________________
१२६ ]
श्रीमद्राजचन्द्रजैनशाखमालायाम् तीन भेद कहने चाहिये "जैसे जीव और अजीवके कहनेसे आखवआदि तत्त्वोंका ग्रहण सिद्ध है; वैसे ही द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक इन दोनोंके कथनसे अन्य नैगमादि सब नयोंका ग्रहण हो जावे परन्तु तो भी जैसे आखवआदिक भिन्न कहे हैं; उसी प्रकार हम हमारी नय प्रक्रियासे नय नव ९ हैं ऐसा कहेंगे” इस प्रकार कहनेवालोंके प्रति ऐसा कहना चाहिये कि-यहांपर जीव अजीवआदिके समान तुम्हारे प्रयोजनकी नियोजना नहीं है; क्योंकि-व्यवहारमात्रसे भिन्न २ तत्त्व साध्य होते हैं; और जो आश्रवादिक भिन्न तत्त्व कहे गये हैं; वह भी व्यवहारमात्रसे ही कहे हैं; और नयके विषयमें तो एक नयसे दूसरेका किसी प्रकार भेद सिद्ध हो तब भिन्न नयकी सिद्धि हो उसमें यदि हेतुकोटिसे अनपेक्षित भेदका प्रवेश हो तो वैयर्थ्य दोष होता है; तात्पर्य यह कि-जिस भेदमें प्रबल हेतु न दिया जाय तो वह भेद व्यर्थ ही है; और तत्त्वप्रक्रियामें जो जीव, अजीव इन दोनोंमें ही सब तत्त्वोंके गतार्थ होनेपर जो सप्त तत्त्व निरूपण किये हैं; उनमें तो यह निम्नलिखित प्रयोजन है; कि-जीव और अजीव यह दो ही मुख्य द्रव्य हैं; अर्थात् इन्ही दोनोंको मुख्य पदार्थ कहना तथा समझना चाहिये और बन्धको हेय (त्याग करने योग्य ) तथा मोक्षको उपादेय (ग्रहण करने योग्य) रूपसे कहना चाहिये और आश्रव है; सो बन्धका कारण है; इसलिये आश्रवको भी हेयरूपसे कहना चाहिये और मोक्ष मुख्य पदार्थ है; क्योंकिउसीकेलिये सब पदार्थोंका निरूपण है; और वही उपादेय है; इस कारण उस मोक्षके संबर और निर्जरा इन दोनों कारणोंका कथन करना चाहिये इस रीतिसे जीव अजीव आश्रव बंध संवर निर्जरा और मोक्ष इन सप्ततत्त्वोंके कथनकी प्रयोजनवाली प्रक्रिया है; और इसी प्रक्रियासे शुभ अशुभ बंधके कारण पुण्य पापको भी भिन्न करके कहनेसे नव तत्त्व हो जाते हैं। ऐसा समझना चाहिये । और यहाँ द्रव्यार्थिक तथा पर्यायार्थिक नयसे नैगमआदिको भिन्न उपदेश करनेका कोई भी प्रयोजन नहीं है ।। १८ ।।
अभिन्नकारणाः सूत्रो नयाः सप्त व कोत्तिताः ।
उच्यते तत्कथं वाक्यमधिकं सूत्रज्जितम् ॥ १६ ॥ भावार्थः-सूत्रमें अभिन्नकारण सात ही नय दर्शाये गये हैं; इसलिये तुम सूत्रवर्जित अधिक वाक्य कैसे कहते हो ॥ १९ ।।।
व्याख्या । तस्मात्कारणात्सूशे नया अभिन्न कारणाः सप्त व कथिताः तद्यथ सूत्रम् “सप्तमूल नया पणत्ता" एतादृशसूत्रे कथितमस्ति तद्वाक्यं सूत्रसदृशमुल्लङ्घयाधिकं नव नया इति वाक्यं कथमुच्यते स्वसूत्रपरिरक्षणार्थ यथोक्तमेव न्याय्यम् । इत्थं परिचित्य केषांचिद्वाक्यसङ्कलनामनादृत्य श्रीवीतरागमाषितवचनरचनापवित्रे सूत्र बुद्धिरारोपणीया स्वसम्यक्त्वशुद्धिसंसिद्धिवृद्धये ॥ १६॥
व्याख्यार्थः-इस कारण भिन्नकारणशून्य सात ही नय सूत्रमें कहे गये हैं; वह
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org