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________________ १२४ ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् नंगमव्यवहारमध्ये, योजयतां युष्माकं षडेव नया निष्पत्स्यन्त इत्येतादृशीं पक्षकर्तुं राशङ्कां स्फोटयितु श्लोकमाह । अब यदि विषयके भेदसे ही नयके भेदको अङ्गीकार करते हो तो सामान्य नैगमको संग्रहके मध्यमें और विशेष नैगमको व्यवहारनयके मध्यमें योजित करनेवाले तुम्हारे मतमें षट् ६ ही नय सिद्ध होते हैं; अर्थात् नैगमके सामान्य और विशेष यह दोनों भेद जब क्रमशः संग्रह तथा व्यवहार में अन्तर्भूत हो जायेंगे तब नैगमनयका अभाव हो जानेसे छ (६) ही नय रह जायेंगे इस प्रकार पक्षक की शंकाको दूर करनेकेलिये यह अग्रिम श्लोक कहते हैं। संग्रहाव्यवहाराच्च नैगमोऽपि पृथक्वचित् । तस्मादलग्नकस्ताभ्यां स एतौ तु पृथंग हि ॥१७॥ भावार्थः-संग्रह और व्यवहारनयसे तो नैगमनय कहीं भिन्न भी देखा जाता है; इस लिये संग्रह तथा व्यवहारसे असंलग्न विषयको धारण करनेवाला नैगम इन दोनोंसे पृथक् है; और द्रव्यार्थिक तथा पर्यायार्थिक यह दोनों सप्त नयसे सर्वथा कहीं भी भिन्नविषयक नहीं हैं ॥ १७॥ व्याख्या । संग्रहेति-यद्यपि संग्रहनये व्यवहारनये च नैगमनयस्य सामान्यविशेषपर्यायावन्तर्भवतस्तथापि संग्रहाद् ब्यवहाराच्च क्वचिस्प्रदेशादिदृष्टान्तस्थाने नंगमो मिन्नोऽपि भवति उक्त च-छण्हं तह पंचण्हं पंचविहं तहय होइ भयाणिज्जो। तम्मिय सोयण्णसो सोचेव पायेव सत्तण्हं । १ । इत्यादि । तस्मात् क्वापि भिन्नविषयत्वान्नैगमनयोऽपि ताम्यां मिन्नः प्रतिपादितः । तू पुनः एतौ द्वौ द्रव्याथिकपर्यायाथिको पृथक् भिन्नी स्थिती नैगमादिनयेभ्यो न हि संभवतः । अभिन्नविषयत्वात् तेभ्यो वियोज्य नवभेदादेशान्तर: किमु कथ्यत इति ॥ १७ ॥ ___ व्याख्यार्थः यद्यपि संग्रहनय तथा व्यवहारनयमें नैगमके सामान्य और विशेष यह दोनों पर्याय अन्तर्भूत हो जाते हैं; तथापि कहीं कहीं प्रदेशादि दृष्टान्त स्थानमें संग्रह तथा व्यवहार नयसे नैगम भिन्नविषयक भी होता है । ऐसा कहा भी है ॥ इस कारणसे कहीं भिन्न विषय होनेसे नैगमनयका भी उन दोनों संग्रह और व्यवहारनयोंसे भिन्न प्रतिपादन किया गया है। और यह द्रव्यार्थिक तथा पर्यायार्थिक तो नैगमसंग्रहआदि नयोंसे भिन्न विषयके धारक नहीं संभव होते क्योंकि-यह सप्त नयोंसे अभिन्न विषय हैं; अतः उन सातोंसे भिन्न करके सप्त नय भेदके स्थानमें नयोंके नो ९ भेद हैं; ऐसा भिन्न आदेश कैसे कहते हो ॥ १७ ॥ पुनरेनमर्थं प्रतिदिशन्नाह । अब पुनः इस अर्थका उपदेश करते हुए कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
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