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द्रव्यानुयोगतर्कणा शब्द भिन्न अर्थवाचक है; और कुम्भशब्द भिन्नार्थवाचक है; इसलिये शब्द के भेदसे अर्थमें भेद है; और शब्द तथा अर्थकी जो एकता है; वह तो शब्दआदि नयकी वासनासे है, अर्थात् वह एकता शब्दनयका ही भेद है; ऐसा समझना चाहिये और पर्याय शब्दोंमें व्युत्पत्तिके भेदसे अर्थके भेदको जो आरूढ करै वह समभिरूढ कहलाता है; यह इसका लक्षण है; जैसे-समर्थ होनेसे शक्र (शकनात् शक्रः) अनेक प्रकारके ऐश्वर्योंसे संयुक्त होनेसे इन्द्र (इन्दति ऐश्वयं प्राप्नोतीति इन्द्रः) शत्रुवोंके नगरोंको विदारण करनेसे पुरंदर (पूः दारयतीति पुरन्दरः) इत्यादि समभिरूढ नयके उदाहरण समझने चाहिये । शब्दनय तो पर्यायके अभेदमें भी लिंग वचनआदिके निमित्तसे अर्थभेद मानता है; और समभिरूढ़नय तो पर्यायोंके भेदमें भिन्न २ अर्थोंको स्वीकार करता है; जैसा कि-पूर्व उदाहरणोंसे दर्शा चुके हैं । और जो अर्थनिष्ट अभेद पर्यायवाचक शब्दोंका है; वह तो अर्थात् (अर्थसे) प्राप्त होगा जैसे शक्र, इन्द्रआदि शब्दोंका उन उन कार्योंसे भेद रहते भी उसी शचीके पतिरूप अर्थको सब कहते हैं ॥१५॥
अथैवंभूतनयं प्रकाशयन्ति । अब एवंभूतनयका प्रकाश करते हैं ।
क्रियापरिणतार्थ चेदेवंभूतो नयो वदेत् ।
नवानां च नयानां स्युर्भेदाः सिद्धिगुन्मिताः॥१६॥ भावार्थ:-क्रियाके परिणाम कालमें जो अर्थ हो उसको एवंभूत सप्तम नय कहता है; इस प्रकारसे द्रव्यार्थिकआदि नव ९ नयोंके भेद सिद्धि ८ और दृक् (दृष्टि) २ “ अङ्कानां वामतो गतिः” इस न्यायसे २ और ८ अर्थात् अट्ठाईस भेद हैं ।।१६।।
व्याख्या । यथा- एवंभूतो नयः शब्दानां प्रवृत्तिनिमित्तभूतक्रियाविष्टमर्थ वाच्यत्वेना भ्युपगच्छन्नेवंभूत इति । सममिरूढनयो हीन्दनादिक्रियायां सत्यामसत्यां च वासवादेरर्थस्येन्द्रादिव्यपदेशमभिति, पशुविशेषस्य गमनक्रियायां सत्यामसत्यां वा गोव्यपदेशवत्तथा रूढः सद्भावात् । एवंभूतः पुनरिन्दनादिक्रियापरिणतमर्थं तत्क्रियाकालं इन्द्रादिव्यपदेशमाजमभिमन्यते । न हि कश्चिदक्रियाशब्दोऽस्यास्ति । गौरश्व इत्यादिजातिशब्दाभिमतानामपि क्रियाशब्दत्वाग्दच्छ तीति गौः, आशुगामित्वादश्वः, इति क्रियापरिणतार्थं क्रियया परिणतमर्थ वदेत् क्रियासमय एव मनुते । परन्तु क्रियासमयमुल्लङ्घय न मनुत इति भावार्थः यथा राजा इति सभायां सत्यां छो शिरसि ध्रियमाणे चामराम्यां च वीज्यमाने सत्येव व्यपदेशं लमते । अन्यत्र स्नानादिवेलायां सभाछत्रचामरादिभिस्तचिह्न रसद्भी राजापि नास्तीति । अथ च गुणशब्दा अपि शुक्लो नील इत्यादयो गुणशब्दाभिमताः शब्दाः क्रिया एव, शुचिभवनाच्छुल्को नीलनान्नील इति । देवदत्तो यज्ञदत्त इति यदृच्छाशब्दाभिमता अपि क्रियाशब्दादेव एनं देयादिति । संयोगिद्रव्यशब्दाः समवापिद्रव्यशब्दाश्चाभिमताः क्रिया
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