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श्रीमद्रराजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम्
रोधी अर्थात् परस्पर विरोधरहित हैं। क्योंकि - एक द्रव्यके सद्भावमें छहों द्रव्योंकी प्राप्ति होती है । यह प्रथम सामान्यसंग्रहका उदाहरण है । तथा जैसे संपूर्ण जीव अविरोधी हैं । और संसृतिविषयी ( संसारी ) तथा सिद्धिविषयी ( मुक्त ) जीव अनन्त हैं । और उनकी निरुक्ति (व्युत्पत्ति ) अर्थात् जीव शब्दका अर्थ यह है; कि जो चैतन्यसे जीता है; उसको जीव कहते हैं । अथवा जीव धातुका अर्थ है; प्राण धारण करना और वह प्राण द्रव्य तथा भाव भेदसे दो प्रकारके हैं । उनमें भी द्रव्यप्राण तो दश १० हैं; और भाव प्राण चार ४ हैं । और जब जीवके मोक्षकी प्राप्ति होती है; तब यद्यपि कर्मसे उत्पन्न होनेवाले जो दश १० द्रव्यप्राण हैं; उनका सर्वथा नाश हो जाता है; तथापि जीवके सहचारी जीवनरूप चारों ४ भावप्राण कर्मोंके अभाव में भी जीवके होते हैं; अर्थात् सिद्धोंके भी जीवत्व होनेसे भाव प्राण हैं; इसलिये जीव मुक्त तथा संसारी ऐसे दो प्रकार के हैं । फिर मुक्त जीवोंके भी पन्द्रह १५ भेद' हैं । और देव नारक तिर्यन और मनुष्य इन भेदोंसे संसारी भी ४ प्रकारके हैं। उनमें भी अन्तके दो भेदोंके अर्थात् तिर्यञ्च और मनुष्योंके पांच भेद हैं, उनमें भी मनुष्यका पञ्चेन्द्रियत्वरूप एक ही भेद है, तिर्यञ्च एकसे लेकर पांच तक हैं; अर्थात् इन्द्रियजनित भेदसे अर्थात् एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, और पञ्चेन्द्रिय इन भेदोंसे पांच प्रकारके होते हैं। इस रीति से यद्यपि जीव भेदसहित हैं; तथापि सब जीव अविरोधी हैं; अर्थात् जीवन धारण करनेमें किसी जीवका विरोध नहीं है। जीव द्रव्यविशेषका संग्रह करनेसे यह दूसरा भेद विशेष संग्रहनामक है । २ । अब संग्रहनयके स्वरूपका वर्णन करते हैं । सामान्यमात्रका ग्रहण करनेवाला जो ज्ञान सो संग्रह है; संपूर्ण विशेषोंसे जो रहित है; उसको सामान्यमात्र कहते हैं; और वह द्रव्यत्वआदिको ग्रहण करनेवाले स्वभावका धारक है। तथा सम् अर्थात् ऐकीभावसे पिण्डीभूत विशेष राशिको जो ग्रहण करे वह संग्रह है । तात्पर्य यह कि- स्वकीय जातिले जो दृष्ट तथा इष्ट हैं; उनके द्वारा संपूर्ण विशेषोंको जो एक ही रूपसे ग्रहण करे वह संग्रह है । अब इस संग्रहनयके भेदोंको दिखाते हैं । यह संग्रह दो विकल्पोंका धारक है । अर्थात् इसके दो भेद हैं । एक तो परसंग्रह और दूसरा अपरसंग्रह उनमें संपूर्ण विशेषों में उदासीन रहे और सत्तामात्रको शुद्ध द्रव्य माने ऐसा जो ज्ञान है; उसको परसंग्रह कहते हैं । आगे इसमें युक्त करने योग्य उदाहरण देते हैं । जैसे यह संसार सद्रूपसे एक है; अर्थात् सब संसार एक है, क्योंकि सब संसारमें सत्पना एक ही है; उसमें कोई विशेष नहीं । और "विश्व एक है सत् में विशेष न होनेसे" ऐसा न भी कहें तो भी सत्तारूप ज्ञान सब पदार्थ में है, उस सत्स्वरूप ज्ञान तथा सत् शब्दके कथन की
१ पन्द्रह कर्म भूमियों में उत्पन्न होके मुक्त होनेकी अपेक्षासे मुक्त जीवोंके पन्द्रह १५ भेद हैं ।
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