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(१०) फिर भी श्रीमद्जीने सौदा रद्द करके मोती उसे वापिस दे दिए। श्रीमद्जीको इस सौदे से हजारोंका फायदा था, तो भी उन्होंने उसकी अन्तरात्माको दुःखित करना अनुचित समझा और मोती लौटा दिए । कितनी निस्पृहता-लोभ वृत्तिका अभाव ! आजके व्यापारियोंमें यदि सत्यता आजाय तो सरकारको नित्य नये नये नियम बनानेकी जरूरत ही न रहे और मनुष्य-समाज सुखपूर्वक जीवन यापन कर सके।
श्रीमद्जीकी दृष्टि बड़ी विशाल थी। आज भी भिन्न भिन्न सम्प्रदायवाले उनके वचनोंका रुचि सहित आदरपूर्वक अभ्यास करते हुए देखे जाते हैं । उन्हें वाडाबन्दी पसन्द नहीं थी। वे कहा करते थे कि कुगुरुओंने लोगोंकी मनुष्यता लूट ली है, विपरीत मार्गमें रुचि उत्पन्न करादी है, सत्य समझानेकी अपेक्षा कुगुरु अपनी मान्यताको ही समझानेका विशेष प्रयत्न करते हैं।
श्रीमद्जीने धर्मको स्वभावकी सिद्धि करनेवाला कहा है। धर्मों में जो भिन्नता देखी जाती है, उसका कारण दृष्टिकी भिन्नता बतलाया है। इसी बातको वे स्वयं दोहे में प्रगट करते हैं:
भिन्न भिन्न मत देखिए, भेद दृष्टिनो एह । एक तत्त्वना मूलमां, व्याप्या मानो तेह ॥ तेह तत्त्वरूप वृक्षनु, आत्मधर्म छे मूल ।
स्वभावनी सिद्धि करे, धर्म ते ज अनुकूल ॥ अर्थात्-भिन्न भिन्न जो मत देखे जाते हैं, वह सब दृष्टिका भेद है । सब ही मत एक तत्त्वके मूलमें व्याप्त हो रहे हैं । उस तत्त्वरूप वृक्षका मूल है आत्मधर्म, जो कि स्वभावकी सिद्धि करता है; और वही धर्म प्राणियोंके अनुकूल है ।
श्रीमद्जीने इस युगको एक अलौकिक दृष्टि प्रदान की है। वे रूढ़ि या अन्धश्रद्धाके कट्टर विरोधी थे। उन्होंने आडम्बरोंमें धर्म नहीं माना था। वे मत-मतान्तर तथा कदाग्रहादिसे बहुत ही दूर रहते थे। वीतरागता की और ही उनका लक्ष्य था ।
पेढ़ीसे अवकाश लेकर वे अमुक समयतक खंभात, काविठा, उत्तरसंडा, नडियाद, वसो और ईडरके पर्वतमें एकान्तवास किया करते थे। मुमुक्षुओंको आत्मकल्याणका सञ्चा मार्ग बताते थे। इनके एक एक पत्रमें कोई अपूर्व रस भरा हुआ है। उन पत्रोंका मर्म समझनेके लिए सन्त-समागमकी विशेष आवश्यकता अपेक्षित है । ज्यों ज्यों इनके लेखोंका शान्त और एकाग्र चित्तसे मनन किया जाता है, त्यों त्यों आत्मा क्षणभरके लिए एक अपूर्व आनन्दका अनुभव करता है । 'श्रीमद् राजचन्द्र' ग्रन्थके पत्रोंमें उनका पारमार्थिक जीवन जहाँ तहाँ दृष्टिगोचर होता है।
___श्रीमद्जीकी भारतमें अच्छी प्रसिद्धि हुई। मुमुक्षुओंने उन्हें अपना मार्ग-दर्शक माना। बम्बई रहकर भी वे पत्रों द्वारा मुमुक्षुओंको शंकाओंका समाधान करते रहते थे । प्रातःस्मरणीय श्री रघुराज स्वामी इनके शिष्योंमें मुख्य थे । श्रीमद्जी द्वारा उपदिष्ट तत्वज्ञानका संसार में प्रचार हो तथा अनादिसे परिभ्रमण करनेवाले जीवोंको मोक्षमार्ग मिले, इस उद्देश्यसे स्वामीजीके उपदेशसे
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