्रेष्ठ है / और इसको आगेके श्लोकमें प्रतिपादित करेंगे। अक्षरोंका अर्थ तो यह है कि, यदि उपचारी अशुद्धताको नहीं प्राप्त होता; तो मनुष्य आदि भी अशुद्ध पर्यायके योगी नहीं हैं // 13 // पुनः कथयति। पुनः उसी विषयको कहते हैं। धर्मादेरन्यपर्यायेणात्मपर्यायतोऽन्यथा। अशुद्धताविशेषो न जीवपुद्गलयोर्यथा // 14 // भावार्थ:-धर्मास्तिकाय आदिके परपर्यायसे तथा अपने पर्यायसे विलक्षणता है और जैसे जीव, पुद्गलमें अशुद्धताका विशेष नहीं है। वैसे इनमें भी नहीं है // 14 // व्याख्या / धर्मादधर्मास्तिकायादेरण्यपर्यायेण परपर्यायेणात्मण्यायेणात्मपर्यायत: स्वपर्यायावन्यथा विषमत्वं विलक्षणत्वं ज्ञातव्यम् / यतः कारणादशुद्धताया विशेषो नास्ति यथा जीव पुद्गलयोविषये अशुद्धताविशेषो नास्ति // 14 // व्याख्यार्थः- धर्मास्तिकाय आदिके परपर्याय तथा आत्मपर्यायसे विलक्षणता जाननी चाहिये / क्योंकि, जैसे जीव और पुद्गलके विषयमें अशुद्धता विशेष नहीं है; वैसे यहाँ भी अशुद्धताका विशेष नहीं है। अथ प्रकारान्तरेण चतुर्विधपर्याया नयचके कथितास्तानेव दर्शयन्नाह / अब नयचक्र में अन्य प्रकारसे पर्यायोंके जो चार भेद कहे हैं; उन्हीं भेदोंको दर्शाते हुए आगेका श्लोक कहते हैं। ___ स्वजातेश्च विजातेश्च पर्याया इत्थमर्थके। स्वभावाच्च विभावाच्च गुणे चत्वार एव च // 15 // भावार्थ:-द्रव्यके विषय में इसी प्रकार स्वजातीयसे तथा विजातीयसे पर्याय होते हैं / ऐसेही गुणके विषयमें भी स्वभाव गुणसे तथा विभाव गुणसे पर्याय होते हैं। इस प्रकार पर्यायके चार भेद हुए // 15 // व्याख्या / इत्यममुना प्रकारेण स्वजाते: पर्यायाः सजातीयद्रव्यपर्यायाः, विजाते. पर्याया विजातीयद्रव्यपर्यायाश्चार्थके द्रव्ये द्रव्यविषये भवन्ति / स्वभावाश्च पुनर्विभावादिति स्वभाव Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [231 गुणपर्यायाः, विभावगुणपर्यायाः इत्थं चत्वारो भेदा द्रव्यगुणभेदात्पर्यायाणां कथनीयाः / स्वजातीयद्रव्यपर्यायः, विजातीयद्रव्यपर्यायः, स्वभावगुणपर्याय:, विभावगुणपर्यायः, इति चत्वारो द्रव्यगुणयोर्मेंदा भावनीया इति // 15 // व्याख्यार्थः-इस प्रकारसे स्वकीय जातिसे जो पर्याय होते हैं वे सजातीय पर्याय कहलाते हैं, तथा परजातिसे जो पर्याय होते हैं वे विजातीय पर्याय कहलाते हैं / और स्वभावसे तथा विभावसे गुणमें पर्याय होते हैं / अर्थात् स्वभाव गुणपर्याय, और विभाव गुणपर्याय दो भेद हैं / ऐसे द्रव्य और गुणके भेदसे पर्यायोंके चार भेद कहने चाहिये / अर्थात् सजातीय द्रव्यपर्याय 1 विजातीय द्रव्यपर्याय 2 स्वभाव गुणपर्याय 3 तथा विभाव गुणपर्याय 4. इस प्रकार दो भेद द्रव्यके तथा दो भेद गुणके इन दोनोंको मिलाके, चार भेद द्रव्य गुण दोनोंके विचारने चाहिये // 15 // बत्र पूर्वोक्तानां भेदानामुदाहरणमाह / / अब पूर्वोक्त सजातीय द्रव्यपर्याय आदि भेदोंके उदाहरण कहते हैं / द्वयणुकं च मनुष्याश्च केवलं मतिचिन्मुखाः / दृष्टान्ता प्रायिकास्तेषु नाणुरन्तर्भवेत्क्वचित् // 16 // भावार्थः-दूधणुक सजातीय द्रव्यपर्याय हैं, मनुष्य आदि विजातीय द्रव्यपर्याय हैं तथा केवल ज्ञान स्वभाव गुणपर्याय है और मतिज्ञान आदि विभाव गुणपर्याय हैं / ये दृष्टांत प्रायिक हैं / क्योंकि, इनमें, कहीं भी अणुका अन्तर्भाव नहीं होता है // 16 // ___ व्याख्या / द्वषणुकं चेति द्विप्रदेशादिस्कन्धः स च सजातीयद्रव्यपर्यायः, कथं तत् / द्वयो! प्ररमाण्वोः संयोगे सति द्वघणुकमेतावता द्रव्यद्वयं संगत्यकद्रव्यं भवतीति सजातीयद्रव्यपर्यायः 1 / मनुष्याश्च मनुजादिपर्याया विजातीयद्रव्यपर्याय इति, जीवपुद्गलयोर्योगे सति मनुष्यत्वव्यवहारो जायते, एतावता विजातीयद्रव्यद्वयं संगत्यकद्रव्यं निष्पन्नमिति विजातीयद्रव्यपर्यायः 2 // अथ केवलमिति केवलज्ञानं स्वभावगुणपर्यायः कथ्यते, कथं तत्-कर्मणां संयोगरहितत्वात्स्वभावगुणपर्यायः 3 / अथ मतिचिन्मुखा मतिज्ञानादयः पर्यायाः विभावगुणपर्यायाः कथ्यन्ते / कथं तत् कर्मणां परतन्त्रत्वाद्विभावगुणपर्याय 4 / इति / एते हि चत्वारो दृष्टान्ताः प्रायिका ज्ञातव्याः / परमार्थतस्तु परमाणुरूपद्रव्यपर्याय एषु चतुर्षु नान्तर्मवितुमर्हति विभागजनितपर्यायस्वात् / तदुक्त संमतौ-अणुएहि दव्व आरद्धति अणंति वयसाण सात्ततो / अपुणविमत्तो अणुत्तिजामो अणू होइ / " इत्यादिकं सर्व विमृश्य विज्ञेयमिति / आरब्धद्रव्यपर्यायेऽणुदयसयोगे सति द्वषणुकं