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________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [९३ उस जीवआदि द्रव्यमें भी कौन जीव संसारी अथवा सिद्ध, संसारीमें भी कौन मनुष्य मनुष्योंमें भी कौन मनुष्य जैन अथवा वैष्णव इत्यादि रीतसे सर्वत्र सामान्य विशेषभाव की व्यवस्था समझ लेना ॥१३॥ अथ ऋजुसूत्रनयस्य भेदमाह । अब ऋजुसूत्रनामक चतुर्थ नयके भेदको कहते हैं । स्वानुकूलं वर्त्तमानं ऋजुसूत्रो हि भाषते । तत्र क्षणिकपर्यायं सूक्ष्मः स्थूलो नरादिकम् ॥१४॥ भावार्थः-अपने अनुकूल केवल वर्तमान कालवर्ती विषयको ऋजुसूत्र नय कहता है; उसमें भी सूक्ष्म क्षणिकपर्यायको और स्थूल मनुष्यआदिको कहता है ॥१४॥ व्याख्या। हि निश्चितं ऋजुसूत्रो नयो वर्तमानं केवलमतीतानागतकालरहितं भाषते मनुते । तदपि कीदृशं स्वानुकूलं स्वस्यात्मनोऽनुकूलं कार्यप्रत्ययं मनुते परन्तु परप्रत्ययं न मनुते । सोऽपि ऋजुसूत्रो द्विभेदो द्विप्रकार एकः सूक्ष्मऋजुसूत्रः, अपरः स्थूलऋजुसूत्रः। तत्र सूक्ष्मस्तु क्षणिकपर्यायं मनुते, क्षणिकाः पर्यायाः परतोऽवस्थान्तरभेदात्पर्यायाणां स्ववर्त्तमानतायां क्षणावस्थायित्वमेवोचितमिति । स्थूलस्तु मनुष्यादिपर्याय वर्त्तमानं मनुतेऽतीतानागतादिनारकादिपर्यायं न मनुते । यो हि व्यवहारनयः कालत्रयवर्तिपर्यायग्राहकस्तस्मास्थूलऋजुसूत्रो व्यवहारनयेन संकरत्वं न लभते । अथ च ऋजुवर्त्तमानक्षणस्थायिपर्यायमात्रप्राधान्यतः सूत्रयन्नभिप्राय ऋजुसूत्रनय इत्यतीतानागतकाललक्षणकौटिल्यवैकल्यात्प्राञ्जलमिति ॥१४॥ ___ व्याख्यार्थः-निश्चयरूपसे ऋजुसूत्रनय भूत भविष्यसे रहित केवल वर्तमान कालको स्वीकार करता है; और वह भी अपने आत्माके अनुकूल कार्यके प्रत्ययको मानता है; न कि-पर प्रत्ययको । यह ऋजुसूत्र नय भी दो प्रकारका है; एक सूक्ष्म ऋजुसूत्र और दूसरा स्थूलऋजुसूत्र । उनमेंसे सूक्ष्मऋजुसूत्र क्षणिक पर्यायको मानता है; क्योंकि इस नयकी अपेक्षासे सब पर्याय क्षणिक हैं; अन्यकी अपेक्षासे अवस्थान्तरका भेद होनेसे पर्यायोंकी निजवर्तमानतामें क्षणिकस्थायिताका मानना ही उचित है । और स्थूलऋजुसूत्र वर्तमान मनुष्यादि पर्यायको मानता है; और अतीत तथा अनागत (भविष्य) नारक आदि पर्यायको नहीं मानता है । जो व्यवहार नय है; वह त्रिकालवर्ती पर्यायोंका ग्राहक है; इस कारण उस व्यवहारनयके साथ स्थूलऋजुमूत्र संकर दोषताको नहीं प्राप्त होता क्योंकि-भूतभविष्यरूप कुटिलता दोषसे रहित ऋजु (सरल) केवल वर्तमानक्षणस्थायी पर्यायमात्रको सूचित (ग्रहण) करनेरूप जिस नयका प्रधानतासे अभिप्राय है; उसको ऋजुसूत्र कहते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
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