SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 134
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ ११३ भावार्थ:-उपचरितसद्भत और अनुपचरितसद्भत इन दोनों मेदोंका कारण प्रथम जो सद्भूतव्यवहार है; वह भी दो प्रकारका है; उनमें सोपाधिक गुण गुणीके भेदसे प्रथम भेद होता है ॥४॥ व्याख्या । उपचरितसद्भूतभेदेनानुपचरितसद्भूतभेदेन चाद्य एकद्रव्याश्रितसद्भूतव्यवहारो द्विधा द्विप्रकारः । तत्र च सोपाधिकगुणगुणिभेदात्प्रथमो भेदो भवति ॥४॥ ___ व्याख्यार्थः-उपचरितसद्भूतभेदसे तथा अनुपचरितसद्भूतभेदसे आदि जो एक द्रव्यके आश्रित सद्भूतव्यवहार है; वह दो प्रकारका है, उनमेंसे उपाधिसहित गुण और गुणीके भेदसे प्रथम भेद अर्थात् उपचरितसद्भूतव्यवहारनय होता है ॥ ४ ॥ यथोपचारतो लोके जीवस्य मतिरुच्यते । अनुपचरितसद्भूतोऽनुपाधिगुणतद्वतोः ॥५॥ भावार्थ:-जैसे लोकमें उपचारसे यह कहा जाता है; कि-जीवका मतिज्ञान है । और अनुपचरितसद्भूत व्यवहार वह है; जो उपाधिरहित गुण गुणीको प्रदर्शन करे ॥ ५॥ व्याख्या । यथा जीवस्य मतिज्ञानम् । अत्र हि मतिरुपाधि: कर्मावरणकलुषितात्मनः सकलज्ञानत्वेन ज्ञानमिति कल्पनं सोपाधिकमुपचारतो जातमिदम् । अथ द्वितीयभेदमाह । उपाधिरहितेन गुणेनानुपाषिक आत्मा यदा संपद्यते तदनुपाधिकगुणगुणिनोर्मेंदाद् मिन्नोऽनुपचरितसद्भूतोऽपि द्वितीयो भेदाः समुत्पद्यत इति ॥५॥ ___ व्याख्यार्थः-उपचरितसद्भूतका उदाहरण-जैसे जीवका मतिज्ञान इत्यादि लोकमें व्यवहार होता है; इस व्यवहारमें उपाधिरूप कर्मके आवरणसे कलुषित आत्माका मलसहित ज्ञान होनेसे जीवका मतिज्ञान यह उपाधिसहित कल्पना उपचारसे हुई है, इसलिये सोपाधिक होनेसे यह उपचरित सद्भूतव्यवहारनामक प्रथम भेद है । अब द्वितीय भेदको कहते हैं । उपाधिरहित गुणके साथ उपाधिशून्य आत्मा जब संपन्न होता है; तब अनुपाधिक (उपाधिसे वर्जित) गुण गुणीके भेदसे भिन्न (भेदको प्राप्त हुआ) अनुपचरितसद्भूतनामक व्यवहारनयका दूसरा भेद भी सिद्ध होता है ॥५॥ अथास्योदाहरणमाह । अब इस अनुपचरितसद्भूतव्यवहारका उदाहरण कहते हैं । केवलादिगुणोपेतो गुण्यात्मा निरुपाधिकः। असद्भूतव्यवहारो द्विधैवं परिकीत्तितः ॥६॥ भावार्थः-केवलज्ञानआदिगुणसहित गुणी आत्मा उपाधिरहित है । और असद्भूतव्यवहार भी पूर्वोक्त सद्भूतव्यवहारकी भांति दो प्रकारका कहा गया है ॥६॥ व्याख्या । केवलादिगुणोपेतः केवलज्ञानसहितः कर्मक्षयाविभूतप्रभूतानुभवमावात्मको जीवो निरुपाधिकगुणोपेतो निरुपाधिकं गुणी भवति । आत्मा हि संसारावस्थायामष्टकर्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy