SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 113
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ९२ ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् हुये ।२। अब इन दोनों भेदोंके उदाहरण कहते हैं। उनमें सामान्यसंग्रहभेदक व्यवहारनयका उदाहरण यह है कि जीव और अजीव दोनों द्रव्य हैं, यहांपर चेतन जीव तथा अचेतन अजीव, इन दोनोंके संग्रहका सामान्य विषय होनेसे दोनों द्रव्य हैं। यह व्यवहार होता है। यदि यह कहो कि-चेतन तथा अचेतन दोनोंके विरुद्ध धर्म होनेसे एक द्रव्य संज्ञा कैसे हुई ? तो इस रीतिसे है; कि-दूधातुका गमन अर्थ है; उससे यत् प्रत्यय कहनेसे दू+य = द्रो+य = द्रव्य शब्द सिद्ध होता है। जो उन २ अनेक पर्यायोंमें प्राप्त हो वह द्रव्य है; अर्थात् समस्त पर्सायोंमें त्रिकालमें अनुगामी जो वस्तुका अंश है; वह सर्वत्र अनुगत होनेसे द्रव्य है। इस व्युत्पत्तिसे अपने गुण पायोंसे युक्त होनेसे जीव अजीव दोनोंका द्रव्य इस साधारण पदसे ग्रहण होता है; क्योंकि-जीव द्रव्य भी देव, मनुष्य, तथा सिद्ध, पर्सायोंको प्राप्त होता है; परन्तु चेतन जीवरूपता सब पर्सायोंमें अनुगत है, अजीव मृत्तिका सुवर्णआदि द्रव्य भी घट शराब तथा कुंडल कटकआदि पर्सायोंमें प्राप्त होता है; किन्तु मृत्तिका तथा सुवर्ण अंश सर्वत्र अनुगत है, इसलिये द्रव्य यह पद दोनोंकेलिये सामान्यसंग्रह है; उसमें जीवद्रव्य तथा अजीव द्रव्य यह सामान्यभेदक व्यवहारनय है; ( अर्थात् द्रव्य सामान्यमें जीव और अजीव इस व्यवहारके लिये इस नयने भेद कर दिया, इसी हेतुसे यह सामान्यसंग्रहभेदक व्यवहार नय प्रथम भेद है) और जीव संसारी तथा सिद्ध (मुक्त ) दो प्रकारके होते हैं, इस कथनमें चेतनत्वधर्मयुक्त जीव जो अनन्त संख्यायुक्त हैं, उनका संसारित्व तथा सिद्धत्व यह विशेष व्यवहार है, तात्पर्य यह है; कि-द्रव्य सामान्यमें जो विशेष द्रव्य जीव है; उस जीव सामान्य द्रव्यमें भी संसारित्व तथा सिद्धत्व यह विशेषव्यवहार हुआ, इस हेतुमें यह विशेषसंग्रहभेदक व्यवहारनय द्वितीय भेद है। इसी प्रकार उत्तरोत्तर विवक्षाके अनुसार सामान्यविशेषकी भावना करते चला जाना चाहिये जहांतक व्यवहारका अन्त नहीं है; वहां तक बराबर सामान्यविशेष भाव लगा है। जैसे संसारी तथा सिद्ध ये दो भेद होनेपर भी पुनः संसारीको सामान्य मानकर उनके देव मनुष्य नारक तथा तिर्यश्चअनेक भेद हैं, पुनः सामान्य देवोंके वैमानिक, व्यन्तर भवनवासीआदि अनेक भेद हैं, पुनः वैमानिकआदिके भी अनेक भेद हैं। ऐसे ही मनुष्यआदिके भेद, अवान्तर भेदका व्यवहार करते चले जावो। इस व्यवहार नयका यह प्रयोजन है; कि-सामान्य संग्रहसे व्यवहार नहीं चलता क्योंकि-केवल द्रव्य कहनेसे लोक व्यवहार नहीं चलता, द्रव्य लाओ ऐसा कहनेसे यह आकांक्षा अवश्य होती है; कौन द्रव्य, जीव वा अजीव; । द्रव्यसामान्यकी अपेक्षासे तो जीवद्रव्य विशेष है, परन्तु सब प्रकारके जीव जैसे मनुष्य जीव, देव जीव इत्यादि विवक्षासे जीव भी सामान्य है। २ इसलिये सब जीवकी अपेक्षासे जीव सामान्य तथा विशेष अपेक्षाभेदसे हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy