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श्रीमद्रराजचन्द्रजैनशाखमालायाम् शब्दा एव “दण्डोऽस्यास्तीति दण्डी", विषाणमस्यास्तीति विषाणीत्यत्र क्रियाप्रधानत्वात् । पञ्चत्रयी तु शब्दानां व्यवहारमात्रा न निश्वयादित्ययं नयः स्वीकुरुते । उदाहरन्ति यथेन्दनमनुभवन्निन्द्रः शकनक्रियापरिणतः शक्रः, पूरणप्रवृत्तः पुरन्दर इत्युच्यते ।। १६ ।।
व्याख्यार्थः-जैसे एवंभूतनय शब्दोंको प्रवृत्तिनिमित्त भूतक्रियासे आविष्ट ( युक्त ) अर्थको ही वाच्यत्वरूपसे स्वीकार करता है; इसलिये यह एवंभूतनामक है; अर्थात् जिस क्रियारूपमें परिणत अर्थ है; यही वाच्य है। और समभिरूढ़नय तो इन्दनादि क्रिया अर्थात् ऐश्वर्य साहित्य हो वा न हो बासवआदि शब्दोंकी इन्द्रआदि शब्द वाच्यताको अंगीकार करता है; जैसे पशुविशेष ( गो ) में गमनआदि क्रिया हो वा न हो गो व्यपदेश ( कथन ) होता है; क्योंकि -- ऐसे ही रूढिका सद्भाव होता है; और एवंभूत नय तो इन्दन अर्थात् ऐश्वर्यआदिके साहित्यरूप क्रियामें परिणत जब अर्थ है; उस क्रियाके कालमें ही इन्द्रआदि नामको मानता है; और इस एवंभूतनयकी अपेक्षासे कोई अक्रियाशब्द अर्थात् क्रियावाचक न हो ऐसा शब्द नहीं है; क्योंकि इस नयके अनुसार गो, अश्वआदि शब्द जो जातिवाचकरूपसे इष्ट हैं; वे भी क्रियावाचक हैं; जैसे गमन क्रिया करनेसे गो, और शीघ्र गमन करनेसे अश्व इस प्रकारसे क्रियापरिणत अर्थको कहता है; और उस अर्थको भी क्रियाके समयमें ही मानता है; और क्रियाके समयको उल्लंघन करके उस अर्थको नहीं मानता तात्पर्य यह है; कि-जैसे “ राजते (शोभते) इति राजा" अर्थात् छत्र चामरआदिसे जो शोभित हो वह राजा है; यहांपर राजन् शब्दकी पूर्व कथित व्युत्पत्तिसे जब कोई मनुष्य सभामें स्थित होगा और उसके मस्तकपर छत्र धरा हुआ होगा और दो चमरोंसे झूल रहा ( वीजित ) होगा तभी वह राजा इस व्यपदेशको प्राप्त होता है; स्नानआदिके समय में जब कि-सभा; छत्र, चामरआदि राजाके चिन्ह नहीं हैं; उस समय वही मनुष्य राजा नहीं है और शुक्र, नील इत्यादिक शब्द गुणवाचकरूपसे अभीष्ट हैं; वे भी इस नयके अनुसार क्रियाशब्द ही हैं; जैसे शुचि होनेसे शुल्क, नील रंग करनेसे नीलआदि भी क्रियाशब्द ही हैं। देवदत्त, यज्ञदत्त आदि जो यदृच्छा ( संज्ञा वा नामवाचक ) शब्दरूपसे अभीष्ट हैं, वह भी क्रियाशब्द ही हैं; जैसे देव इसको देवे, इत्यादि क्रियारूपता इनमें भी विद्यमान है; तथा संयोगी द्रव्य वाचक शब्द तथा समवायी द्रव्यवाचक शब्द अर्थात् संयोग सम्बन्धसे द्रव्यवाचक और समवाय सम्बन्धसे द्रव्यवाचकत्वरूपसे जो इष्ट हैं, वह भी इस नयके अनुसार क्रियाशब्द ही हैं; जैसे-दंड है; जिसके वह दंडी तथा जिसके विषाण (श्रृंग) सींग है; वह विषाणी इत्यादि शब्दोंमें भी क्रियाकी प्रधानता है । और जाति, गुण, संज्ञा, द्रव्य, तथा क्रिया इन पांच प्रकारसे जो शब्दोंकी प्रवृत्ति कही गई है; वह तो केवल व्यवहारनयसे है; न किनिश्चयनयसे ऐसा यह नय मानता है; और इसी व्यवस्थासे अर्थात् संपूर्ण शब्दोंकी
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