निष्पद्यते, त्रिमिद्वयं णुकल्यणुकं जायते, त्रिमियगुकैश्चतुरणुकमुत्पद्यते / एवं महती पृथ्वी, महत्यापो, महान्तो वायव इत्यादि नैयायिकः प्रणीतत्वात् // 16 // व्याख्यार्थः-जो द्विप्रदेश आदि स्कंध हैं वे सजातीय द्रव्यपर्याय हैं / सो कैसे कि, दो परमाणुओंका संयोग होनेपर द्वयणुक होता है। इससे यह सिद्ध हुआ कि एक जातिके Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 232 ] द्रव्यानुयोगतकणा दो द्रव्य परस्पर मिलके जो एक द्रव्य होता है वह सजातीय द्रव्यपर्याय है / 1 / और मनुष्य आदि जो पर्याय हैं वे विजातीय द्रव्यपर्याय हैं। क्योंकि, जीव और पुद्गलका परस्पर संयोग होनेपर मनुष्य यह व्यवहार होता है। इससे यह सिद्धान्त हुआ कि भिन्न 2 जातिके दो द्रव्य मिलकर, जो एक द्रव्य होता है; वह विजातीय द्रव्य पर्याय कहलाता है / 2 / केवल ज्ञान जो है वह स्वभाव गुणपर्याय कहा जाता है / सो कैसे कि-वह कर्मोंके संयोगसे रहित है इसलिये स्वभाव गुणपर्याय है / 3 / तथा मतिज्ञान आदि पर्याय विभाव गुणपर्याय कहलाते हैं। सो कैसे कि, ये कर्मों के सम्बन्धसे होते हैं। इसलिये विभाव गुणपर्याय हैं / 4 / इन चारों दृष्टान्तोंको प्रायिक समझना चाहिये, अर्थात् ये सर्वत्र रहनेवाले नहीं हैं। परमार्थसे तो परमाणु रूप द्रव्यपर्याय इन चारोंमें अन्तर्गत होने योग्य नहीं है / क्योंकि, वह परमाणु द्रव्यविभागसे उत्पन्न पर्याय है न कि संयोगसे उत्पन्न / सोही संमतिमें कहा है कि-"दो तीन आदि अणुओंसे अनन्त द्रव्यांका आरंभ निरन्तर होता है। और जिसका फिर विभाग न हो वह अणु है / यह द्वयणुकसे विभाग करके होता है / " इत्यादि सब विचारके जानना चाहिये / और "आरंभ किये हुए द्रव्यके पर्यायमें दो अणु ओंके संयोगसे द्वथणुक उत्पन्न होता है, ऐसे ही तीन द्वयणुकोंसे त्र्यणुक और चार त्र्यणुकोंसे चतुरणुक उत्पन्न होता है और इसी प्रकार महापृथिवी, महाजल तथा महावायु आदि होते हैं" इत्यादि रूपसे नैयायिकोंने भी कहा है // 16 // पुनः प्रतिपिपादयिषुराह / उसी कथनकी इच्छासे पुनः इस श्लोकको कहते हैं / गुणानां हि विकाराः स्युः पर्याया द्रव्यपर्यवाः / इत्यादि कथयन्देवसेनो जानाति कि हृदि // 17 // भावार्थ-गुणों के विकारही पर्याय हैं यह, पहिले कहकर फिर द्रव्यपर्याय तथा गुणपर्याय कहते हुए देवसेनजी अपने मनमें क्या जानते हैं ? // 17 // व्याख्या / गुणविकाराः पर्याया एवं कथयित्वा तेषां भेदाधिकारे पर्याया द्विविधा द्रव्यपर्याया गुणपर्यायाश्चेति कथयंश्च देवसेनो दिगम्बराचार्यों नयचक्रग्रन्थकर्ता हृदि चित्ते कि जानाति अपि तु सम्माविताथं न किमपि जानातीत्यर्थः / पूर्वापरविरुद्धभाषणादसत्प्राय एवेदमित्यभिप्रायः / किञ्च द्रव्यपर्याया एवं कथनीयाः परन्तु गुणपर्याया इति पृथग्भेदोत्कीर्तनं न कर्त्तव्यं द्रव्ये गुणत्वाधिरोपादुणे च गुणत्वामावादिति निष्कर्षः // 17 // व्याख्याःर्थ - गुणों के विकार पर्याय हैं ऐसा कहके पुनः पर्यायोंके भेदके अधिकारमें पर्याय दो प्रकारके हैं-द्रव्यपर्याय तथा गुणपर्याय इस प्रकार नयचक्रग्रन्थके कर्ता दिगम्बराचार्य देवसेनजी अपने चित्त में क्या जानते हैं ? अर्थात् कुछ नहीं जानते हैं / अर्थात् पूर्वापर विरुद्ध भाषण करनेसे यह झूठा है यह अभिप्राय है / और द्रव्यपर्याय ही कहने : Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 233 द्रव्यानुयोगतर्कणा चाहिये और गुणपर्याय ऐसा दूसरा भेद न करना चाहिये। क्योंकि, द्रव्यमें गुणत्वका अध्यारोप है और गुणमें गुणताका अभाव है / यही तात्पर्य है // 17 // पुनस्तदेवाह / फिर उसीको कहते हैं। इत्थं पदार्थाः प्रणिधाय मूनि परीक्षिता ज्ञानगुरोः सदाज्ञाम् / तुच्छोक्तिमुत्सृज्य विमोहमूलामहत्क्रमाम्भोजरतेन सर्वे // 18 // भावार्थ:-ज्ञानके दाता श्रीगुरुकी उत्तम आज्ञाको मस्तकपर धारण करके, जिनेन्द्रके चरणकमलमें तत्पर मैंने विमोहके मूनभूत अज्ञप्रणीत वचनको त्यागकर, इस प्रकार सब पदार्थोकी परीक्षा की // 18 // इति श्रीयशोविजयोपाध्यायप्रणीतद्रव्यगुणपर्यायभाषाविवरणोक्तार्थसंदभितश्लोक . रूप-द्रव्यानुयोगतर्कणायां चतुर्दशोऽध्यायः // 14 // व्याख्या / इत्थमनया रीत्या पदार्था द्रव्यगुणपर्यायाः परीक्षिताः स्वरूपलक्षणभेदादिकथनेन विशदीकृताः / किं कृत्वा ज्ञानगुरोः परम्परागतश्रुताचार्यस्य सदाशां सत्यनिदेशं मूनि मस्तके निधाय संस्थाप्य / पुनः किं कृत्वा विमोहमूलां भ्रमनिबन्धनां तुच्छोक्ति तुच्छबुद्धिप्रणीतवचनमुत्सृज्यापाकृत्य / कीहशेन मया अहंरक्रमाम्भोजरतेन वीतरागचरणकमलसेवनरसिकेन / सर्वे पदार्था मया परीक्षिता इत्यर्थः / भोजेति नामनिरूपणं चेति // 18 / / इति श्रीवाचकमुख्य-श्रीयशोविजयविभितद्रव्यगुणपर्यायभाषाविवरणतदुक्तिसङ्कलितायां कृतिमोजसागरविनिमितायां द्रव्यानुयोगतर्कणायां चतुर्दशोऽध्यायः॥ व्याख्यार्थः-परंपरागत श्रुताचार्यकी समीचीन आज्ञाको मस्तकपर धर करके और भ्रमसे उत्पन्न हुए ऐसे मन्दबुद्धियोंके रचे हुए वचनको दूर करके श्रीजिनेन्द्र के चरणकमलोंकी सेवा करनेमें रसिक ऐसे मैने इस प्रकार सब द्रव्य, गुण, पर्यायोंकी परीक्षा को; अर्थात् स्वरूप, लक्षण तथा भेद आदिका कथन करके स्पष्ट रीतिसे पदार्थोंका निरूपण किया। श्लषसे "क्रमाम्भोज" इस पदमें "भोज" यह अपने नामका निरूपण भी आचायने किया है // 18 // इति श्रीमाचार्योपाधिधारिपण्डितठाकुरप्रसादशर्मद्विवेदिप्रणीतमाषानुवादसमलङ्कृताया द्रव्यानुयोगतर्कणायां चतुर्दशोऽध्यायः // 14 // द्रव्यादिकानां तु विचारमेवं विभावयिष्यन्ति सुमेधसो ये / प्राप्स्यन्ति ते सन्ति यशांसि लक्ष्म्यः सौख्यानि सर्वाणि च वाजिछतानि // 1 // भावार्थ:-जो बुद्धिमान इस प्रकार द्रव्य आदिका विचार करेंगे; वे उत्तम यश, लक्ष्मी तथा सम्पूर्ण अभिलषित सुखोंको प्राप्त होंगे // 1 // Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 234 ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् व्याख्या / एवमनया रीत्या द्रव्यादिकानां विचारं ये सुबुद्धयो विमावयिष्यन्ति ते सुमेधस इह सम्ति शोभनानि यशांसि / पुनः लक्ष्भ्यः परत्र सर्वाणि वाञ्छितानि सुखानि प्राप्स्यन्तीति भावः // 1 // व्याख्यार्थः- इस पूर्वोक्त प्रकार से जो उत्तम बुद्धिके धारक भव्य जीव द्रव्यादि पदार्थोके विचारकी विभावना करेंगे वे सम्यक् ज्ञानधारी जीव अच्छे यश, और लक्ष्मियोंको प्राप्त करेंगे तथा परलोकमें सब वाञ्छित सुखोंको प्राप्त करेंगे / / 1 / / गुरोः च तेश्चानुभवात्प्रकाशितः परो हि द्रव्याद्यनुयोग आन्तरः / जिनेशवाणीजलधौ सुधाकरः सदा शिवश्रीपरिभोगनागरः // 2 // भावार्थ-सर्वोत्तम, आन्तरिक, ज्ञानस्वरूप, श्रीजिनेन्द्र के वचनरूपी समुद्र में चन्द्रमाके समान तथा निरन्तर मुक्तिलक्ष्मीके सेवनमें नागर ऐसा यह द्रव्यानुयोग मैंने गुरुके सिद्धान्तसे तथा अपने अनुभवसे प्रकाशित किया // 2 // व्याख्या / गुरोर्ज्ञानगुरोः श्रुतेः सिद्धान्तादनुभवात्स्वानुभूतेरान्तरोऽन्तर्ज्ञानमयः परः प्रकृष्टो द्रव्यानुयोगः प्रकाशितः / कीदृशो वीतरागवचन समुद्र चन्द्र इव चन्द्रः, निरन्तरं शिव लक्ष्मीविलासे नायक इव नागर इति // 2 // ये बालकास्ते किल लिङ्गशिनो ये मध्यमास्ते तु बहिष्क्रियारताः / द्रव्यानुयोगाभ्यसने य उत्तमाः कृतादराः सत्पथसङ्गिनस्ते // 3 // भावार्थ:-जो बालक (मुख) हैं वे केवल लिङ्गके दर्शक हैं, जो मध्यम (कुछ ज्ञानके धारक) हैं वे बाह्यक्रिया में तत्पर हैं, इसलिये जो द्रव्यानुयोगके अभ्यासमें आदर करनेवाले हैं वेही उत्तम (विशेष ज्ञानके धारक ) हैं और सन्मार्गके सङ्गी हैं // 3 // व्याख्या / ये बालका इति सुगमम् / षोडशकवचनं - "बालः पश्यति लिङ्ग मध्यमबुद्धिर्विचारयति वृत्तिम् / आगमतत्त्वं तु बुधः परीक्षते सर्वयत्तेन / 1 / " इति // 3 // व्याख्यार्थ:-'ये बालकाः' इत्यादि श्लोकका अर्थ सुगम है / इस श्लोकार्थके विषयमें षोडशकका भी वचन है-"बालक (मन्दबुद्धिजन ) लिङ्गको देखता है, मध्यम बुद्धिके धारक वृत्तिका विचार करते हैं और जो ज्ञानो ( उत्तम ) हैं वे सर्व प्रकारसे शास्त्रोक्त तत्त्वको परीक्षा करते हैं // 3 // किया प्रिया नैव विमुच्य संविदं न ज्ञानमानन्दकरं विना क्रियाम् / समुच्चये योगदृशां निरूपितं यदर्कखद्योतवदन्तरं महत् // 4 // भावार्थ:-ज्ञानके विना क्रिया प्यारी नहीं होती है और क्रियाके विना ज्ञान भी आनन्दका कर्ता नहीं होता है / और योगदृष्टिसमुच्चय नामक ग्रंथमें तो सूर्यमें और खद्योत (जुगुनू) में जितना अन्तर ( फरक) है उतना बड़ा भेद ही ज्ञान और क्रियामें निरूपण किया है / अर्थात् ज्ञान तो सूर्यके समान है और क्रिया खद्योतके तुल्य है // 4 // (1) इस व्याख्याका अर्थ सूत्रमावार्थसे ही समझ लेना चाहिये / क्योंकि इसमें विशेषता नहीं है। Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्फणा [235 खद्योतप्रतिमा क्रिया तु कथिता ज्ञानं तु भानूपममित्येतन्महदन्तरं कलियुगे कश्चिद्बुधो विन्दति / बाह्याभ्यासविनिर्मितो हि दुरितक्षेपो भवेद्द१र क्षुण्णक्षोदकणोपमः किमपरं वाक्यं बुधा ब्रू महे // 5 // भावार्थ:-क्रिया तो खद्योतके तुल्य कही गई है और नान सूर्यके समान है, इस प्रकार ज्ञान और क्रियामें बड़ा भेद है / इस भेदको कलियुग (पंचमकाल )में कोईही विद्वान् जानता है / और बाह्य के अभ्याससे उत्पन्न हुआ जो पापका नाश है, वह दर्दुर (मेंढ़क ) के द्वारा खोदे हुए मिट्टीके कणके बराबर है / बुधजनो ! इससे अधिक क्रिया तथा ज्ञानके भेदके विषयमें आपसे और क्या कहें ? // 5 // __व्याख्या। क्रियेति स्पष्टम् / यदुक्त योगदृष्टिसमुच्चये "तात्कालिकः पक्षपातो मावशून्या च या क्रिया / अनयोरन्तरं ज्ञेयं मानुखद्योतयोरिव / 1" "मंड्रकचूनकप्पो किया जाणियो को किलेसाणं / सद्ददुरचुन कप्पो नाणकओ तं च आणाए // 1 // 5 // " व्याख्यार्थ:-"क्रिया प्रिया" इत्यादि चतुर्थ तथा पंचम इलोकका अर्थ स्पष्टही है इसलिये व्याख्या नहीं की / यही विषय योगदृष्टिसमुच्चय में कहा है कि तत्काल अर्थात् उसी क्षणमें होनेवाले अपने पक्षातको प्रकट कर्ता ज्ञान में ओर भावान्य जो क्रिया है उसमें सूर्य और खद्योतके बराबर भेद जानो / 1 / " इस विषय में यह गाथा भो है “क्रिया आदिसे मेंढ़कके खांदे हुए मिट्टीके कणके बराबर पापोंका नाश होता है ओर ज्ञानसे मेंढकके समान पापका नाश होता है, यह सर्वज्ञको आज्ञासे सिद्ध है / 1 / / 4 // 5 मिथ्यात्वमूलाष्टककर्मसंस्था न कोटिकोटेरधिकोपदिष्टा / समागते ज्ञानगुणेऽत्र पुंसो महानिशीथोक्तमिति प्रमाणम // 6 // भावार्थः-मनुष्यको ज्ञान गुण प्राप्त होनेपर मिथ्यात्व है मूल जिनका ऐसे आठों कोंकी स्थिति कोटिकोटि सागरसे अधिक नहीं है, यह प्रमाण महानिशीथ ग्रंथमें कहा हुआ है // 6 // जानाति तत्वानि यथार्थमथं ब्रूते परान्यो दुरितं निहन्ति / / अनन्तकायस्थमपाकरोति यो भाष्य उक्तः स तु केवली ज्ञः // 7 // . भावार्थ:-जो संपूर्ण तत्त्वोंको जानते हैं, जो भव्यजीवोंको यथार्थ पदार्थका कथन करते हैं, जो अनन्तकायस्थको दूर करते हैं वे भाष्यमें केवली कहे गये हैं // 7 // व्याख्या। अथ मिथ्यात्वेति / ज्ञानं हि सम्यग्दर्शनसहितमेवायाति तत्प्राप्तौ च कदाचिदपि मिथ्यात्वमध्यगतो भवेत्तथापि जीवः कोटाकोटिसागरमिति कालादधिकं कर्मबग्वं न करोति "बंषेण न बोलइ कयावीति" वचनात् / एतदभिप्रायेण नन्दिषेणाधिकारे महानिशीथसूत्रे ज्ञानगु. णोऽप्रतिपाती कथितः / उत्तराध्ययनेऽपि यथोक्त “सूई जहा समुत्ता ण णस्सई कयवरम्मि Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 236 ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् पडियाई। इय जीवोवि ससुत्तो ण णस्सइ गोवि संसारे // 1 // " अत्र बृहत्कल्पगाथा चेयम "गीयत्थे केवली चबिहे पन्नत्ते तं जहा जाणणेय 1 कहणेय 2 उल्लरागहोसे 3 अणत कायस्स वजणेण य 4 // " गाथा-"गीयत्थस्स वयणेणं विसं हालाहलं पिवे। अगीयत्थस्स वयणेणं अमयपि न घुट्टए / 1 / अगीयत्थ कुमीलेहिं संगं तिविहेण वोसिरे / मुक्खमग्गस्स ते विग्धं पहंमि तेणगे जह / / " "करी मिच्छोः श्रतार्थस्य ज्ञानिनोऽपि प्रमादिनः / कलादिविकलो योग इतीच्छायोगलक्षणम् / 1 / " इति वचनं ललितविस्तरादौ ग्रन्थे / दृढकरणवाक्यमालेयम / अनावश्यकगाथा-"दसणपक्खो सावय चरित्तनय संदधम्मे य। दसणचरितपक्खो समणे परलोग खंमि / 1" "मणेरिवामिजातस्य क्षीणवृत्तेरसंशयम / तात्स्थ्यात्तदञ्जनत्वाच्च समापत्तिः प्रकीत्तिता // 1 // 6 // 7 // " व्याख्यार्थः-"मिथ्यात्वमूलाष्टक" इस छ? तथा "जानाति तत्वानि" इस सातवें इन दोनों श्लोकोंको मिलाके व्याख्या करते हैं। ज्ञान गुण जब आता है तब सम्यग्दर्शन सहित ही आता है और उस ज्ञानके प्राप्त होनेपर जीव कदाचित् मिथ्यात्वके बीचमें आजाय तो भी कोटाकोटि सागर प्रमाण कालसे अधिक कर्मबन्धन वह जीव नहीं करता है, क्योंकि-"जो ज्ञानी है वह कर्मबन्धसे संसारमें कभी नहीं डूबता" ऐसा वचन है। इसी अभिप्रायसे महानिशीथ सूत्रमें नन्दिषेण अधिकारमें ज्ञान गुण अप्रतिपाती कहा है अर्थात् ज्ञान गुण हुए पीछे पुनः उसका प्रतिपात (अध:पतन ) नहीं होता है / और उत्तराध्ययनमें ऐसा कहा है कि “जैसे सूत्र (तागे) सहित सुई नष्ट नहीं होती किन्तु वस्त्र आदिमें प्रवेश करके पुनः निकल आती है, इसी प्रकार सूत्र (ज्ञान ) सहित जीव भी संसारमें गया हुआ नष्ट नहीं होता है / 1 / " यहां यह बृहत्कल्पकी गाथा भी