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द्रव्यानुयोगता
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भावार्थ:- कर्मोंकी उपाधिके कारण अशुद्धद्रव्यार्थिक चतुर्थ भेद कहागया है; क्योंकि-कर्मोंकी प्रकृतिमय होनेसे क्रोधादिकी उत्पत्तिद्वारा आत्मा, क्रोधी मानी इत्यादि व्यवहारयुक्त होता है ॥ १३ ॥
व्याख्या 1 कर्मोपाधेः एकाशात् कर्ममिश्रजीवद्रव्यस्याशुद्धत्वं जायते । ततः कर्मोपाधेर शुद्धद्रव्यार्थिकचतुर्थी भेद: कथितः । यतः कर्मोपाधिसापेक्षोऽशुद्धद्रव्याथिक इति भेदः । अस्य च लक्षण कथयति । यथा कर्मभावमयः कर्मणां ज्ञानावरणादीनां मादाः प्रकृतयस्ते प्रचुरा यत्रेति कर्मभावमय आत्मा तादृग्रूपो लक्ष्यते । येन येन कर्मणा आगत्यात्मा निरुद्धयते तदा तत्तत्कर्मस्वभावतुल्यपरिणतः सन् व्यवह्रियते । यतः क्रोधोदयाजीवः क्रोधीति व्यपदिश्यते मानकर्मोदयाजीवो मानीति व्यपदिश्यते । एवं यदा यद्रव्यं येन भावेन परिणमति तदा तद्द्रव्यं तन्मयं कृत्वा ज्ञेयम् । यथा लोहोऽग्निना परिणतो यदा काले प्राप्यते तदा अग्निरूप एवोद्भाव्यते न तु लोहरूपः । एवमात्मापि मोहनीयकर्मोदयेन यदा क्रोधादिपरिणतः स्यात्तदा क्रोधादिरूप एव बोद्धव्यः । अत एवाष्टावात्मनो भेदा: सिद्धान्ते व्याख्याता इति ॥ १३ ॥
व्याख्यार्थः——कर्मोंकी उपाधि से अर्थात् आत्मा जब कर्मोंको ग्रहण करता है; तब वह कर्मोपाधिसहित कहाता है; और कर्मोंसे मिलित होनेसे जीवद्रव्यके अशुद्धता उत्पन्न होती है, इस कारण कर्मरूप उपाधिसे अशुद्ध चौथा भेद द्रव्यार्थिक कहागया है; क्योंकिकर्मोपाधिकी अपेक्षा रखनेसे इस चतुर्थ भेदका नाम अशुद्धद्रव्यार्थिक है । इसका लक्षण कहते हैं; कि—जैसे कर्मभावमय जब आत्मा होता है; अर्थात् कर्म जो ज्ञानावरण दर्शनावरणआदि हैं; उनकी जो प्रकृतियें हैं; वे जब आत्मप्रदेशमें प्रचुर (अधिक ) रूपसे एकत्र हो जाती हैं; उस समय आत्मा है; वह तादृक्रूप अर्थात् कर्मस्वरूप लक्षित होता है; अर्थात् जो जो कर्म आकर आत्माको रोकते हैं; अर्थात् आत्मा जिस जिस कर्मरूपी बंधन से बद्ध होता है तब उस उस कर्मके स्वभाव के तुल्य व्यवहारमें लाया जाता है; क्योंकि-क्रोधके उदयसे जीवको क्रोधी कहते हैं; एवं मानकर्मके उदयसे जीव मानी कहाजाता है । इसी प्रकार जब जो द्रव्य जिस भावसे परिणत होता है तब उसको उस भावरूप करके जानना चाहिये । जैसे अग्निमें गिराहुआ लोह जब अग्निस्वरूपसे परिणत हुआ मिलता है; _अर्थात् साक्षात् अग्निके समान बन जाता है; तब उसको अग्निरूप ही कहते हैं; नकि-लोहरूप । ऐसे ही आत्मारूप द्रव्य भी मोहनीयआदि कर्मोंके उदयसे जब क्रोधादिरूपसे परिणत होवे तब उस आत्माको क्रोधादिरूप ही जानना चाहिये । इस ही कारणसे जैन - सिद्धान्तमें आत्माके आठ भेद वर्णन किये गये हैं अर्थात् इस अशुद्धद्रव्यार्थिकनकी अपेक्षासे आठ कर्मोंकी उपाधिवश जीवके आठ ८ भेद शास्त्रमें कहे गये हैं ॥ १३ ॥
१ जब आत्माके क्रोधादि कर्मका उदय आता है; तब आत्मा उनका स्वरूप ही बनजाता है; उनसे अपने स्वरूपको अलग नहीं कर सकता किन्तु तन्न हो जाता है। इसीसे क्रोत्रीआदि शब्दोंद्वारा व्यवहृत होता है ।
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