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द्रव्यानुयोगतर्कणा
[९१ सर्वत्र 'अनुवृत्तिरूप लिंगसे अनुमानसिद्ध जो सर्वत्र सत्तारूप एकत्व है; उस सत्वरूप एकत्वसे संपूर्ण पदार्थोंका संग्रह होता है । तात्पर्य यह कि-इस परसंग्रहमें एक सत्रूपसे संपूर्ण वस्तुमात्रका ग्रहण होता है । इसीसे इस संग्रहनयके अनुसार यह कह सकते हैं; कि-यह संपूर्ण विश्व सत्स्वरूपसे एक है ॥ १२ ॥
अथ संग्रहनयभेदं दर्शयन्नाह । अब इस पूर्वोक्त संग्रहनयके भेदक व्यवहारनयको दर्शाते हुए कहते हैं ।
संग्रह भेदकव्यवहारोऽपि द्विविधः स्मृतः।
जीवाजीवौ यथा द्रव्यं जोवाः संसारिणः शिवाः ॥१३॥ भावार्थः-संग्रहनयका भेदक जो विषय है; उसका दर्शक व्यवहारनय है; वह भी दो प्रकारका है; अर्थात् पूर्ववत् सामान्यसंग्रहभेदक व्यवहार और विशेषसंग्रह भेदक व्ययहार इस भांतिसे व्यवहारके दो भेद हैं; क्रमसे दोनोंके उदाहरण यह हैं; किजैसे जीव और अजीव ये दोनों द्रव्य हैं । जोव दो प्रकारके हैं; संसारीजीव और मुक्तजीब इन भेदोंसे ॥ १३ ॥
व्याख्या । संग्रहस्य नयस्य यो भेदको विषयस्तस्य दर्शक: स व्यवहारनयः कथ्यते । व्यवह्रियते संग्रहविषयोऽनेनेति व्यवहारः । सोऽपि द्विविधः द्विप्रकारः स्मृतः कथितः । तस्यैव पूर्वोदितस्य संग्रहनयस्य भेदवदस्यापि भेदभावना कर्त्तव्या । यत ए: सामान्यसंग्रहभेदकयवहारः १ द्वितीयो विशेपसंग्रहभेदकव्यवहारः २ एवं भेदद्वयम् । अय तयोरुदाहरणे । तत्राद्यस्योदाहृतिर्यथा-जीवाजीवो द्रव्यम् । अत्र जीवस्य चेतनस्याजीवस्याचेतनस्य संग्रहसामान्यविषयत्वाद्रव्यभित्येकैव संज्ञा, कथं द्रवति तांस्तात्पर्यायान्गच्छतीति त्रिकालानुयायी यो वस्स्वंशस्तव्यमिति व्युत्पत्त्या स्वगुणपर्यायवत्वेनोभयोरपि जीवाजीवयोव्यपदं साधारणमित्यर्थाज्जीवद्रव्यमजीवद्रव्यमिति सामान्यसग्रहभेदकव्यवहारः ।।। अथ जीवा: संसारिणः सिद्धाश्चात्र जीवानामनन्तानां चैतन्यवतां समारित्वं सिद्धत्वं च विशेषव्यवहारोऽतो द्वितीयभेदो विशेषसंग्रहभेदकव्यवहार: ।२। एवमुत्तरोत्तरविवक्षया सामान्यविशेषत्वं मावनीयम् ॥ १३ ॥
___ व्याख्यार्थः-इस संग्रहनयका जो भेदक विषय है; उसके दर्शकको व्यवहारनय कहते हैं । संग्रहनयके विषयका व्यवहार जिसके द्वारा हो वह व्यवहारनय है, यह व्यवहार शब्दकी व्युत्पत्ती है । वह व्यवहारनय भी दो प्रकारका कहा गया है, तात्पर्य यह है; कि-उमी पूर्वकथित संग्रहनयके भेदके समान इसकी भी भेदभावना करना चाहिये क्योंकि-एक सामान्यसंग्रहनयका भेदक व्यवहारनय है। और द्वितीय विशेषसंग्रहका भेदक (विशेषसंग्रहके विषयको भिन्नरूपसे व्यवहार करनेवाला) व्यवहारनय है । इस प्रकार सामान्यसंग्रहभेदक व्यवहारनय तथा विशेषसंग्रहभेदक व्यवहारनय ये दो भेद
१ घट सत्, पट सत्, जीव सत्, है; तथा पुद्गल सत् है; इस प्रकारसे सत्की अनुवृत्ति सर्वत्र है । उस अनुवृत्तिरूप लिंग हेतुसे सत् सर्वत्र है। ऐसा ज्ञान होता है।
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