है-“गीतार्थ केवली जाननेवाले, कहनेवाले, रागद्वेषरहित, और अनन्तकायवर्जक इन भेदोंसे चार प्रकारके कहे गये हैं।” “गीतार्थके वचनोंसे हालाहल विषको पीना चाहिये और अगीतार्थके वचनोंसे अमृत भी नहीं पीना चाहिये / 1 / " “अगीतार्थकुशीलोंका संसर्ग मन, वचन, कायसे छोड़ना चाहिये। क्योंकि, जैसे रास्ते में चोर विघ्नकर्ता होते हैं वैसे वे भी मोक्षमार्गमें विघ्नके कर्ता हैं // 1 // " "शास्त्रके अर्थको करनेकी इच्छावाले प्रमादी ज्ञानीके जो कला आदिसे रहित योग है वही इच्छायोग कहलाता है, यह इच्छायोगका लक्षण है / " ऐसा वचन ललितविस्तर आदि ग्रंथों में है। यह पूर्वोक्त जो वाक्यसमूह 'यहाँ दिया गया है सो इस विषयको पुष्ट करनेके लिये है। यहां आवश्यक गाथा भी है कि-"दर्शनपक्षको धारण करनेवाला श्रावक है / यह चारित्रसे नष्ट है, परन्तु धर्मसे आर्द्र है / और मुनि दर्शन तथा चारित्र दोनोंके पक्षको धारण करते हैं और परलोक अर्थात् अग्रिम भवोंका नाश करते हैं अर्थात् उसी भवसे मोक्ष जाते हैं / 1 / " "शुद्धरत्नकी तरह क्षीणवृत्ति जीवके उसमें रहनेपनेसे तथा उसके अंजनपनेसे समापत्ति कही गई है, यह कथन निस्सन्देह है // 16 // 7 // " Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [257 ज्ञानं हि जीवस्य गुणो विशेषो ज्ञानं भवाब्धेस्तरणे सुपोतः।। ज्ञानं हि मिथ्यात्वतमोविनाशे भानुः कृशानुः पृथुकर्मकक्षे // 8 // भावार्थ:-ज्ञान जो है वह जीवका विशेष गुण है, ज्ञान संसाररूपी समुद्रके तिरनेमें उत्तम नौका (अच्छा जहाज) है / ज्ञान मिथ्यात्वरूपी अंधकारको नष्ट करने में सूर्यके समान है / ज्ञान विशाल कर्मरूपी काष्ठ के भस्म करनेमें अग्निके समान है // 8 // ज्ञानं निधानं परमं प्रधानं ज्ञानं समानं न बहुक्रियाभिः / ज्ञानं महानन्दरसं रहस्यं ज्ञानं परं ब्रह्म जयत्यनन्तम् // 9 // भावार्थ:-ज्ञान सर्वोत्तम खजाना है, ज्ञानही सबमें प्रधान है, ज्ञान अनेक क्रियाओंके समान नहीं है अर्थात् अनेक प्रकार के आचरणोंसे भी विशिष्ट ज्ञानही है, ज्ञानही महा आनन्दरूप सुखका देनेवाला रस है, ज्ञानही परमात्माका रहस्य है और अन्तरहित है, ऐसा ज्ञान सर्वोत्कर्षता करके वर्त्तता है // 9 // बाह्याचारपराश्च बोधरहिता इच्छाख्ययोगोद्धताः ये केऽपि प्रतिसेवनाविधुरितारते निन्दिताः शासने / ये तु स्वच्छमतुच्छवाङमयकलाकौशल्यमाबिभ्रति सार्वोक्तामृतपानसादरधियस्तेभ्यो मुनिभ्यो नमः // 10 // भावार्थ:-जो बाह्यकी क्रियाओंमें तत्पर हैं, ज्ञानकरके रहित हैं, इच्छायोगसे उद्धत हैं और ज्ञानादिको सेवनासे रहित हैं; वे जीव जिनमतमें निन्दित समझे जाते हैं और जो अतिनिर्मल तथा विशाल ज्ञानकलाके कौशल्यको धारण करते हैं और सर्वज्ञके वचनरूपी अमृतके पीनेमें आदरपूर्वक बुद्धिको धारण करनेवाले हैं, उन मुनियोंको मेरा नमस्कार है // 10 // अथ प्रशस्तिः / श्रीवीरपट्टाधिपतिर्बभूव सूरिः सुरत्नाद्विजयो यशस्वी / यस्मिन्समुद्रे विविशुः समग्रा विद्यासुनद्यश्च चतुर्दशापि // 11 // अब प्रन्थकार प्रशस्ति लिखते हैं। श्लोकार्थः-श्रीवोरके पट्टके स्वामी, तथा यशके धारक श्रीरत्नविजयजी सूरि हुए, जिन रत्नविजयजी मूरिरूप समुद्रमें समस्त चौदह विद्यारूप उत्तम 2 नदियें प्रविष्ट थीं अर्थात् सब विद्याओंके धारक रत्नविजयजी सूरि हुए // 11 // तत्पट्टोदयशैलसङ्गतरविमिथ्यातमस्त्रासने भव्याम्भोरुहभासने सुविपुलं ज्ञानात्रभारं वहन् / कुग्राहग्रहतारतारकमिलद्दोषाविलं पुष्करं शोभावद्विवधन्बभूव विजयाच्छीमत्क्षमाधीश्वरः // 12 // Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 238 ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् श्लोकार्थः-उन रत्नविजयसूरिजीके पट्टरूपी उदयाचलके समागमसे सूर्यके समान, और मिथ्वात्वरूपी अंधकारको दूर करनेके लिये तथा भव्यरूपी कमलोंको प्रफुल्लित करनेके लिये ज्ञानरूपी किरणों के समूहको धारण करनेवाले ओर खोटे सिद्धान्तको ग्रहण करनेवाले अच्छे वादीरूप तारोंके संगमसे रात्रिपूर्ण आकाशको शोभायुक्त करने वाले ऐसे श्रीक्षमाविजयजी सूरि हुए // 12 // मदनो निहतः स्वरूपतस्तरसा येन जितः सुराचलः / महसा सहसा सहस्रग्विजितः सौम्यतया सुधाकरः // 13 // वचसा वचसामधीशिता कविताभिः कविरोशवत्तया। हरिरेव जितो यशस्विना विदुषा केन स चोपमीयते युग्मम् / // 14 // श्लोकार्थः-यशके धारक जिन्होंने अपने रूपसे कामदेवको हराया, गुरुतासे सुमेरुको जीता, स्वभावसे उत्पन्न