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द्रव्यानुयोगतर्कणा
[ १११ अथाष्टमाध्यायं विवृणोति । अब अष्टम अध्यायका विवरण करते हैं।
निश्चयव्यवहारौ हि द्वौ च मूलनयौ स्मृतौ ।
निश्चयो द्विविधस्तत्र शुद्धाशुद्धविभेदतः ॥ १॥ भावार्थ:-निश्चय तथा व्यवहार यह दो ही मूल नय हैं, इनमें शुद्ध अशुद्धके भेदसे निश्चयनय दो प्रकारका है, अर्थात् शुद्धनिश्चयनय, और अशुद्धनिश्चयनय, यह निश्चयनयके दो भेद हैं ॥ १ ॥
व्याख्या। हि निश्रितमध्यात्मभाषायां मूलनयो द्वौ स्मृतौ तौ च निश्चयव्यवहारौ निश्चिनोति तत्त्वमिति निश्चय: १ व्यवहियत इति व्यवहार: २ तत्रापि निश्चयनामा द्विविधो द्विप्रकारः। एकः शुद्धनिश्चयनयः, द्वितीयोऽशुद्धनिश्चयनयः । एवं द्विप्रकारो शेयः ॥ १ ॥
व्याख्यार्थः-सूत्रमें जो 'हि' शब्द है; उसका अर्थ निश्चय है, इसलिये निश्चय रूपसे अध्यात्मभाषाके अनुसार मूलभूत नय निश्चय तथा व्यवहार यह दो ही हैं । इनमें तत्वका जो निश्चय करै उसको निश्चय कहते हैं, तथा जो व्यवहार कियाजाय वह व्यवहारनय है, उनमें भी निश्चयनामक नय दो प्रकारका है; एक तो शुद्धनिश्चयनय है; और दूसरा अशुद्ध निश्चयनय दो प्रकारका है ॥१॥
यथा केवलज्ञानादिरूपो जीवोऽनुपाधिकः ।
शुद्धो मत्यादिकस्त्वात्माशुद्धः सोपाधिकः स्मृतः ॥२॥ भावार्थः-जैसे उपाधिरहित जीव केवलज्ञानआदिरूप है, यह शुद्धनिश्चय नय है, और उपाधिसहित जीव मतिज्ञानअदिरूप है; यह अशुद्धनिश्चयनय है ॥२॥
व्याख्या। यथा हि केवलज्ञानादिरूपो जीवोऽनुपाधिक उपाधिः कर्मजन्यस्तेन विहीनोऽनुपाधिकः शुद्ध इति शुद्धनिश्चयभेदेन प्रथमः । अय हि केवलज्ञानमासाद्य शुद्धगुणमयात्मकरूपेण जीवस्याभेदो दर्शितः । तथा च मतिज्ञानादिक आत्मा अशुद्धनिश्चयभेदेन द्वितीयः । अत्र ह्यात्मनः सोपाधिकस्यावरणक्षयजनितज्ञानविकल्पेनात्मा मतिज्ञानी अशुद्ध उपलक्ष्यते सोपाधिकत्वात् केवलज्ञानाख्यो गुणः शुद्धगुणस्तदुपेत आत्मापि शुद्धस्तन्नामनयोदयाच्छुद्धनिश्चयनयः । मतिज्ञानादिगुणोऽशुद्धस्तदुपेत आत्माप्यशुद्धस्तदाख्यया नयोऽप्यशुद्धः निश्चयशब्द आत्ममात्रपरः, शुद्धशब्दः कर्मावरणविशिष्टः । आवरणक्षये शुद्धः सति तस्मिन्नशुद्धः ॥ २॥
व्याख्यार्थः-जैसे केवलज्ञानादिरूप अर्थात् केवलज्ञानमय जीव अनुपाधिक है, अर्थात् कर्मोंसे उत्पन्न हुई जो उपाधि है उससे रहित है; भावार्थ शुद्ध है। यह शुद्ध निश्चयके भेदसे प्रथम भेद दर्शाया गया है। और मतिज्ञान आदिक आत्मा है, यह
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