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________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ १२५ कुर्वन्नवं समाप्नोति विभक्तस्य विभाजनम् । जीवादिवन्न चैवात्र प्रयोजननियोजनम् ॥ १८ ॥ भावार्थः-इस प्रकारसे विभाग किये हुये पदार्थका पुनः विभाग प्राप्त होता है; परन्तु यहां जीवआदिके सदृश विभागके प्रयोजनकी नियोजना नहीं है ।। १८ ॥ ___ व्याख्या। एवमनया रीत्या नव ९ नयान् कुर्वन् रचयन् विभक्तस्य विभागीकृतस्य विभाजनं विभागकरणं समाप्नोति । विभक्तानां विभागो जायत इत्यर्थः। तदा जीवादिवत् जीवा द्विधा संसारिणो मुक्ताश्च संसारिणः पृथिवीकयिकादिषड्भेदा:, सिद्धाः पञ्चदशभेदा एतद्वन्नया अपि द्विधा द्रव्याथिकपर्यायाथिकभेदा द्रव्यार्थिक स्त्रिधा नंगमादिभेदात्, ऋजुसूत्रादिभेदाच्चतुर्धा पर्यायार्थिकाः इत्थं कथयितु युक्त परन्तु नव नया इत्येकवाक्यतायां विभागो विहितः स तु सर्वथापि मिथ्या ज्ञातव्यः । अन्यथा तु जीवाः संसारिणः सिद्धा इत्यादि विभागवाक्यमपि भवितुमर्हति । तथैव द्रव्याथिकपर्यायाथिको नयावित्यपि कथयतां अन्ये नया आगताः स्युस्तथापि वयं स्वप्रक्रियानयेन नव नया इति कथयिष्यामः इतीत्थं वा दिनामेवं प्रतीपादनीयम यथा-अत्र प्रयोजननियोजनं जीवां जीवादिवन्नास्ति भिन्नानि भिन्नानि तत्त्वानि व्यवहारमाशेण साध्यानि तानि च तथैव सभवन्ति अत्र वितरव्यावृत्तिसाध्यानि तत्र च हेतुकोटिना अनपेक्षितभेदप्रवेशेन वैयर्थ्यदोषो जायते तत्त्वप्रक्रियया इदं प्रयोजनमस्ति जीवस्तथा अजीवश्च ती द्वौ मुख्यौ यो पदाथौँ कथनीयौ बन्धमोक्षी मुख्यतया हेयोपादेयौ च कथनीयौ तस्माद्वन्धकारणतः हेय आस्त्रवः, तथा मोक्षो मुख्यपदार्थोऽस्ति । ततस्तस्य च द्वे कारणे संवरनिर्जराख्ये कथनीये इति सप्ततत्त्वकथनप्रयोजनप्रक्रिया । पुण्यपापरूपशुभाशुभबन्धभेदव्यक्ति दुरे कृत्वा अनयव प्रक्रियया नवतत्त्वानीति ध्येयम् । अत्र तू द्रव्याथिकनयेन मिन्नोपदेशस्य किमपि प्रयोजनं नास्तीति ॥ १८ ॥ व्याख्यार्थ:-इस पूर्वोक्त रीतिसे नव ९ नयोंकी रचना करते हुये आपको विभक्त अर्थात् एक वार विभाग कियेहुये पदार्थोंका पुनः विभाग करना प्राप्त होता है; तब जीवादिके सदृश अर्थात् जैसे प्रथम द्रव्य के जीव तथा अजीव इस प्रकार दो विभाग करके पुनः जीवके संसारी और मुक्त ऐसे दो भेद किये और फिर संसारी पृथिवीकायिक आदि छ भेदके धारक तथा सिद्ध पन्दरह भेदवाले द्योतित किये इसी प्रकारसे यह भी द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक भेदसे दो प्रकारके हैं; उनमें नैगमआदि भेदोंसे द्रव्यार्थिक तीन प्रकारका है; और ऋजुसूत्र आदि भेदोंसे चार प्रकारका पर्यायार्थिक है; ऐसा कहना योग्य है; परन्तु नय नव हैं; इस प्रकार जो एकवाक्यतामें विभाग किया है; वह विभाग तो सर्वथा मिथ्या जानना चाहिये । और यदि ऐसा ही विभाग करो तब तो जीव, संसारी सिद्ध इत्यादि रीतिसे भी विभागवाक्य हो सकता है; अर्थात् जैसे द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिकके भेदोंमें द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिकको मिलाकर नव नयोंका कथन किया इसी प्रकार जीवके संसारी और मुक्त इन दोनों भेदोंमें जीवको भी योजित करके जीव, संसारी, सिद्ध ऐसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
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