तेजसे सूर्य को जोता और सौम्यतासे चंद्रमाको जीता // 13 // वचनसे बृहस्पतिपनेको, कवितासे शुक्रको और ऐश्वर्यसे इन्द्रको जीता ऐसे उन आचार्योंको विद्वान् किसकी उपमा देवे अर्थात् जो उपमा देने योग्य पदार्थ थे उनको तो उन्होंने अपने गुणोंसे ही जीत लिया, अब उनको किसकी उपमा दी जावे / / 14 / / इन दोनों श्लोकोंको मिलाके अर्थ किया गया है, इसलिये युग्म है। सरस्वती यस्य मुखाग्निरन्तरा प्रकाशमासादयति प्रभाविनी / हिमाद्रिपद्मद्रहतो निरत्यया सरिद्वरेवामरलोकपूजिता // 1 // श्लोकार्थ:-जैसे हिमाचलके पद्मद्रहसे देव तथा मनुष्योंसे पूजित गंगानदी निरन्तर निकलती हैं, उसी प्रकार जिनके मुखसे प्रभावकी धारक सरस्वती सदा प्रकट होती रहती हैं // 15 // - यदीयकोतिर्धवलेष्टमूर्तिखिलोकसंपूर्तिमिति नित्यम् / अनादिगङ्गव जडस्वभावं विहाय वैशद्यमुरीचकार // 16 // श्लोकार्थः-उज्वल इष्ट आकारको धारण करनेवाली जिनकी कीर्ति सदा तीन लोकको पूर्ण ( व्याप्त ) कर रही है सो यह कीर्ति ऐसी सोहती है, मानो अनादि गंगाने अपने जड़ (जल) स्वभावको छोड़कर, सचेतनता (निर्मलता) को ही स्वीकार कर लिया है // 16 // अहो यदीयेन गुणोच्चयेन विहाय संख्यां ववृधे यथास्वम् / अतः कणादोक्तगुणेषु दक्षा गुणत्वजाति न तथा वदन्ति // 17 // श्लोकार्थः-आश्चर्य है कि जिनके गुणोंका समूह संख्याको छोड़कर, इच्छानुसार Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ 239 वृद्धिको प्राप्त हो गये / इसीलिये कणादके कहे हुए गुणोंमें चतुर जन गुणत्व जातिको वैसी नहीं कहते हैं // 17 // यत्कोतिकान्ता व्यभिचारिणीव समुत्सुकैका त्रिदिवंजगाम तत्रामरस्पर्शविशीर्णहारा तस्तार तारोपममौक्तिकः खम् // 18 // श्लोकार्थ:-जिनकी कीर्तिरूपी स्त्री व्यभिचारिणी स्त्रीकी नाई समुत्सुक होकर, एकलीही स्वर्गमें चली गई वहां पर देवोंके संसर्गसे टूटे हारवाली होकर, तारोंके समान जो मोती हैं उनसे आकाशको आच्छादित करती हुई / भावार्थ-ये आकाशमें तारे नहीं है, किन्तु उन आचार्योंकी कीर्तिरूप स्त्रीके हारमेंसे टूटे हुए मोती हैं // 18 // अहीनो नोऽहीनो यदपि वपुषा भूभरजुषा तथाप्यास्ये वाणी ह्रसति तच्छषीति भणनात / अतस्त्वादेाह्मीभणननियमश्चेतसि कृत स्त्रिकालस्त्र लोक्यस्त्रिपदमयसन्दर्भविततः // 16 // श्लोकार्थः-यद्यपि वे पृथ्वीको धारण करने रूपगुणसे शोभायमान शरीरसे अहीन अर्थात् उत्तम थे, तथापि अहि+इन = अहीन अर्थात् शेषनागजी नहीं थे, और उनके मुखमें जो वाणी है वह शैषी इस नामके कहनेसे शब्द करती है, इसलिये उन्होंने अपने मनमें तीन काल, तीन लोक और तीन रत्नोंको रचनासे प्रसिद्ध ओंकाररूप आदिकी ब्रह्मसंबन्धी पाणीके कथन करनेका नियम किया // 19 // स एष गच्छाधिपतिविभाति सूरीश्वरः श्रीविजयाद्दयाख्यः। यस्य प्रभावेण च पञ्चमेऽपि चतुर्थभावं समवाप धर्मः // 20 // श्लोकार्थः-वे उपरोक्त गुणोंके धारक ये गच्छ के स्वामी श्रीदयाविजयजी नामक सूरीश्वरजी सर्वोत्तम रूपसे प्रकाशमान हो रहे हैं, जिनके प्रभावसे पंचमकालमें भी धर्म चतुर्थकालपनेको प्राप्त हुआ अर्थात् पंचमकालमें भी चतुर्थकाल जैसी धर्मोन्नति हुई // 20 // तैरनुग्रहधिया विधिरेष दशितो मयि च शाखसमुत्थः / __तत्कृते च मयका रचितोऽयं ग्रन्थ आगमपदैश्च पुराणः // 21 // श्लोकार्थः-उन श्रीदयाविजयजी सूरीश्वरजीने ही कृपाबुद्धिसे मुझमें शास्त्रका ज्ञान दर्शाया है (प्रकट किया है) और इसलिये उन्हींकी प्रसन्नताके लिये प्राचीन सिद्धान्तोंके पदोंसे यह (द्रव्यानुयोगतर्कणा नामक) ग्रन्थ मैंने रचा है // 21 // तद्गच्छपुष्करदिवाकररश्मितुल्याः श्रीभावसागर इति प्रथिताभिधानाः / Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 240] श्रीमद्रराजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् तदन्तिषच्छीविनितादिवारी / निधोश्वराः शास्त्रविचारदक्षाः // 22 // श्लोकार्थ:-उस गच्छरूपी कमलको सूर्यको किरणके समान श्रीभावसागरजो इस नामसे प्रसिद्ध सूरि हुए और उनके शिष्य शाखविचारमें चतुर भोविनोतसागरजो हुए // 22 // तेषां विनेयलेशेन भोजेन रचितोक्तिभिः। परस्वात्मप्रबोधार्थ द्रव्यानुयोगतर्कणा // 23 // इति श्रीद्रव्यानुयोगतर्कणायां कृतिभोजविनिर्मितायां __ समाप्तिसन्दर्भाध्यायः पञ्चदशः। श्लोकार्थ:-उन श्रीविनीतसागरजोके तुच्छ शिष्य मुझ भोजसागरने परके तथा निजके प्रबोधके लिये वचनोंसे इस द्रव्यानुयोगतर्कणाको निर्मित किया // 23 // श्रीगुरोश्चरणद्वन्द्वसरसीरुहसेवया / ठाकुरप्रसादविदुषा ग्रन्थोऽयं समनूदितः // 1 // इति श्रीपण्डितठाकुरप्रसादप्रणीतभाषानुवादसमलङ्कतायां द्रव्यानुयोगतर्कणायां पञ्चदशोऽध्यायायः // 15 // / शं भूयात् / ... Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, अगास द्वारा संचालित परमश्रुतप्रभावक-मण्डल ( श्रीमद् राजचन्द्र जैन शास्त्रमाला ) के प्रकाशित ग्रन्थोंकी सूची (1) गोम्मटसार-जीवकाण्ड : श्रीनेमिचन्द्रसिद्धान्तचक्रवर्तिकृत मूल गाथायें, श्रीब्रह्मवारी पं. खूबचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीकृत नयी हिन्दीटोका युक्त / अबकी बार पंडितजीने धवल, जयधवल, महाधवल और बड़ी संस्कृतटीकाके आधारसे विस्तृत टीका लिखी है। चतुर्थावृत्ति / मूल्य-नौ रुपये। (2) स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा : . स्वामिकात्तिकेयकृत मूल गाथायें, श्रीशुभचन्द्रकृत बड़ी संस्कृतटीका, स्याद्वाद महाविद्यालय वाराणसीके प्रधानाध्यापक, पं. कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीकत हिन्दीटीका / अंग्रेजी प्रस्तावनायुक्त / सम्पादक-डा. आ. ने. उपाध्ये, कोल्हापुर / मूल्य-चौदह रुपये। (3) परमात्मप्रकाश और योगसार : श्रीयोगीन्दुदेवकृत मूल अपभ्रश-दोहे, श्रीब्रह्मदेवकृत संस्कृत-टीका व पं. दौलतरामजीकृत हिन्दी-टीका। विस्तृत अंग्रेजी प्रस्तावना और उसके हिन्दीसार सहित / महान अध्यात्मग्रन्थ / डा. आ. ने. उपाध्येका अमूल्य सम्पादन / नवीन संस्करण। मूल्य-बारह रुपये। (4) ज्ञानार्णव : श्रीशुभचन्द्राचार्यकृत महान योगशास्त्र / सुजानगढ़निवासी पं. पन्नालालजी बाकलीवालकृत हिन्दी अनुवाद सहित / चतुर्थ सुन्दर आवृत्ति / मूल्य-बारह रुपये। (5) प्रवचनसार : श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचित ग्रन्थरत्नपर श्रीमदमृतचन्द्राचार्यकृत तत्त्वप्रदीपिका एवं श्रीमज्जयसेनाचार्यकृत तात्पर्यवृत्ति नामक संस्कृत टीकायें तथा पांडे हेमराजजी रचित बालावबोधिनी भाषाटीका। डा. आ. ने. उपाध्येकृत अध्ययनपूर्ण अंग्रेजी अनुवाद और विशद प्रस्तावना आदि सहित आकर्षक सम्पादन / तृतीयावृत्ति। . मूल्य-पन्द्रह रुपये। (6) बृहद्रव्यसंग्रह : आचार्य नेमिचन्द्रसिद्धांतिदेवविरचित मूल गाथा, श्रीब्रह्मदेवविनिर्मित संस्कृतवृत्ति और पं. जवाहरलालशास्त्रीप्रणीत हिन्दी-भाषानुवाद सहित। षड्द्रव्यसप्ततत्त्वस्वरूपवर्णनात्मक उत्तम ग्रन्थ / तृतीयावृत्ति। मल्य-पांच रुपये पचास पैसे। (7) पुरुषार्थसिद्धयुपाय : मल इलोक। पं. टोडरमल्लजी तथा पं. दौलतरामजीकी टीकाके Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [2] आधार पर स्व. पं. नाथूरामजी प्रेमी द्वारा लिखित नवीन हिन्दी टीका सहित / श्रावक-मनिधर्मका चित्तस्पर्शी अद्भुत वर्णन / पंचमावृत्ति। मूल्य-तीन रुपये पच्चीस पैसे। (8) अध्यात्म राजचन्द्र : श्रीमद् राजचन्द्रके अद्भुत जीवन तथा साहित्यका शोध एवं अनुभवपूर्ण विवेचन डा. भगवानदास मनसुखभाई महेताने गुर्जरभाषामें किया है। मूल्य-सात रुपये। (9) पंचास्तिकाय : * श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचित अनुपम ग्रन्थराज / आ. अमृतचन्द्रसूरिकृत -- समयव्याख्या' एवं आचार्य जयसेनकृत तात्पर्यवृत्ति' - नामक संस्कृत टीकाओंसे अलंकृत और पांडे हेमराजजी-रचित बालावबोधिनी भाषा-- टीकाके आधार पर पं. पन्नालालजी बाकलीवालकृत प्रचलित हिन्दीअनुवाद सहित / तृतीयावृत्ति / मूल्य-सात रुपये। (10) अष्टप्राभृत: . श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्य विरचित मूल गाथाओं पर श्रीरावजीभाई देसाई द्वारा गुजराती गद्य-पद्यात्मक भाषान्तर / मोक्षमार्गकी अनुपम भेंट। मूल्य-दो रुपये मात्र / (11) भावनाबोध--मोक्षमाला : श्रीमद् राजचन्द्रकृत / वैराग्यभावना सहित जैनधर्मका यथार्थसवरूप दिखाने वाले 108 सुन्दर पाठ हैं। मूल्य-एक रुपया पचास पैसे। (12) स्याद्वाद मंजरी: श्रीमल्लिषेणसूरिकृत मूल और श्रीजगदीशचन्द्रजी शास्त्री एम. ए., पी-एच. डी. कृत हिन्दी-अनुवाद सहित / न्यायका अपूर्व ग्रन्थ है। बड़ी खोजसे लिखे गये 13 परिशिष्ट हैं। मूल्य-दस रुपये। (13) गोम्मटसार-कर्मकाण्ड : श्रीनेमिचन्द्रसिद्धान्तचक्रवर्तिकृत मूल गाथाएँ, स्व. पं. मनोहरलालजी शास्त्रीकृत संस्कृतछाया और हिन्दीटीका। जैनसिद्धांत-ग्रन्थ है। तृतीयावृत्ति / मूल्य-सात रुपये। (14) इष्टोपदेश: श्रीपूज्यपाद-देवनन्दिआचार्यकृत मूल श्लोक, पंडितप्रवर आशाधरकृत संस्कृतटीका, पं. धन्यकुमारजी जैनदर्शनाचार्य एम. ए. कृत हिन्दीटीका, स्व. बैरिस्टर चम्पतरायजोकृत अंग्रेजीटीका तथा विभिन्न विद्वानों द्वारा रचित हिन्दी, मराठी, गुजराती एवं अंग्रेजी पद्यानुवादों सहित भाववाही आध्यात्मिक रचना। द्वितीय नयी आवृत्ति। मूल्य-दो रुपए पचास पैसे। (15) समयसार : ___ आचार्य श्रीकुन्दकुन्दस्वामी-विरचित महान अध्यात्मग्रन्थ, तीन टीकाओं सहित नयी आवृत्ति। मूल्य-सोलह रुपये। Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (16) लब्धिसार (क्षपणासारगर्भित): श्रीमन्नेमिचन्द्रसिद्धांतचक्रवर्ती-रचित करणानुयोग ग्रन्थ। पं. प्रवर टोडरमल्लजी कृत बड़ी टीका सहित पुनः छप रहा है। (17) द्रव्यानुयोगतर्कणा : श्रीभोजसागरकृत, अप्राप्य है। पुनः सुन्दर सम्पादन सहित छपेगा। (18) न्यायावतारः ____महान् ताकिक श्री सिद्धसेनदिवाकरकृत मूल श्लोक, व श्रीसिद्धषिगणिकी संस्कृत टीकाका हिन्दी-भाषानुवाद जैनदर्शनाचार्य पं. विजयमूर्ति एम. ए. ने किया है ! न्यायका सुप्रसिद्ध ग्रन्थ है। मूल्य-पांच रुपये। (19) प्रशमरतिप्रकरण: आचार्य श्रीमदुमास्वातिविरचित मूल श्लोक, श्रीहरिभद्रसूरिकृत संस्कृतटीका और पं. राजकुमारजी साहित्याचार्य द्वारा सम्पादित सरल अर्थ सहित। वैराग्यका बहुत सुन्दर ग्रन्थ है। मूल्य-छः रुपये। (20) सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्र (मोक्षशास्त्र ) : ____ श्रीमत् उमास्वातिकृत मूल सूत्र और स्वोपज्ञभाष्य तथा पं. खूबचन्दजी सिद्धांतशास्त्रीकृत विस्तृत भाषाटीका। तत्त्वोंका हृदयग्राह्य गम्भीर विश्लेषण। मूल्य-छः रुपये। (21) सप्तभंगीतरंगिणी: श्रीविमलदासकृत मूल और स्व. पंडित ठाकुरप्रसादजी शर्मा व्याकरणाचार्यकृत भाषाटीका। नव्यन्यायका महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ / अप्राप्य। ( पुनः नवीन छपेगा ) (22) इष्टोपदेश : मात्र अंग्रेजी टीका व पद्यानुवाद / मूल्य-पचहत्तर पैसे। (23) परमात्मप्रकाश मात्र अंग्रेजी प्रस्तावना व मूल गाथायें / मूल्य-दो रुपये। (24) योगसार: मूल गाथायें और हिन्दीसार / मूल्य-पहचत्तर पैसे। (25) कातिकेयानुप्रक्षा: मात्र मूल, पाठान्तर और अंग्रेजी प्रस्तावना। मूल्य-दो रुपये पचास पैसे। (26) प्रवचनसार : अंग्रेजी प्रस्तावना, प्राकृत मूल, अंग्रेजी अनुवाद तथा पाठान्तर सहित / मूल्य-पांच रुपये। Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [4] (27) उपदेशछाया आत्मसिद्धि : __ श्रीमद् राजचंद्रप्रणीत / अप्राप्य / (28) श्रीमद् राजचन्द्र : _ श्रीमद्के पत्रों व रचनाओंका अपूर्व संग्रह / तत्त्वज्ञानपूर्ण महान् ग्रन्थ है / म० गांधीजी की महत्त्वपूर्ण प्रस्तावना। ___अधिक मूल्यके ग्रंथ मंगानेवालोंको कमिशन दिया जायेगा। इसके लिए वे हमसे पत्रव्यवहार करें। श्रीमद् राजचंद्र आश्रमकी ओरसे प्रकाशित गुजराती ग्रन्थ 1. श्रीमद् राजचन्द्र 2. अध्यात्म राजचन्द्र 3. श्रीसमयसार ( संक्षिप्त ) 4. समाधि सोपान ( रत्नकरण्ड श्रावकाचारके विशिष्ट स्थलोंका अनुवाद ) 5. भावनाबोध-मोक्षमाला 6. परमात्मप्रकाश 7. तत्त्वज्ञान तरंगिणी 8. धर्मामृत 9. स्वाध्याय सुधा 10. सहजसुखसाधन 11. तत्त्वज्ञान 12. श्रीसद्गुरुप्रसाद 13. श्रीमद् राजचन्द्र जीवनकला 14. सुबोध संग्रह 15. नित्यनियमादि पाठ 16. पूजा संचय 17. आठ दृष्टिनी सज्झाय 18. आलोचनादि पद-संग्रह 19. पत्रशतक 20. चैत्यवंदन चोवीसी 21. नित्यक्रम 22. श्रीमद् राजचंद्र जन्मशताब्दी महोत्सव-स्मरणांजलि 23. श्रीमद् लघुराज स्वामि (प्रभुश्री ) उपदेशामृत 24. आत्मसिद्धि शास्त्र 25. नित्यनियमादि पाठ (हिन्दी) 23. Shrimad Rajchandra, A Great Seer 27. Mokshamala 28. सुवर्णमहोत्सव-आश्रम परिचय 29. ज्ञानमंजरी 30. अनित्यपंचाशत् तथा हृदय प्रदीप 31 अध्यात्मरस-तरंग 32. आत्मानुशासन / __ आश्रमके गुजराती प्रकाशनोंका पृथक् सूचीपत्र मंगाइये / सभी ग्रंथों पर डाकखर्च अलग रहेगा। प्राप्तिस्थान : (1) श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, स्टेशन-अगास __पो. बोरिया, वाया-आणंद [ गुजरात ] (2) परमश्रुतप्रभावक-मंडल [ श्रीमद् राजचन्द्र जैन शास्त्रमाला ] चौकसो चेम्बर, खाराकुंवा, जौहरी बाजार, बम्बई-२ पल्लिका प्रिन्टरी, वलासण, आणंद होकर, जिला खेड़ा [गुजरात राज्य] Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________