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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् अशुद्धनिश्चयके भेदसे द्वितीय नय है। इस भेदमें उपाधिसहित आत्माके मतिज्ञानावरणीय कर्मके क्षयसे उत्पन्न जो ज्ञान है; उसके भेदसे आत्मा मति ज्ञानी है; अर्थात् मतिज्ञान जीव है; ऐसे अशुद्ध उपलक्षित होता है; क्योंकि-वह मतिज्ञान सोपाधिक है, अर्थात् कर्मजन्य है। भावार्थ-केवलज्ञाननामक जो गुण है; वह शुद्ध गुण है, इसलिये उस शुद्ध गुणसे युक्त आत्मा भी शुद्ध है; और शुद्धनामक नयके उदयसे शुद्ध निश्चय नय है। मतिज्ञानआदि जो गुण है; वह अशुद्ध गुण है, इस कारण उस अशुद्ध गुणसे युक्त आत्मा भी अशुद्ध है; और उस नामसे नय भी अशुद्ध निश्चय है। निश्चय शब्द आत्मामात्रमें तत्पर है; और शुद्ध शब्द कर्म के आवरणविशिष्ट है; अर्थात् कर्मके आवरणका क्षय होनेपर शुद्ध है; और उस आवरणकी विद्यमानतामें अशुद्ध है; यह शुद्ध और अशुद्ध शब्दका विवेचन हुआ और शुद्ध अशुद्ध इन दोनोंके साथ निश्चय शब्द इसलिये लगा है; कि-केवलज्ञान भी आत्माका गुण है; ओर मतिज्ञान भी आत्माहीका गुण है; इस कारण शुद्ध भी निश्चयनय है; और उपाधिकी सत्तासे अशुद्ध भी निश्चयनय है ॥२॥
अथ व्यवहारस्य भेदं दर्शयति । अथ व्यवहारनयके भेदको दर्शाते हैं।
सद्भूतश्चाप्यसद्भूतो व्यवहारो द्विधा भवेत् ।
तौकविषयस्त्वाद्यः परः परगतो मतः ॥३॥ भावार्थ:-सद्भूत और असद्भूत इन दो भेदोंसे व्यवहार भो दो प्रकारका होता है; अर्थात् एक सद्भूतव्यवहारनय और दूसरा असद्भूतव्यवहारनय । उन में प्रथम तो एक द्रव्यके आश्रित सद्भूतव्यवहार है; और दूसरा असद्भूतव्यवहार परद्रयाश्रित है ॥३॥
___ व्याख्या। व्यवहारोऽपि सद्भूतः पुनरसद्भूत इति भेदाम्यां द्विधा द्विप्रकारः । तत्र आद्यः प्रथम एकविषय एकद्रव्याश्रितः सद्भूतव्यवहारः । अपरः परविषयः परद्रव्याश्रितः सद्भूत व्यवहार इति ॥ ३ ॥
व्याख्यार्थः-व्यवहारनय भी नियञ्चयके सदृश सद्भूत तथा असद्भूत इन दोनों भेदोंसे दो प्रकारका है। उनमें प्रथम सद्भूतव्यवहार तो एक द्रव्यविषयक है, अर्थात् एक द्रव्यके आश्रयसे रहता है। और द्वितीय असद्भूतव्यवहार परद्रव्यके आश्रयसे रहता है ।।३॥
उपचरितसद्भूतानुपचरितभेदतः । आद्यो द्विधा च सोपाधिगुणगुणिनिदर्शनात् ॥४॥
त्रिष्वपि पुस्तकेष्वयमेव पाठो विद्यते परन्त्वस्य स्थाने "असदभूतव्यवहारः" इति पाठ: सम्यगाभाति ।
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