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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् भावार्थः-पर्यायके आधारसे जाननेमें आता हुआ जो द्रव्यभाव है; उसको द्रव्यत्वनामा तृतीय गुण कहते हैं। और जो प्रमाणसे जानने में आता है; वह प्रमेयत्व नामक चतुर्थ गुण है ॥३॥
____ व्याख्या । द्रव्यं द्रवति तांस्तान्पर्यायान्गच्छतीति द्रव्यं तस्य मावस्तत्त्वम् । द्रव्यमावो हि पर्यायाधारताऽभिव्यङ्गयजातिविशेषः । "द्रव्यत्वं जातिरूपत्वाद् गुणो न भवति" ईदृग् नैयायिकादिवासनया आशङ्का न कर्त्तव्या । यतः सहभाविनो गुणाः क्रमभुवः पर्यायाः, ईदृश्येव जैनशासने व्यवस्थास्तीति । द्रव्यत्वं चेद्गुणः स्याद्रू पादिवदुत्कर्षापकर्षभागि स्यादिति तु कुचोद्यमेकत्वादिसंख्यायाः परमतेऽपि व्यभिचारेण तथा व्याप्त्यमावादेव निरसनीयम । ३ । प्रमाणेन प्रत्यक्षादिना परिच्छेद्य यद पं प्रमाणविषयत्वं प्रमेयत्वं तदित्युच्यते । तदपि कथंचिदनुगतसर्वसाधारणं गुणोऽस्ति । परम्परासंबन्धेन प्रमात्वज्ञानेनापि प्रमेयव्यवहारो जायते । तत: प्रमेयत्वं गुणस्वरूपादनुगतमस्तीति ॥ ४ । ३ ।।
____ व्याख्यार्थः-जो उन उन पर्यायोंको प्राप्त हो उसे द्रव्य कहते हैं; और उस द्रव्यका जो भाव है; उसको द्रव्यत्व कहते हैं । तथा द्रव्यका जो भाव है; वह पर्यायरूप आधारतासे अभिव्यंग्य (जानने योग्य ) जातिविशेष है। " द्रव्यत्व यह जातिरूप है; इसलिये गुण नहीं होता है" इस प्रकारकी आशंका नैयायिकोंकी वासनासे न करनी चाहिये । क्योंकि सहभावी गुण हैं और क्रमसे भावी ( होनेवाले ) पर्याय हैं; ऐसी ही व्यवस्था जैनशास्त्रमें कीगई है । और द्रव्यत्वमें जो गुण मानोगे तो रूपादिके समान उत्कर्ष तथा अपकर्षका भागी द्रव्यत्व होगा अर्थात् द्रव्यत्व जब गुण होगा तब रूपआदि गुणोंमें जैसे हीनता अधिकता रहती है। वैसे द्रव्यत्वमें भी रहेगी इत्यादि कुचोद्यका तो "परमतमें जो एकत्वआदि संख्याको गुण माना है; इसलिये व्यभिचारसे और नित्य परमाणुआदिगत एकत्वको नित्य माना है; इसलिये जहां गुणत्व है वहां उत्कर्ष (अधिक) अपकर्ष( हीन )की भागिता है; ऐसी व्याप्तिका अभाव होनेसे ही तिरस्कार करना चाहिये ॥३॥ प्रत्यक्ष आदिरूप प्रमाणसे जो परिच्छेद्य ( जाना जाय) ऐसा जो प्रमाणका विषय उसको प्रमेयत्व गुण कहते हैं । वह प्रमेयत्व भी कथंचित् सर्व प्रमेयोंमें अनुगत गुण है। और परम्परासंबंधसे प्रमात्वरूप ज्ञानसे भी प्रमेयका व्यवहार होता है। इसलिये प्रमेयत्वगुण स्वरूपसे अनुगत है। ऐसे प्रमेयत्वनामक चतुर्थ गुण है । ४ । ॥३॥
अगुरुलघुता सूक्ष्मा वाग्गोचरविज्जिता ।
प्रदेशत्वमविभागी पुद्गलः स्वाश्रयावधि ॥ ४ ॥ भावार्थः-वाणीका अविषय तथा सूक्ष्म अगुरुलघुता नाम पंचम गुग है। तथा विभागरहित पुद्गलके अधिकरण मात्र अवधिसहित प्रदेशत्व यह प गुग है ॥४॥
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